बहुत रोई आभा


बांयें से -श्रीमती द्विवेदी, श्रीमती सुमित्रा रावल, चि. समन्वय, चि. आभा, धर्मेन्द्र रावल, श्री द्विवेदी।

सात मई की सुबह इन्दौर पहुँचा तो मालूम हुआ - ‘कल रात आभा बहुत रोई।’


आभा, इसी सात मई को हमारे कुटुम्ब में ‘गृह लक्ष्मी’ बनकर आई है-मेरे मित्र धर्मेन्द्र रावल के बेटे समन्वय की जीवन संगिनी बन कर। (धर्मेन्द्र का उल्लेख मेरी बापू कथा में मेरी कथा‘ पोस्ट में आया है।) पाणिग्रहण संस्कार सात मई की रात को था। उससे पहले वाली शाम (शाम तो कहने भर को है, वास्तव में वह रात ही थी) को ‘महिला संगीत’ आयोजित था। पहुँचना तो मुझे भी था उस आयोजन में किन्तु ‘ग्राहक सेवा’ के नाम पर मुझे अपने कई बीमा धारकों के निजी और पारिवारिक आयोजनों में भागीदार बनना होता है। इसी कारण 6 मई की शाम मैं इन्दौर नहीं पहुँच पाया। यह अनुपस्थिति मुझे आजीवन सालती रहेगी।




सो, सात मई को जब विवाह आयोजन स्थल पहुँचा तो उलाहनों और कटाक्षों के कोलाहल के बीच मुझे, आभा के रोने का समाचार भी मिला। आभा का यह रोना इसलिए समाचार बना क्योंकि उसकी विधिवत विदाई तो (उसके रोने के) चैबीस घण्टों से भी अधिक समय बाद होने वाली थी।

जैसा कि इन दिनों चलन हो गया है, बेटे की बारात लेकर तो अब कोई अपवादस्वरूप ही जाता है। लड़की वालों को अपने यहाँ बुलाने का चलन हो गया है। फिर, बारात यदि इन्दौर से इलाहाबाद ले जाने की हो तो ‘अण्टी में भरपूर जोर’ रखने वाला भी ‘टें’ बोल जाए। सो, धर्मेन्द और सुमित्रा भाभी ने अपने समधी-समधन श्री जयप्रकाशजी द्विवेदी और श्रीमती विजया लक्ष्मी द्विवेदी से अनुरोध किया कि वे आभा और अपने कुटुम्बियों को लेकर इन्दौर आने की कृपा कर लें। एक तो ‘बेटी का बाप’ उस पर इतनी विनम्रता से अनुरोध! द्विवेदीजी को तो हाँ करनी ही थी। सो, बेटी को लेकर माता-पिता इन्दौर आ गए। और जैसा कि चलन हो गया है, ऐसे अवसरों पर ‘महिला संगीत’ भी दोनों पक्षों का एक ही मंच पर आयोजित हो जाता है।

समन्वय के विवाह की सुरसुरी चल ही रही थी कि मुझे एक मित्र द्वारा भेजी गई ‘सप्त पदी’ का एक आलेख मिला जो मेरे मित्र के समधी पक्ष ने, अपनी बहू (याने, मेरे मित्र की बेटी) के लिए तैयार किया था। उसकी एक फोटो प्रति मैंने धर्मेन्द्र को भेज दी। एक पखवाड़े बाद धर्मेन्द्र का फोन आया। कह रहा था कि मेरी भेजी सप्त पदी से पहले ही उसे उसकी एक प्रति मिल चुकी थी। इस सूचना के बाद धर्मेन्द्र ने कहा - ‘अपने आयोजन के लिए इसे अब तुम ही तैयार करके कल ही मुझे भेज दो।’ मैं इसके लिए बिलकुल ही तैयार नहीं था। किन्तु यह काम पाकर मुझे अच्छा लगा। मैंने अपने हिसाब से उसे परिवर्तित/परिवर्धित कर धर्मेन्द्र को भेज दी। धर्मेन्द्र ने प्राप्ति सूचना देते हुए बताया कि पूरे कुटुम्ब ने मेरे आलेख को जस का तस स्वीकार कर लिया है।

यही सप्त पदी, महिला संगीत वाले आयोजन में पढ़ी गई थी। मुझे बताया गया कि इसे धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी के स्वरों मे प्रस्तुत किया जाना था। किन्तु जैसे-जैसे दिन पास आता गया वैसे-वैसे काफी कुछ बदल गया। सुमित्रा भाभी ने साफ मना कर दिया। और धर्मेन्द्र? उसने सप्त पदी को पाँच-सात पढ़ा और भर्राए गले से घोषणा कर दी कि उससे भी इसका वाचन नहीं हो पाएगा। बाद में इसे, समन्वय के मित्रों ने ‘आडियो-वीडियो इफेक्ट’ के रूप में बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया।

सप्त पदी का वाचन प्रारम्भ होने से पहले आभा को मंच पर बुलाया गया। सप्त पदी की भूमिका प्रस्तुत करने के बाद सप्त पदी जब वातावरण में गूँजने लगी तो उसमें आभा की सिसकियाँ भी घुलने लगीं। सप्त पदी वाचन समाप्त होते-होते तो आभा मानो बिखर गई। सिसकियाँ हिचकियों में और हिचकियाँ रुलाई में बदल गईं। मित्रों ने बताया-लेकिन यह दशा केवल आभा की नहीं थी। आयोजन प्रांगण में उपस्थित लगभग हर कण्ठ अवरुद्ध और प्रत्येक आँख सजल थी।

यह सप्त पदी वस्तुतः ‘रावल परिवार’ की ओर से आभा के लिए आश्वस्ति का प्रकटीकरण था जिससे सबका कोई लेना-देना नहीं था। धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी को यह सब आभा से कहना था। किसी चैथे व्यक्ति का कोई लेना-देना नहीं था। किन्तु धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी ने अपनी भावनाएँ सार्वजनिक कर मानो अपने आश्वासनों पर सबकी गवाही के हस्ताक्षर करवा कर खुद को बाँध लिया। एक तो सप्त पदी में कही बातें और उनका इस प्रकार सार्वजनिक वाचन! कोई पाषाण हृदय ही बहे बिना रह सकता था। फिर, आभा तो एक लड़की! भावनाओं और सम्वेदनाओं का सरोवर! सो, वह तो पहले ही पल द्रवित हो गई और नैहर से ससुराल के लिए विदा होने के चैबीस घण्टे से भी अधिक समय पहले ही बिलख पड़ी।




आभा को तो आप पोस्ट के शुरु में ही, चित्र में देख चुके हैं। रही बात सप्त पदी की! सो यह रही सप्त पदी -



(1)
निस्सन्देह,

नया लग रहा होगा

यह सब कुछ तुम्हें,
किन्तु विश्वास करो,

आभा!

खुद ईश्वर ने ही रचा है यह सब

केवल तुम्हारे लिए ही।

‘गृहस्थ जीवन यात्रा’ के

सनातन क्रम को निरन्तर करने,

सम्पूर्ण निश्चिन्तता से

पहला पग रखो इस घर में।
अपने अन्तर्मन से स्वागत करते हुए,

हम सब साथ हैं तुम्हारे।

(2)
केवल ‘स्त्री’ को ही दिया

ईश्वर ने,

यह सुख, सौभाग्य, अधिकार,

अभिन्न में बदल दे

दो भिन्न परिवार।

ईश्वर प्रदत्त इस गर्व सहित,

आभा!

दूसरा पग धरो।

दोनों परिवारों में

अपनत्व के रंग भरो।


(3)
ईश्वर की अनुपम कृति ‘स्त्री’

होती नहीं एक व्यक्ति मात्र।

होती वह सर्वरूपा।

दुर्गा, सरस्वती, अन्नपूर्णा,

धन्वन्तरी, शारदा बन

करती वह रक्षा, शिक्षा, भरण-पोषण।

वही सर्वरूपा बन

आभा!

तीसरा पग धरो,

गृहस्थी धन्य करो।


(4)
द्विवेदी सन्तान बन रही

वंश वाहिका रावल की,

दो कुटुम्बों को जोड़ रही,

तुतलाती आभा कल की।


दोनों परिवारों का

सार्थक, सफल सेतु बनो।

आभा!

अपना चौथा पग धरो।


(5)
भली प्रकार जानते हैं हम,

याद आएँगे पल-पल तुम्हें

माँ विजयालक्ष्मी और

पिता जयप्रकाश।

अभी-अभी ही हमने

अपनी बेटी जो बिदा की है!

यह कृपा ही है ईश्वर की

हम पर कि

बेटी की किलकारियों से सूने

हमारे आँगन में

कुंकुम-पाँव चल कर तुम आ रही हो।

हमें लग रहा है,

वही किलकारियाँ, वही चहचहाहट

अपने साथ ला रही हो।

तुम्हें याद भी न आएँ

तुम्हारे जन्म-दाता,

यही कोशिश रहेगी हमारी।

हमारी इस कोशिश को

अपने विश्वास से प्रगाढ़ करो,

बेटी आभा!
अपना पाँचवाँ पग धरो।

(6)
आभा!

केवल नाम नहीं यह तुम्हारा।

सचमुच आभा हो तुम अब

इस कुटुम्ब की।

जगर-मगर, उजियारा भरा होगा

यह कुटुम्ब अब तुमसे।

जैसे कि,

दिनकर से होता है जग प्रकाशमय।

ऊर्जा-प्रकाश का पर्याय बन,

आभा!

अपना छठवाँ पग रखो।


(7)
मधुर सम्बन्धों का अजस्र स्रोत बन,

सबमें निभना, सबको निभाना,

सहर्ष, सहस्र आशीष हमारा,

आजीवन सुखी रहना।

कल तक गुड्डी-गुड्डों से खेल रही,

द्विवेदीजी की बिटिया

आभा!

आज हो गई इतनी बड़ी

कि हो गई रावल परिवार की बहू।

समन्वय है अब

तेरे जीवन का प्रज्वलित दीपक,

और तू है उसकी स्निग्ध, सुन्दर, सरल बाती।

गृहस्थी की आपाधापी में

रहना हमेशा, हँसती, खेलती, मस्त।

सहजता, सुगमता बनी रहें तेरी सहचरियाँ,

आए न कभी, कोई बाधा,

इन्हीं अनन्त शुभ-कामनाओं के बीच

सातवाँ पग रखो आभा।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

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तो, यह है अपना वास्तविक राष्ट्रीय चरित्र

राष्ट्र और धार्मिक आस्थाओं की बलिवेदी पर अपने प्राण न्यौछावर कर देने की हमारी दम्भोक्तियों की पोल खुल गई है। प्रथमतः तो हमने ऐसी दुहाइयाँ देनी ही नहीं चाहिए (राष्ट्र और धर्म पर प्राण न्यौछावर करने की अपनी मंशा भी भला कोई गर्वोक्ति का विषय है? यह तो हमारा न्यूनतम कर्तव्य है) किन्तु हम देते रहे हैं। चलिए, कोई बात नहीं। बहुत हो गया। यह ठीक समय है कि हम अपनी इस निर्लज्ज मूर्खता का सार्वजनिक घोष अब अविलम्ब बन्द दें।


मैं बार-बार और बराबर कहता रहा हूँ कि हमारे राष्ट्रीय चरित्र की वास्तविक पहचान तो सदैव ही शान्ति काल में होती है। युध्द काल में तो हर कोई न केवल देश भक्त होता है बल्कि उसे होना ही पड़ता है। आज देश में युध्द काल नहीं है और इसीलिए हमारे राष्ट्रीय चरित्र की वास्तविकता, निर्लज्जता की सड़ांध के साथ सड़कों पर बह रही है।


यह बताने वाली बात नहीं है कि अवर्षा, कम पैदावार, सरकार के निकम्मेपन और राजनीतिक स्वार्थ सिध्दि के चलते पूरा देश शकर और दालों के अभाव से जूझ रहा है। देश के 80 प्रतिशत लोग तो आज भी 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर जीवन यापन कर रहे हैं। किन्तु, जो मध्यम वर्ग, येन-केन-प्रकारेण अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा है, उसके लिए भी इन दोनों चीजों को अपने रसोई घर में बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती हो गया है। होना तो यह चाहिए कि ऐसे समय में हम अपनी आवश्यकताओं को कम करें किन्तु घर से बाहर बनाई हुई अपनी हैसियत की रक्षा की चिन्ता और ‘लोग क्या कहेंगे’ जैसे जुमले हमें अनुशासित नहीं रहने देते। सो, औसत मध्यमवर्गीय परिवार के लिए तो यह स्थिति किसी ‘राष्ट्रीय आपदा’ से कम नहीं है।


ऐसे में सबसे पहले और सबसे बड़ी उम्मीद सरकार से ही होती है। किन्तु सारा देश देख रहा है कि सरकार के मन्त्री अपनी लाचारी सार्वजनिक करने में जुट गए हैं। ऐसे में, खुद समाज की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। आपात स्थितियों में तो लोग अपने, अनाज के कोठार खोल देते हैं। बेशक, स्थिति अकाल की नहीं है किन्तु सामान्य भी नहीं है। असामान्य स्थितियों में हमारा सार्वजनिक आचरण उदार और परस्पर चिन्ता लिए हुए होना चाहिए। किन्तु वास्तविकता इसके ठीक विपरीत उजागर हो रही है।


सारे देश की बात छोड़ दें, केवल मध्य प्रदेश में ही करोड़ों रुपयों की लाखों क्विण्टल शकर और दाल का अवैध संग्रह बरामद किया गया है। याने, एक ओर लोग इन चीजों को तरस रहे हैं और दूसरी ओर भाई लोग, नियमों, नैतिकता, धार्मिक उपदेशों को ताक पर रखकर मुनाफे की जुगत में आपराधिक ही नहीं, असामाजिक, अमानवीय और ईश्वर के प्रति अपराध तक कर रहे हैं। बड़ी ही आसानी से कह दिया जाएगा कि यह तो व्यापार का हिस्सा है और व्यापार का अन्तिम तथा एकमेव लक्ष्य मुनाफा होता है। सो, यदि मुनाफे के लिए यह सब किया गया तो इसमें गैर वाजिब क्या? किन्तु ऐसा कहना ‘गुनाह बेलज्जत’ के सिवाय और कुछ भी नहीं है। बेशक, व्यापार मुनाफे के लिए ही किया जाता है किन्तु व्यापार का भी अपना धर्म होता है। उसमें जायज और नाजायज जैसे तत्व काम करते हैं। व्यापारिक बुध्दि सदैव ही मुनाफे के लिए पे्ररित करते हुए मनुष्य को लालची बनाती है। यही वह क्षण और स्थिति होती है जब हमारा राष्ट्रीय चरित्र सामने आता है। किन्तु राष्ट्रीय चरित्र तो हमारे लिए केवल समारोहों में, बढ़ चढ़ कर प्रदर्शित करने की वस्तु है, आचरण की नहीं।


अवैध संग्रह के जितने मामले सामने आए हैं उनकी विस्तृत नहीं, सामान्य जानकारियाँ ही बता देंगी कि इनमें लिप्त लोग किसी न किसी राजनीतिक दल से, किसी इन किसी धर्म से, किसी न किसी सामाजिक संगठन से जुड़े होंगे और राष्ट्र पे्रम तथा धर्म की दुहाइयाँ देने में पीछे नहीं रहते होंगे। किन्तु, चूँकि हमारे समाज में ‘होने’ के बजाय ‘दिखना’ अधिक आवश्यक है इसीलिए लालच के मारे और लालच से अन्धे हुए इनमें से एक को भी, लोगों के कष्टों की बात तो छोड़िए, न तो राष्ट्र याद आया और न ही धर्म।


यहाँ मुझे रामचरित मानस की एक चैपाई याद आ रही है -

पर हित सरिस, धरम नहीं भाई।

पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।।


शकर-दाल के अवैध संग्रहियों को तो कोई ‘पर हित’ भी करना था। वे अपना वाजिब मुनाफा लेकर व्यापार करते। ऐसा कर वे ‘पर पीड़ा’ के अधर्म से बच ही सकते थे। पर ‘वाजिब’ से हमारा काम नहीं चलता। हमारी बुध्दि तो हमें ‘गैर वाजिब’ की ओर धकेलती है। जिन क्षणों और स्थितियों में हमें विवेकवान बनना चाहिए, हम केवल लालची बन कर सामने आते हैं।


सो, हम राष्ट्र और धर्म के लिए प्राण न्यौछावर करने की दम्भोक्तियाँ भले ही करते रहें किन्तु वह सब हमारा दोगलापन, पाखण्ड और आत्म-वंचना है।


यही है हमारा वास्तविक राष्ट्रीय चरित्र।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

भारतीय लोकतन्त्र पर 'संघ' की अकृपा

भाजपा से जसवन्तसिंह के निष्कासन पर केन्द्रित समाचारों और विश्लेषणों के घटाटोप ने मुझे तनिक परेशान किए रखा। वास्तविकता की बारीक किन्तु तीखी किरण सबको नजर तो आती रही किन्तु उस पर उस पर यथेष्ठ चर्चा बहुत ही कम हुई। शायद इसलिए कि उसमें नया कुछ भी नहीं था।


मैं बार-बार और बराबर अपने इस विश्वास को दुहराता रहा हूँ भारतीय लोकतन्त्र को स्वस्थ बनाए रखने के लिए ‘सुदृढ़ भाजपा’ आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य है। कांगे्रस के बाद भाजपा ही सर्वाधिक व्यापकता वाली पार्टी है। किन्तु इसका ‘संघ’ का आनुषंगिक संगठन होना इसकी सबसे बड़ी ‘दुर्भाग्यपूर्ण खराबी’ है। यह सचमुच में खेदजनक है जब-जब भी भाजपा के राजनीतिक पार्टी बनने के अवसर आए, तब-तब, हर बार संघ ने इस सम्भावना की भ्रूण हत्या कर दी। ताजा लोकसभा चुनावों के बाद इस बार मिला यह अवसर अधिक सम्भावनाएँ लिए था और उम्मीद की जा रही थी कि भाजपा में बैठे ‘राजनीतिक तत्व’ अपनी पार्टी को संघ के कब्जे से छुड़ाने का साहस दिखाएँगे। किन्तु वैसा कुछ भी नहीं हो सका और भाजपा एक बार फिर ‘संघ की सम्पत्ति’ बन कर ही रह गई। इस सबमें, जसवन्त सिंह तो केवल एक ‘कमजोर कड़ी’ से कहीं आगे बढ़ कर, संघ के लिए ‘सर्वाधिक आसान और साट टारगेट’ साबित हुए। चूँकि वे संघ की पृष्ठ भूमि वाले नहीं हैं सो उन्हें निशाने पर लेने में संघ को रंच मात्र भी असुविधा नहीें हुई। यदि जसवन्त सिंह भी ‘संघ-सुत’ या फिर ‘संघ-अनुकूल’ होते तो वे भी वरुण गाँधी की तरह न केवल निरापद अपितु ‘संघ संरक्षित’ भी रहते। वरुण की ‘महान और ऐतिहासिक घोषणाओं’ से पार्टी ने खुद को अलग कर लिया था। जसवन्त सिंह के निष्कर्षों से भी पार्टी ने खुद को असम्बध्द कर लिया था। किन्तु वरुण को कोई आँच नहीं आई और आँखों में आँसू और जबान पर कराहें लिए, अपना दुखड़ा सुनाने के लिए जसवन्त सिंह को ढूँढने पर भी ठौर-ठिकाना नहीं मिल रहा है। वरुण की ‘आग उगलती बातें’ संघ की वैचारिकता के न केवल अनुकूल थी बल्कि उसे पुष्ट पर भी करती थीं जबकि जसवन्त सिंह ने संघ की परवाह ही नहीं की।


गुजरात सरकार द्वारा जसवन्त सिंह की किताब पर पाबन्दी लगाना भी बड़े ढोंग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि कांगे्रसियों ने भी इस पाबन्दी की माँग की। दोनों का तर्क एक ही है - पटेल पर लगे आक्षेपों से गुजरात का जनमानस उद्वेलित होगा। यह लचर से भी अधिक, बल्कि सर्वाधिक लचर तर्क है। गाँधी भी तो गुजरात में ही पैदा हुए थे? गाँधी को भारत विभाजन का खलनायक बनाने में संघ ने कौनसी कमी रखी? उनके विरुद्ध क्या-क्या नहीं कहा गया? जो कुछ कहा गया, वह सब न केवल किताबों में सुरक्षित है बल्कि संघ के प्रकाशनों में अधिकृत रूप से उपलब्ध है। और तो और, ‘गाँधी हत्या’ को तो संघ परिवार गर्वपूर्वक ‘गाँधी वध’ कहता है और इस शीर्षक वाली किताबें गुजरात में ही बरसों से उपलब्ध हैं। गाँधी को ऐसे घिनौने स्वरूप में प्रस्तुत करने वाले प्रकाशनों से जब गुजरात के लोग उद्वेलित नहीं हुए तो सरदार के नाम पर यह चिन्ता ढोंग के सिवाय और कुछ भी नहीं। वस्तुतः सरदार पटेल ‘संघ’ के लिए ‘राष्ट्रीय भावनाओं के व्यापार के श्रेष्ठ औजारों में से एक’ हैं। भला कोई अपनी बिक्री पर आँच कैसे आने दे सकता है? मजे की बात यह है कि जिन सरदार की दृढ़ता की दुहाई देकर यह सब किया गया उन्हीं सरदार को, ‘नेहरू के दबाव में संघ पर प्रतिबन्ध लगाने वाला’ भी कह दिया गया और ऐसा कहने से पहले तनिक भी विचार नहीं किया गया। रही बात, कांगे्रसियों की, तो उन्होंने तो यह सब केवल वोट की राजनीति के लिए किया। सरदार के नाम पर वे एक भी वोट खोने की जोखिम उठाने को तैयार नहीं हैं।


ल्ेकिन मूल बात वही कि संघ ने भाजपा को अपने नियन्त्रण से मुक्त नहीं किया। नागरिकों में अब उन लोगों की उपस्थिति बढ़ती जा रही है जिन्हें भारत विभाजन और हिन्दू राष्ट्र जैसे मसलों की या तो जानकारी नहीं है या फिर इनमें उनकी रुचि नहीं है। हिन्दुत्व का पटाखा भी ताजा लोकसभा चुनावों में ‘फुस्स’ हो चुका है। अपनी वैचारिकता की दुहाई दे रहे संघ को यह बात समझ लेनी चाहिए कि विकास, प्रगति जैसे कारकों से वैचारिकता का कोई लेना देना नहीं है। उसके सपनों का ‘हिन्दू राष्ट्र’ अब कभी साकार न होने वाला ऐसा कागजी मुहावरा बन कर रह गया है जिसकी खिल्ली उड़ाने का दौर जल्दी ही शुरु हो जाएगा। कहने को तो प्रति पाँच वर्ष में ‘संघ’ पुनरवलोकन करता है किन्तु लगता नहीं कि वह वास्तविकताओं को अनुभव कर उन्हें स्वीकार भी करता है।


ऐसे में, भारतीय लोकतन्त्र की सेहत के लिए यह सामयिक अपरिहर्याता है कि संघ, भाजपा को मुक्त कर दे। वह खुद को सांस्कृतिक संगठन कहता है लेकिन भली प्रकार जानता है कि ऐसा संगठन बने रहकर वह अपने लक्ष्य कभी भी हासिल नहीं कर पाएगा। क्योंकि उसे भली प्रकार मालूम है कि देश जिस रास्ते पर चल पड़ा है वहाँ केवल राजनीति के माध्यम से ही अपने लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं। इसी ऊहापोह में वह भाजपा को कभी तो छुट्टा छोड़ देता है तो कभी नकेल कस लेता है। इससे दोनों की फजीहत हो रही है। सम्भवतः यह ठीक क्षण है जब संघ भाजपा का नाम अपने आनुषांगिक संगठनों की सूची से निकाल दे।


ऐसा करने से वह जहाँ दोहरे आचरण के आरोप से मुक्त होगा वहीं भारतीय लोकतन्त्र में यह उसका अप्रतिम योगदान होगा।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

पहली श्रद्धांजलि मेरे लिए

उन्नीस अगस्त की सवेरे-सवेरे ही जी कसैला हो गया। एक समाचार तब से लेकर अब तक मन-मस्तिष्क से हट ही नहीं रहा है।

वाराणसी से घर लौटते हुए उन्नीस अगस्त की सवेरे नई दिल्ली स्टेशन उतरा तो डिब्बे के सामने ही अखबार की दुकान थी। एक साथ 6 अखबार खरीद लिए। उन्हीं में से किसी एक में यह समाचार था।


बी.एच. ई. एल. के सेवानिवृत्त मेकेनिक, 69 वर्षीय विश्वनाथजी, अपना राशन कार्ड बनवाने के लिए आर. टी. वेन से राशन दफ्तर जा रहे थे। वेन का दरवाजा घेर कर, रास्ता रोके खड़े कुछ युवक एक युवती को छेड़ रहे थे। वेन में सवार सब लोग समझदारी बरतते हुए चुपचाप यह सब देख और सहन कर रहे थे। विश्वनाथजी ऐसी समझदारी नहीं बरत सके। उनकी धमनियों में केवल रक्त नहीं बह रहा था। संस्कार भी बह रहे थे। मुमकिन रहा हो कि उस युवती में उन्हें अपनी बेटी/पोती नजर आ रही हो। उन्होंने युवकों को टोका ही नहीं, रोका भी। चुपचाप छेड़खानी देखने की समझदारी बरत रहे लोगों ने इस बार भी समझदारी बरती और एक भी व्यक्ति विश्वनाथजी के समर्थन न तो कुछ बोला और न ही सामने आया। ऐसे में वही हुआ जो हम सब होने देते हैं। युवकों ने विश्वनाथजी को चाकू भोंक दिया। उन्हें अस्पताल ले जाया गया किन्तु रास्ते में ही उनका प्राणान्त हो गया। इस सूचना के साथ ही समाचार भी समाप्त हो गया। मैं देर तक अखबार को घूरता रहा। अधूरे समाचार का शेष भाग देखने के लिए मूर्खों की तरह अखबार के पन्ने पलटता रहा।

इससे पहले, पटना के एक्जिबिशन मार्ग पर एक युवती को निर्वस्त्र किए जाते देख कर मुझे अपरोध बोध और आकण्ठ आत्म-लानि हुई थी। ऐसे समाचार मैं न तो पहली बार देख रहा था और जो स्थितियाँ बनी हुई हैं, उनके चलते मुझे नहीं लगता कि यह अन्तिम बार भी था। इसके विपरीत अब तो मैं दहशत में हूँ कि आए दिनों ऐसे समाचार बार-बार और निरन्तर देखने ही पड़ेंगे।


कुछ लोग युवती के कपड़े फाड़ रहे थे। युवती प्रतिरोध भी कर रही थी और सहायता की याचना भी। आसपास भीड़ तो थी किन्तु सबके सब ‘दर्शक’ बने हुए थे। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, तन्त्र रमन्ते देवा’ वाले देश के ‘मर्द’ ‘नारी पूजा’ के नए संस्करण को मजे ले-ले कर देख रहे थे। मैं जितना देख पा रहा था, एक की भी आँखों में अकुलाहट, आक्रोश, उत्तेजना नहीं थी। और तो और कुछ भी न कर पाने की असहायता के अथवा विवशता के भाव भी किसी के चेहरे पर दिखाई नहीं दे रहे थे। इसके विपरीत अधिकांश लोग सस्मित ‘देखें! आगे क्या होता है’ वाली मुखमुद्रा में दिखाई दे रहे थे। एक भी हाथ उस युवती के बचाव में नहीं उठा। वह क्रन्दन करती रही और उसके कपड़े फटते रहे।


मनुष्य को ‘सामाजिक प्राणी’ कहा गया है किन्तु अब मुझे लगता है कि उसे ‘समाज में रहने वाला समाज निर्लिप्त प्राणी’ कहना शुरु कर देना चाहिए। हमने यही परिभाषा अपने लिए तय कर दी है। ‘समाज’ में ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ होता है। किन्तु हमने अब उत्तरदायित्वों की ओर पीठ फेर ली है। अब हम खुद से आगे बढ़कर और कुछ भी नहीं देखते, विचारते।


हम ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष करते नहीं थकते किन्तु ‘वसुधा’ को जब निर्वस्त्र किया जा रहा होता है तो हम ‘कुटुम्ब’ से कोसों दूर होकर ‘एक व्यक्ति’ बन जाते हैं। हम कहते हैं-’पड़ौसी सबसे पहला रिश्तेदार होता है।’ किन्तु व्यवहार में हम पूर्णतः आत्मकेन्द्रित और आत्म चिन्तित हो गए हैं।‘समाज का क्या होगा?’ जैसी बातों को नारों की तरह उच्चारते हुए हम क्या-क्या नहीं करते? सामाजिक परम्पराओं के नाम पर हम सार्वजनिक हत्याएँ ही नहीं करने लगे हैं, ऐसी हत्याएँ कर स्वयम् को गौरवान्वित भी अनुभव करते हैं। हरियाणा की खाप पंचायतों ने ऐसे अनेक ‘गौरव अध्याय’ अपने खातों में जमा कर रखे हैं। समाज की रक्षा के नाम पर हम अधिकारपूर्वक हत्याएँ तो कर लेते हैं किन्तु जब सड़कों पर निर्वस्त्र की जा रही ‘बेटी’ को बचाने का मौका आते हैं तो हम निर्मम और क्रूर दर्शक बन जाते हैं। कहाँ तो हम कहते थे कि एक की बेटी पूरे गाँव की बेटी और कहाँ यह आपराधिक व्यवहार? हम क्या थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी?


हम अब ‘समाज’ नहीं हैं। ‘अकेलों की भीड़’ बन कर रह गए हैं। सामूहिक परिवार समाप्त होकर एकल परिवार में बदले और एकल परिवार भी ‘लघु परिवार’ बन गए। स्थिति यह हो गई है कि इस ‘लघु परिवार’ का प्रत्येक सदस्य भी अकेला हो गया है। किसी को किसी से बात करने का समय ही नहीं मिल पा रहा। अब तक तो मुझे लग रहा था कि हमने केवल पाश्चात्य जीवन शैली ही स्वीकारी है, पाश्चात्य संस्कार नहीं। किन्तु, विश्‍वनाथजी वाला समाचार पढ कर और पटना वाली घटना के दृश्य देखकर मुझे लग रहा है कि हमने तो पाश्चात्य संस्कारों को भी विकृत कर दिया है।


पश्चिम में ‘परिवार’ की अपेक्षा ‘व्यक्ति’ को भले ही अधिक स्वतन्त्रता और प्राथमिकता दी गई है किन्तु वहाँ ‘सामाजिकता’ अभी भी सम्भवतः प्रथम वरीयता पर है। हम ‘अकेलों की भीड़’ बन गए जबकि वे ‘अकेलों का समाज’ बने हुए हैं। वहाँ आज भी सामाजिक सराकारों की चिन्ता की जाती है। गुण्डे, बदमाश, अपराधी, गिरोह, माफिया वहाँ भी हैं किन्तु ऐसे दृश्य वहाँ अपवादरूप में भी शायद ही दिखाई देते हों। वहाँ दुर्घटनाग्रस्त हो सड़क पर गिरे आदमी को, गिरने वाले आदमी के बाद आने वाला पहला ही आदमी सम्हाल लेता है जबकि हम कन्नी काट कर निकल जाते हैं।

यह सब देख-देख कर और सोच-सोच कर मुझे जर्मन कवि मार्टिन एन. की यह प्रख्यात कविता याद हो आई -जब जर्मनी में साम्यवादियों पर/हुआ था हमला, मैं कुछ न बोला/क्योंकि मैं साम्यवादी नहीं था।/इसके बाद फिर हुआ हमला/यहूदी लोगों पर/फिर भी मैं चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।/फिर वे आए मारने मजदूर संघ के लोगों को/मगर मैं तब भी चुप रहा/क्योंकि मैं मजदूर संघ में न था।/फिर वे आए मारने कैथोलिकों को/पर मैं रहा था मौन क्योंकि/मैं तब प्रोटेस्टेण्ट थां/लेकिन आज जब वे आए मुझे मारने/हाय रे! दुर्भाग्य! बहुत दी आवाजें/पर न था कोई बचा/जो मेरेी आवाज सुनकर बोलता।’


हमने ‘अर्थ’ को अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य मान लिया है। निस्सन्देह हम ‘धनवान’ भले ही हो रहे होंगे किन्तु आत्मा और नैतिकता के स्तर पर विपन्न हो गए हैं, रीत गए हैं। भारतीयता, धर्म, समाज, संस्कार, सदाचरण, पर-हित जैसे तमाम कारक हमारे जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं। हम स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लोगों की भीड़ बन कर रह गए हैं। हम ‘समाज’ का नाम तब ही लेते हैं जब हमें अपना कोई हित साधना होता है या किसी से बदला लेना होता होता है या किसी को सफल होने से रोकना होता है। 'समाज' हमारे लिए या तो सुविधा या धारदार हथियार या कि अत्यधिक ज्वलनशील आग्नेयास्त्र बन गया है।


इस सबके बाद भी हमारी सीनाजोरी यह कि इस दशा के लिए हम खुद को जिम्मेदार नहीं मानते। दूसरों को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं और अपेक्षा तथा प्रतीक्षा कर रहे हैं कि दूसरे ही इस सबको रोकें, सुधारें।


हम चाहते हैं कि सब हमारी चिन्ता करें किन्तु हम किसी की चिन्ता नहीं करना चाहते। एकजुट होकर सुरक्षित रहने के बजाय खुद को चुन-चुन कर मारे जाने के लिए स्थितियाँ और अवसर कैसे पैदा किए जाते हैं इसका आदर्श नमूना हमने दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दिया है।ऐसे में, पता नहीं कौन, कब मार दिया जाए। आइए, परस्पर अग्रिम श्रध्दांजलि दे दें।


सबसे पहला नम्बर मेरा।

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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

मरी गायों को दुहने वाले

अब तक तो मुझे सन्देह ही था किन्तु अब मुझे आकण्ठ विश्वास हो गया है संघ के विहिप, बजरंग दल जैसे आनुषंगिक संगठनों का गौ-प्रेम, पाखण्ड और प्रदर्शन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। सारी दुनिया जीवित गाय का दूध दुहती है किन्तु ये लोग मरी गाय को दुहते हैं।

गए दिनों मेरे कस्बे में और मेरे कस्बे से 34 किलोमीटर दूर दूसरे कस्बे में हुई घटनाओं ने मेरे सन्देह को विश्वास में बदला। कुछ दिनों पूर्व, एक रात, मेरे कस्बे में एक लावारिस ट्रक मिला जिसमें गायें निर्ममता और क्रूरतापूर्वक ठूँस-ठूँस कर भरी हुई थीं। इसी कारण कुछ (इनकी संख्या इस समय मुझे 17 याद आ रही है) गायें मर गईं। खबर मिलते ही विहिप और बजरंग दल के लोग मौके पर पहुँचे। बात सचमुच में गम्भीर और उत्तेजित करने वाली थी। अगली सुबह लोग जब उठे तो उन्हें मालूम हुआ कि आज नगर बन्द की घोषणा की गई है। बन्द की यह घोषणा इतनी आकस्मिक थी कि पुलिस अधीक्षक और कलेक्टर को भी अत्यन्त विलम्ब से इसकी सूचना मिली। पुलिस अधीक्षक तो अपने निर्धारित कार्यक्रमानुसार यात्रा पर निकल चुके थे। उन्हें रास्ते में खबर मिली तो उल्टे पाँव लौटकर जिला मुख्यालय पहुँचे।ऐसे अवसर पर जैसा कि होता ही है, इन संगठनों ने ‘शत प्रतिशत बन्द’ के लिए यथा सम्भव जोर जबरदस्ती की। ‘अपनी सरकार’ होने के कारण ये अतिरिक्त उत्साहित और निश्चिन्त तो पहले से ही थे। अपराह्न में बड़ा जुलूस निकला जिसमें विभिन्न समाजों के संगठन भी शरीक हुए। इनमें वे समाज भी शामिल थे जो ‘अहिंसा और जीव दया’ को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं। छुटपुट अप्रिय घटनाओं को छोड़कर बन्द निपट गया। प्रशासन ने अपनी सूझबूझ के अनुसार स्थिति को सामान्य बनाए रखने के यथा सम्भव प्रयास किए। वे सफल भी हुए।

प्रशासन ने मृत गायों को अपनी देखरेख में गड़वाया और शाम होते-होते सब सामान्य हो गया।

अगले दिन इन संगठनों के कार्यकर्ता उस स्थान पर बड़ी संख्या में एकत्र हुए जहाँ गायों को गाड़ा गया था। इन्होंने ‘महा आरती’ की, गायों को श्रध्दांजलि दी और शासन से माँग की कि ‘इस स्थान’ पर मृत गायों का स्मारक बनाया जाए। इसके बाद प्रशासन ने अपना काम शुरु किया। ट्रक से सम्बन्धित लोगों की धर पकड़ के लिए भाग दौड़ हुई। कुछ दिनों तक अखबारों में छुटपुट समाचार छपते रहे। उसके बाद, क्या हुआ, किसी को पता नहीं। गायों की अकाल मृत्यु से आक्रोशित, उत्तेजित ‘गौ प्रेमियों' ने क्या किया, किसी को कुछ पता नहीं।

दूसरी घटना इसके कुछ ही दिनों बाद हुई। लोगों ने देखा कि मेरे कस्बे से 34 किलोमीटर दूर स्थित जावरा के पास, मन्दसौर की दिशा में, कोई सात-आठ किलोमीटर दूर, सड़क के दोनों ओर कुछ मृत गायें पड़ी हुई हैं। इस बार भी विहिप और बजरंग दल के लोग ही सबसे पहले पहुँचे और आक्रोश प्रकट करते हुए महू-नीमच प्रान्तीय राज मार्ग पर चक्का जाम कर दिया। दोनों दिशाओं में वाहनों की लम्बी कतारें लग गईं। जावरा नगर पालिका पर कांग्रेस काबिज है और एक मुसलमान अध्यक्ष है। सो इस घटना में, मेरे कस्बेवाली घटना के मुकाबले ‘भाई लोग’ तनिक ‘अतिरिक्त उत्साहित’ थे। (मेरे कस्बे में नगर निगम पर भाजपा काबिज है और महापौर भी भाजपा की ही है, सो यहाँ ‘उतनी गुंजाइश’ नहीं रह गई थी।) ‘भाई लोगों’ ने नगर पालिका और अध्यक्ष को निशाने पर लिया। कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक और तमाम अधिकारी भाग कर मौके पर पहुँचे। घटना की पूरी जानकारी ली तो मालूम हुआ कि मृत गायें जावरा की एक गौ शाला की थीं जिन्हें मरने के बाद ‘अन्तिम संस्कार’ के लिए लाया गया था और सड़क किनारे, खुले में ही डाल दिया गया था। नगर पालिका की लिप्तता न होने से ‘भाई लोगों’ को निराशा हुई। प्रशासन ने इस बार भी मामले को तत्परता से निपटाया। बाद में, सभी पक्षों की बैठक हुई जिसमें विहिप पदाधिकारियों ने गौ शाला के लोगों को खूब फटकारा और पूछा कि यदि मृत गायों का अन्तिम संस्कार ढंग से नहीं कर सकते हैं तो गौ शाला चलाने का क्या मतलब है? यहां यह उल्‍लेखनीय है कि गौ शाला के संचालन में इन 'भाई लोगों' का संस्‍थागत/सांगठनिक स्‍तर पर न तो कोई आर्थिक योगदान है और न ही प्रबन्‍धन में किसी प्रकार की भागीदारी। बैठक समाप्ति के बाद सब अपने-अपने घर चले गए। इस घटना के बाद भी अब तक मालूम नहीं हो सका है कि ‘गौ प्रेमियों ने क्या किया।

इन दोनों घटनाओं में ‘कुछ करने’ के नाम पर ‘गौ प्रेमी’ उत्तेजित/आक्रोशित हुए, घटना के जिम्मेदार लोगों के विरुध्द कार्रवाई की माँग की, प्रदर्शन किया, जुलूस निकाला, ज्ञापन दिया, नगर बन्द कराया, मृत गायों का स्मारक बनाने के लिए शासन से माँग की, गौ शाला के संचालकों को डाँटा/फटकारा। बस।


दोनों घटना क्रमों को मैंने ध्यान से देखा तो अनुभव किया कि विहिपियों और बजरंगियों ने गौ रक्षा के नाम पर खुद तो कुछ भी नहीं किया! इनमें से एक को भी, कस्बों में ‘आवारा’ की दशा में घूमती हुई और मैला या पोलिथीन खाती हुई गायें नजर नहीं आईं। इस तरह घूमती और पेट भरती गायों के शरीर में इन्हें न तो तैंतीस करोड़ हिन्‍दू देवी/देवताओं के निवास करने की बात याद आती है न ही इन्हें गाय ‘पवित्र और पूजनीय पशु’ अनुभव होता है। इनमें से अनेक लोग अपने-अपने व्यापार और काम-धन्धे में पोलिथीन थैलियों का उपयोग प्रचुरता से करते हैं-यह जानते हुए भी कि पोलिथीन की ये थैलियाँ खाने से अनेक गायें (मेरे कस्बे में ही) मर चुकी हैं। किन्तु एक भी माई के लाल ने, पोलिथीन थैलियों का उपयोग बन्द करने की सौगन्ध नहीं खाई। और तो और, मेरे कस्बे के जुलूस में शामिल विभिन्न समाजों ने भी इस दिशा में अपने सदस्यों को संकल्पित करने के बारे में आज तक नहीं सोचा।

हम सब जानते हैं कि गायों के ‘ऐसे’ व्यापार में मुसलमानों का प्राधान्य है। लेकिन हम सब यह भी जानते हैं कि मुसलमान तो गाय पालते नहीं। फिर ये लोग इतनी गायें कहाँ से ले आते हैं? स्पष्ट है कि हिन्दू लोग ही इन्हें बेचते हैं। मैंने, क्षीण होती अपनी स्मृति पर भरपूर जोर डाला किन्तु याद नहीं आया कि विहिपियों, बजरंगियों ने गायों की बिक्री पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की हो या हिन्दुओं से, घर-घर जाकर कहा हो कि वे ‘अपनी बूढ़ी माँ’ को बेचें नहीं, किसी गौ शाला को सौंप दें। अपनी बूढ़ी माँ को बेचने वाले हिन्दुओं के खिलाफ इन ‘हिन्दू धर्म रक्षकों’ ने एक बार भी आवाज नहीं उठाई।

लेकिन इन सबसे पहले मुद्दे की बात यह कि इन सबने जीवित गायों की सुरक्षा, देख भाल के लिए अपनी ओर से कुछ भी नहीं किया। बात बेहद कड़वी है किन्तु इनका अब तक का आचरण बताता है कि जीवित गायों में (और गायों को जीवित बनाए रखने में) इनकी कोई दिलचस्पी है ही नहीं। जीवित गाय के मुकाबले मरी गाय इन्हें अधिक उपयोगी लगती है। लेकिन उसकी चिन्ता भी ये तभी तक करते हैं जब तक कि उसके नाम पर उत्तेजना और आक्रोश फैलाया जा सके। उसके बाद तो ये अपनी उस ‘मरी हुई माँ’ का स्मारक बनाने के लिए भी शासन से माँग करते हैं या फिर गौ शाला के संचालकों को सार्वजनिक रूप से ऐसे प्रताड़ित करते हैं मानो गौ शाला के संचालन का सारा खर्च ये लोग ही दे रहे हों।

इनका व्यवहार कहने को विवश करता है कि सारी दुनिया तो जीवित गाय को दुहती है किन्तु ये ‘भाई लोग’ तो मरी गाय को दुहते हैं। ये जीवित आवारा गाय देख कर (लज्जित होना तो सपने की बात होगी) न तो असहज होते हैं न ही चिन्तित किन्तु मरी गाय की खबर मिलते ही उछल पड़ते हैं। प्रत्येक माँ अपने जीते जी अपने बच्चों का लालन-पालन करती है किन्तु गाय इनकी ऐसी माता है जो मरने के बाद भी इन्हें अपना दूध पिलाती है।


अब आपको जब भी किसी गाय (या किन्हीं गायों) के मरने पर ‘भाई लोग’ हरकत में आते नहर आएँ तो तनिक सावधानीपूर्वक देखने की कोशिश कीजिएगा कि ये लोग जीवित गायों के बारे में क्या करते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी एक-एक बात आपको सच होती नजर आएगी।


भगवान करे, मेरी ये बातें झूठ निकलें। किन्तु ‘इनकी’ हरकतों से ऐसा लगता तो नहीं।
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अन्तिम यात्रा/उठावना/शोक निवारण से पहले चक्का जाम


मेरे कस्बे में, गए कोई दस दिनों में चार घटनाएँ ऐसी हो गईं जिनमें लोगों ने डाक्टरों के साथ हाथापाई, धक्कामुक्की और मारपीट कर दी। इनमें तीन प्रकरणों में, रोगी की मौत हो जाने से मृतक के परिजन आक्रोशित हुए थे। तीनों प्रकरणों में परिजनों का कहना था कि डाॅक्टर ने इलाज करने में असावधानी बरती, फलस्वरूप रोगी की मृत्यु हो गई। इन तीन में से दो प्रकरण निजी चिकित्सालयों के तथा एक प्रकरण शासकीय चिकित्सालय का था। चैथा प्रकरण दुर्घटना का था। इसमें प्रथमतः जिला प्रशासन और बाद में डाक्टर निशाने पर रहे। यह प्रकरण भी शासकीय चिकित्सालय का था। प्रत्येक प्रकरण में लोगों ने तोड़फोड़ भी की।


प्रत्येक प्रकरण में लोगों ने चक्काजाम किया और दोषियों को गिरतार कर, दण्डित करने की माँग की। एक प्रकरण में शव को चैराहे पर रख कर चक्का चाज किया गया, प्रशासन मुर्दाबाद के नारे लगे और कहा गया कि जब तक दोषी को बन्दी नहीं बनाया जाएगा तब तक दाह संस्कार नहीं किया जाएगा। इस प्रकरण में शाम के साढ़े पाँच बज चुके थे और यदि सूर्यास्तपूर्व दाह संस्कार नहीं होता तो बात अगले दिन पर जाती। स्पष्ट है कि प्रकरण न केवल सम्वेदनशील अपितु गम्भीर भी था। प्रशासकीय अधिकारी सक्रिय हुए और जैसे-तैसे बात सम्हाल कर शव की अन्तिम यात्रा प्रारम्भ कराई।


ऐसी घटनाएँ अब प्रत्येक कस्बे, नगर में होने लगी हैं। चिकित्सक और रोगी के परम्परागत सम्बन्धों का स्वरूप बदल गया है। पहले डाॅक्टर पर आँख मूँद कर विश्वारस किया जाता था। अब, डाक्टर को ‘सेवा प्रदाता’ के रूप में लिया जाता है और तदनुसार ही उससे आशा/अपेक्षा की जाती है। किन्तु एक बात में अन्तर नहीं आया। पहले भी डाक्टर को भगवान माना जाता था और आज भी माना जाता है। किन्तु भावनाओं की ऊष्मा और सम्बन्धों की मधुरता को ‘पूँजी’ ने प्रभावित कर दिया है। परिणामस्वरूप, आँख की शर्म चली गई है और सब कुछ व्यापार की तरह लिया जाने लगा है। इसके लिए किसी एक पक्ष को उत्तरदायी ठहराना न तो सम्भव है और न ही उचित। सामाजिक मूल्यों में जब स्खलन अथवा ह्रास आता है तो वह समूचे समाज पर समान रूप से आता है।


मारपीट और तोड़फोड़ की, डाक्टरों में तीखी प्रतिक्रिया होनी स्वाभाविक ही थी। डाॅक्टरों की संस्था ‘इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन’ (आईएमए) के माध्यम से डाक्टरों ने, ऐसे प्रकरणों के जिम्मेदार लरोगों के विरुद्ध पुलिस में नामजद रिपोर्टें लिखर्वाइं और ‘डाक्टर प्रोटेक्शन एक्ट’ के अन्तर्गत कार्रवाई करने की माँग की। इस कानून के बारे में मुझे अधिक तो पता नहीं किन्तु मालूम हुआ कि इस कानून के अधीन पंजीबध्द प्रकरणों में जमानत आसानी से नहीं मिलती। सो, जब ‘आईएमए’ का दबाव बढ़ा तो चक्काजाम और डाक्टरों से मारपीट करने वालों में घबराहट फैलना स्वाभाविक ही था।


किस प्रकरण में क्या हुआ इससे अलग हटकर, डाक्टरों की एक बात ने मेरा ध्यानाकर्षण किया। डाक्टरों का कहना था कि इलाज करने में डाक्टर ने लापरवाही बरती या कि गलत दवा दी, यह बात तो कोई डाक्टर अथवा चिकित्सा विज्ञान में दक्ष व्यक्ति ही कह सकता है। जो लोग डाक्टरों पर गलत उपचार करने का अथवा लापवरवाही बरतने का आरोप लगाते हैं, वे यदि सचमुच में विषय के जानकार होते हैं तो वे खुद ही अपने रोगी परिजन का इलाज क्यों नहीं कर लेते? यदि उन्हें विषय का ज्ञान नहीं है तो ऐसे सुस्पष्ट आरोप कैसे लगाए जा सकते हैं? कोई (अथवा कुछ) डाक्टर लालची या कि लापरवाह हो सकता है किन्तु इलाज के दौरान जब रोगी की दशा प्रारम्भ में सुधरती दिखाई दे रही हो तब तो स्वस्पष्ट है कि डाक्टर ने न तो लालच किया और न ही लापरवाही बरती। किन्तु यदि अचानक ही रोगी की तबीयत बिगड़ने लगे, डाक्टर यथेष्ट प्रयास करे और फिर भी रोगी के प्राणान्त हो जाएँ तो इसमें डाक्टर का क्या दोष? डाक्टरों की इस बात में मुझे वजन लगा।


दस दिनों में चार घटनाओं से मेरा कस्बा उद्वेलित बना रहा। दो प्रभावित परिवारों से मैंने सम्पर्क किया तो नई बात सामने आई। दोनों परिवारों ने कहा कि मारपीट, तोड़फोड़ और चक्का जाम में उनके परिजनों की कोई भूमिका नहीं रही। सहानुभूति में साथ गए लोग, परिजनों से अधिक आक्रोशित हुए और ‘राजा के प्रति खुद राजा से अधिक वफादार’ की तरह व्यवहार करते हुए प्रकरणों को आपराधिक और जनोत्तेजक बना दिया। इन दोनों परिवारों ने, घटना के बाद, डाक्टरों के पास जाकर क्षमा याचना की जिसे डाॅक्टरों ने व्यक्तिगत रूप से स्वीकार करने का बड़प्पन बरता। किन्तु प्रकरण चूँकि ‘आईएमए’ ने प्रस्तुत कर रखा है तो एक सीमा के बाद दोनों डाक्टरों ने भी अपनी असहायता बताई। हाँ, इतना अवश्य कहा कि वे प्रकरण को लेकर अपनी ओर से कोई ‘स्मरण पत्र’ नहीं देंगे।


डाक्टर और रोगी के बीच सबसे पहला रिश्ता होता है विश्वास का। साफ लग रहा है कि इस रिश्ते पर भी भरपूर खरोंचे आ गई हैं। यदि स्थिति को सुधारने (या कि और अधिक खराब न होने देने के लिए) तत्काल ही कोई प्रभावी पहल नहीं की गई तो दस दिन में चार घटनाओं की स्थिति बदल कर एक दिन में दस वाली हो जाएगी।


तब और कुछ हो न हो, एक बात अवश्य होगी। शोक समाचारों वाले अखबारी स्तम्भों में ‘निजी’ के अन्तर्गत आने वाली सूचनाएँ कुछ इस प्रकार होंगी - ‘हमारे फलाँ-फलाँ का आकस्मिक देहावसान दिनांक फलाँ-फलाँ को हो गया है। अन्तिम यात्रा/उठावना/शोक निवारण दिनांक फलाँ-फलाँ को हमारे निवास पर इतने बजे होगा और उससे पहले एक घण्टे का चक्का जाम होगा।’

हम इसी दिशा में बढ़ रहे हैं।

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आज से चार दिन वाराणसी में


यदि सब कुछ सामान्य रहा तो, जिस क्षण यह सूचना मेरे चिट्ठे पर प्रकाशित हो रही होगी उस समय मैं मेरी जीवन संगिनी सहित वाराणसी पहुँच चुका होऊँगा।

मेरा यह प्रवास चार दिन का है।

अठारह अगस्त की शाम सवा सात बजे, शिव गंगा एक्‍सप्रेस से मेरी रतलाम वापसी यात्रा प्रारम्भ होगी।

वाराणसी में मैं मेरे मित्र परिवार श्रीमती सुनिता सिंह श्री अतुल प्रताप सिंह की मेजबानी में रहूँगा।

वाराणसी में मेरा कोई कार्यक्रम नहीं है। चूँकि वाराणसी जा रहा हूँ इसलिए भगवान काशी विश्वनाथ के दर्शन भी करूँगा।

मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी यदि वाराणसी का कोई चिट्ठाकार मित्र बन्धु सम्पर्क करे।मेरा मोबाइल नम्बर 098270 61799 है।
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‘ये’ निषेध हमारे चरित्रहीन होने के प्रमाण पत्र

जब-जब भी लड़कियों/महिलाओं पर ऐसे ‘शील रक्षक’ प्रतिबन्ध लगते हैं तब-तब, हर बार मुझे लगता रहा है मानो मुझे चरित्रहीन, दुराचारी, कामुक, परस्त्रीगामी होने का प्रमाण-पत्र दे दिया गया हो।

स्त्रियों के प्रति अपने दृष्टिकोण और व्यवहार को लेकर हम अत्यधिक सीनाजोर, निर्लज्ज और पाखण्डी समाज के रूप में सामने आ रहे हैं। अपनी उक्तियों में हम धर्मग्रन्थों के सुभाषित उद्धृत कर नारी को सर्वोच्च सम्मान दिए जाने की गर्जना करते हैं किन्तु आचरण ठीक उलटा करते हैं। दुहाई तो हम ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवा’ की देते हैं किन्तु औरत आज भी पुरुष के पैरों की जूती बनी हुई है। अपनी आधी आबादी से हमने उसका सब कुछ हड़प कर अपने कब्जे में कर लिया है। हमें जन्म देने वाली स्त्री को हम न तो बुध्दिमान मानते हैं और न ही विवेकवान। चूँकि समाज के नियन्ता हम पुरुष ही हैं सो ‘समझदारी’ पर हम पुरुषों ने एकाधिकार कर लिया है और ‘इज्जत’ की सारी जिम्मेदारी स्त्रियों को सौंप दी है। इसी के चलते, ‘वो तो औरत थी पर तुम तो समझदार थे’ जैसे जुमले हमें रंच मात्र भी असहज नहीं करते। यही वह कारण भी है जिसके चलते बलात्कृत स्त्री को जमाने भर के लांछन सहन करने पड़ते हैं और बलात्कारी को शूरवीर की तरह देखा जाता है। डकैती के मामले में हमारी सहानुभूति लुटने वाले के साथ होती जबकि बलात्कार के मामले में हम स्त्री को ही अपराधी देखते हैं।


महिलाओं को लेकर हमारे सोच को जन्म से ही एक सुनिश्चित साँचे में ढाल दिया जाता है। सारे निषेध, सारी अनिवार्यताएँ स्त्री पर आरोपित की जाती हैं और पुरुष को सबसे मुक्त रखा जाता है क्योंकि समाज के नियम, कानून, कायदे हम पुरुष ही तय करते हैं। लाख कोशिशों के बाद भी मैं आज तक एक भी व्रत-उपवास ऐसा तलाश नहीं कर पाया हूँ जो पुरुषों के लिए अनिवार्य किया गया हो। हमने न केवल मान रखा है बल्कि साबित भी कर रखा है कि ‘स्त्री’ की स्वतन्त्र सत्ता होती ही नहीं है। उसका कोई ‘व्यक्ति रूप’ भी हो सकता है, यह हमारी कल्पना से परे है। स्त्री हमारे लिए केवल ‘वस्तु’ है और ‘वस्तु’ भी केवल ‘भोग्या’ रूप में। इसी के चलते ‘शुचिता’ (और विशेषतः ‘योनि शुचिता’) स्त्री के लिए पहली शर्त है। किन्तु यह निर्धारण करते समय हम यह जानबूझकर भूल जाते हैं कि कोई भी स्त्री केवल अपने दम पर कैसे अपनी शुचिता भंग कर सकती है? उसके शील भंग के लिए किसी पुरुष की भागीदारी अनवार्य होती है। किन्तु शुचिता का मैदान हमने पुरुषों के लिए निस्सीम छोड़ रखा है और स्त्री-शुचिता को तंग परिधि में घेर रखा है। मैं किसी ऐसी स्त्री की तलाश में हूँ जो किसी पुरुष के सहयोग के बिना कलंकित हुई हो।


स्त्री के बिना पुरुष का जीवन अधूरा है, यह कोई नई बात नहीं है। किन्तु हमारे अधूरेपन को समाप्त करने वाली, हमें पूर्णता प्रदान करने वाली स्त्री को हम उसका वाजिब स्थान देने के बारे में कभी नहीं सोचते। ऐसा सोच तो हमारे अचेतन से भी धकेल दिया गया है। श्रेय के सारे हिमालय हमारे और फजीहत के सारे उखेड़े (कूड़ा स्थल) स्त्री के। लोक व्यवहार में प्रयुक्त की जाने वाली गालियों पर तनिक सावधानी से ध्यान दीजिए, निन्यानबे प्रतिशत गालियाँ ‘स्त्री केन्द्रित’ हैं। गोया स्त्री, स्त्री न होकर गाली ही हो गई।

इतिहास साक्षी है कि जिस समाज ने अपनी आधी आबादी को सम्मान दिया गया, राष्ट्र निर्माण में उसकी भागीदारी ली गई उसने सफलता के झण्डे गाड़े और जहाँ-जहाँ स्त्री को वंचित, उपेक्षित, तिरस्कृत किया गया वहाँ प्रगति का पहिया धीमा ही हुआ है। लिहाजा, यदि स्त्री के लिए कोई निषेध आरोपित किया जा रहा हो तो उससे पहले पुरुषों को अपनी गरेबान में झाँकना चाहिए। यदि हम कहते हैं कि युवतियों के परिधान यौनोत्तेजित करते हैं तो शुरुआत तो हमारे संयम से होनी चाहिए! इसके समानान्तर कड़वी सचाई यह है कि हममें से प्रत्येक, अपनी सहधर्मिणी को तो ‘सीता’ और पड़ौसी की पत्नी को ‘रम्भा’ देखना चाहता है। ऐसा सोचते समय हममें से प्रत्येक यह भूल जाता है कि उसकी सहधर्मिणी भी किसी की पड़ोसन है। हमारा यह व्यवहार सचमुच में विचित्र है कि बीमार तो हम हैं और इलाज कराते हैं स्त्री का!


स्त्री का महत्व अनुभव करने के लिए अपने अतीत को खँगालें तो पाएँगे कि हमारे समस्त महापुरुषों को उनकी माता के नाम से सम्बोधित किया जाता था। जैसे कौन्तेय, कुन्ती पुत्र, गांधरी पुत्र, राधेय, कौशल्या नन्दन, यशोदा नन्दन आदि आदि। इतिहास साक्षी है कि ‘पुरुष’ का वंश चलाकर उसकी मान-मर्यादा बनाए रखने और बढ़ाने की कीमत हर बार ‘स्त्री’ न ही चुकाई, पुरुष ने नहीं।

प्रकृति ने मातृत्व सुनिश्चित किया है, पितृत्व नहीं। पितृत्व तो विश्वास भाव है। लगता है, यहीं पर ‘पुरुष’ का अहम् आहत हुआ होगा और उसने ‘पितृत्व के विश्वास’ को ‘सुनिश्चितता’ में बदलने के लिए ही अभिलेखों में सन्तान के नाम के साथ पिता का नाम लिखने की परम्परा शुरु की होगी।

इस मामले में मैं पूरी तरह से स्त्रियों के समर्थन में खड़ा हूँ। हमने ‘स्त्री’ के प्रति अकूत आभार और कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए जिसने हमें जन्म दिया, हमें पाला-पोसा बड़ा किया, हममें पूर्णता और सामाजिक सम्मान प्रदान किया, सदैव नेपथ्य में रहकर, खुद को होम करके हमें प्रमुखता/प्रधानता प्रदान की। अपने जीवन से स्त्री को निकाल दें तो जीवन न केवल नीरस और रंगहीन हो जाएगा बल्कि हम नितान्त असफल भी हो जाएँगे।

यह ‘स्त्री’ ही है जो हमें ‘हम’ बनाए हुए है।
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कुटुम्बी/रक्त सम्बन्धी याने मृत्यु की प्रतीक्षा में आतुर

24 अप्रेल की सवेरे कोई साढ़े आठ बजे कोमल का फोन आया - ‘मामा साहब! गणपति स्थापना कर रहे हैं। पधारिए.’ मैंने उसे बधाई दी और कहा कि पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार हम पति-पत्नी, 28 अप्रेल की सवेरे उसके यहाँ पहुँच जाएँगे.

कोमल मेरा छोटा भानजा है. मेरे कस्बे से कोई दो सौ किलामीटर दूर, राजस्थान के छोटे से गाँव निकुम्भ में रहता है. मेरी बड़ी बहन, गीता जीजी उसी के साथ रहती है. कोमल के बड़े बेटे मनीष का ब्याह 28 अप्रेल को होना था।

कोई आठ घण्टे बाद ही, अपराह्न साढ़े चार बजे फिर कोमल का फोन आया। घबराते हुए उसने कहा - ‘मामा साहब! अभी-अभी पिताजी शान्त हो गए हैं. किसी को कुछ भी नहीं सूझ रहा है. किन्तु अन्तिम संस्कार आज ही करेंगे. बाकी काम-काज कब और कैसे होगा, यह सब रात में ही तय करेंगे.’कोमल के पिताजी याने मेरे जीजाजी याने जिस मनीष के विवाह में हमें जाना था, उसके दादाजी. मैंने समय का हिसाब-किताब लगाया और पाया कि मैं तत्क्षण भी निकलूँ तो भी जीजाजी के अन्तिम संस्कार में सम्मिलित नहीं हो सकता. सो, तय किया कि रात को कोमल से बात करके अगली सवेरे ही निकलूँगा.

रात कोई दस बजे कोमल ने बताया कि उठावना (तीसरा) अगले ही दिन, 25 अप्रेल को ही, सवेरे ग्यारह बजे करना तय हुआ है.25 अप्रेल की बड़ी सवेरे साढ़े पाँच बजे हम पति-पत्नी निकुम्भ के लिए निकले और साढ़े दस बजते-बजते वहाँ पहुँचे. मालूम हुआ कि चूँकि विवाह हेतु गणपति स्थापना की जा चुकी थी, चाक न्यौता जा चुका था, मण्डप तान दिया गया था, पत्रिकाएँ बाँटी जा चुकी थीं। सो विवाह आयोजन स्थगित कर पाना सम्भव नहीं रह गया था। इसलिए केवल उठावना ही नहीं, पगड़ी और शोक निवारण तक की समस्त उत्तरक्रियाएँ आज ही सम्पादित कर ली जाएँगी.

ग्यारह बजते-बजते हमारा, लगभग पूरा कुटुम्ब वहाँ एकत्र हो चुका था. हम सब कोई चौदह-पन्द्रह परिवार थे. कोई आठ-दस वर्षों के बाद हम सब एक दूसरे को एक साथ देख रहे थे। अपने-अपने अहम् के टापुओं पर बैठे हुए हम सब, मोटे तौर पर तीन गुटों में बँटे हुए थे और स्थिति यह थी कि प्रत्येक गुट ने कम से कम किसी एक गुट का बहिष्कार तो किसी गुट ने दो गुटों को बहिष्कार कर रखा था। किसी के यहाँ उपस्थित मंगल प्रसंग पर बुलाने पर भी नहीं जाना इस बहिष्कार का प्रकटीकरण था तो किसी ने तो निमन्त्रण भेजना ही बन्द कर रखा था। किन्तु मैंने देखा कि इस शोक प्रसंग पर प्रत्येक परिवार का कोई न कोई प्रतिनिधि उपस्थित था और पूरे मनोयोग से उत्तरक्रियाओं में अपनी-अपनी भूमिका निभा रहा था जबकि कोमल की ओर से सीधी सूचना कुछ ही लोगों को मिली थी। अधिकांश को, किसी तीसरे से ही यह शोक समाचार मिला था।अचानक ही मेरे मन में विचार आया कि शोक प्रसंग में बिना बुलाए, भाग कर आने वालों में से कितने लोग, मनीष के विवाह में भागीदारी करेंगे.

चूँकि काम कम और फुर्सत अधिक थी, सो मैंने धीरे-धीरे कुटुम्बियों को टटोलना शुरु किया। कुछ को विवाह का निमन्त्रण मिला था था और कुछ को भेजा ही नहीं गया था। जीजी का बहिष्कार करने वाले गुट में से जिनको निमन्त्रण भेजा गया था उनसे मैंने सहज भाव से पूछा कि मनीष के विवाह के अवसर पर उनसे मिलना होगा या नहीं? मुझे उत्तर मिला-‘आने का कोई सवाल ही नहीं उठाता. आज मिल लिए सो मिल लिए. अगला मिलना इसी तरह किसी मौत-मरण में ही होगा.

किन्तु इस उत्तर ने नए प्रश्न खड़े कर दिए. वह कौन सा कारण है कि मंगल प्रसंगों पर तो हम बार-बार बुलाने पर भी नहीं जाते और शोक प्रसंग पर, तीसरे आदमी से सूचना मिलने पर भी भाग कर पहुँच जाते हैं और प्रयास करते हैं कि अन्तिम संस्कार में अवश्य ही सम्मिलित हो जाएँ?

समाधानकारक उत्तर कहीं से नहीं मिला। सबने लगभग एक ही उत्तर दिया - ‘ऐसा ही होता है.’ बार-बार कुरेदने पर कुछ वरिष्ठों और सयानों ने बताया कि ‘कुटुम्बियों‘ और ‘रक्त सम्बन्धियों’ की पहचान ऐसे ही क्षणों/प्रसंगों में होती है. बात मुझे बिलकुल ही समझ में नहीं आई. यदि हम सचमुच में ‘कुटुम्बी’ या ‘रक्त सम्बन्धी’ हैं तो यह भाव, उत्सवों, मंगल प्रसंगों पर, उजागर क्यों नहीं होता? उस समय क्यों हम सारी मनुहारों की उपेक्षा करते हैं? क्यों एँठे, इतराए बने रहते हैं? मैं ने खुद ने मेरे जीजाजी का बहिष्कार कर रखा था किन्तु मेरा और जीजी का परस्पर आना-जाना बना हुआ है। मैं जीजी की भावनाओं की चिन्ता करते हुए निकुम्भ पहुँचा था।

मेरी जिज्ञासा का समुचित उत्तर मुझे अब तक नहीं मिला है. तलाश करने पर अधिक निराशा ही मिली जब मालूम हुआ कि पूरे समाज में और प्रत्येक कुटुम्ब में यह स्थिति (कहीं कम तो कहीं अधिक) समान रूप से बनी हुई है. एक परिचित ने तो अधिक कष्टदायी अनुभव सुनाया. मेरी पूरी बात सुनकर उन्होंने बताया कि ठीक ऐसा ही प्रसंग उनके कुटुम्ब में भी आया था तो उन्होंने सबसे कहा कि कुटुम्ब में परस्पर बहिष्कार बन्द किया जाना चाहिए. किन्तु शुरुआत कौन करे? तब इन्होंने कहा कि शुरुआत वे करने को तैयार हैं किन्तु सब लोग वचनबध्द हों कि सारे कुटुम्बी बहिष्कार करना छोड़ देंगे. उन्हें दुख और आश्चर्य हुआ जब उन्होंने पाया कि कोई भी वचनबध्द होने को तैयार नहीं है. सबने कहा - ‘तुम शुरुआत तो करो. बाद की बाद में देखेंगे.’ मेरे ये परिचित बोले - ‘बैरागीजी! मेरे कुटुम्बियों और रक्त सम्बन्धियों ने शुरुआत से पहले ही मेरी बात का अन्त कर दिया और अब हम भी एक दूसरे के यहाँ मौत-मरण में जाने के लिए चैबीसों घण्टों तैयार बने रहते हैं.’

आपमें से कोई यदि मुझे इस व्यवहार का तार्किक औचित्य प्रदान कर सकें तो मुझे उपकृत कीजिएगा। अन्यथा ‘कुटुम्बी’ अथवा ‘रक्त सम्बन्धी’ की एक ही व्याख्या सत्य लगती रहेगी कि सच्चे कुटुम्बी अथवा/और रक्त सम्बन्धी वे ही होते हैं जो आपके यहाँ किसी के मरने की प्रतीक्षा अत्यधिक आतुरता से कर रहे होते हैं कि ‘तुम्हारे यहाँ कोई मरे तो हम दौड़ कर आएँ।’

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नागरिकता से दूर

तेरह अगस्त। आधा दिन बीतने को है। तरेंसठवाँ स्वाधीनता दिवस अब छत्तीस घण्टों से भी कम दूरी पर है। मैं खुद को टटोल रहा हूँ और पा रहा हूँ कि निराश तो नहीं किन्तु उदास, अनमना अवश्य हूँ। इस प्रसंग पर होने वाली प्रसन्नता में वर्ष-प्रति-वर्ष कमी होती जा रही है।

स्कूली दिनों में अपनों से बड़ों के विमर्श-विवाद के बीच जब-तब ‘हमें तो आजादी बहुत सस्ते में मिल गई’ जैसा वाक्य सुनता था तो उलझन में पड़ जाता था। सच क्या है-जो सुन रहा हूँ वह या जो पुस्तकों में पढ़ रहा हूँ वह? पुस्तकें कहती थीं कि असंख्य लोगों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए, असंख्य सुहागिनों का सिन्दूर पुँछ गया, उनसे अधिक बच्चे अनाथ हो गए, कई वंश निर्मूल हो गए, अनेक माँओं की गोदें सूनी हो गईं तब कहीं जाकर हमें स्वाधीनता मिल पाई। किन्तु बड़ों की बातें यह सब झुठलाती थीं।

विद्यार्थी जीवन की इस उलझन से उबरने में बरसों लग गए। किताबों की बातें राई-रत्ती भर असत्य नहीं किन्तु प्रति वर्ष कम होती जा रही प्रसन्नता अनुभव करा रही है कि स्वाधीनता का मोल हम वास्तव में नहीं पहचान पाए। अपने शहीदों के प्राणोत्सर्ग का मूल्यांकन करने में हम आपराधिक कृपणता और असावधानी बरत कर उस सब कुछ को व्यर्थ साबित कर रहे हैं।

स्वाधीनता मिलने वाले पहले ही क्षण से हमें जिस उत्तरदायित्व का बोध हो जाना चाहिए था, लगता ही नहीं 62 वर्षों की इस दीर्घावधि में हम उसके आस-पास भी पहुँच पाए हों। पहुँच पाना तो कोसों दूर रहा, ऐसा करने के बारे में सोचा भी नहीं।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हम भले ही तेजी से उभर रही शक्तिशाली अर्थ व्यवस्था और तीसरी दुनिया के सिरमौर बन रहे हों किन्तु आन्तरिक स्थितियों और अपने आचरण के सन्दर्भों में शोचनीय से कम के पड़ाव पर नहीं हैं। देश का प्रत्येक प्रमुख राजनीतिक दल कहीं न कहीं सत्तारूढ़ है। सबकी विचारधारा और कार्यक्रम भले ही अलग-अलग हों किन्तु जन समस्याएँ सबके सामने एक जैसी हैं। इसी के चलते ये तमाम दल दोगला व्यवहार करने को अभिशप्त हो गए हैं। अपने शासन वाले राज्य में ये जिस समस्या को औचित्यपूर्ण बताते हैं उसी समस्या पर दूसरे राज्य में धरना, प्रदर्शन और बन्द कराते हैं। किन्तु एक समस्या की ओर शायद ही किसी का ध्यान गया हो। यह है - किसी भी सरकार को नागरिक योगदान न मिलना।

हम सब खुद को सरकार से अलग मानते हैं। गोया सरकार, सरकार न हुई, कोई विदेशी तत्व हो। जिस सरकार को हम चुनते हैं, कुर्सी पर बैठाते हैं, उसी सरकार को, कुर्सी पर बैठाने के अगले ही क्षण निकम्मी, अक्षम और लापरवाह घोषित कर उसके विरुद्ध सड़कों पर उतर आते हैं। राजनीतिक स्तर पर तो स्थिति ‘विचित्र’ से आगे बढ़कर ‘लज्जाजनक’ हो गई है। विरोध के लिए विरोध करने के नाम पर हम अपने ही प्रधान मन्त्री को ‘देश को बेच देनेवाला’ तक कह देते हैं और चुनावी विजय के लिए प्रधान मन्त्री को अक्षम, असफल और अयोग्य तक कहने में हमें असुविधा, असहजता अनुभव नहीं होती।

स्वाधीनता को हमने अपना अधिकार तो माना किन्तु यह भूल गए कि अधिकारों का सुख भोगने से पहले उत्तरदायित्व पूरे करने पड़ते हैं। उत्तरदायित्व और अधिकार, स्वाधीनता के सिक्के के दो पहलू हैं और कोई भी सिक्का तभी बाजार में चल पाता है जब उसके दोनों पहलू उजले, स्पष्ट और चमकदार हों। इस दृष्टि से हम अपनी स्वाधीनता को खोटे सिक्के में बदलते नजर आ रहे हैं।

देश में व्याप्त विसंगतियाँ, असमानता, आर्थिक खाइयाँ, ऊँच-नीच, दुराचरण, अनुचित निर्णय हमें उत्तेजित, आक्रोशित करना तो दूर, रंच मात्र भी असहज, विचलित, व्याकुल नहीं करते। जिस देश के लगभग 80 प्रतिशत लोग, 20 रुपये प्रतिदिन भी मुश्किल से जुटा पाते हैं, उनके जनप्रतिनिधियों का करोड़पति/अरबपति होना हमें न तो चौंकाता है न ही असहज करता है। अन्याय सहन करना भी अन्याय करना ही है वाली उक्ति हम भूल गए हैं। जिन नेताओं को नियन्त्रित किया जाना चाहिए, उनकी चापूलसी करने में हमने अलस्येशियनों को भी मात दे रखी है।

गाँधी ने उस शासन पद्धति को श्रेष्ठ बताया था जो नागरिक जीवन में कम से कम हस्तक्षेप करे। हमने इसकी अनुचित व्याख्या कर, स्वच्छन्दता और उच्छृंखलता बरतने की सुविधा स्वयम् ही प्राप्त कर ली जबकि गाँधी का आशय था कि हममें से प्रत्येक, अपना नागरिक उत्तरदायित्व ऐसा और इतना निभाए कि ‘शासन’ को सक्रिय होने की आवश्यकता ही नहीं पड़े।

‘लोकतन्त्र अर्थात् लोगों का शासन, लोगों के लिए, लोगों के द्वारा’ वाली परिभाषा किताबों में ही कैद होकर रह गई है। अपनी स्वाधीनता के तरेसठवें वर्ष में प्रवेश वाले इस क्षण तक भी हम ‘जनता’ या ‘प्रजा’ ही बने हुए हैं। ‘नागरिक’ बनने की न तो हमें याद आई है और नही आवश्यकता अनुभव की। लगता है कि हम ‘नागरिक’ बनना चाहते भी नहीं। यदि हम नागरिक बन गए तो उत्तरदायित्व निभाना पड़ेगा।हमें, ‘गैरजिम्मेदार’ बन कर रहने ही न केवल आदत हो गई है अपितु लगता है, अपनी इस दशा पर हम गर्व भी अनुभव करने लगे हैं।

किन्तु एक बात तो है। हम ‘गैरजिम्मेदार’ भले ही हों, ‘नासमझ’ बिलकुल ही नहीं हैं। जीवन का अधिकतम आनन्द, ‘नासमझ’ बनकर ही उठाया जा सकता है। क्यों कि हम सबमें यह समझ अवश्य है कि ‘समझदार की मौत है।’

मैं अकेला बैठा हूँ


राखी पर मैं घर में अकेला ही बैठा हूँ। पत्नी तो हिम्मत करके मायके चली गई है किन्तु मैं उसके जैसा हिम्मतवाला नहीं हो सका।

हर साल की तरह इस साल भी जीजी को फोन किया था तय करने के लिए कि कि वह राखी पर आ रही है या फिर मैं ही उसके पास चला जाऊँ। उसने न तो आने की हामी भरी और न ही मुझे आने को कहा। यह सब इशारों-इशारों में नहीं, खुल्लम खुल्ला हुआ। सो, इस राखी पर मैं घर में अकेला ही बैठा हुआ हूँ।मेरी राखी इस बार भारत सरकार और मनमोहनसिंह की खुली अर्थनीति से बनी समाजिकता की भेंट चढ़ गई। जीजी ने इनका नाम तो नहीं लिया लेकिन जो कुछ कहा, वह इन्हीं का कहा हुआ था।

उसने कहा कि यदि मैं आऊँ तो त्रिभुवनदास जवेरी और वोडाफोन के और ऐसे ही सारे विज्ञापन देख कर इनमें से किसी एक की सलाह पर अमल करके ही आऊँ। ‘वर्ना आने का क्या फायदा?’ जीजी ने कहा। मैंने कहा कि उसकी रक्षा करने के वचन का ‘रीन्यूअल’ करने का मौका मुझे साल में इसी दिन मिलता है। मेरा जवाब सुनकर वह बहुत हँसी। बोली - ‘मेरी रक्षा की फिकर छोड़। तू अपनी ही कर ले तो बहुत है।’ उसने कहा - ‘बड़े नेता की बात तो छोड़, तेरे वार्ड का पार्षद भी तेरी नहीं सुनता। शहर का कोई गुण्डा-बदमाश तेरी नमस्ते का जवाब नहीं देता। पुलिस का अदना सा जवान भी तुझे नहीं जानता। तू तो भला आदमी है। रक्षा की जरुरत तो तुझे ही है।’ जीजी की बातों से मुझे शर्मिन्दगी होने लगी। फोन के दूसरे सिरे पर बैठे-बैठे ही उसने ताड़ लिया। मुझे दुलराती बोली -‘देख भैया! मैं जानती हूँ कि तू ईमानदार, नेक, चरित्रवान और साफ बोलने वाला है। लेकिन अब तेरा जमाना नहीं रहा। तू खुद जानता है कि तेरी इन्हीं बातों के चलते तू अब तक बाबू की कुर्सी पर ही बैठा हुआ है और तेरे जूनीयर तेरे सेक्शन हेड हो गए हैं। तू तो अपने अफसर की चापलूसी भी नहीं कर पाता। तेरे जैसे लोगों की जगह अब किस्सों-कहानियों, किताबों में या फिर समारोहों के भाषणों में ही रह गई है। मुझे तो तुझ पर गर्व है लेकिन तेरे कारण मुझे अपने सर्कल में झेंपना पड़ सकता है।’

मैं, जन्म से लेकर अब तक के सिलसिले को तोड़ना नहीं चाहता था। फिर, भाई-बहन के नाम पर हम दोनों ही एक दूसरे के लिए ‘इकलौते’ हैं। सो मैंने इसरार किया - ‘मैं तेरे किसी भी मिलने वाले के सामने नहीं आऊँगा। चुपचाप आऊँगा और राखी बँधवा कर वैसा ही चुपचाप चला जाऊँगा।’ जीजी बोली-‘यही तो! तेरा चुपचाप आना ही सबसे ज्यादा बोलेगा। तू जानता है कि तेरे जीजाजी की सोशल लाइफ ऐसी है कि मेरी कोठी पर रात तो होती ही नहीं। तू अपने हिसाब से भले ही अँधेरे में आएगा लेकिन मेरे यहाँ तो उजाला ही रहेगा। फिर, तू स्टेशन से मेरी कोठी तक या तो पैदल आएगा या बहुत हुआ तो ताँगे से। कन्धे पर झोला लटकाए, हाथ में पोलीथिन में लिपटा कोई पौधा लिए, ताँगे से उतरता हुआ तू! नहीं भैया, मैं तो इस सीन की कल्पना से ही पसीना-पसीना हो रही हूँ। तू खुद ही तय करले कि राखी के पवित्र त्यौहार पर तू मेरा स्टेटस बढ़ाएगा या कम करेगा?’ मैंने कहा - ‘भाई-बहन के रिश्तें में ये सारी बातें नहीं आतीं। यह तो तेरे और मेरे बीच की बात है।’ जीजी बोली-‘तू सही कह रहा है। लेकिन भैया! अब तो सब कुछ ग्लोबल और ओपन है।’

मैं भली भाँति समझ रहा था कि जीजी न केवल सच कह रही है बल्कि वह मेरा भला भी चाह रही है। वह बात और चिन्ता भले ही अपने स्टेटस की कर रही थी किन्तु वास्तव में मुझे उपहास से बचाना चाह रही थी। मैंने निरुपाय हो पूछा-‘तो मैं क्या करूँ?’ जीजी शायद इसी सवाल की प्रतीक्षा कर रही थी। तत्काल बोली -‘एक काम कर। तू मुझे एक मँहगा और खूबसूरत कार्ड भेज दे। मेरे यहाँ आने के लिए तुझे जितना भी खर्च करना पड़ता, उसके मुकाबले, मँहगे से मँहगा कार्ड भी तुझे सस्ता ही पड़ेगा। वह कार्ड मेरे सर्कल में मेरा स्टेटस बढ़ाएगा और तेरा स्टेटस छुपा लेगा। तू चुपचाप आने-जाने की बात कर रहा है लेकिन मैं तेरे कार्ड को अपने ड्राइंग रूम में बड़ी शान से एक्जिबिट करूँगी और अपनी सहेलियों के सामने इतराऊँगी। जमाना भी तो अब कार्ड का ही हो गया है। रिश्ता भले ही न निभा पाएँ, कार्ड तो होना ही चाहिए।’

मैंने जीजी का कहना मान लिया। उसे कार्ड भेज दिया है।

आसपास के घरों से बच्चों, किशोरियों के खिलखिलाने की आवाजें आ रही हैं। बन रहे व्यंजनों की गन्ध नथुनों में समा रही है। पूरे मुहल्ले में राखी के त्यौहार ने डेरा डाल दिया है।

बस, एक मैं ही हूँ जो घर में अकेला बैठा, अपनी सूनी कलाई को घूर रहा हूँ।

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