कल मैं ने स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज का एक लेख प्रस्तुत किया था । आज यहाँ उनकी वसीयत प्रस्तुत है ।
स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज का स्थान राजस्थान के सिंथल में था लेकिन मृत्युपूर्व कोई पाँच वर्ष से वे ऋषिकेश में ही स्थापित हो गए थे । श्रीरामचरित मानस उनका प्रिय ग्रन्थ और भगवान् श्रीराम उनके आराध्य थे । गीता प्रेस गोरखपुर से, रामचरित मानस और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम से सम्बन्धित प्रकाशित साहित्य में श्री रामसुखदासजी महाराज का योगदान सर्वाधिक है । साधु-सन्तों में वे अपने प्रकार के एकमात्र थे - यह उनकी वसीयत पढ़ने के बाद ही अनुभव किया जा सकता है । उनकी वसीयत पढ़ने के बाद हमें अपने आस-पास के सन्तों का ‘सन्तपन’ अवास्तविक अनुभव होने लगता है । मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व के किसी वर्ष की मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी (गीता जयन्ती) को उन्होंने अपनी वसीयत लिखी थी जिसे गीता पे्रस, गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण’ के अगस्त 2005 अंक में अविकल प्रकाशित की थी । उनकी वसीयत यहाँ जस-की-जस प्रस्तुत है -
सेवा में विनम्र निवेदन (वसीयत)
(शरीर शान्त होने के बाद पालनीय आवश्यक निर्देश)
श्री भगवान् की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीवन को मानव शरीर मिलता है । इसका एकमात्र उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्ति ही है । परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूल कर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है । शरीर को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण उसका शरीर से इतना मोह हो जाता है कि इसका नाम तक उसको प्रिय लगने लगता है । शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है । इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है । शरीर नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है । वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बड़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो । वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता । इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवम् नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है । परन्तु शरीर का मान-आदर एवम् नाम की स्तुति-प्रशंसा का भाव इतना व्यापक है कि मनुष्य अपने तथा अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, प्रत्युत् जो भगवदाज्ञा, महापुरुष-वचन तथा शास्त्र मर्यादा के अनुसार सच्चे हृदय से अपने लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति)-में लगे रहकर इन दोषों से दूर रहना चाहते हैं, उन साधकों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करने लग जाते हैं । अधिक क्या कहा जाय, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाए रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबध्द करते हैं एवम् उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं । विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं । इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बन्धित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते हैं और प्रकाशित करवाते हैं । कहने को तो वे अपने- आप को उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही कराते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं ।
श्रद्धातत्व अविनाशी है । अतः उन साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि विनाशी देह या नाम में । नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं । अतः भगवान् के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक श्रीविग्रह की पूजा तथा उनके अविनाशी नाम की स्मृति को छोड़ कर इन नाशवान् शरीरों तथा नामों को महत्व देने से न केवल अपना जीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत् अपने साथ महान् धोखा भी होता है ।
वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है । इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा । जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है । वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता । चित्र लिया जाता है तो उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है । इसलिए चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था । इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’)- की ही पूजा हुई । चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ ।
हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वदा सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण । शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं । अतः महात्मा के कहे जाने वाले शरीर का आदर करना, मल का आदर करना हुआ । क्या यह उचित है ? यदि कोई कहे कि जैसे भगवान् के चित्र आदि की पूजा होती है, वैसे ही महात्मा के चित्र आदि की पूजा की जाए तो क्या आपत्ति है ? तो यह कहना भी उचित नहीं है । कारण कि भगवान् का शरीर चिन्मय एवम् अविनाशी होता है, जबकि महात्मा कहा जाने वाला शरीर पाञ्चभौतिक शरीर होने के कारण जड़ एवम् विनाशी होता है ।
भगवान् सर्वव्यापी हैं, अतः वे चित्र में भी हैं, परन्तु महात्मा की सर्वव्यापकता (शरीर से अलग) भगवान् की सर्वव्यापकता के ही अन्तर्गत होती है । एक भगवान् के अन्तर्गत समस्त महात्मा हैं, अतः भगवान् की पूजा के अन्तर्गत सभी महात्माओं की पूजा स्वतः हो जाती है । यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम भगवान् की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो महात्माओं के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । महात्मा तो संसार में लोगों को भगवान् की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है । वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं ।
वास्तविक जीवनी या चरित्र वही होता है जो सांगोपांग हो अर्थात् जीवन की अच्छी-बुरी (सद्गुण, दुर्गुण, सदाचार, दुराचार आदि) सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन हो । अपने जीवन की समस्त घटनाओं को यथार्थ रूप से मनुष्य स्वयम् ही जान सकता है । दूसरे मनुष्य तो उसकी बाहरी क्रियाओं को देखकर अपनी बुद्धि के अनुसार उसके बारे में अनुमान मात्र कर सकते हैं, जो प्रायः यथार्थ नहीं होता । आजकल जो जीवनी लिखी जाती है, उसमें दोषों को छुपाकर गुणों का ही मिथ्यारूप से अधिक वर्णन करने के कारण वह सांगोपांग तथा पूर्णरूप से सत्य होती ही नहीं । वास्तव में मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के चरित्र से बढ़कर और किसी का चरित्र क्या हो सकता है । अतः उन्हीं के चरित्र को पढ़ना-सुनना चाहिए और उसके अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए । जिसको हम महात्मा मानते हैं, उसका सिद्धान्त और उपदेश ही श्रेष्ठ होता है, अतः उसी के अनुसार अपना जीवन बनाने का यत्न करना चाहिए ।
उपर्युक्त सभी बातों पर विचार करके मैं सभी परिचित सन्तों तथा सद्गृहस्थों से एक विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर रहा हूँ । इसमें सभी बातें मैं ने व्यक्तिगत आधार पर प्रकट की हैं अर्थात् मैंने अपने व्यक्तिगत चित्र, स्मारक, जीवनी आदि का ही निषेध किया है । मेरी शारीरिक असमर्थता के समय तथा शरीर शान्त होने के बाद इस शरीर के प्रति आपका क्या दायित्व रहेगा- इसका स्पष्ट निर्देश करना ही इस लेख का प्रयोजन है ।
(1)
यदि यह शरीर चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में असमर्थ हो जाए एवं वैद्यों-डाक्टरों की राय से शरीर के रहने की कोई आशा प्रतीत न हो तो इसको गंगाजी के तटवर्ती स्थान पर ले जाया जाना चाहिए । उस समय किसी भी प्रकार की ओषधि आदि का प्रयोग न करके केवल गंगाजल तथा तुलसीदल का ही प्रयोग किया जाना चाहिए । उस समय अनवरतरूप से भगवन्नाम का जप कीर्तन और श्रीमद्भगवत्गीता, श्रीविष्णुसहस्त्रनाम, श्रीरामचरितमानस आदि पूज्य ग्रन्थों का श्रवण कराया जाना चाहिए ।
(2)
इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद इस पर गोपीचन्दन एवं तुलसीमाला के सिवाय पुष्प, इत्र, गुलाल आदि का प्रयोग बिलकुल नहीं करना चाहिए । निष्प्राण शरीर को साधु-परम्परा के अनुसार कपड़े की झोली में ले जाया जाना चाहिए न कि लकड़ी आदि से निर्मित वैकुण्ठी (विमान) आदि में ।जिस प्रकार इस शरीर की जीवित अवस्था में चरण-स्पर्श, दण्डवत् प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नामकी जयकार आदि का निषेध करता आया हूँ, उसी प्रकार इस शरीर के निष्प्राण होने के बाद भी चरण-स्पर्श, दण्डवत् प्रणाम, परिक्रमा, माल्यार्पण, अपने नाम की जयकार आदि का निषेध समझना चाहिए ।इस शरीर की जीवित- अवस्था के, मृत्यु-अवस्था के तथा अन्तिम संस्कार आदि के चित्र (फोटो) लेने का मैं सर्वथा निषेध करता हूँ ।
(3)
मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि अन्य नगर या गाँव में इस शरीर के शान्त होने पर इसको वाहन में रखकर गंगाजी के तट पर ले जाया जाना चाहिए और वहीं इसका अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए । यदि किसी अपरिहार्य कारण से ऐसा होना कदापि सम्भव न हो सके तो जिस नगर या गाँव में शरीर शान्त हो जाए, वहीं गायों के गाँव से जंगल की ओर जाने-आने के मार्ग (गोवा) अथवा नगर या गाँव से बाहर जहाँ गायें विश्राम आदि किया करती है, वहाँ इस शरीर का सूर्य की साक्षी में अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए ।इस शरीर के शान्त होने पर किसी की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए ।अन्तिम संस्कारपर्यन्त केवल भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप आदि ही होने चाहिए और अत्यन्त सादगी के साथ अन्तिम संस्कार करना चाहिए ।
(4)
अन्तिम संस्कार के समय इस शरीर की दैनिकोपयोगी सामग्री (कपड़े, खड़ाऊँ, जूते आदि)-को भी इस शरीर के साथ ही जला देना चाहिए तथा अवशिष्ट सामग्री (पुस्तकें, कमण्डलु आदि)-को पूजा में अथवा स्मृति के रूप में बिलकुल नहीं रखना चाहिए, प्रत्युत् उनका भी सामान्यतया उपयोग करते रहना चाहिए ।
(5)
जिस स्थान पर इस शरीर का अन्तिम संस्कार किया जाए, वहाँ मेरी स्मृति के रूप में कुछ भी नहीं बनाना चाहिए, यहाँ तक कि उस स्थान पर केवल पत्थर आदि को रखने का भी मैं निषेध करता हूँ । अन्तिम संस्कार से पूर्व वह स्थल जैसा उपेक्षित रहा है, इस शरीर के अन्तिम संस्कार के बाद भी वह स्थल वैसे ही उपेक्षित रहना चाहिए । अन्तिम संस्कार के बाद अस्थि आदि सम्पूर्ण अवशिष्ट सामग्री को गंगाजी में प्रवाहित कर देना चाहिए ।मेरी स्मृति के रूप में कहीं भी गौशाला, पाठशाला, चिकित्सालय आदि सेवार्थ संस्थाएँ नहीं बनानी चाहिए । अपने जीवनकाल में भी मैं ने अपने लिए कभी कहीं किसी मकान आदि का निर्माण नहीं कराया है और इसके लिए किसी को प्रेरणा भी नहीं की है । यदि कोई व्यक्ति कहीं भी किसी मकान आदि को मेरे द्वारा अथवा मेरी प्रेरणा से निर्मित बताए तो उसको सर्वथा मिथ्या समझना चाहिए ।
(6)
इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं, मेला या महोत्सव आदि बिलकुल नहीं करना चाहिए और उन दिनों में किसी प्रकार की कोई मिठाई आदि भी नहीं करनी चाहिए । साधु-सन्त जिस प्रकार अब तक मेरे सामने भिक्षा लाते रहे हैं, उसी प्रकार लाते रहना चाहिए । अगर सन्तों के लिए सद्गृहस्थ अपने-आप भिक्षा लाते हैं तो उसी भिक्षा को स्वीकार करना चाहिए जिसमें कोई मीठी चीज न हो । अगर कोई साधु या सद्गृहस्थ बाहर से आ जायँ तो उनकी भोजन व्यवस्था में मिठाई बिलकुल नहीं बनानी चाहिए, प्रत्युत् उनके लिए भी साधारण भोजन ही बनाना चाहिए ।
(7)
इस शरीर के शान्त होने पर शोक अथवा शोक-सभा आदि नहीं करना चाहिए, प्रत्युत् सत्रह दिन तक सत्संग, भजन-कीर्तन, भगवन्नाम-जप, गीता पाठ, श्रीरामचरित मानस पाठ, सन्तवाणी-पाठ, भागवत-पाठ आदि आध्यात्मिक कृत्य ही होते रहने चाहिए । सनातन-हिन्दू-संस्कृति में इन दिनों के ये ही मुख्य कृत्य माने गए हैं ।
(8)
इस शरीर के शान्त होने के बाद सत्रहवीं आदि किसी भी अवसर पर यदि कोई सज्जन रुपया-पैसा, कपड़ा आदि कोई वस्तु भेंट करना चाहें तो नहीं लेना चाहिए अर्थात् किसी से भी किसी प्रकार की कोई भेंट बिलकुल नहीं लेनी चाहिए । यदि कोई कहे कि हम तो मन्दिर में भेंट चढ़ाते हैं तो इसको फालतू बात मानकर इसका विरोध करना चाहिए । बाहर से कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार की कोई भेंट किसी भी माध्यम से भेजे तो उसको सर्वथा अस्वीकार कर देना चाहिए । किसी से भी भेंट न लेने के साथ-साथ यह सावधानी भी रखनी चाहिए कि किसी को कोई भेंट, चद्दर किराया आदि नहीं दिया जाए । जब सत्रहवीं का भी निषेध है तो फिर बरसी (वार्षिक तिथि) आदि का भी निषेध समझना चाहिए ।
(9)
इस शरीर के शान्त होने के बाद इस (शरीर)-से सम्बन्धित घटनाओं को जीवनी, स्मारिका, संस्मरण आदि किसी भी रूप में प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए ।
अन्त में मैं अपने परिचित सभी सन्तों एवं सद्गृहस्थों से विनम्र निवेदन करता हूँ कि जिन बातों का मैंने निषेध किया है, उनको किसी भी स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए । इस शरीर के शान्त होने पर इन निर्देशों के विपरीत आचरण करके तथा किसी प्रकार का विवाद, विरोध, मतभेद, झगड़ा, वितण्डावाद आदि अवांछनीय स्थिति उत्पन्न करके अपने को अपराध एवं पाप का भागी नहीं बनाना चाहिए, प्रत्युत् अत्यन्त धैर्य, प्रेम, सरलता एवं पारस्परिक विश्वास, निश्छल व्यवहार के साथ पूर्वोक्त निर्देशों का पालन करते हुए भगवन्नाम-कीर्तनपूर्वक अन्तिम संस्कार कर देना चाहिए । जब और जहाँ भी ऐसा संयोग हो, इस शरीर के सम्बन्ध में दिए गए निर्देशों का पालन वहाँ उपस्थित प्रत्येक सम्बन्धित व्यक्ति को करना चाहिए ।
मेरे जीवनकाल में मेरे द्वारा शरीर से, मन से, जान में, अनजान में किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट पहुँचा हो तो मैं उन सभी से विनम्र हृदय से क्षमा माँगता हूँ । आशा है, सभी उदारतापूर्वक मेरे को क्षमा प्रदान करेंगे ।
राम.....राम.....राम ।
-हस्ताक्षर रामसुखदास