बापू कथा में मेरी कथा‘












श्री धर्मेन्‍‍द्र रावल













श्री रवि शर्मा














श्री तरण सिंह













तनु रावल

कथा’ को लगातार पांच दिनों तक सुनना मेरे जीवन के, गिनती के अच्छे कामों में से एक है । लेकिन उस कथा को अपने ब्लाग के जरिए सार्वजनिक करना, मेरे अच्छे कामों (यदि मैं ने वाकई में अच्छे काम किए हों तो) की सूची में प्रथम क्रम का काम है इससे भी आगे बढ़कर कहूं, यह गिनती के उन कामों में श्रेष्‍‍ठ है जिनसे मुझे आत्म सन्तोष्‍ा मिला ।
लेकिन यह ऐसा काम रहा जिसे करने का न तो कोई पूर्व विचार मेरे मन में आया था और न ही इसकी कोई योजना मैं ने बनाई थी । सब कुछ, अचानक, अनायास और सर्वथा अनियोजित होता गया । मैं यही कह सकता हूं कि यह काम मुझसे करवाया गया । किसने करवाया ? इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं है । यही कह सकता हूं कि ईश्‍वर चाहता था कि मैं यह काम मैं करुं ।

9 अगस्त की पूर्वाह्न जब मैं रतलाम से चला तो अपना लेपटाप और ‘की बोर्ड’ साथ में रख लिया । पता नहीं क्यों । मैं ‘रेग्यूलर टाइपिस्ट’ या कि ‘ब्लाइण्ड टाइपिस्ट’ नहीं हूं । मैं ने ‘की बोर्ड’ पर हिन्दी के स्टीकर चिपका रखे हैं और अक्षर देख-देख कर टाइप करता हूं ।

बापू कथा की पहली शाम को अपने झोले में एक ‘राइटिंग पैड’ रख लिया-यह सोचकर कि कोई महत्वपूर्ण, रोचक, उद्धरणीय बात सुनने को मिलेगी तो लिख लूंगा-मेरे बीमा व्यवसाय में काम आएगी । मेरे आत्मीय धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा और तरण सिंह से पहले ही सब कुछ खरी-पक्की हो गई थी । तीनों ही समय पर मेरे होटल पहुंच गए । लेकिन निकलते-निकलते हमें देर हो ही गई । रवि ने वाहन-सुख उपलब्ध कराया ।
हम लोग कोई आधा घण्टा देर से पहुंचे । नारायण भाई का व्याख्यान गति पकड़ चुका था । मैं ने राइटिंग पैड खोला और लिखना शुरु किया । थोड़ी ही देर में मैं ने पाया कि मैं लगातार लिखे जा रहा हूं, कोई भी बात ऐसी नहीं लग रही थी जिसे न लिखा जा सके ।

साढ़े आठ बजे, कथा समाप्ति के बाद, निकलते-निकलते और फिर भोजन करते-करते दस बज गए । भोजन के दौरान ही मुझे लगा कि आज का व्याख्यान ब्लाग पर पोस्ट करना चाहिए । यह विचार समाप्त भी नहीं हुआ था कि अगला विचार आया - एक दिन का व्याख्यान ही क्यों ? पाचों दिन का व्याख्यान क्यों नहीं ? बस, उसी क्षण, ‘बापू कथा’ ब्लाग पर प्रस्तुत करने का निर्णय हो गया । लेकिन इण्टरनेट की व्यवस्था कहां से हो ? धर्मेन्द्र ने बताया कि उनके घर पर ब्राड बेण्ड कनेक्‍शन है । तय हुआ कि सवेरे, जल्दी ही मैं धर्मेन्द्र के घर पहुंचूंगा और वहीं से अपनी पोस्ट कर दूंगा । लेकिन धर्मेन्द्र का निवास मेरे होटल से पूरे सात किलो मीटर दूर था । एक दिन की बात हो तो आटो रिक्‍शा कर लूं लेकिन पूरे पांच दिन ? तरण सिंह ने तत्काल समाधान कर दिया - उन्होंने अपनी मोटर सायकिल मुझे सौंप दी - पूरे पांच दिनों के लिए ।

होटल आते ही मैं ने अपने ताम-झाम खोल कर पोस्ट लिखनी शुरु की । काम चलाऊ टाइपिस्ट के लिए इतनी लम्बी पोस्ट लिखना यकीनन बहुत ही कठिन काम होता है । रात को जब पोस्ट फायनल की तो पौने तीन बज रहे थे । उत्साह और उमंग में न तो समय का पता चला, न ही थकान आई ।सवेरे कोई आठ बजे ही मैं, सुदामा नगर में, धर्मेन्द्र के निवास पर था । वहां अपना तामझाम जमाया, नेट कनेक्‍शन का तार लेपटाप में लगाया, रविजी (श्री रवि रतलामी) द्वारा उपलब्ध कराए गए कन्वर्टर से पोस्ट को कृति से यूनीकोड में बदला । इस सबमें कोई डेड़ घण्टा लग गया ।

लेकिन मुश्किल तब आई जब देखा कि ‘नेट’ न तो इण्टरनेट एक्स्प्लोरर पर खुल रहा था न ही मोझिल्ला पर । हर बार ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आ रहा था जबकि टर्मीनल बराबर लगा हुआ था । मेरे हाथ-पांव फूल गए । लगा कि मनोकामना पूरी नहीं हो पाएगी । तकनीक की जानकारी न तो मुझे और न ही धर्मेन्द्र को । दोनों बराबरी के नासमझ । ऐसे में तनु ‘संकट मोचन’ बन कर सामने आई । तनु याने धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी की इकलौती बिटिया जो हम सबके सर पर सवार रहती है । बोलती ऐसे है मानो बोलने के पैसे लगते हों । उसकी बात सुनने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ता है । उसने इलेक्ट्रानिक्स एण्ड टेलीकम्यूनिकेशन में बी. ई. किया है । हम दोनों की दशा देख कर वह हंसती-हंसती दोहरी हो गई । हम अहमकों की तरह उसका मुंह देखें और वह हंसे जाए । उसने बताया कि जिस मोडम से ‘नेट’ सेवाएं ली जानी है, जब तक वह मेरे ‘सिस्टम’ में ‘इंस्टाल’ नहीं होगा तब तक ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आता रहेगा । ईश्वर चाहता था कि ‘बापू कथा’ आप तक पहुंचे इसीलिए, जो मोडम धर्मेन्द्र के यहां था उसकी सीडी तनु के पास थी । उसने कुछ ही मिनिटों में मोडम मेरे सिस्टम पर इंस्टाल कर दिया और मैं ‘बापू कथा’ की पहली पोस्ट कर पाया ।

अगले तीन दिनों तक भी यही क्रम चला । मैं रोज रात को तीन बजे तक पोस्ट टाइप करता, सवेरे सात किलोमीटर चल कर धर्मेन्द्र के घर जाता, पोस्ट को कृति से यूनीकोड में कन्वर्ट कर, पोस्टिंग करता ।

इस बीच, 13 अगस्त को मानो चमत्कार ही हुआ । अपराह्न कोई साढ़े तीन बजे मेरा मोबाइल घनघनाया । उधर से पूछा गया - ‘क्या मैं विष्णुजी बैरागी से बात कर रहा हूं ?’ मेरे हां कहने पर उधर से आवाज आई - ‘मैं वाराणसी से अफलातून बोल रहा हूं ।’ मेरे रोंगेटे खड़े हो गए । एक दिन पहले ही मुझे अफलातूनजी के बारे में जानकारी मिली थी कि वे नारायण भाई के बेटे हैं । मुझे लगा था कि ‘अफलातून’ कोई ‘निक नेम’ होगा । सो, उसी शाम मैं ने नारायण भाई से पूछा था - ‘अफलातूनजी का वास्तविक नाम क्या है ?’ उन्होंने मुझे तीखी नजरों से घूरते हुए कहा था - ‘अफलातून वास्तविक नाम ही है । आपको कम लगे तो आगे देसाई जोड़ दो ।’ वे ही अफलातून मुझसे बात कर रहे थे ! उन्होंने पहले तो प्रशंसा की फिर थोड़ी पूछताछ की और जब टाइपिंग वाले मामले में मेरी दरिद्रता जानी तो चकित होकर अत्यधिक प्रशंसा करने लगे । लेकिन उन्होंने एक बात कह कर मुझे निहाल कर दिया । उन्होंने कहा कि जय प्रकाश नारायण की सभाओं की रिपोर्टिंग नारायण भाई, बिना किसी के कहे किया करते थे । मेरी रिपोर्टिंग से उन्हें नारायण भाई की वही रिपोर्टिंग याद हो आई । मैं जानता हूं कि अफलातूनजी ने अतिशय सौजन्य, उदारता और बड़प्पन बरतते हुए अपात्र की अत्यधिक प्रशंसा की लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी प्रशंसा ने मुझे बौरा दिया ।

लेकिन पांचवें दिन (13 अगस्त) का व्याख्यान मैं 14 अगस्त को पोस्ट नहीं कर पाया । होटल की जिस कुर्सी पर बैठ कर पांच-पांच घण्टे ठाइप करता, वह कुर्सी तनिक भी आरामदायक नहीं थी । सो मेरी पीठ अकड़ गई, काया कष्‍ट में आ गई और छठवीं सवेरे मैं ‘टें’ बोल गया । मेरा क्रम बाधित हो गया । 14 अगस्त की शाम मैं रतलाम पहुंचा और उसी दिन ‘बापू कथा: कृपया समय दें’ वाली सूचना पोस्ट की । पूरे तीन दिन कष्ट बना रहा । इस बीच तमाम कृपालुओं की शुभ-कामनाएं मिलती रहीं । उन्हीं का प्रताप रहा कि 17 अगस्त को कथा की पांचवी शाम पोस्ट कर पाया ।

यह काम कर मुझे अपूर्व आत्म-सन्तोष मिला । नितान्त व्यक्तिगत स्तर पर मैं जीवन के प्रत्येक पक्ष में लाभान्वित हुआ । इन्दौर में अनेक पुराने मित्रों-परिचितों से सम्पर्क का नवीकरण तो हुआ ही लेकिन सबसे बड़ी बात रही - नारायण भाई के दर्शन कर, उनसे बात करना । उसके बाद महत्वूर्ण प्राप्ति रही - अफलातूनजी से व्यक्तिगत सम्पर्क होना । स्थापित ब्लागर महानुभावों ने अत्यधिक उदारता से मेरी पीठ थपथपाई मैं तो निहाल हो गया ।

लेकिन इस सबका असल श्रेय तो धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा, तरण सिंह और तनु को जाता है । इन चारों ने मेरे लिए संरजाम जुटाए और मैं यह सब कर पाया ।जो काम करने का विचार भी मेरे मन में कोसों तक कहीं नहीं था, उस काम का निमित्त मैं बना ।

यह ईश्‍वर की कृपा ही रही कि मुझे ‘गांधी की चाकरी’ करने का सुख-सौभाग्य मिला ।

ऐसा सुख-सौभाग्य सबको मिले ।

बापू कथा में मेरी कथा‘












श्री धर्मेन्‍‍द्र रावल

































श्रीद रवि शर्मा






































श्री तरण सिंह



बापू कथा’ को लगातार पांच दिनों तक सुनना मेरे जीवन के, गिनती के अच्छे कामों में से एक है । लेकिन उस कथा को अपने ब्लाग के जरिए सार्वजनिक करना, मेरे अच्छे कामों (यदि मैं ने वाकई में अच्छे काम किए हों तो) की सूची में प्रथम क्रम का काम है इससे भी आगे बढ़कर कहूं, यह गिनती के उन कामों में श्रेष्‍‍ठ है जिनसे मुझे आत्म सन्तोष्‍ा मिला ।
लेकिन यह ऐसा काम रहा जिसे करने का न तो कोई पूर्व विचार मेरे मन में आया था और न ही इसकी कोई योजना मैं ने बनाई थी । सब कुछ, अचानक, अनायास और सर्वथा अनियोजित होता गया । मैं यही कह सकता हूं कि यह काम मुझसे करवाया गया । किसने करवाया ? इसका कोई उत्तर मेरे पास नहीं है । यही कह सकता हूं कि ईश्‍वर चाहता था कि मैं यह काम मैं करुं ।







9 अगस्त की पूर्वाह्न जब मैं रतलाम से चला तो अपना लेपटाप और ‘की बोर्ड’ साथ में रख लिया । पता नहीं क्यों । मैं ‘रेग्यूलर टाइपिस्ट’ या कि ‘ब्लाइण्ड टाइपिस्ट’ नहीं हूं । मैं ने ‘की बोर्ड’ पर हिन्दी के स्टीकर चिपका रखे हैं और अक्षर देख-देख कर टाइप करता हूं ।

बापू कथा की पहली शाम को अपने झोले में एक ‘राइटिंग पैड’ रख लिया-यह सोचकर कि कोई महत्वपूर्ण, रोचक, उद्धरणीय बात सुनने को मिलेगी तो लिख लूंगा-मेरे बीमा व्यवसाय में काम आएगी । मेरे आत्मीय धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा और तरण सिंह से पहले ही सब कुछ खरी-पक्की हो गई थी । तीनों ही समय पर मेरे होटल पहुंच गए । लेकिन निकलते-निकलते हमें देर हो ही गई । रवि ने वाहन-सुख उपलब्ध कराया ।







हम लोग कोई आधा घण्टा देर से पहुंचे । नारायण भाई का व्याख्यान गति पकड़ चुका था । मैं ने राइटिंग पैड खोला और लिखना शुरु किया । थोड़ी ही देर में मैं ने पाया कि मैं लगातार लिखे जा रहा हूं, कोई भी बात ऐसी नहीं लग रही थी जिसे न लिखा जा सके ।








साढ़े आठ बजे, कथा समाप्ति के बाद, निकलते-निकलते और फिर भोजन करते-करते दस बज गए । भोजन के दौरान ही मुझे लगा कि आज का व्याख्यान ब्लाग पर पोस्ट करना चाहिए । यह विचार समाप्त भी नहीं हुआ था कि अगला विचार आया - एक दिन का व्याख्यान ही क्यों ? पाचों दिन का व्याख्यान क्यों नहीं ? बस, उसी क्षण, ‘बापू कथा’ ब्लाग पर प्रस्तुत करने का निर्णय हो गया । लेकिन इण्टरनेट की व्यवस्था कहां से हो ? धर्मेन्द्र ने बताया कि उनके घर पर ब्राड बेण्ड कनेक्‍शन है । तय हुआ कि सवेरे, जल्दी ही मैं धर्मेन्द्र के घर पहुंचूंगा और वहीं से अपनी पोस्ट कर दूंगा । लेकिन धर्मेन्द्र का निवास मेरे होटल से पूरे सात किलो मीटर दूर था । एक दिन की बात हो तो आटो रिक्‍शा कर लूं लेकिन पूरे पांच दिन ? तरण सिंह ने तत्काल समाधान कर दिया - उन्होंने अपनी मोटर सायकिल मुझे सौंप दी - पूरे पांच दिनों के लिए ।








होटल आते ही मैं ने अपने ताम-झाम खोल कर पोस्ट लिखनी शुरु की । काम चलाऊ टाइपिस्ट के लिए इतनी लम्बी पोस्ट लिखना यकीनन बहुत ही कठिन काम होता है । रात को जब पोस्ट फायनल की तो पौने तीन बज रहे थे । उत्साह और उमंग में न तो समय का पता चला, न ही थकान आई ।सवेरे कोई आठ बजे ही मैं, सुदामा नगर में, धर्मेन्द्र के निवास पर था । वहां अपना तामझाम जमाया, नेट कनेक्‍शन का तार लेपटाप में लगाया, रविजी (श्री रवि रतलामी) द्वारा उपलब्ध कराए गए कन्वर्टर से पोस्ट को कृति से यूनीकोड में बदला । इस सबमें कोई डेड़ घण्टा लग गया ।








लेकिन मुश्किल तब आई जब देखा कि ‘नेट’ न तो इण्टरनेट एक्स्प्लोरर पर खुल रहा था न ही मोझिल्ला पर । हर बार ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आ रहा था जबकि टर्मीनल बराबर लगा हुआ था । मेरे हाथ-पांव फूल गए । लगा कि मनोकामना पूरी नहीं हो पाएगी । तकनीक की जानकारी न तो मुझे और न ही धर्मेन्द्र को । दोनों बराबरी के नासमझ । ऐसे में तनु ‘संकट मोचन’ बन कर सामने आई । तनु याने धर्मेन्द्र और सुमित्रा भाभी की इकलौती बिटिया जो हम सबके सर पर सवार रहती है । बोलती ऐसे है मानो बोलने के पैसे लगते हों । उसकी बात सुनने के लिए शरीर के रोम-रोम को कान बनाना पड़ता है । उसने इलेक्ट्रानिक्स एण्ड टेलीकम्यूनिकेशन में बी. ई. किया है । हम दोनों की दशा देख कर वह हंसती-हंसती दोहरी हो गई । हम अहमकों की तरह उसका मुंह देखें और वह हंसे जाए । उसने बताया कि जिस मोडम से ‘नेट’ सेवाएं ली जानी है, जब तक वह मेरे ‘सिस्टम’ में ‘इंस्टाल’ नहीं होगा तब तक ‘नेट कनेक्‍शन अनप्लग्ड’ का सन्देश आता रहेगा । ईश्वर चाहता था कि ‘बापू कथा’ आप तक पहुंचे इसीलिए, जो मोडम धर्मेन्द्र के यहां था उसकी सीडी तनु के पास थी । उसने कुछ ही मिनिटों में मोडम मेरे सिस्टम पर इंस्टाल कर दिया और मैं ‘बापू कथा’ की पहली पोस्ट कर पाया ।








अगले तीन दिनों तक भी यही क्रम चला । मैं रोज रात को तीन बजे तक पोस्ट टाइप करता, सवेरे सात किलोमीटर चल कर धर्मेन्द्र के घर जाता, पोस्ट को कृति से यूनीकोड में कन्वर्ट कर, पोस्टिंग करता ।








इस बीच, 13 अगस्त को मानो चमत्कार ही हुआ । अपराह्न कोई साढ़े तीन बजे मेरा मोबाइल घनघनाया । उधर से पूछा गया - ‘क्या मैं विष्णुजी बैरागी से बात कर रहा हूं ?’ मेरे हां कहने पर उधर से आवाज आई - ‘मैं वाराणसी से अफलातून बोल रहा हूं ।’ मेरे रोंगेटे खड़े हो गए । एक दिन पहले ही मुझे अफलातूनजी के बारे में जानकारी मिली थी कि वे नारायण भाई के बेटे हैं । मुझे लगा था कि ‘अफलातून’ कोई ‘निक नेम’ होगा । सो, उसी शाम मैं ने नारायण भाई से पूछा था - ‘अफलातूनजी का वास्तविक नाम क्या है ?’ उन्होंने मुझे तीखी नजरों से घूरते हुए कहा था - ‘अफलातून वास्तविक नाम ही है । आपको कम लगे तो आगे देसाई जोड़ दो ।’ वे ही अफलातून मुझसे बात कर रहे थे ! उन्होंने पहले तो प्रशंसा की फिर थोड़ी पूछताछ की और जब टाइपिंग वाले मामले में मेरी दरिद्रता जानी तो चकित होकर अत्यधिक प्रशंसा करने लगे । लेकिन उन्होंने एक बात कह कर मुझे निहाल कर दिया । उन्होंने कहा कि जय प्रकाश नारायण की सभाओं की रिपोर्टिंग नारायण भाई, बिना किसी के कहे किया करते थे । मेरी रिपोर्टिंग से उन्हें नारायण भाई की वही रिपोर्टिंग याद हो आई । मैं जानता हूं कि अफलातूनजी ने अतिशय सौजन्य, उदारता और बड़प्पन बरतते हुए अपात्र की अत्यधिक प्रशंसा की लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि उनकी प्रशंसा ने मुझे बौरा दिया ।








लेकिन पांचवें दिन (13 अगस्त) का व्याख्यान मैं 14 अगस्त को पोस्ट नहीं कर पाया । होटल की जिस कुर्सी पर बैठ कर पांच-पांच घण्टे ठाइप करता, वह कुर्सी तनिक भी आरामदायक नहीं थी । सो मेरी पीठ अकड़ गई, काया कष्‍ट में आ गई और छठवीं सवेरे मैं ‘टें’ बोल गया । मेरा क्रम बाधित हो गया । 14 अगस्त की शाम मैं रतलाम पहुंचा और उसी दिन ‘बापू कथा: कृपया समय दें’ वाली सूचना पोस्ट की । पूरे तीन दिन कष्ट बना रहा । इस बीच तमाम कृपालुओं की शुभ-कामनाएं मिलती रहीं । उन्हीं का प्रताप रहा कि 17 अगस्त को कथा की पांचवी शाम पोस्ट कर पाया ।








यह काम कर मुझे अपूर्व आत्म-सन्तोष मिला । नितान्त व्यक्तिगत स्तर पर मैं जीवन के प्रत्येक पक्ष में लाभान्वित हुआ । इन्दौर में अनेक पुराने मित्रों-परिचितों से सम्पर्क का नवीकरण तो हुआ ही लेकिन सबसे बड़ी बात रही - नारायण भाई के दर्शन कर, उनसे बात करना । उसके बाद महत्वूर्ण प्राप्ति रही - अफलातूनजी से व्यक्तिगत सम्पर्क होना । स्थापित ब्लागर महानुभावों ने अत्यधिक उदारता से मेरी पीठ थपथपाई मैं तो निहाल हो गया ।








लेकिन इस सबका असल श्रेय तो धर्मेन्द्र रावल, रवि शर्मा, तरण सिंह और तनु को जाता है । इन चारों ने मेरे लिए संरजाम जुटाए और मैं यह सब कर पाया ।जो काम करने का विचार भी मेरे मन में कोसों तक कहीं नहीं था, उस काम का निमित्त मैं बना ।








यह ईश्‍वर की कृपा ही रही कि मुझे ‘गांधी की चाकरी’ करने का सुख-सौभाग्य मिला ।








ऐसा सुख-सौभाग्य सबको मिले ।

दिलीप कुमार से पूछा - आप कौन ?


देश के खेल मन्त्री, एम. एस. गिल, देश के एक खेल रत्न और भारतीय बेडमिण्टन टीम के कोच गोपीचन्द पुलेला को नहीं पहचान पाए ।


बीजिंग ओलम्पिक में हिस्सा लेने के बाद लौटी यह टीम जब खेल मन्त्री से मिलने पहुंची तो गिल साहब ने, टीम की सदस्य सायना नेहवाल को तो पहचान लिया लेकिन उनके साथ खड़े गोपीचन्द पुलेला से पूछ लिया - आप कौन ? लोगों को हैरानी हुई लेकिन खुद पुलेला को बुरा नहीं लगा ! उन्होंने इस बात को बहुत ही सहजता से लिया । कोई खिलाड़ी ही इतना सहज हो सकता है ।

मुझे दो प्रसंग याद आ गए । पहला प्रसंग बाबू घनश्याम दासजी बिड़ला और ‘त्रासदी सम्राट’ दिलीप कुमार को लेकर है ।

दोनों एक ही विमान में, एक्जिक्यूटिव क्लास में यात्रा कर रहे थे । बिड़लाजी अपने कागज-पत्तर खोल कर अपने काम-काज में लग गए । दिलीप कुमार के पास कोई काम नहीं था । वे बिड़लाजी को काम करते देखते रहे । कुछ ही क्षणों में दिलीप कुमार असहज हो गए । उन्हें लगा कि सहयात्री जानबूझ कर उनकी अनदेखी कर रहा है । सो, उन्होंने आगे रहकर अपना परिचय दिया - ‘मैं, दिलीप कुमार ।’ बिड़लाजी ने भी शिष्टाचार निर्वहन करते हुए अपना परिचय दिया - ‘मैं, घनश्याम दास बिड़ला । आपसे मिलकर अच्छा लगा ।’ कह कर वे फिर अपने कागज-पत्तर पलटने लगे ।


दिलीप कुमार और अधिक असहज हो गए । उन्हें बिलकुल ही अच्छा नहीं लगा । तहजीब, शराफत, नफासत पसन्द दिलीप साहब ने एक बार फिर अपने बारे में बताया । बिड़लाजी ने मुस्कुरा कर कहा - ‘हां, अभी ही तो आपने अपना परिचय दिया है ।’ दिलीप साहब ने कहा -‘हां, लेकिन लगता है, आपने मुझे पहचाना नहीं ।’ बिड़लाजी ने तनिक संकोच से कहा -‘आपने बिलकुल ठीक कहा । मैं ने वाकई में आपको नहीं पहचाना । आप क्या करते हैं ?’


यह सवाल सुन कर ‘त्रासदी सम्राट’ को कैसा लगा होगा, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है । लेकिन उन्हें इतना समझ आ गया कि बिड़लाजी वास्तव में उन्हें नहीं पहचानते । उन्होंने कहा - ‘मैं फिल्म कलाकार हूं ।’ अब बिड़लाजी और अधिक संकोचग्रस्त हो गए । इस बार तनिक अधिक विनम्रता से, तनिक झिझकते हुए बोले -‘माफ कीजिएगा । मैं फिल्में नहीं देख पाता ।’ दिलीप साहब को इस बार बिलकुल ही बुरा नहीं लगा । बिड़लाजी की दशा, मनोदशा और वास्तविकता का भान उन्हें भली प्रकार हो गया और उस सफर में उन्हें फिर कोई मानसिक असुविधा नहीं हुई ।


दूसरा किस्सा मध्यप्रदेश के तत्कालीन (अब दिवंगत) मुख्य मन्त्री, लौह पुरुष पण्डित द्वारका प्रसादजी मिश्र का है । सागर के विधायक डालचन्दीजी जैन उनके मन्त्रि मण्डल के सदस्य थे । उन दिनों, मन्त्रियों को अपने मुख्य मन्त्री की चापलूसी नहीं करनी पड़ती थी और अपनी कुर्सी बचाए-बनाए रखने के लिए चैबीसों घण्टे मुख्यमन्त्री के आसपास नहीं बना रहना पड़ता था ।


अपने विधान सभा क्षेत्र की कुछ समस्याओं का निदान कराने के लिए डालचन्दजी जैन, अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि मण्डल के साथ मिश्रजी से मिलने पहुंचे । मिश्रजी ने सबको आदर-सम्मान से बैठाया, आव-भगत की और सबका परिचय प्राप्त किया । डालचन्दजी ने अपना नाम बताया तो मिश्रजी बोले -‘क्या संयोग है ! आपके नाम के ही एक सज्जन हमारे मन्त्रि मण्डल के सदस्य हैं ।’ प्रतिनिधि मण्डल के तमाम सदस्य हैरत से कभी डालचन्दजी को तो कभी मिश्रजी को देखने लगे । डालचन्दजी की स्थिति विचित्र हो गई । लेकिन मिश्रजी का स्वभाव डालचन्दजी और उनके साथ आए प्रतिनिधि मण्डल के तमाम सदस्य भली प्रकार जानते थे । डालचन्दजी ने कहा -‘वह मैं ही हूं ।’ इस बार मिश्रजी के असहज होने की बारी थी । मिश्रजी ‘माफ करना भाई ।’ के सिवाय और कुछ नहीं कह पाए ।

ऐसे में, बेडमिण्टन जैसे, लगभग महत्वहीन खेल की राष्ट्रीय टीम के कोच को यदि देश का नया-नया खेल मन्त्री न पहचान पाया हो तो आश्चर्य की कोई बात नहीं ।

खादी और लोक विश्वास


इस आख्यान को ‘खादी जन्म कथा’ का उपसंहार कहा जा सकता है । खादी की जन्म कथा सुनाने के ठीक बाद, नारायण भाई ने, 11 अगस्त 2008 को ही यह कथा सुनाई थी ।

बम्बई के एस्पलेनेड (जिसे अब शायद आजाद मैदान कहा जाता है) में गांधीजी की सभा चल रही थी । मैदान भरा हुआ था और लोगों का आना-जाना बना हुआ था ।


भीड़ के अन्तिम छोर पर, पीछे खड़ी एक महिला ने दूर खड़े एक सज्जन को इशारे से अपने पास बुलाया । उन सज्जन ने अपने आसपास देखा और इशारे से ही पूछा - आप मुझे बुला रही हैं ? महिला ने इशारे से उत्तर दिया - हां, आप को ही ।


असमंजस में पड़े, सकपकाते हुए वे सज्जन उस महिला के पास पहुंचे और फिर पूछा - आप मुझे ही बुला रही थीं ? महिला ने कहा - हां, आपको ही तो बुला रही थी । सुन कर सज्जन ने प्रयोजन पूछा । उत्तर में महिला ने अपने हाथों की, रुमाल में बंधी एक छोटी सी पोटली उन सज्जन के हाथों में रख दी और कहा - इसमें मेरी सोने की चूड़ियां और कानों की झुमकियां हैं । उसने अपना नाम और विले पारले का अपना पता बताते हुए उन सज्जन से अनुरोध किया कि वे उसकी यह पोटली उसके घर पहुंचा दें ।

सज्जन को कुछ समझ नहीं पड़ा । उन्होंने कहा कि न तो वे महिला को जानते हैं और न ही महिला उन सज्जन को । ऐसे में वे अपने गहने उन्हें कैसे सौंप सकती हैं । महिला ने कहा - क्यों कि मैं जानती हूं कि आप ये गहने मेरे घर पहुंचा देंगे । सज्जन ने पूछा - आप मुझे नहीं जानती फिर भी इतना विश्वास कैसे कर रही हैं ? उन्होंने पूछा - आपके घर पहुंचाने के बजाय यदि मैं ये गहने अपने घर लेकर चला जाऊं तो ? महिला ने कहा - आप ऐसा नहीं करेंगे । सज्जन ने पूछा - क्यों नहीं करुंगा ? महिला बोली - नहीं, आप ऐसा बिलकुल ही नहीं करेंगे । सज्जन को और आश्चर्य हुआ । पूछा - क्यों नहीं ले जाऊंगा ?

महिला बोली - आप ऐसा कर ही नहीं सकते ?

अब सज्जन को आनन्द आने लगा था । पूछा - आखिर आप को इतना विश्वास क्यों है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता ?


महिला बहुत ही सहजता से बोली - आप ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते । आपने खादी जो पहनी हुई है ।


नारायण भाई ने जैसे ही किस्सा पूरा किया, सभागार तालियों से गूंज उठा । हर कोई ताली बजा रहा था, सिवाय कुछ खादीधारियों के, जो सबसे पहली कतार में, नारायण भाई के ठीक सामने बैठे थे ।

खादी और लोक विश्वास


इस आख्यान को ‘खादी जन्म कथा’ का उपसंहार कहा जा सकता है । खादी की जन्म कथा सुनाने के ठीक बाद, नारायण भाई ने, 11 अगस्त 2008 को ही यह कथा सुनाई थी ।

बम्बई के एस्पलेनेड (जिसे अब शायद आजाद मैदान कहा जाता है) में गांधीजी की सभा चल रही थी । मैदान भरा हुआ था और लोगों का आना-जाना बना हुआ था ।


भीड़ के अन्तिम छोर पर, पीछे खड़ी एक महिला ने दूर खड़े एक सज्जन को इशारे से अपने पास बुलाया । उन सज्जन ने अपने आसपास देखा और इशारे से ही पूछा - आप मुझे बुला रही हैं ? महिला ने इशारे से उत्तर दिया - हां, आप को ही ।


असमंजस में पड़े, सकपकाते हुए वे सज्जन उस महिला के पास पहुंचे और फिर पूछा - आप मुझे ही बुला रही थीं ? महिला ने कहा - हां, आपको ही तो बुला रही थी । सुन कर सज्जन ने प्रयोजन पूछा । उत्तर में महिला ने अपने हाथों की, रुमाल में बंधी एक छोटी सी पोटली उन सज्जन के हाथों में रख दी और कहा - इसमें मेरी सोने की चूड़ियां और कानों की झुमकियां हैं । उसने अपना नाम और विले पारले का अपना पता बताते हुए उन सज्जन से अनुरोध किया कि वे उसकी यह पोटली उसके घर पहुंचा दें ।

सज्जन को कुछ समझ नहीं पड़ा । उन्होंने कहा कि न तो वे महिला को जानते हैं और न ही महिला उन सज्जन को । ऐसे में वे अपने गहने उन्हें कैसे सौंप सकती हैं । महिला ने कहा - क्यों कि मैं जानती हूं कि आप ये गहने मेरे घर पहुंचा देंगे । सज्जन ने पूछा - आप मुझे नहीं जानती फिर भी इतना विश्वास कैसे कर रही हैं ? उन्होंने पूछा - आपके घर पहुंचाने के बजाय यदि मैं ये गहने अपने घर लेकर चला जाऊं तो ? महिला ने कहा - आप ऐसा नहीं करेंगे । सज्जन ने पूछा - क्यों नहीं करुंगा ? महिला बोली - नहीं, आप ऐसा बिलकुल ही नहीं करेंगे । सज्जन को और आश्चर्य हुआ । पूछा - क्यों नहीं ले जाऊंगा ?

महिला बोली - आप ऐसा कर ही नहीं सकते ?

अब सज्जन को आनन्द आने लगा था । पूछा - आखिर आप को इतना विश्वास क्यों है कि मैं ऐसा नहीं कर सकता ?


महिला बहुत ही सहजता से बोली - आप ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते । आपने खादी जो पहनी हुई है ।


नारायण भाई ने जैसे ही किस्सा पूरा किया, सभागार तालियों से गूंज उठा । हर कोई ताली बजा रहा था, सिवाय कुछ खादीधारियों के, जो सबसे पहली कतार में, नारायण भाई के ठीक सामने बैठे थे ।

खादी का जन्म

‘बापू कथा’ के तीसरे दिन, 11 अगस्त 2008 को, कथा के अन्तिम सोपान में नारायण भाई देसाई ने ‘खादी-जन्म’ की यह कथा सुनाई थी ।

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद, अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले के परामर्श के अनुसार, देश को जानने के लिए गांधी, भारत यात्रा पर निकले हुए थे । इस अभियान के सबसे लम्बे प्रवास, पूर्वी उत्तर प्रदेश से दक्षिण भारत के दौरान यह प्रसंग उपस्थित हुआ ।
गांधीजी आन्ध्र प्रदेश में थे । ‘बा’ साथ ही थीं । गांधी से मिलने के लिए लोग आ जाते थे और ‘बा’ बस्ती में घूम कर महिलाओं से मिलती थीं । इसी दौरान ‘बा’ को ऐसा मकान मिला जिसमें तीन महिलाएं रह रही थीं लेकिन वे बाहर, बहुत ही कम आती-जाती थीं । दुभाषिये की मदद से ‘बा’ ने उनसे पूछा - तुम्हें पता है, तुम्हारी बस्ती में गांधीजी आए हुए हैं ? तीनों महिलाओं ने ‘हां’ में सर हिलाया । ‘बा’ ने पूछा - तुम उनसे मिलने गई हो ? महिलाओं ने इंकार कर दिया । ‘बा’ ने पूछा - तुम्हें आने से कोई रोकता है ? महिलाओं ने कहा - कोई नहीं रोकता । ‘बा’ ने पूछा - तो फिर घर का काम बहुत ज्यादा होता होगा । महिलाओं ने बताया कि उनके पास कोई काम नहीं है । अब ‘बा’ को तनिक आ”चर्य हुआ । उन्होंने पूछा - फिर आती क्यों नहीं ? तीनों महिलाएं चुप रहीं । ‘बा’ ने अपना सवाल एक बार, दो बार, तीन बार, फिर बार-बार पूछा लेकिन महिलाओं ने एक बार भी कोई जवाब नहीं दिया - सिर नीचा किए चुप ही बनी रहीं । ‘बा’ ने जोर देकर कारण पूछा तो साहस कर एक महिला ने बताया कि वे कैसे आएं - उन तीनों के बीच एक ही साड़ी है । एक पहन कर बाहर जाती है, बाकी दो घर में ही रहती हैं । ‘बा’ हक्की-बक्की रह गईं ।
शाम को ‘बा’ ने यह किस्सा गांधीजी को सुनाया तो वे असहज हो गए । बोले कुछ भी नहीं । उस समय मद्रास के लिए निकलने की तैयारी हो रही थी ।
मद्रास में भी गांधी की दिनचर्या शुरु तो हुई लेकिन गांधी असहज ही बने हुए थे । शाम को जब गांधी लोगों के बीच आए तो उनका पहनावा बदल गया था । अब तक वे काठियावाड़ी पोषाख पहनते थे - घेरदार अंगरखा, बड़ा-मोटा पग्गड़ और लम्बी धोती । लेकिन आज गांधी ने वह पोषाख छोड़ दी थी । उनके शरीर पर केवल एक धोती थी, वह भी घुटनों तक की और शेष शरीर निर्वस्त्र था । गांधी, कमर से ऊपर पूरी तरह निर्वस्त्र थे । लोगों में हचलच मच गई ।
लोग पूछते उससे पहले ही गांधी ने, आन्ध्र पदेश की घटना सुनाई और कहा कि वे तत्काल और कर ही क्या सकते थे । उन्होंने जितने कपड़े पहन रखे थे उतने कपड़ों से चार लोगों का शरीर ढांका जा सकता था । सो, उन्होंने अनावश्यक वस्त्रों का त्याग कर दिया ।

इसके बाद उन्होंने कहा - मैं ‘उन’ लोगों के लिए कुछ करना चाहता हूं । आप लोग मदद करेंगे ? लोगों ने ‘हां’ कहा । तब गांधी बोले - ‘लेकिन उन्हें दीन नहीं बनाना है ।’ उन्होंने कहा कि वे ऐसा कोई तरीका चाहते हैं जिसमें लेने वाला दीन और देने वाला उद्दण्ड न बने । गरीब की गरीबी का असम्मान न हो ।
दरिद्र-नारायण के आत्मसम्मान की रक्षा के इसी विचार ने खादी को जन्म दिया । तय हुआ कि लोगों को कपड़े तो दिए जाएंगे लेकिन उनसे सूत कतवाया जाएगा जिससे कपड़ा बुनवाए जाएगा । यह प्रक्रिया तय होते ही अनायास ही खादी की पहचान और परिभाषा तय हो गई - हाथ कती, हाथ बुनी ।
कहा जा सकता है कि खादी का मायका दक्षिण भारत में है । शायद इसीलिए, खादी के प्रति रुझान और खादी के उपक्रम उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक हैं ।
(गांधी ने इसीलिए सदैव ही खादी के लिए ‘खादी वस्त्र नहीं विचार है’ वाली बात कही । बाद में यही खादी कांग्रेस की पहचान बनी । खादी की अनगढ़ता और खुरदरापन कांग्रेसियों को असुविधाजनक लगता था । शायद इसीलिए गांधी कहा करते थे - ‘खादी को ऐसे प्यार करो जैसे कोई मां अपनी कुरूप सन्तान को करती है ।)

बापू कथा: पांचवीं (समापन) शाम (13 अगस्त 2008)


जिन्ना से मतभेद

पाकिस्तान निर्माण और भारत विभाजन को लेकर बापू और जिन्ना में पहले ही क्षण से मतभेद थे । लेकिन उससे भी पहले दोनों में वैचारिक मतभेद था । जिन्ना कहते थे - मैं संम्विधान के रास्ते को मानता हूं जबकि बापू के सत्याग्रह में संम्विधान कहीं नहीं था, उनका, सत्याग्रह का अपना संम्विधान था ।लेकिन कौंसिल मीटींग में जिन्ना ने यू टर्न ले लिया । उन्होंने कहा - अब हम संम्विधान नहीं मानेंगे । अंग्रेजों के पास काफी हथियार हैं, कांग्रेस के पास सत्याग्रह का शस्त्र है । हमारे पास पिस्तौल है, हम उसका उपयोग करेंगे । पत्रकारों ने पिस्तौल का उपयोग करने की बात का खुलासा चाहा तो जिन्ना कन्नी काट गए । जिन्ना के व्यवहार से पत्रकारों ने अनुमान लगा लिया कि पिस्तौल वाली बात पूछने पर सीधा जवाब नहीं मिलेगा । सो उन्होंने लीग के सचिव लियाकत अली खान से ‘आप कौन सा रास्ता अख्तियार करेंगे’ वाला सवाल पूछा तो उन्होंने कहा - ‘डायरेक्ट एक्‍शन।’ पत्रकारों ने इसका विस्तार जानना चाहा तो लियाकत अली ने कहा - ‘एवरीथिंग एक्स्ट्रा कांस्टीट्यूशन ।’ बंगाल के नजीमुद्दीन ने कहा - ‘ ‘हमारे लिए अहिंसा कोई मर्यादा नहीं है ।’ और अन्तिम स्वर उभरा - ‘खून की नदियां बहाए बिना पाकिस्तान नहीं मिलेगा ।’

अगले ही दिन, 16 अगस्त 1946 को यह वाक्य हकीकत में बदल गया । हिंसा का ताण्डव प्रारम्भ हो गया । मार काट मच गई । पहले दिन हिन्दू ज्यादा मारे गए तो अगले दिन उनसे दो-ढाई गुना मुसलमान मारे गए । कलकत्ता की सड़कों पर आवाजें गूंजने लगीं - कलकत्ता का बदला लेना होगा । तब के प्रमुख अंगे्रजी अखबार ‘स्टेट्समेन’ ने समाचार का शीर्षक दिया - द ग्रेट कलकत्ता किलिंग ।

नारायण भाई ने कहा - बदला लगातार बढ़ता रहता है और बदला ही पैदा करता है । बदले की निष्‍फलता और दारुण परिणाम मनुष्‍य समाज अनुभव तो कर रहा है पर सीखता कुछ भी नहीं । आवश्‍यकता इस बात की है कि मनुष्‍य जाति का प्रत्येक अंश संकल्प ले कि कम से कम मैं बदले की भावना से कोई कृत्य नहीं करुंगा तो ही माना जा सकेगा कि इतिहास ने मानवता को जो सबक सिखाया है वह हमने ग्रहण किया है ।

नोआखली की आग ने बढ़ते-बढ़ते पूरे उत्तर भारत को चपेट में ले लिया । बकौल नारायण भाई, नोआखली की न्यूनतम क्रूरता थी - हत्या । शेष जो कुछ भी हुआ वह हत्या से भी अधिक क्रूर था । एक, 10-12 साल की लड़की के सामने उसके बाप का सिर धड़ से अलग करना हत्या से भी बुरी चीज होती है और ऐसा वहां खुलकर हुआ ।


बापू नोआखली में

नारायण भाई ने बंगाल की भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बताया कि नदियों की बहुलता के कारण वहां का मुख्य लोक वाहन ‘नाव’ थी । गंगा और ब्रह्मपुत्र का संगम, पद्या नदी को जन्म देता है । इसका पाट 20 मील (30 किलोमीटर से अधिक) चौड़ा है । स्टीमर की छत से देखने पर दूर किनारों पर खड़े पेड़ों की फुनगियां भी अत्यन्त छोटी दिखाई देती हैं । मेघना वहां की दूसरी बड़ी नदी है । इन नदियों पर बने पुलों के दोनो छोरों पर कड़ी चैकसी की जाती थी - कोई भी आसानी से आ-जा नहीं सकता । इसी कारण नोआखली की घटना की जानकारी दिल्ली में कोई आठ-नौ दिन बाद पहुंची । बापू दिल्ली में ही थे । बोले - मेरा स्थान दिल्ली नहीं, नोआखली है । वे चल दिए किन्तु नोआखली जाने से पहले तयशुदा कार्यक्रमानुसार कलकत्ता रुके ।

तब बंगाल में मुस्लिम लीग का मन्त्रिमण्डल था और सुहरावर्दी मुख्यमन्त्री थे । वे खुद को गर्वपूर्वक ‘गांधी का बेटा’ कहते थे । बापू के कलकत्ता पहुंचने से पहले ही सुहरावर्दी आम सभा में सोलह अगस्त की घटनाओं की जिम्मेदारी ले चुके थे । बापू ने सुहरावर्दी से नोआखली चलने को कहा । वे तो नहीं गए लेकिन अपने संसदीय सचिव तथा कुछ दूसरे लोगों को बापू के साथ भेजा ।नोआखली जाने के लिए चांदपुर में उतरना पड़ता था । बापू जहाज से जैसे ही वहां उतरे तो विभिन्न समुदायों और सम्प्रदायों के लोग, अलग-अलग उनसे मिलने आए । नारायण भाई ने तनिक विराम लिया और गहरी सांस लेकर कहा - तब बापू को नोआखली में वे ही बातें सुनने को मिलीं जो 2002 में गुजरात में सुनने को मिली थीं । सबने कहा कि बंगाल विरोधी लोगों ने बातों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है और अखबारों ने भी यही किया है । यहां हिंसा हुई ही नहीं और यदि हुई भी है तो नाम मात्र की । बापू ने कहा - यदि तुम्हारी बातें सच हैं तो चांदपुर में 50 हजार शरणार्थियों का शिविर क्यों लगा हुआ है ? किसी के पास कोई उत्तर नहीं था । सबका झूठ बापू ने न केवल पकड़ लिया था बल्कि जग जाहिर भी कर दिया था । झेंपते हुए उन लोगों ने कहा - हम तो उन्हें अपने गांवों में वापस बुलाना चाहते हैं लेकिन उन्हें विश्‍वास नहीं है सो वे आने को तैयार नहीं हैं । बापू ने कहा - कोई बात नहीं, वे नहीं आते हैं तो मैं आऊंगा और तुम्हारे साथ रहूंगा । उन लोगों ने बापू से आग्रह किया कि सेना की तादाद बढ़ा दी जाए जिसमें उनके सम्प्रदाय के सैनिक ज्यादा हों । बापू ने कहा -यह मांग कर आप अपने मन में छुपी साम्प्रदायिकता ही जाहिर कर रहे हैं ।


हिंसा के पर्व का उत्तरकाण्ड


नारायण भाई ने अत्यन्त मार्मिक प्रसंग से बापू की इस यात्रा का वर्णन प्रारम्भ किया । उन्होंने कहा - और बापू विभिन्न समुदायों के उन लोगों के साथ चल पड़े । उनके साथ-साथ एक कुत्ता भी चलने लगा । वह कभी साथ-साथ चलता, कभी आगे तो कभी पीछे । लोगों ने सोचा कि बापू को इससे असुविधा हो रही होगी सो उन्होंन कुत्ते को हड़काया । लेकिन कुत्ता भागा नहीं, उसी तरह कभी आगे, कभी पीछे, कभी साथ-साथ चलता रहा । लोग जब उसे हड़काने लगे तो बापू ने उन्हें रोका और बोले - यह कुत्ता शायद कुछ कहना चाहता है इसीलिए हमारे साथ-साथ चल रहा है । इसे भगाओ मत । कहकर बापू उस कुत्ते के पीछे-पीछे चलने लगे । बापू को ऐसा करते देख कुत्ता फिर न तो साथ-साथ चला और न ही पीछे, वह आगे ही चलता रहा और एक गांव में जाकर एक स्थान पर अपने पंजों से जमीन खोदने लगा । वहां से नर कंकाल निकले । मालूम हुआ - उस कुत्ते के स्वामी-कुटुम्ब के सारे सदस्यों को मार कर दफना दिया गया था । ये नर कंकाल उसी कुटुम्ब के लोगों के थे । बापू ने कहा - ‘आदमी से ज्यादा, कुत्ता वफादार है ।’ नारायण भाई ने कहा - यह प्रकरण ‘हिंसा के पर्व का उत्तरकाण्ड’ था ।


अभय मन्त्र की अपूर्व व्याख्या

नोआखली में बापू ने दो मन्त्र दिए । पहला - जिन पर जुल्म हुए हैं वे निर्भय होकर निर्भयता से रहें । इसे बापू ने ‘अभय मन्त्र’ कहा । दूसरा - जिन्होंने हमला किया है वे धर्म का सही अर्थ सीखें क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म निर्दोषों को मारना नहीं सिखाता । ‘अभय का अर्थ - जो किसी से नहीं डरे’ वाली व्याख्या को बापू ने आधी व्याख्या बताई और शेष आधी व्याख्या बताई - जिससे कोई डरता न हो ।’ इस प्रकार ‘अभय’ की व्याख्या हुई - जो न तो किसी से डरता हो और जिससे कोई भी नहीं डरता हो । अर्थात् न डरो, न डराओ ।’ अपने साथियों से बापू ने कहा - इन दोनों मन्त्रों का प्रचार करो । पहले तो बापू ने सबको अकेले ही घूमने को कहा लेकिन उनके ‘व्यावहारिक आदर्शवादी’ मन ने भाषा-अवरोध का अनुमान कर दो-दो की टोलियां बना दीं - एक बापू का सिपाही, दूसरा दुभाषिया । बापू की टोली में तीन लोग रहे ।

पहले ही दिन से बापू ने बांग्ला भाषा सीखना प्रारम्भ कर दिया । जिन लोगों की सेवा करनी है उन्हीं की भाषा में बात करने का भाव उनके मन में सदैव बना रहा । यहीं किसी ने उनसे ‘सन्देश’ मांगा था तो बापू ने अपना पहला सन्दश बांग्ला में दिया - ‘आमार जीवन, आमार वाणी ।’

बापू के अनुयायियों ने बापू के दोनों मन्त्रों का प्रचार अपनी-अपनी व्याख्याओं से कैसे किया - इसके कुछ रोचक उदाहरण नारायण भाई ने सविस्तार सुनाए ।

प्यारेलालजी ने कहा - मैं केवल अभय मन्त्र की ही बात करूंगा । वे ऐसे गांव में गए जहां के सारे हिन्दू या तो मारे गए थे या गांव छोड़ कर भाग गए थे । उनके निवास को लोग ‘प्यारेलाल का आश्रम’ कहते थे । उस आश्रम में रहने को 12 साल की एक ऐसी लड़की आई जिसके परिवार के सब लोग मारे जा चुके थे । प्यारेलालजी ने कहा - जो अभय प्रतिज्ञा लेगा, वही यहां रहेगा । लड़की ने हां कर ली । प्यारेलालजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए उसे एक पत्र दिया और पास के एक गांव का नाम बताते हुए कहा कि वहां रह रही उनकी सुशीला बहन को वह पत्र देकर उसका जवाब ले आए । लड़की ने कहा - मैं अकेली कैसे जाऊं ? प्यारेलालजी ने कहा - अभी तो तुमने अभय प्रतिज्ञा ली है । लड़की बोली - ‘अरे ! इसका मतलब यह है ?’ और वह जोर से ‘हरि ओऽम्’ बोलती हुई, जहां सूरज की रोशनी भी न पहुंचे ऐसे घने जंगलों में बनी पगडण्डी पर दौड़ गई । वह जवाब लेकर लौटी तो प्यारेलालजी ने कहा - अब तुम मेरे साथ रह सकती हो ।

गांव छोड़ कर भागे कुछ लोग एक अपराह्न प्यारेलालजी से मिलने आए । वे अपने गांवों में लौटने के लिए सुविधाओं की मांग कर रहे थे । बातें करते-करते रात घिर आई । लौटने के लिए उन्होंने सहयात्री (एस्कार्ट) की मांग की । प्यारेलालजी ने उस 12 साल की लड़की को आगे कर दिया । सब लोग झेंप गए और बिना सहयात्री के लौट गए ।

यह था लोगों को अभय मन्त्र सिखाने का, प्यारेलालजी का तरीका ।

नारायण भाई ने जो अगला प्रसंग सुनाया उसने समस्त श्रोताओं की आंखें पनीलीं कर दीं ।

सुशीला बहन डाक्टर थीं । उन्होंने इसी के माध्यम से गांधी मन्त्रों का प्रचार करने का निश्‍चय किया । दंगो के कारण नोआखली के सारे डाक्टर प्राण बचाकर भाग गए थे । सुशीला बहन ने अस्पताल शुरु किया । अपने साथ किए दुभाषिए लड़के को प्राथमिक चिकित्सा का प्रशिक्षण दिया । लेकिन लड़का होशियार था । जल्दी ही कम्पाउण्डर का काम करने लगा । डाक्टर भले ही गांव छोड़ गए लेकिन बीमार और बीमारियां तो गांव में थीं । सो, अस्पताल खुलने की खबर सुनकर लोग आने लगे । एक दिन ऐसा व्यक्ति आया जिसके पैर में चोट लगी हुई थी लेकिन ईलाज न मिलने के कारण सड़ने की दशा में आ गया था । वह पीड़ा से चिल्ला रहा था । आते ही उसने ईलाज की मांग की और सारे जमाने को गालियां दे-दे कर भला-बुरा कहने लगा । सुशीला बहन ने उस लड़के से कहा - ‘देखो तो जरा’ । लड़के ने घाव को धायो-पोंछा, सुशीला बहन ने देखा कि स्थिति गम्भीर तो अवश्‍य थी लेकिन गेंगरिन तक नहीं पहुंची थी । उन्होंने मरहम पट्टी की । यह प्रक्रिया चलते-चलते आदमी को पीड़ा में कमी अनुभव हुई और वह सुशीला बहन और उनके सहायक लड़के को दुआएं, आशीर्वाद देने लगा । सुशीला बहन ने पूछा - ‘जिस लड़के ने आपकी डे्रसिंग की है, उसे पहचानते हो ?’ आदमी ने इंकार करते हुए - ‘वह तो आपका साथी है ।’ सुशीला बहन ने कहा जरा देखो तो सही, शायद पहचान जाओ ।’ आदमी ने ध्यान से लड़के को देखा और कहा - ‘चेहरा देखा हुआ लगता तो है ।’ सुशीला बहन ने कहा - ‘जिस परिवार के सब लोगों की हत्या तुमने की है, यह लड़का उसी परिवार का है । हत्या वाले दिन यह बाहर था इसलिए बच गया ।’

तीसरा प्रकरण नारायण भाई ने बीबी अमतुल सलाम का सुनाया । इस मुसलमान महिला का वजन कभी भी 35 किलोग्राम से अधिक नहीं रहा था । लेकिन काया से जितनी दुबली, आत्मा से उतनी ही मजबूत । उन्होंनें कहा - ‘जिस गांव में शान्ति है वहां नहीं रहूंगी । वहां मेरी क्या जरूरत ?’ सो उन्होंने अशान्त गांव चुना । गांव में एक देवी मन्दिर था । बीबी ने पाया कि दंगों के दौरान उस मन्दिर से देवी के तीन खड़ग चोरी हो गए हैं । निश्‍चय ही किसी ने दंगों में उनका ‘सदुपयोग’ किया होगा । लेकिन बिना खड़ग के तो देवी की कल्पना ही नहीं की जा सकती । सो, बीबी ने घोषणा कर दी कि जब तक देवी के तीनों खड़ग वापस नहीं लाए जाते तब तक अन्न-जल नहीं लूंगी । बीबी के इस कदम की खबर प्यारेलालजी को भेजी गई । उन्होंने बापू को खबर दी । बापू ने कहा - ‘‘ मैं उपवास का ‘एक्सपर्ट’ हूं इसलिए बीबी को निर्जला उपवास की इजाजत नहीं देता हूं । तीसरे दिन से बीबी ने जल ग्रहण शुरु कर दिया । बीबी के अनशन को 24 दिन हो गए । दो खड़ग तो आ गए, तीसरा नहीं आया । अन्ततः बापू वहां पहुंचे । आसपास के 10 गांवों के लोग जुटे । सबने उन गांवों में अशान्ति न होने देने और शान्ति बनाए रखने की जिम्मेदारी ली और ऐसा ही वचन दिया । बापू ने बीबी को समझाया कि उनके उपवास का लक्ष्य तो पूरा हो गया है सो इसी में समाधान कर उपवास त्याग दो । और बीबी अमतुल सलाम ने बापू के हाथों फल का रस पीकर उपवास समाप्त किया ।

नारायण भाई ने कहा - अपनी तितिक्षा के जरिए शान्ति बनाने का यह प्रयास, गांधी मन्त्रों के प्रचार का, अमतुल सलाम बीबी का अपना तरीका था ।


एक गांव ऐसा था जहां बापू को सुनना तो दूर, मिलने भी कोई नहीं आया । जब कनु भाई गांधी ने बच्चों के साथ गेंद खेलना शुरु किया जिसमें सभी समुदायों के बच्चे आते थे । इन बच्चों का खेल देखने के लिए गांव के लोग भी आने लगे । तब बापू ने कहा खेल में धर्म आड़े नहीं आता तो जीवन में कैसे आड़े आ सकता है ।


शान्ति स्थापना के लिए अपने आसपास, लोक जीवन में बिखरे उपकरणों को उपयोग कैसे किया जा सकता है - यह कनु भाई गांधी ने समझाया ।

शुचिता कृपलानी (इन्हें हम सब सुचेता कृपलानी के नाम से जानते हैं लेकिन नारायण भाई ने ‘शुचिता’ ही उच्चारित किया) बांग्ला भाशी थीं । उन्होंने कहा कि वे गांव-गांव घमू कर, लोगों की भाषा में सम्वाद कर ज्यादा काम कर सकती हैं सो उन्होंने किसी एक गांव में रुकने से इंकार कर दिया ।

इस प्रकार, बापू के शान्ति सैनिकों ने अपनी-अपनी सूझ से बापू के मन्त्रों का प्रचार और शान्ति कायम करने का काम किया ।

नारायण भाई ने कहा - यहीं बापू ने नंगे पैर रहने का संकल्प लिया था । बापू ने कहा - शान्ति स्थापना से कठिन काम मैं ने आज तक नहीं देखा । शान्ति स्थापना की यात्रा तो निरन्तर चलने वाली यात्रा है और यात्रा तो नंगे पांवों की जाती है । सो अबसे मैं नंगे पांवों ही रहूंगा ।

नोआखली में बापू की यात्राओं में बार-बार और निरन्तर व्यवधान किए गए । एक यात्रा में मनु बहन (बापू के चचेरे भतीजे की पुत्री) बापू के आगे-आगे चल रही थी । उन्होंने देखा कि रास्तें में गोबर और मानव-मल पड़ा हुआ है । मनु बहन ने बापू को आगे जाने से सावधान किया । बापू ने सन की सींको की झाड़ू बनाकर सफाई शुरु कर दी । आसपास के खेतों-घरों में खड़े लोगों को पता था कि गन्दगी किसने फैलाई है । बापू को सफाई करते देख वे भी शामिल हो गए । बापू ने लोगों से कहा - जो भी यहां हुआ है वह धर्म के अनुसार नहीं हुआ है । जो हुआ वह अधर्म है । और यात्रा की अनवरतता निरन्तर हो गई ।

बापू को एक पत्र मिला - आप नोआखली में उपवास कीजिए । आपके उपवास का असर होता है, हमारे उपवास का नहीं । बापू मन ही मन हंसे । उपवास करना न करना व्यक्तिगत निर्णय का विषय होता है, परामर्श का नहीं । उन्होंने जवाब भेजा - मैं किसी की सलाह से उपवास नहीं करता । जहां, जैसा जरुरी लगेगा, वैसा करूंगा ।

‘ लेकिन’, नारायण भाई ने कहा -‘बापू तो अपने दैनन्दिन जीवन में उपवास ही कर रहे थे । वे 600 केलोरी प्रतिदिन ग्रहण कर रहे थे और प्रतिदिन 16 घण्टे काम कर रहे थे । सामान्य-स्वस्थ बने रहने के लिए आदमी को 1800 केलोरी चाहिए होती है । जो पहले से ही उपवास पर चल रहा हो उसे उपवास की सलाह देने को क्या कहा जाए !’

नोआखली में बापू को खबर मिली कि बिहार में दंगे हो रहे हैं । ये दंगे नोआखली से अधिक भयानक थे । नोआखली के दो जिलों में दंगे हुए थे और बिहार के 6 जिलों में दंगे हो रहे थे । उन्होंने राजेन्द्र प्रसादजी को पत्र लिखा - ‘अन्न छोड़ रहा हूं । यदि शान्ति नहीं हुई तो अनशन शुरु कर दूंगा ।’ राजेन्द्र प्रसादजी ने इस पत्र की प्रतिलिपियां बड़ी संख्या में, दंगाग्रस्त जिलों में बंटवाईं । जादू जैसा असर हुआ । 24 घण्टों में ही दंगे बन्द हो गए ।


भारत विभाजन और गांधी

(क्या कोई एक घण्टे में डेड़ घण्टे बोल सकता है । नहीं । लेकिन आज नारायण भाई एक घण्टे में डेड़ घण्टा बोले । कथा के इस खण्ड को प्रस्तुत करने में आज नारायण भाई ने मुझे तो मुश्‍िकल में डाला ही, मुझे जैसे तमाम लोगों को भी मुश्‍िकल में डाला होगा । इस खण्ड में वे बहुत ही तेजी से बोले । सांस लेने की अनिवार्यता को छोड़ दें तो कह सकता हूं कि वे अविराम बोले । ऐसा लगता रहा मानो वे एक ही क्षण में ‘सब कुछ’ बताने को व्यग्र हैं ।

नारायण भाई ने इस प्रकरण को तारीखवार सिलसिले से प्रस्तुत किया । लेकिन जहां-जहां अन्तर्कथा आई या कोई अन्य सन्दर्भ आया, वहां-वहां उन्होंने वह भी सविस्तार सुनाया । उस अन्तर्कथा के समाप्त होते ही वे वापस मूल बिन्दु पर आ जाते । सभागार में बैठकर सुनने में यह जितना सरल लगता है, उतना ही अधिक कठिन उसे लिखना होता है । सुनने में क्रम भंग अनुभव नहीं होता लेकिन पढ़ने में क्रम भंग (और रस भंग) होता है । यह अपरिहार्य है । मेरे लिए यह सम्भव नहीं है कि मैं मूल मुद्दे को पहले लिखूं और बाद में फुट नोट की तरह उन अन्तर्कथाओं या सन्दर्भ कथाओं को लिखूं । लिहाजा मैं सारी बातों को उसी क्रम में प्रस्तुत करने की कोशश कर रहा हूं जिस क्रम में नारायण भाई ने कहा । मैं अपनी ओर से कोई घालमेल करने से बचूंगा - जैसा कि मैं अपनी एक पोस्ट में कह चुका हूं । एक बात और । नारायण भाई ‘वेदव्यास’ की तरह बोले लेकिन मैं ‘गणेश’ की तरह नहीं लिख पाया । सो, कुछ न कुछ अन्यथा होने की आशंका मुझे बनी हुई है । कुछ तो मैं नोट कर पाया और काफी-कुछ नहीं । लिहाजा, अपने नोट्स और मेरी दिन-प्रति-दिन क्षीण होती जा रही स्मृति के आधार पर ही आगे लिख रहा हूं । यदि कोई अपराध होता नजर आए तो उसे ‘सदाशयता से, अनजाने में हुआ अपराध’ समझ कर मुझे क्षमा किया जाए - यह मेरी करबद्ध याचना है ।)

बापू बिहार में थे । उन्हें वाइस राय लार्ड माउण्टबेटन का सन्देश मिला - दिल्ली आकर मिलिए । बापू दिल्ली पहुंचे । इस बार उन्हें दिल्ली लम्बे अरसे तक रुकना पड़ा । दिल्ली उन दिनों ‘भारत को आजादी कैसे मिले’ इस विषय की चर्चा स्थली बनी हुई थी । माउण्ट बेटन ब्रिटिश राज परिवार के सदस्य थे और ब्रिटिश फौज में ऊंचे ओहदों पर काम कर चुके थे । इसलिए वे, सबसे तनिक हटकर और बेहतर थे । खुद माउण्ट बेटन भी ऐसा न केवल मानते थे बल्कि इस कारण अतिरिक्त सावधान भी रहते थे और यह सब जताते भी रहते थे । भारत आते समय ब्रिटेन की साम्राज्ञी, प्रधान मन्त्री और नेता प्रतिपक्ष ने उन्हें ‘मेण्डेट’ देकर भेजा था कि वे जून 1948 तक भारत से अंगे्रजी राज की वापसी करा ही दें । उन्हें साफ-साफ बता दिया गया था कि इस वापसी के लिए यदि भारत का विभाजन भी करना पड़े तो हिचकें नहीं । द्वितीय विश्‍व युद्ध के बाद अंगे्रज सरकार खोखली हो गई थी साम्राज्य समेटना ही लाभदायक था । माउण्ट बेटन ने इस वास्तविकता को और आगे बढ़कर अनुभव किया कि भारत से अंग्रेजों की वापसी जितनी जल्दी होगी उतना ही अच्छा होगा । सो, वे इस मामले में अधिक आतुर और प्रयत्नशील थे । इसके साथ ही साथ उन्हें यह भी सुनिश्‍िचत करना था कि भारत, राष्‍ट्रकुल में बना रहे ताकि भारत की इस उपस्थिति का लाभ ब्रिटेन को निरन्तर मिलता रहे । लेकिन अंग्रेज सरकार की नौकरशाही के कई बड़े अधिकारी इस वापसी के खिलाफ थे ।

माउण्ट बेटन ने जल्दी ही अनुभव कर लिया था कि भारत विभाजन को टाला नहीं जा सकता । एक पक्ष पहले से ही इस विभाजन की मांग कर रहा था, यह उनके लिए तनिक सुविधाजनक था । ऐसे लोग मुट्ठी भर ही थे लेकिन थे तो सही । लेकिन लगभग पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस, विभाजन का विरोध कर रही थी । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और गम्भीर बात यह थी कि गांधी को तो विभाजन सपने में भी मंजूर नहीं था । लेकिन माउण्ट बेटन को इससे अधिक चिन्ता इस बात की थी कि यदि गृह युद्ध छिड़ गया तो उससे निपटने की तैयारी कांग्रेस के पास नहीं थी । विभाजन के बिना भारत की आजादी की सम्भावना जब क्षीणतम रह गई और माउण्ट बेटन को जब यह विश्‍वास हो गया कि गांधी विभाजन को स्वीकार नहीं ही करेंगे तो (जैसा कि उन्होंने, भारत वापसी के बाद, लन्दन की एक सभा में स्वीकार किया था) उन्होंने दो ‘मेननों’ (कृष्‍ण मेनन और वी. पी. मेनन) के जरिए, नेहरु और पटेल को विभाजन के लिए समहत करा लिया । चूंकि उन्हें पता था कि वे गांधी को नहीं मना सकेंगे सो, उन्होंने न केवल इस दिशा को ही छोड़ दिया बल्कि चतुराई से यह भी कर लिया कि नेहरु - पटेल को साधने के उपक्रम से गांधी को अनभिज्ञ भी रखा ।

देश को विभाजन से बचाने के लिए गांधी ने जिन्ना को स्वाधीन भारत का प्रधानमन्त्री बनाने का प्रस्ताव भी किया । यह प्रस्ताव देते समय उनके मन में ‘राजा सोलोमन’ वाला वह प्रकरण था जिसमें, एक बच्चे के लिए जब दो महिलाओं ने खुद को वास्तविक मां बताने का दावा किया था तब राजा सोलोमन ने उस बच्चे के दो टुकड़े कर, एक-एक टुकड़ा दोनों को देने का फैसला सुनाया था । इस फैसले पर वास्तविक मां ने कहा था कि बच्चा दूसरी महिला को दे दिया जाए । नारायण भाई ने कहा - अपने देश को बचाने के लिए गांधी ने भी बच्चे की वास्तविक मां जैसा ही व्यवहार किया । इस प्रस्ताव में नौ शर्तें थीं । लेकिन जिन्ना तो धर्म के आधार पर अलग पाकिस्तान लेने पर अड़े हुए थे, सो उन्होंने गांधी के प्रस्ताव को देखना भी ठीक नहीं समझा ।

कांग्रेस द्वारा देश का विभाजन स्वीकार कर लेने की बात गांधी को अखबारों से तब मालूम हुई जब बंटवारे के कागजों पर हस्ताक्षर हो गए । इससे पहले, अंग्रेज सरकार द्वारा भारत-विभाजन के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए कांग्रेस ने पंजाब और बंगाल के विभाजन की मांग कर ली थी । यह सोचकर कि यह मांग नहीं मानी जाएगी और देश के बटवारे की बात भी स्वतः खारिज हो जाएगी । लेकिन गांधी ने कांग्रेस की इस मांग का विरोध किया क्योंकि यह विभाजन भी धर्म आधारित था । गांधी ने कहा था कि इस प्रस्ताव का मतलब था - धर्म के आधार पर पृथक देश की, जिन्ना की मांग का समर्थन करना ।

भारत विभाजन के कागजों पर हस्ताक्षर होने की खबर अखबारों में पढ़कर गांधी ने उस दिन नौ पत्र लिखे । इनमें से एक-एक पत्र नेहरु और पटेल के नाम था । गांधी ने दोनों को लिखा - ‘मैं ने अखबारों में पढ़ा । मैं समझ नहीं पाया ! क्या आप मुझे समझाएंगे ?’ नेहरु ने तो पत्र का उत्तर ही नहीं दिया । पटेल ने लिखा - जब यह सब हुआ तब आप बहुत दूर थे इसलिए आपसे सम्पर्क नहीं किया जा सका । पर आप विश्‍वास रखिए कि जो भी हुआ, वह पूर्ण विचार के बाद ही हुआ है । गांधी को अन्देशा हो चुका था कि ऐसा कुछ हो सकता है और उन्हें अलूफ रखा जा सकता है । इसका अनुमान उन्होंने काफी पहले, ‘हरिजन’ में अपने लेख मे उजागर कर दिया था जिसमें उन्होंने लिखा था - ‘मैं कहता हूं लेकिन मेरी सुनता कौन है ?’

लेकिन गांधी ने इस विभाजन को नहीं माना । उन्होंने कहा - ‘जो हुआ सो हुआ । लेकिन मैं इसे नहीं मानता । इसलिए मैं तो अपना कार्यक्रम, एक देश मानकर ही बनाऊंगा ।’ नारायण भाई ने कहा - पाकिस्तान जाने का कार्यक्रम बापू बना चुके थे । इसी सिलसिले में सुशीला बहन, 30 जनवरी 1948 को लाहौर में थीं जहां उन्हें बापू हत्या का समाचार मिला । समाचार सुनते ही वे वायुयान से भारत लौटीं । विमान में मियां इतेखार भी थे । उन्होंने सुशीला बहन से कहा - ‘गांधी को मारने वाला कोई एक अकेला आदमी नहीं है । उनके मारने वालों में हम सब शरीक हैं ।’


जन-स्थानान्तरण (ट्रांसफर आफ पापुलेशन)


बंटवारा तो तय था लेकिन यह तय नहीं था कि बंटवारा शुरु कहां से होगा । इस स्थानान्तरण के लिए भौगोलिक विभाजन रेखा खींची जानी थी । इस काम के लिए ब्रिटिश सांसद रेडक्लिफ को नियुक्त किया गया जो भारत के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे । अपने संसदीय जीवन काल में उन्होंने एक बार भी ‘इण्डिया’ शब्द का उच्चारण नहीं किया था । लेकिन उनके इसी अज्ञान को उनकी नियुक्ति का आधार बनाया गया, यह कह कर कि चूंकि वे कुछ भी जानते इसलिए वे पूर्ण तटस्थ होकर ही वास्तविक निर्णय देंगे ।


बापू ने इस विचार का ही विरोध किया था । इसके गम्भीर परिणामों को वे खूब अच्छी तरह जानते थे । लेकिन उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और इसका भीषण परिणाम सारी दुनिया ने देखा ।

नारायण भाई ने दो प्रसंग प्रस्तुत किए । पहला प्रसंग जिन्ना को लेकर था । जिन्ना, क्वेटा में मृत्यु शैया पर थे । किसी ने उनसे पूछा - ‘कायदे आजम ! आपने ही हमारा मुल्क बनाया । इस सबमें आपने कोई भूल तो नहीं की ?’ जिन्ना बोले - ‘हर शख्स करता है ।’ सवाल आया - ‘सबसे बड़ी भूल कौन सी थी ?’ जिन्ना ने कहा - ‘छोड़ो भी ।’ सवाल दुहराया गया तो जिन्ना कहा - ‘भारत का विभाजन सबसे बड़ी भूल थी ।’

दूसरा प्रसंग माउण्ट बेटन से जुड़ा सुनाया । ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के लेखकद्वय, किताब लिखने के सिलसिले में लार्ड माउण्ट बेटन से मिले । जन-स्थानान्तरण को लेकर माउण्ट बेटन ने कहा -‘ऐसा न करने के लिए एक आदमी (गांधी) ने मुझे बार-बार कहा था । उस आदमी को जनता की नब्ज पता थी । उसने कहा था कि ऐसा करने पर खून की नदियां बहेंगी । लेकिन मेरे तीनों गवर्नरों ने मुझे सही अनुमान नहीं होने दिया और मैं ने गांधी की बात अनसुनी कर दी ।’ यह कह कर माउण्ट बेटन फूट-फूट कर रो दिए ।

नारायण भाई ने कहा - सारे सम्बन्धितों ने गांधी की बात न मानने की स्वीकारोक्तियां कीं लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी ।

बंटवारे से पहले की एक और घटना नारायण भाई ने सुनाई । डाक्टर जाकीर हुसैन, जामिया मीलिया इस्लामिया के प्रमुख थे । वे अमृतसर गए । उन्हें बताना नहीं पड़ता था कि वे मुसलमान हैं । यह उनके पहनावे और दाढ़ी से अपने आप ही जाहिर हो जाता था । अमृतसर स्टेशन पर ही उन पर प्राणलेवा हमला हुआ । वे लौटकर दिल्ली आए तो बापू से मिले । बापू ने पूछा - ‘क्या हुआ ?’ डाक्टर जाकीर हुसैन ने आपबीती के बारे में तो एक शब्द भी नहीं कहा और बोले -‘बापू ! मनुष्‍यता के धरातल पर हम जितना नीचे गिर सकते थे, गिर चुके हैं । अब यदि कोई उम्मीद बची है तो वह आपसे ही है ।’


विभाजन के बाद

वे गहरे शोक भरे, वेदनामय दिन थे । बापू ने अब अकेले ही चलने का फैसला किया । कहा - ‘अब मुझ अकेले से जो कुछ, जितना कुछ बन पड़ेगा, करुंगा ।’ वे शरणार्थियों की छावनियों में जाते । उनसे बात करते, ढाढस बंधाते । सब उनकी बात सुनते लेकिन कुछ उनका विरोध भी करते । कुछ ने कहा कि वे अपनी सर्व-धर्म प्रार्थना में कुरान की आयतों का पाठ न करें क्यों कि उन आयतों में तो खुदा से कहा गया कि हमें सीधी राह पर चलाए, टेढ़ी-मेड़ी राह पर चलने से बचाए लेकिन मुसलमानों का आचरण तो इसके प्रतिकूल है । बापू ने यह सुझाव मानने से इंकार कर दिया और कहा कि कुरान की आयतों के बिना सर्व-धर्म प्रार्थना करने के बजाय वे सार्वजनिक रुप से प्रार्थना ही नहीं करेंगे ।

नारायण भाई ने कहा कि तीन बार ऐसा हुआ कि बापू का सार्वजनिक प्रार्थना का नियम भंग हुआ और उन्होंने बन्द कमरे में प्रार्थना की । प्रायः रोज ही उनकी सार्वजनिक प्रार्थना में व्यवधान होता था । ईश्‍वर प्रार्थना का विरोध बापू के लिए असह्य वेदना का विषय था । नारायण भाई के अनुसार इस व्यवधान का खुलासा, नाथूराम गोड़से के, कोर्ट में दिए गए उस बयान से होता है जिसमें उसने स्वीकार किया - ‘गांधी को हम लोगों ने परेशान (डिस्टर्ब) किया ।’

गांधी जब बार-बार ‘देश का विभाजन, मेरा विभाजन है’ कहते थे तो कुछ लोग पूछते थे कि ऐसा है तो गांधी ने आत्महत्या क्यों नहीं की । नारायण भाई ने कहा - ‘नोआखली मे वे जो कर रहे थे वह तिल-तिल कर मरना ही था ।’ इस प्रसंग में नारायण भाई ने, बापू की डायरी के अंश को पढ़ कर सुनाया - ‘भावी पीढ़ियों को जान लेने दो कि उनके बारे में सोचते हुए इस बूढ़े को कितनी पीड़ा हुई है, कितनी यात्राओं से गुजरना पड़ा है । हिन्द के विभाजन के अभिशाप में गांधी का तनिक भी हिस्सा नहीं था - यह भावी पीढ़ियों को जान लेने दो ।’

कुछ लोगों के इस सन्देह भरी जिज्ञासा का कि ’आखिरकार गांधी को क्यों मारा ? उन्होंने कुछ तो गड़बड़ की होगी ?’ नारायण भाई ने कहा - ‘हां, गांधी ने वही गड़बड़ की जो जीसस क्राइस्ट ने की थी - दूसरों के पापों को अपना पाप मानना । इसीलिए दोनों मारे गए ।’

नारायण भाई ने इस जन-भ्रान्ति का खण्डन किया कि 15 अगस्त 1947 को बापू नोआखली में थे । उस दिन उन्हें नोआखली जाते हुए रास्ते में, कलकत्ता रोक लिया गया था । रोके जाने पर बापू ने सुहरावर्दी से शर्त रखी कि कलकत्ता में दोनों एक ही मकान में रहेंगे । हैदरी मेंशन में दोनों का निवास हुआ ।

वे कलकत्ता में ही थे कि दल्ली से बुलावा आया । बापू ने आने से मना कर दिया । बुलावा फिर आया । इस बार सन्देश भी था - ‘आप नहीं आएंगे तो बहुत बुरा हो जाएगा ।’ बापू ने जवाब दिया -‘जो होना है होने दो । मैं नहीं आऊंगा ।’ बापू का जवाब सुनकर दिल्ली से सुधीर घोष को, वायुयान से भेजा गया । वे शाम को कलकत्ता पहुंचे । आते ही उन्होंने कहा - ‘मैं दिल्ली से सन्देश लाया हूं ।’ बापू ने कहा - ‘लम्बी यात्रा से हाए हो । थक गए होगे । पहले भोजन कर लो ।’

बात अगली सुबह हुई । सुधीर घोष ने कहा - ‘आपको आना चाहिए ।’ बापू ने कहा - ‘मेरी इच्छा नहीं होती, आजादी का उत्सव मनाने की ।’ बात करते-करते वे सुधीर घोष को बाहर, हैदरी मेंशन के आंगन में, पेड़ के नीचे ले आए । साफ-सुथरे आंगन में, एक सूखी पत्ती पड़ी थी । उसे दिखाते हुए बापू सुधीर घोष से बोले - ‘मेरी स्थिति इस पत्ती जैसी है ।’ सुनकर सुधीर घोष की आंखों से आंसुओं की धार बह चली । आंसू की एक बूंद, संयोगवश उस पत्ती पर पड़ गई । यह देख बापू बोले -‘मेरी मनोदशा कैसी भी हो, तुम्हारी आंसू की बूंद ने उसे हरा तो कर दिया ।’

सुधीर घोष ने कहा - (मन्त्री पद की) शपथ ग्रहण करने वालों को अपने आशीर्वाद तो दीजिए । बापू ने कहा - ‘नम्र बनो । धैर्य रखो । तुम्हारी असली कर्साटी अब शुरु होती है । सत्ता से सावधान रहो-यह भ्रष्‍ट करती है । इसके तामझाम से चैंधिया मत जाना । तुम देहातों के गरीब लोगों के प्रतिनिधि बन कर सत्ता ग्रहण कर रहे हो, इस बात को कभी मत भूलना ।’

15 अगस्त को बापू ने कहा था - ‘मुझे (देश में) एकता के दर्शन तो होते हैं लेकिन मुझे यह सतही लगता है । इसके पीछे वैमनस्य न हो ।’

उनकी यह आशंका जल्दी ही सच साबित हुई । सितम्बर में फिर दंगा शुरु हो गया ।

वे हैदरी मेंशन में रह रहे थे । लोगों का एक दल आया । पत्थरों और लाठियों से हमला किया । एक लाठी बापू के बहुत ही पास से गुजर गई । बापू के चेहरे के भाव देख कर सवाल आया - ‘अनशन करने की सोच रहे हैं ?’ बापू ने कहा - ‘हां, मैं वही सोच रहा हूं । अब तो नोआखली जाने की भी जरुरत नहीं रही ।’ और उन्होंने अनशन शुरु कर दिया । लोगों ने कहना शुरु कर दिया - ‘इस आदमी के उपवास से क्या होगा ?’ अमिय बाबू ने कहा - ‘बस, देखते रहो ।’

और बापू का अनशन जन-चर्चा का ही नहीं, जन-चिन्ता का विषय बन गया । आने-जाने वाले अनजान, अपरिचित लोगों से रिक्‍शावाले, कुली, सड़क पर दुकान लगाने वाले, खोमचे वाले पूछते - ‘गांधी बाबा की तबीयत कैसी है ?’

ऐसे में नारायण भाई ने एक अत्यन्त मार्मिक प्रसंग सुनाया ।

कलकत्ता का एक निम्नवर्गीय परिवार । गृहस्वामिनी का नाम - गिन्नी । गृह स्वामी एक शाम काम से लौटा । गिन्नी ने उसके लिए भोजन लगाया । पति ने गिन्नी से कहा - तुम भी खा लो । गिन्नी ने कहा - तुम खाओ । भोजन करते-करते पति ने पूछा - तुम क्यों नहीं खा रही ? गिन्नी बोली - ‘‘खाने को मन नहीं करता। हम खा रहे हैं और ‘वह’ हमारे लिए उपवास कर रहा है ।’’

गिन्नी की बात ने मानो बन्दूक की गोली सा असर किया । आधा भोजन छोड़ कर पति ने थैली पर टंगे झोले में से हथगोला निकाला (जो उसने ही बनाया था) और ज्यों का त्यों हैदरी मेंशन पहुंचा । बापू को हथगोला दिया और बोला - ‘यह हथगोला मैं ने बनाया था । आप रख लो और खाना खाओ । मेरी गिन्नी खाना नहीं खा रही है ।’ यह अद्भुत और अभूतपूर्व दृष्‍य था । बापू ने कहा - ‘खमीर ने काम करना शुरु कर दिया है ।’

बापू के उपवास को तीन दिन हो गए थे । कलकत्ता में मानो हा ! हा ! कार मच गया । शान्ति अपील का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी को सौंपी गई । उन्होंने इस शर्त पर मसौदा तैयार किया कि वह बापू को दिखाया जाएगा । बापू ने उसे मूलतः स्वीकार किया । उस पर 50 नेताओं के हस्ताक्षर हुए । चौथे दिन बापू ने अनशन तोड़ा ।

अनशन तोड़ते ही बापू ने बंगाल के गवर्नर राज गोपालाचारी को अपने पास बुलाया और कहा - ‘आप तो गवर्नर हैं । मेरे लिए एक काम करें । कल सवेरे की गाड़ी से मैं पंजाब जाना चाहता हूं । कल की रेलगाड़ी में मेरा आरक्षण करा दीजिए ।’ सुनकर सब परेशान हो गए । तीन दिनों का अनशन । उन्हें आराम की जरुरत थी और वे हैं कि लम्बी यात्रा करना चाहते हैं ! वस्तुतः बापू ने वादा किया था कि आजादी मिलते ही वे पंजाब जाएंगे । वे अपना यही वादा पूरा करना चाह रहे थे । सुहरवार्दी अड़ गए । इंकार कर दिया । उनके आग्रह पर बापू दो दिन और कलकत्ता रुक गए । दो दिन बाद, बापू को स्टेशन पर विदा करते हुए सुहरावर्दी फूट-फूट कर रोए, बच्चों की तरह बिल-बिलख कर ।

कलकत्ता से पंजाब जाते समय बापू को दिल्ली में ही रोक लिया गया और यह मुकाम ही अन्तिम प्रयाण में बदल गया ।

पटेल और प्रधान मन्त्री पद

सरदार पटेल के बजाय जवाहरलाल नेहरु का प्रधान मन्त्री बनना, तत्कालीन परिस्थितियों की अनिवार्यता और अपरिहार्यता थी । नेहरु के मुकाबले पटेल न केवल अधिक वृध्द थे वरन् बीमार भी थे । जब भी कभी बापू और पटेल का मुकाम एक स्थान पर होता तो बापू कहते - ‘सरदार को मेरे साथ ही ठहरवाना । वे बीमार हैं ।’ लेकिन इसके समानान्तर बापू यह भी जानते थे कि दोनों (पटेल और नेहरु) का एक साथ बने रहना देश की एकता और स्थिरता के लिए अनिवार्य है । सो, उन्होंने सरदार को बुला कर कहा कि उन्हें (बापू को) देश की एकता की अत्यधिक चिन्ता है । देश की एकता के लिए ‘आप चाहें न चाहें, आपको और जवाहर को साथ-साथ ही रहना पड़ेगा ।’ इसके बाद बापू ने कहा - ‘आपको तो यह मैं ने कह दिया । आज प्रार्थना के बाद जवाहर से भी यही बात कहूंगा ।’ लेकिन बापू वह प्रार्थना कर ही नहीं सके ।


बापू की हत्या

इस मुद्दे पर नारायण भाई ने सर्वथा अनूठी, नई और अविश्‍वसनीय सूचनाएं दीं और उन सबकी पुष्‍िट में प्रमाण भी दिए ।

नारायण भाई के अनुसार 30 जनवरी 1948 को की गई गांधी-हत्या अनायास नहीं की गई । इस हत्या के लिए कम से कम 14 वर्ष पहले से सुनियोजित प्रयास किए जा रहे थे । 30 जनवरी को किया गया हत्या का प्रयास छठवां और अन्तिम सफल प्रयास रहा । उससे पहले पांच प्रयास और किए जा चुके थे ।

नारायण भाई ने कुछ प्रसंग सविस्तार सुनाए ।

पचगनी में बापू आराम कर रहे थे । तभी कुछ लोगों की भीड़ चिल्ला-चिल्ला कर ‘मुर्दाबाद’ के नारे लगाने लगी । बापू ने कहा - ’उन लोगों को बुलाओ । मैं उनसे मिलना चाहता हूं ।’ इन लोगों में नाथूराम गोड़से न केवल शरीक था बल्कि उसके पास 6 इंच का छुरा भी था ।

जिन्ना से मिलने के लिए गांधी का जाना तय था । हैदराबाद के खाकसार लोगों ने कहा कि वे गांधी को जिन्ना से मिलने नहीं देंगे, वर्धा से ही नहीं निकलने देंगे । सरकार ने गांधीजी को सतर्क किया कि एक दस्ता उनके (गांधीजी के) लिए निकला है । थोड़ी ही देर बाद सूचना आई कि गांधीजी अब निश्‍िचन्त रह सकते हैं क्यों कि सरकार ने अपने एक आदमी को उस दल में मिला दिया था जिसकी सूचना के आधार पर दल के लोगों को गिरतार कर लिया गया है । गिरफतार लोगों में से एक के थैले से छुरा बरामद हुआ । इस दल के सदस्यों में एक सदस्य था - नाथूराम गोड़से ।

बापू ने एक बार कहा था कि वे 120 वर्ष जीना चाहते हैं । इस पर ‘अग्रणी’ नामक अखबार ने सम्पादकीय लिखा - ‘लेकिन जीने कौन देगा ?’ यह सम्पादकीय लिखने वाला, इस अखबार का सम्पादक था - नाथूराम गोड़से ।

‘गांधी-हत्या’ को ‘गांधी-वध’ कहने के पैरोकारों ने गांधी की हत्या को मुस्लिम लीग द्वारा 1940 में व्यक्त की गई ‘एक देश में दो देशों की अवधारणा’ की प्रतिक्रिया कहा था । लेकिन बकौल नारायण भाई देसाई, इससे 17 वर्ष पहले ही, 1923 में सावरकर अपनी पुस्तक में ‘एक देश में दो देशों की अवधारणा’ प्रस्तुत कर चुके थे ।

ऐसे उदाहरण देने के बाद नारायण भाई ने कहा - ‘गांधी हत्या के पीछे सुनिश्‍िचत, योजनाबद्ध रणनीति और एक दर्शन था । यह दर्शन, कुछ न कुछ मात्रा में, हममें भी है ।’ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए नारायण भाई बोले - ‘हम अज्ञान रहें हों या चुप रहे हों, आज की स्थितियां हम सबकी जिम्मेदारी हैं ।’


गांधी-मृत्यु: इच्छा मृत्यु

जिस दशा और जिस घटनाक्रम में बापू की मृत्यु हुई क्या इस सबका उन्हें पूर्वानुमान हो गया था ? क्या यह सब उन्होंने ही चाहा था ? क्या यह इच्छा मृत्यु थी ? नारायण भाई के अनुसार - लगता तो ऐसा ही है ।

उन्होंने मनु बहन की डायरी का, 30 जनवरी 1947 (मृत्यु से ठीक एक वर्ष पूर्व) के पृष्‍ठ का उल्लेख किया । मनु बहन ने ऐसा कुछ लिखा - ‘आज बापू ने कुछ अजीब कहा । उन्होंने कहा कि अगर मैं बीमारी से मरूं तो छत पर चढ़कर चिल्ला कर जमाने से कहना कि जिसे तुम महात्मा मानते हो, वह महात्मा नहीं था । लेकिन यदि कोई मुझे सामने से आकर मारे, मरते समय मेरे होठों पर राम का नाम हो और मारने वाले के प्रति मेरे मन में कोई द्वेष न हो तो कहना कि वह महात्मा तो नहीं लेकिन भगवान का एक साधक जरूर था ।’

अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले से बापू बार-बार प्रभु से प्रार्थना करने लगे थे - ‘इस तमस में से मुझे अपने प्रकाश में कब ले जाएगा ?

’नारायण भाई ने कहा कि सुब्बरावजी (डाक्टर एस.एन.सुब्बराव) ने अपनी चर्चाओं में उद्घाटित किया कि बापू ने एक बार लार्ड माउण्ट बेटन से कहा था - ‘मैं तो कभी प्रार्थना में जाऊंगा तब ही कोई मुझे मारेगा ।’

प्रार्थना से पहले हुई मुत्यु को नारायण भाई ने अनूठी व्याख्या दी । उन्होंने कहा - भक्त को यदि भगवान से मिलने की उतावली थी तो भगवान को उससे भी अधिक उतावली थी । इसीलिए तो, बापू को प्रार्थना तक पहुंचने नहीं दिया । उससे पहले ही प्रभु ने अपनी गोद में ले लिया ।

’बापू के अन्तिम शब्दों को भी नारायण भाई ने अद्भुत और आध्यात्मिक स्वरूप दिया । उन्होंने कहा - ‘‘तीन गोलियों का जवाब बापू ने तीन अविनाशी अक्षरों ‘हे ! राम’ से दिया ।’’

नारायण भाई ने आह्वान किया - ‘गांधी की प्रासंगिकता आज की आवश्‍यकता है । यह शक्य है या नहीं, यह आप-हम पर निर्भर है । यदि इसे शक्य नहीं बनाया जा सका तो गांधी की प्रासंगिकता समझने वाले ही अप्रासंगिक हो जाएंगे ।’

‘अपने हृदय की वेदना से भरा मौन ही गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि है’ नारायण भाई के इस आग्रह के साथ ही सभागार में तीन मिनिट के मौन का साम्राज्य हो गया । जिसे ‘शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः’ उच्चारण के साथ तोड़ कर नारायण भाई ने पांच दिवसीय ‘बापू कथा’ का समापन किया ।

सभागार में उपस्थित कोई साढ़े तीन हजार से अधिक लोग जब विसर्जित हुए तब भी गहरा मौन पसरा हुआ था । कोई किसी से नहीं बोल रहा था । शायद प्रत्येक के मन में एक जैसी ही बात रही होगी जिसे व्यक्त करना प्रत्येक ने अनावश्‍यक और अविवेक ही माना होगा ।

बापू कथा: कृपया समय दें

कल, 13 अगस्त 2008 को, बापू कथा का समापन व्याख्यान सुनने के बाद से ही मैं अस्वस्थ हो गया । पीठ बहुत दर्द कर रही है । मैं बैठ नहीं पा रहा हूं । इसके बावजूद मैं समापन व्याख्यान टाइप कर रहा हूं । यह पोस्ट चार दिनों की सामान्य पोस्ट से कहीं ज्यादा बड़ी है । मुझे भी चैन नहीं पड़ रहा है - लग रहा है मैं कर्जदार हूं, चुकाने की पूंजी भी पास में है और चुका नहीं पा रहा हूं ।

कृपया मुझे तनिक समय देने का उपकार कीजिएगा । मै जल्दी से जल्दी यह पोस्ट प्रस्तुत कर देना चाहता हूं । तबीयत जैसे ही तनिक सी भी ठीक होगी, मैं अपना कर्जा चुका दूंगा ।

इस बीच सूचना यह है कि कल, व्याख्यान स्थल पर व्याख्यान का सीडी/डीवीडी सेट उपलब्ध नहीं कराया जा सका । आश्वस्त किया गया है कि 18 अगस्त को जारी कर दिया जाएगा । मैं व्यवस्थाएं कर आया हूं कि (यदि सेट उसी दिन जारी कर दिया गया तो) कम से कम एक सेट मुझे उसी दिन, रतलाम में मिल जाए ।यदि ऐसा हो पाया तो मैं 18 अगस्त को ही श्रीयुत रवि रतलामी को वह सेट सौंप दूंगा ताकि वे आप तक यह सामग्री पहुंचा सकें ।

ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि सीडी/डीवीडी सेट 18 को ही उपलब्ध करा दिया जाए ।

बापू कथा: चौथी शाम (12 अगस्त 2008)


आज नारायण भाई बहुत सतर्क होकर बोले । सारे प्रसंग थे ही ऐसे । बापू के चर्चित मतभेदों में से तीन पर उन्होंने काफी कुछ कहा लेकिन सर्वाधिक विस्तार दिया डाक्टर भीमराव अम्बेडकर से हुए मतभेद-प्रकरण को । आजादी के 61 वर्ष पूरे होते समय भी, अगड़ों-पिछड़ों, दलितों-सवर्णों की समस्या का लगभग जस का तस रहना ही इसका कारण रहा होगा । सुभाष-गांधी मतभेद प्रकरण पर उससे कम और भगतसिंह प्रकरण पर सबसे कम बोले । लेकिन शुरुआत की उन्होंने ‘सत्याग्रह‘ के तात्विक विवेचन से ।

नारायण भाई के मुताबिक सत्याग्रह में पे्रम की ताकत, आत्मा की ताकत और स्वैच्छिक कष्ट सहन करने की ताकत जैसे तीन प्रबल तत्व निहित हैं । प्रेम सदैव ही देने की चीज होती है, लेने की नहीं । ‘अंग्रेजों ! भारत छोड़ो’ के नारे में भी अंगे्रजों के प्रति पे्रम था । उन्होंने अंग्रेजों को कहा था कि जितना अधिक समय आप भारत में रहेंगे उतना ही अधिक आपका नुकसान होगा क्योंकि आपकी नैतिक प्रतिष्ठा जनमानस में दिन-प्रति-दिन कम होती जाएगी । नुकसान में कमी होना भी लाभ ही होता है । इसलिए आपका हित इसी में है कि आप जल्दी से जल्दी भारत छोड़ दें । देश्‍ को अंग्रेजों से मुक्त कराने में भी बापू ने अंग्रेजों के हितों की यह चिन्ता इसी प्रेम भाव के अधीन की ।

प्रेम, वेदना का वाहक है जिसे आत्मा की ताकत के दम पर ही सहन कर, साधक बना जा सकता है । आत्मा सबमें समान रूप से विद्यमान होती है । इसी कारण, एक की पीड़ा दूसरे की आत्मा तक पहुंचती है ।स्वैच्छिक कष्ट सहन (वालण्टरी सफरिंग) के विचार को पश्चिम के लोगों ने ‘नकारात्मक’ (निगेटिव) माना क्योंकि वहां तो सारे उपक्रम ही ‘सफरिंग’ को समाप्त करने के लिए होते हैं । ऐसे में भला ‘सफरिंग’ को स्वैच्छिक रूप से कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? लेकिन बापू के अनुसार - यह ताकत होती है, ‘आपको कष्ट न देते हुए मैं अपनी वेदना आप तक पहुंचा रहा हूं’ की अनुभूति कराने की ताकत।

‘सत्याग्रह’ को नारायण भाई ने ‘सामाजिक क्रान्ति या परिवर्तन के लिए प्रेरक तत्व’ कहा जो ‘मानवता को गांधी की अनुपम देन’ है । नारायण भाई ने इसे ‘गांधी की देन’ कहा । कुछ लोग इसे ‘गांधी की खोज’ कहते हैं जो उचित नहीं है । नारायण भाई के मुताबिक, यह (सत्याग्रह) तो समाज में पहले से ही विद्यमान था लेकिन इससे परिचित कोई नहीं था । गांधी ने तो इसे केवल व्यक्त किया । परिवर्तन के लिए इससे पहले तक दो ही पे्ररक तत्व थे -‘लोभ’ और ‘भय’ ।

मतभेद और गांधी

79 वर्ष का दीर्घ जीवन और उसमें भी अन्तिम 50 वर्ष अत्यन्त सक्रियता वाले । इतने लम्बे समय में मतभेद तो होंगे ही और हुए भी । लेकिन गांधी ने ‘मतभेद’ को कभी भी ‘मनभेद’ में बदलने नहीं दिया । इस बिन्दु पर गांधी की मानसिकता एक प्रसंग से नारायण भाई ने रेखांकित की । ईसाई समुदाय की एक महिला ने कहा - ‘बापू ! आपने ईसा के तीन सन्देशों को अपनाया है ।’ बापू ने पूछा - ‘कौन-कौन से ?’ महिला ने कहा - ‘परस्पर प्यार करो, पड़ौसी से प्यार करो और दुश्‍मन को प्यार करो ।’ बापू ने कहा - ‘तब तो मैं ने ईसा के तीनों सन्देशों को नहीं अपनाया ।’ महिला ने जिज्ञासा भरी नजरों से देखा । बापू ने कहा -‘परस्पर प्यार करो और पड़ौसी से प्यार करो वाले सन्देश तो मैं जानता हूं लेकिन दुश्‍मन को कैसे प्यार करूं ? मैं तो किसी दुश्‍मन को जानता ही नहीं !’ नारायण भाई ने कहा - ‘बापू का किसी से मनभेद न होने का रहस्य इसी सूत्र में है ।’



मतभेद और मनभेद को लेकर नारायण भाई ने एक रोचक प्रसंग और सुनाया । तब, 1922 में बापू को पहली बार लम्बी (6 माह की) जेल हुई थी और उन्हें यरवदा जेल में रखा गया था । उन्हें अपेण्डीसाइटिस हो गया जो उस समय प्राणलेवा रोग माना जाता था । उसके लिए आपरेशन किया जाना था । तब के कानूनों के मुताबिक अस्पताल का सिविल सर्जन ही जेल प्रभारी होता था । उसने कहा - ‘आपरेशन करना पड़ेगा । अपने रिश्तेदारों, नजदीकी लोगों को बुला लो । लेकिन समय बहुत कम है ।’ जाहिर था कि ‘बा’ को साबरमती से पूना बुला पाने का समय नहीं था । तब डाक्टर ने सुझाव दिया कि बम्बई, पूना में यदि कोई हो तो उन्हें बुला लो । बापू बोले - ‘पूना में मेरे तीन नजदीकी लोग हैं । मैं उनके नाम देता हूं । उन्हें बुला लें ।’ उन्होंने पहला नाम लिया नरसिंह चिन्तामण केलकरजी का जिनसे बापू के राजनीति मतभेद सारा देश जानता था । दूसरा नाम लिया श्रीनिवासजी शास्त्री का जिनसे बापू के प्रबल वैचारिक मतभेद थे । तीसरा नाम उन्होंने बताया, खादी भण्डार के सेवक का । लेकिन वे उसका पूरा नाम नहीं जानते थे । केवल पहला नाम बता पाए - हरि ।


हरि को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि बापू ने उसे अपने नजदीकी लोगों में शामिल किया है । उसने कहा कि बापू ने कोई और ‘हरि‘ बताया होगा क्यों कि बापू से उसका घनिष्ठ तो क्या नाम मात्र का भी सम्बन्ध कभी नहीं रहा । लेकिन बापू ने नाम तो उसी का बताया था ।

आपरेशन सम्पन्न होने के बाद केलकरजी और शास्त्रीजी ने अपने अलग-अलग लेखों में इस घटना का वर्णन किया और अत्यन्त विस्मयपूर्वक लिखा - ‘इस आदमी ने हम पर इतना विश्वास जताया !’

अम्बेडकर-गांधी मतभेद

इन दोनों युग-पुरुषों के मतभेदों को लेकर लोगों ने दोनों को एक दूसरे का दुश्मन साबित करने के जिए क्या-क्या नहीं कहा और क्या-क्या नहीं लिखा । लेकिन हकीकत उस सबसे कोसों दूर थी । नारायण भाई ने इस विषय पर एकाधिक प्रसंगों के रोचक संस्मरण सुनाए ।

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक । गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे - अम्बेडकर और गांधी । गांधी का एक ही एजेण्डा था - स्वराज । उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी । अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी । वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनि”िचत करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे । परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई । अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं । उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है ।

बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया । उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । इसी क्रम में उन्होंने यह कहकर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी । सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे । सो, सबको अब गांधी के भा’षण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।



गांधी उठे । उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया - ‘थैंक् यू सर ।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए । बैठक समाप्त हो गई । इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया ।



बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते तो भी मुझे अचरज नहीं होता ।’

गोल मेज परिषद् की इस बैठक से बापू बम्बई लौटे तो उनके स्वागत के लिए बन्दरगाह पर दो लाख लोग एकत्रित थे । तब एक अंग्रेज ने कहा - किसी पराजित सेनापति का ऐसा स्वागत कहीं नहीं हुआ । बैठक की परिणति पर पत्रकारों ने बापू से प्रतिक्रिया चाही तो बापू ने कहा - ‘खाली हाथों लौटा हूं, मैले हाथों नहीं ।’


दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मण्डलों का निर्णय प्रधानमन्त्री पर छोड़े जाने की घोषणा पर बापू ने तत्काल कहा - वे मेरे शव पर ही ऐसा कर सकेंगे ।

उस दिन सोमवार था जो बापू के मौन का दिन होता था और शाम की प्रार्थना के बाद बापू का लिखा हुआ भाषण पढ़ा जाता था । प्रार्थना के बाद सुशीला बहन ने भाषण पढ़ना शुरु किया तो पढ़ते-पढ़ते ही मालूम हुआ कि उस दोपहर से बापू ने अपना उपवास शुरु कर दिया है । नारायण भाई ने कहा - बापू ने अपने जीवनकाल में 30 बार उपास किए लेकिन यह पहला उपवास था जिसकी घोषणा वे 6 माह पहले ही कर चुके थे ।

अनशन का समाचार फैलते ही पहली ‘हरकत’ हुई कि देश भर के प्रमुख हिन्दू मन्दिरों के दरवाजे, दलितों के लिए खुलने लगे । बापू का अनशन समाप्त हुआ तो अम्बेडकर उनसे मिलने पहुंचे और कहा - ‘बापू ! आप हमारा विरोध तो कर रहे हैं लेकिन हमें दे क्या रहे हैं ?’ जवाब देने से पहले बापू ने अम्बेडकर की इस बात के लिए विशेष प्रशंसा की कि और धन्यवाद दिया कि उन्होंने घुमा फिराकर बात करने के बजाय सीधे-सीधे अपनी बात कही । बापू ने कहा - 'आप जन्म से अस्पृश्य हैं और मैं स्वेच्छा से अस्पृश्य बना हूं ।’ बात का मर्म अनुभव कर अम्बेडकर ने कहा - ‘ये सारी बातें आप यदि गोल मेज बैठक में कह देते तो आपको, हम सबको इतना कष्ट नहीं देखना पड़ता ।’ बापू का उत्तर था - ‘तब अस्पृश्यता के विरोध का ऐसा वातावरण कैसे बनता ?’ और इसके बाद बापू ने कहा था कि केवल कानून बना लेने से कुछ नहीं होगा, सवर्ण समाज का दिमाग बदलना होगा ।


अम्बेडकर की चिन्ता थी कि जब तक बापू जीवित हैं तब तक तो ठीक है लेकिन बापू के न रहने के बाद क्या होगा ? इसलिए सुनिश्चित संवैधानिक व्यवस्था होनी ही चाहिए । उन्होंने मुसलमानों के लिए आरक्षित निर्वाचन मण्डलों का उदाहरण दिया (जो गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से लौटने से पहले ही किया जा चुका था) तो बापू ने पूछा - ‘मुसलमान तो आजीवन मुसलमान ही रहना चाहेंगे लेकिन क्या दलित भी आजीवन दलित ही रहना चाहेंगे ?’

जब सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की बात आई तो अम्बेडकर ने 70 क्षेत्रों की मांग की । तब बापू ने कहा - इतने से काम नहीं चलेगा । जितनी आपने मांगी है, उसकी दुगुनी से एक अधिक याने 141 होनी चाहिए ।

इतने सारे उदाहरणों के बाद नारायण भाई ने कहा - अन्ततः डाक्टर अम्बेडकर ने कहा -‘बापू आपके साथी और चेले मुझे उतना नहीं समझते जितना आप समझते हैं । आप-हम ज्यादा नजदीक हैं ।’

नेहरू के मन्त्रि-मण्डल में अम्बेडकर


नेहरु अपने मन्त्रि-मण्डल के सदस्यों की सूची को अन्तिम रूप दे रहे थे तो संयोगवश बापू भी दिल्ली में ही थे । नेहरु ने अपनी सूची बापू के पास भेजी । बापू ने पूरी सूची देखी और सबसे अन्त में अपने हाथों से डाक्टर अम्बेडकर का नाम जोड़ दिया । नेहरु को आश्चर्य हुआ । उन्होंने कहा - ‘बापू ! अम्बेडकर ने आजीवन कांग्रेस का विरोध किया है और आपने उनका नाम मन्त्रियों की सूची में लिखा ?’ बापू ने प्रतिप्रश्न किया - ‘तुम भारत की सरकार बना रहे हो या कांग्रेस की ?’ और सारी दुनिया ने डाक्टर अम्बेडकर को स्वाधीन भारत के प्रथम कानून मन्त्री के रूप में देखा ।

सम्विधान सभा के सभापति अम्बेडकर

सम्विधान सभा के गठन की तैयारियां चल रहीं थीं । बापू ने नेहरु से इस बाबत जानना चाहा । नेहरु ने बताया कि किसी विदेशी विशेष‍ज्ञ की सेवाएं लेने के लिए पत्राचार चल रहा है । यह विशेषज्ञ कोई अंग्रेज था । बापू ने पूछा - ‘इस काम के लिए तुम्हें देश में कोई आदमी नहीं मिला ?’ नेहरु ने पूछा - ‘देश में कौन है ?’ ‘और कौन ? अपने अम्बेडकर हैं तो !’ बापू ने जवाब दिया । यह जवाब उसी ‘गांधी’ ने दिया था जिसके लिए अम्बेडकर ने गोल मेज परिषद् में कहा था कि गांधी को सम्विधान की कोई जानकारी नहीं है । और सारा पत्राचार स्थगित हो गया । डाक्टर भीमराव अम्बेडकर, सम्विधान सभा के सभापति बना दिए गए ।


अम्बेडकर-गांधी मतभेद प्रकरण के समापन में नारायण भाई ने बड़ा ही मार्मिक प्रसंग सुनाया जिससे अनुभव किया जा सकता था कि इन दोनों महामानवों के बीच कितनी आत्मीयता रही होगी ।


तब बापू का निधन हो चुका था । अखबारों का पुलिन्दा उठाए, अपने आप में मगन, प्यारेलालजी कनाट प्लेस में चले जा रहे थे । पीछे से आती एक कार उनसे लगभग टकराती हुई निकली । प्यारेलालजी भन्ना गए । लेकिन वे कुछ कहते उससे पहले ही कार रुकी । फाटक खोलकर अम्बेडकर उतरे । प्यारेलालजी को एक निमन्त्रण पत्र थमाया और कहा - ‘यह मेरे विवाह का निमन्त्रण है, आपको आना है ।’ फिर बोले - ‘आज बापू होते तो कितने खुश होते । वे मुझे और मेरी पत्नी को आशीर्वाद देने जरूर आते क्यों कि मेरी पत्नी सवर्ण है और बापू ने उन्हीं जोड़ो को आशीर्वाद देने का निर्णय लिया था जिनमें एक हरिजन और दूसरा सवर्ण हो ।’


सुभाष-गांधी मतभेद

इन दोनों के मतभेद जग जाहिर रहे । किसी ने किसी से कुछ भी नहीं छुपाया । आजादी की लड़ाई के साधनों की शुचिता पर दोनों में आधारभूत मतभेद थे । आजादी हासिल करने के लिए सुभाष को हिंसा और विदेशी सहायता से परहेज नहीं था जबकि गांधी इन दोनों के खिलाफ थे । सुभाष स्वभाव से ही उग्र और आतुर थे - उन्हें आजादी जल्दी से जल्दी चाहिए थी जबकि गांधी स्वभाव से शान्त तथा ‘व्यावहारिक आदर्शवादी’ (प्रेक्टिकल आयडियोलिस्ट) । गांधी का कहना था जिस देश की मदद से आजादी हासिल करोगे, उसके गुलाम बन जाओगे ।

विट्ठल भाई पटेल और सुभाष ने जिनेवा में अपने संयुक्त हस्ताक्षरों से दिए वक्तव्य में कहा कि अहिंसा का रास्ता अपने समापन बिन्दु (सेचुरेशन पाइण्ट) पर आ गया है । अब रास्ता और नेतृत्व बदल दिया जाना चाहिए ।

इस वक्तव्य के सार्वजनिक होने के बाद, कांग्रेस के हरिपुरा सम्मेलन में गांधी के सुझाव से सुभाष को कांग्रेसाध्यक्ष बनाया गया । लेकिन एक साल बीतते न बीतते अध्यक्ष और कार्यकारिणी में गम्भीर मतभेद उभर आए ।

अगले चुनाव में सुभाष, पट्टाभि सीतारमैया को हराकर प्रचण्ड बहुमत से जीते । तब बापू ने कहा - ‘पट्टाभि की हार, मेरी हार है ।’ त्रिपुरी कांग्रेस सम्मेलन के समय गांधी राजकोट में उपवास पर थे । यदि उन्हें सुभाष का रास्ता रोकना होता तो यह बात वे चुनाव से पहले भी कह सकते थे । कांग्रेस कार्यसमिति का बहुमत तब भी सुभाष के पक्ष में नहीं था । तय हुआ कि अध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी का गठन बापू की राय से करें । सुभाष बापू के पास पहुंचे और सलाह मांगी । बापू ने पूछा - इस मामले में सम्विधान क्या कहता है ? (कांग्रेस का सम्विधान सन 1919 में तिलक महाराज के आग्रह पर गांधीजी ने ही बनाया था जो गांधीजी की वैचारिकता के प्रबल और जगजाहिर विरोधी थे।) सुभाष ने कहा - ‘सम्विधान कहता है कि अध्यक्ष अपनी कार्यकारिणी का गठन करेगा ।’ बापू ने कहा - ‘तो फिर करो । मुझसे क्या पूछते हो ?’



नारायण भाई ने कहा - जिस सुभाष से गांधी के मतभेद की बात कही जाती है, उस सुभाष की देशभक्ति पर गांधी को कभी भी सन्देह नहीं रहा । सुभाष की मृत्यु पर जब गांधी ने, सुभाष की मां को शोक सन्देश का तार भेजा तो अंग्रेजों ने उन्हें ‘फासिस्टों का समर्थक’ कहा । तब बापू ने कहा - ‘शो मी ए पेटियोट्रिक मेन देन सुभाष’ ( सुभाष से बड़ा और कोई देशभक्त हो तो मुझे बताओ ।)


नारायण भाई ने अनूठी सूचना दी - बापू को राष्ट्रपिता का अलंकरण भारतीय संसद ने बाद में दिया । सुभाष तो बरसों पहले ही उन्हें राष्ट्रपिता का सम्बोधन दे चुके थे ।

भगतसिंह प्रकरण

इस प्रकरण पर नारायण भाई बहुत कम बोले । उन्होंने कहा - ‘इन दोनों की कभी भेंट नहीं हुई ।’ ‘बापू चाहते तो भगतसिंह को फांसी से बचा सकते थे’ जैसी सारी बातें मिथ्या हैं । केवल भगतसिंह ही नहीं, उनके दोनों साथियों (सुखदेव और राजगुरु) को भी फांसी न हो, इसके लिए बापू ने कम से कम 6 बार प्रयत्न किया और ये तमाम बातें दुनिया जाने न जाने, इतिहास में दर्ज हैं । आक्रोशित भीड़ ने जब बापू को घेर लिया और लोगों ने बीच बचाव किया तो बापू ने उन्हें रोका और कहा कि यदि उन्हें लगता है कि मैं ने भगतसिंह के प्राण नहीं बचाए तो उन्हें ऐसा मानने दो । मैं ने जो भी किया है उसे मैं और मेरा ईश्वर जानता है । उनसे कहा गया कि वे बताते क्यों नहीं कि उन्होंने क्या किया ? बापू ने कहा कि अपने किए का बखान कर वे अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बनेंगे ।

क्रान्तिकारियों से अपने मतभेद बापू ने कभी नहीं छुपाए । उनका पहला मतभेद साधनों को लेकर था और दूसरा मतभेद था कि वे (बापू) किसी दल विशेष के बजाय देश के प्रति आग्रही थे । लेकिन क्रान्तिकारियों के साहस और देश के लिए प्राण न्यौछावर कर देने के जज्बे के कायल थे ।


पुत्र हरिलाल से मतभेद

बापू पर यह आरोप अब तक लगता है कि उन्होंने सारी दुनिया की चिन्ता की लेकिन अपने परिवार के लिए कुछ भी नहीं किया । हरिलाल गांधी का नाम ऐसे प्रसंग में बार-बार लिया जाता है । हरिलाल उनके सबसे बड़े बेटे थे । लेकिन बापू ने अपने बेटे और देश के किसी भी बेटे में भेद नहीं किया ।

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद, भारत से एक व्यक्ति को फीनिक्स आश्रम भेजा जाना था जो प्रशिक्षित होकर भारत लौटता । हरिलाल को अपेक्षा थी कि बापू उन्हें ही भेजेंगे । लेकिन बापू ने किसी और का नाम दिया । ऐसा बाद में दो बार और हुआ । हरिलाल इससे क्षुब्ध और क्रुध्द हुए । जबकि वास्तविकता यह थी कि जिन-जिन के नाम प्रस्तावित किए गए वे सब हरिलाल से अधिक शिक्षित थे (हरिलाल मेट्रिक भी नहीं कर पाए थे) और हरिलाल को फीनिक्स आश्रम में काम करने की शर्त भी मंजूर नहीं थी ।

नारायण भाई ने कहा - हरिलाल और बापू में कुछ समानताएं थीं । दोनों स्पष्ट वक्ता और अपनी बात पर डटे रहने के धनी । लेकिन मतभेदों के बावजूद दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था । ‘बा’ कहती - ‘हरिलाल ! आ जाओ ।’ हरिलाल कहते - ‘बा ! मैं तुम्हारे आश्रम में आने के काबिल नहीं रहा ।’ गांधी के अन्तिम संस्कार के समय हरिलाल भी भीड़ में, अनजाने-अचीन्हे मौजूद थे ।


गांधी के मतभेद सिद्धान्तों के कारण थे, बैर भाव के कारण नहीं । गांधी सद्गुणों को द्वार और दुर्गुणों को दीवार मानते थे । द्वार से प्रवेश किया जाता है और दीवार से टकराया जाता है । हरिलाल और बापू के मतभेद लगभग ऐसे ही थे ।

पुत्र बना पिता : सत्याग्रह का क्लासिकल उदाहरण

इस प्रसंग पर आने के साथ ही नारायण भाई का वाणी प्रवाह मानो बाधित होने लगा । लगा, उन्हें बोलने में तनिक असुविधा और असहजता हो रही है ।

9 अगस्त 1942 को, बम्बई के शिवाजी पार्क की मीटींग में गांधी नारा देने वाले थे - ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो ।’ लेकिन सवेरे-सवेरे ही उन्हें, महादेव भाई सहित बन्दी बना लिया गया । पुलिस वारण्ट में कहा गया था कि कस्तूरबा चाहें तो वे भी खुद को गिरफतार करा सकती हैं । इस समय नारायण भाई मौजूद थे । उन्होंने इस गिरफतारी को लेकर, पति-पत्नी के बीच हुए वार्तालाप को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया । बापू ने अन्तिम निर्णय बा पर ही छोड़ा । लेकिन यह भी कहा कि यदि वे गिरफतारी नहीं देती हैं तो उस दशा में बापू की जगह वे शिवाजी पार्क की सभा को सम्बोधित करें । अन्ततः बा ने निर्णय लिया कि वे शिवाजी पार्क की सभा को सम्बोधित कर, बापू का अधूरा काम पूरा करने के लिए, उनके साथ जेल जाने का सुख छोड़ेंगी ।


बापू और महादेव भाई को तत्काल गिरतार कर आगा खां महल जेल भेज दिया गया । उधर बा भी शिवाजी पार्क नहीं जा सकीं । उन्हें भी पहले ही पकड़ कर (सुशीला बहन के साथ) आर्थर रोड़ जेल भेज दिया गया । लेकिन कुछ ही दिनों बाद, इन दोनों को भी आगा खां महल भेज दिया गया । अब बा और बापू साथ-साथ थे । आगा खां महल के चारों ओर ग्यारह फीट ऊंची, कंटीले तार की बागड़ खींच दी गई तथा 76 बन्दूकधारी पुलिस जवान तैनात कर दिए गए ।


वह 15 अगस्त 1942 का दिन था । सुशीला बहन, बापू की मालिश कर रही थीं । अचानक ही बा ने उन्हें पुकारा । सुशीला बहन ने अनसुनी कर दी । थोड़ी देर में बा ने फिर आवाज लगाई और कहा कि महादेव को कुछ हो रहा है । सब भाग कर पहुंचे । देखा - महादेव भाई को एंठन हो रही है । सुशीला बहन ने अपनी दवा की पेटी खोली लेकिन उसमें महादेव भाई के लिए कोई दवाई नहीं थी । थोड़ी ही देर में महादेव भाई के प्राण पखेरु उड़ गए । उनकी निष्प्राण देह सामने थी ।

कानून के मुताबिक, महादेव भाई के रिश्तेदारों और नजदीकी लोगों को तुरन्त खबर दी जानी चाहिए थी । लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई । और तो और, बापू, बा, सुशीला बहन आदि को उनके दाह संस्कार में शामिल होने से भी रोक दिया गया । गतिरोध की स्थिति बन गई । अन्ततः आगा खां महल में ही दाह संस्कार करने पर सरकार सहमत हुई । बापू ने कहा - जिन्दगी भर वह मेरा पुत्र था । आज मैं उसका पुत्र हूं । मैं उसका अन्तिम संस्कार करूंगा । उधर बापू मुखाग्नि दे रहे थे, इधर बा विलाप कर रही थीं - महादेव ! तुम कहां चले गए । यह तो तुम्हारा मन्दिर था । तुम इस मन्दिर में ही चले गए । अब मैं भी इस मन्दिर से बाहर नहीं जाने वाली आदि, आदि ।



नारायण भाई का गला भर आया था । वाणी भर्रा रही थी, जबान साथ देने से इंकार करती लग रही थी । एक-एक शब्द बोलने में मानो उन्हें असाध्य श्रम करना पड़ रहा था । अपने पिता का मृत्यु प्रसंग इस प्रकार सुनाना ! सोच कर ही प्राण कण्ठ में आ जाते हैं । लेकिन नारायण भाई जल्दी ही ‘पुत्र से कथाकार’ बने । संयत होकर बोले - लेकिन इसके कोई दो महीने बाद सुशीला बहन ने बापू से कहा - ‘महादेव भाई की मौत वाले दिन तुम पर बावरापन छा गया था ।’ बापू ने पूछा - ‘कैसे ?’ सुशीला बहन ने कहा - ‘‘तुम महादेव भाई की आंखों में देखते हुए बार-बार कह रहे थे - ‘महादेव ! उठो !, महादेव ! उठो !’’ बापू ने कहा - ‘वह बावरापन नहीं, श्रद्धा थी ।’ सुशीला बहन हैरत में पड़ गई । पूछा - ‘श्रद्धा कैसे ।’ उसके बाद नारायण भाई ने जो कुछ कहा वह सुनकर सभागार में पहले तो सन्नाटा छा गया और अगले ही क्षण तालियों की गड़गड़हाट मानो सभागार की छत फोड़ने का उतावली होने लगी । महादेव भाई के अनुसार बापू ने कहा - ‘उसने जिन्दगी भर मेरी एक भी बात नहीं टाली । मेरा कहा नहीं लांघा । मुझे लगा कि मेरी आंख से आंख मिलते ही, मेरी आवाज सुनकर महादेव फौरन उठ खड़ा होगा ।’


महादेव भाई की मृत्यु के बाद, दाह संस्कार को लेकर सरकार के दुराचरण को लेकर एक बार किसी ने बापू से पूछा कि उस समय उन्होंने सत्याग्रह क्यों नहीं किया । बापू का उत्तर, सत्याग्रह की दृष्टि से ‘क्लासिकल उदाहरण’ था । उन्होंने कहा - ‘जनहित (पब्लिक कास्ट) के लिए तो मैं सत्याग्रह कर सकता था लेकिन अपने पुत्र के लिए मैं सत्याग्रह नहीं कर सकता था ।’

‘बा’ की विदाई

महादेव भाई की मृत्यु वाले दिन से ही बा बीमार हो गई थीं । उनकी तबीयत फिर कभी भी पूरी तरह नहीं सुधर पाई ।

जेल में रहले के दौरान बा को कमरे से बाहर, कांटेदार तारों की बागड़ और चारदीवारी से घिरे खुले मैदान में ले जाया जाता । वहां तुलसी का एक पौधा था जिसे देख कर बा के चेहरे पर प्रसन्नता आ जाती । ऐसे ही एक बार, जब बा को बाहर लाया गया तो जेलर ने उन्हें सूखी लकड़ियों से भरी एक गाड़ी बताई और बताया कि ये लकड़ियां बा के दाह संस्कार के लिए मंगवाई गई थीं । नारायण भाई ने कहा - अंग्रेज सरकार क्रूर ही नहीं, नीच भी थी ।

वह दिसम्बर 1943 की बात है । बा की तबीयत लगातार गिर रही थी । उन्होंने शर्माजी नामके वैद्यजी को बुलाने का आग्रह किया क्यों कि वे उनका इलाज करते रहे थे । बापू ने जेलर को लिखा कि अंग्रेज सरकार की एक कैदी की तबीयत ज्यादा खराब है और उसे फलां-फलां वैद्यजी की चिकित्सा की आवश्यकता है, उन्हें बुलवा लें । लेकिन सरकार की ओर से दो माह तक कोई जवाब नहीं आया । 21 मई 1944 को शर्माजी आये तब तक बा की तबीयत लाईलाज हो चुकी थी । शर्माजी ने रात भर वहीं रुकने की आवश्यकता जताई लेकन जेलर ने यह कह कर मना कर दिया कि जेल में कैदियों के सिवाय और कोई नहीं रह सकता । फलस्वरूप, वैद्यजी पूरी रात, जेल के बाहर अपनी कार में ही बैठे रहे - क्या पता, कब जरूरत पड़ जाए ?


वह रात निकल गई । 22 मई को सवेरे बापू ने बा से पूछा - ‘मैं घूम आऊं ?’ बा बोल नहीं पा रही थीं । आंखों से इंकार कर दिया - अनुमति नहीं दी । बापू वहीं, बा के पास बैठ गए । बा ने इशारा किया - ‘मेरे पास मत बैठो, अपने कमरे में जाओ ।’ बापू अपने कमरे में चले गए । नारायण भाई के लिए कथा सुनाना असम्भव सा होने लगा । उनका गला एक बार फिर रुंधने लगा । शब्द गले में अटकने लगे । बार-बार खांसी आने लगी । पता नहीं, सचमुच में खांसी आ रही थी या वे अपने आप को संयंत करने के लिए खांसी की मदद ले रहे थे ।

लम्बी सांस लेकर नारायण भाई फिर शुरु हुए । थोड़ी ही देर में बापू को भास हुआ - ‘वह मुझे बुला रही है ।’ वे तेजी से बा के पास आए । बा की आंखें मुंद रही थीं । बापू ने बा का सिर अपनी छाती पर रखा और मानो बा इसी क्षण के लिए रुकी हुई थीं । बापू की छाती पर सिर रखते ही बा ने प्राण त्याग दिए । नारायण भाई ने रुंधे कण्ठ से, अपनी पूरी शक्ति लगा कर, धीर-गम्भीर किन्तु मन्द स्वर में कहा - ‘यह बा की आजीवन इच्छा थी जिसे ईश्वर ने पूरा किया - वे बापू की छाती पर सिर रख कर ही विदा हुईं ।’

बा की उत्तरक्रियाओं के दौरान जब गीता पाठ की बात आई तो बापू ने कहा - गीता पाठ बेसुरा नहीं होना चाहिए । यदि बेसुरा हुआ तो मैं आधे में ही रुकवा दूंगा । जिसका पूरा जीवन सुरीला रहा उसे मरणोपरान्त भी बेसुरा नहीं सुनने दूंगा ।

और नारायण भाई ने विगलित, विह्वल स्वरों में कहा - उस दिन देवदास वहीं थे । उन्हीं ने गीता पाठ किया जिसे सुन कर बापू ने कहा - देवदास ! फीनिक्स में तुम जो गीता पाठ करते थे वह तुम नहीं भूले । आज भी तुमने बिलकुल वैसा ही सुरीला पाठ किया ।


नारायण भाई ने कहा - बा के देहावसान के बाद बापू की दिनचर्या में एक बदलाव आया । प्रतिदिन प्रार्थना के बाद वे गीता के किसी एक अध्‍याय का पाठ करते थे । लेकिन बा के देहावसान के बाद प्रत्‍येक माह की 22 तारीख को वे प्रार्थना के बाद पूरा गीता पाठ करने लगे ।

कट्टरता की कोख

यह नारायण भाई के आज के आख्यान का अन्तिम हिस्सा था जिसे मेरे मतानुसार सबसे पहले प्रस्तुत किया जाना चाहिए था । लेकिन ‘बापू-कथा’ की यह प्रस्तुति वस्तुतः मेरे नोट्स मात्र हैं जिनमें मैं ने अपनी बुध्दि नहीं लगानी चाहिए । न तो मैं ने क्रम बदलना चाहिए और न ही अपने विचार मिला कर कोई घालमेल करना चाहिए ।


नारायण भाई ने कट्टरता का भाष्य जिस तरह किया, उसके लिए इस समय मुझे कोई शब्द नहीं मिल रहे हैं । धर्मनिरपेक्षतावादियों और प्रगतिशील वामपंथियों की असहज, दुरुह, नकली, यान्त्रिक शब्दावली के कारण कट्टरता को समझना और समझाना मानो किसी लुप्त भाषा के ग्रन्थ का भाष्य करना हो गया है । ऐसे तमाम लोगों को कम से कम एक बार नारायण भाई का यह आख्यान जरूर सुनना चाहिए । मैं कबूल करता हूं कि कट्टरता के मायने आज मैं पहली बार समझ पाया हूं ।

नारायण भाई ने कहा - धर्म आदमी और आदमी को मिलाने के लिए होता है । प्रत्येक धर्म में सम्प्रदाय होते हैं । ये सम्प्रदाय अच्छे भी हो सकते हैं । जैसे संगीत के घरानों के सम्प्रदाय । सम्प्रदाय के साथ जब जड़ता जुड़ जाती है तो सम्प्रदायवाद बनता है जिससे आग्रह पैदा होते हैं जो ‘सिर के मुताबिक टोपी’ के स्थान पर ‘टोपी के मुताबिक सिर’ की मांग करते हैं ।

सम्प्रदायवाद में आवेश या जुनून शामिल हो तो कट्टरता पैदा होती है । कट्टरता में तत्व की अपेक्षा संकेतों, प्रतीकों, चिह्नों को महत्व दिया जाता है । कट्टरता में ये संकेत, प्रतीक, चिह्न बड़े तथा प्रमुख हो जाते हैं और धर्म छोटा तथा गौण हो जाता है ।

कट्टरता में पुरातन के प्रति प्रेम होता है । तत्कालीन परिस्थितियों और वर्तमान परिस्थितयों के अन्तर की उपेक्षा कर दी जाती है और ‘जैसी व्याख्या मैं करता हूं, उसे मानो’ का आग्रह होता है ।



कट्टरता प्रत्येक देश में होती है लेकिन बहुसंख्य लोग उसे स्वीकार तो नहीं करते लेकिन उसका विरोध भी नहीं करते वरन् चुप रह कर उसे बढ़ावा देते हैं ।


कट्टरता अपने मन से, अपने स्वार्थ से तय की हुई विधि होती है जो राजनीतिक, आर्थिक भी हो सकती है ।

धर्म मनुष्य को मनुष्य के पास लाता है और जो मनुष्य को मनुष्य से दूर ले जाए वह अधर्म होता है । यह अधर्म वस्तुतः कट्टरता से ही उपजता है ।

गांधी इस देश की इसी कट्टरता के शिकार हुए ।


विशेष: आज आयोजकों ने घोषणा की है कि वे इस ‘बापू कथा’ की समूची रेकार्डिंग सीडी या डीवीडी में उपलब्ध कराएंगे । मैं प्रयत्न करूंगा कि एक सेट प्राप्त कर श्री रवि रतलामी के सौजन्य से आप सब तक पहुंचा सकूं । लेकिन यह सब इसी पर निर्भर करता है कि कल ही यह सामग्री मिल जाए ।

(कल, नारायण भाई, भारत विभाजन से उपजी स्थितियों की चर्चा करेंगे और पूर्णाहुति करेंगे । यह मुझ पर ईश्वर की कृपा ही है कि मैं नारायण भाई के व्याख्यान आप तक लगातार चौथे दिन भी पहुँचा पा रहा हूं । मैं कोशिश करूंगा कि बापू कथा की अन्तिम शाम भी आप तक पहुंचा सकूं ।

यह आयोजन, इन्दौर में, कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट, इन्दौर द्वारा स्व. श्री जयन्ती भाई संघवी की स्मृति में, बास्केटबाल काम्पलेक्‍स में किया जा रहा है ।)