जिन्ना से मतभेद
पाकिस्तान निर्माण और भारत विभाजन को लेकर बापू और जिन्ना में पहले ही क्षण से मतभेद थे । लेकिन उससे भी पहले दोनों में वैचारिक मतभेद था । जिन्ना कहते थे - मैं संम्विधान के रास्ते को मानता हूं जबकि बापू के सत्याग्रह में संम्विधान कहीं नहीं था, उनका, सत्याग्रह का अपना संम्विधान था ।लेकिन कौंसिल मीटींग में जिन्ना ने यू टर्न ले लिया । उन्होंने कहा - अब हम संम्विधान नहीं मानेंगे । अंग्रेजों के पास काफी हथियार हैं, कांग्रेस के पास सत्याग्रह का शस्त्र है । हमारे पास पिस्तौल है, हम उसका उपयोग करेंगे । पत्रकारों ने पिस्तौल का उपयोग करने की बात का खुलासा चाहा तो जिन्ना कन्नी काट गए । जिन्ना के व्यवहार से पत्रकारों ने अनुमान लगा लिया कि पिस्तौल वाली बात पूछने पर सीधा जवाब नहीं मिलेगा । सो उन्होंने लीग के सचिव लियाकत अली खान से ‘आप कौन सा रास्ता अख्तियार करेंगे’ वाला सवाल पूछा तो उन्होंने कहा - ‘डायरेक्ट एक्शन।’ पत्रकारों ने इसका विस्तार जानना चाहा तो लियाकत अली ने कहा - ‘एवरीथिंग एक्स्ट्रा कांस्टीट्यूशन ।’ बंगाल के नजीमुद्दीन ने कहा - ‘ ‘हमारे लिए अहिंसा कोई मर्यादा नहीं है ।’ और अन्तिम स्वर उभरा - ‘खून की नदियां बहाए बिना पाकिस्तान नहीं मिलेगा ।’
अगले ही दिन, 16 अगस्त 1946 को यह वाक्य हकीकत में बदल गया । हिंसा का ताण्डव प्रारम्भ हो गया । मार काट मच गई । पहले दिन हिन्दू ज्यादा मारे गए तो अगले दिन उनसे दो-ढाई गुना मुसलमान मारे गए । कलकत्ता की सड़कों पर आवाजें गूंजने लगीं - कलकत्ता का बदला लेना होगा । तब के प्रमुख अंगे्रजी अखबार ‘स्टेट्समेन’ ने समाचार का शीर्षक दिया - द ग्रेट कलकत्ता किलिंग ।
नारायण भाई ने कहा - बदला लगातार बढ़ता रहता है और बदला ही पैदा करता है । बदले की निष्फलता और दारुण परिणाम मनुष्य समाज अनुभव तो कर रहा है पर सीखता कुछ भी नहीं । आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य जाति का प्रत्येक अंश संकल्प ले कि कम से कम मैं बदले की भावना से कोई कृत्य नहीं करुंगा तो ही माना जा सकेगा कि इतिहास ने मानवता को जो सबक सिखाया है वह हमने ग्रहण किया है ।
नोआखली की आग ने बढ़ते-बढ़ते पूरे उत्तर भारत को चपेट में ले लिया । बकौल नारायण भाई, नोआखली की न्यूनतम क्रूरता थी - हत्या । शेष जो कुछ भी हुआ वह हत्या से भी अधिक क्रूर था । एक, 10-12 साल की लड़की के सामने उसके बाप का सिर धड़ से अलग करना हत्या से भी बुरी चीज होती है और ऐसा वहां खुलकर हुआ ।
बापू नोआखली में
नारायण भाई ने बंगाल की भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बताया कि नदियों की बहुलता के कारण वहां का मुख्य लोक वाहन ‘नाव’ थी । गंगा और ब्रह्मपुत्र का संगम, पद्या नदी को जन्म देता है । इसका पाट 20 मील (30 किलोमीटर से अधिक) चौड़ा है । स्टीमर की छत से देखने पर दूर किनारों पर खड़े पेड़ों की फुनगियां भी अत्यन्त छोटी दिखाई देती हैं । मेघना वहां की दूसरी बड़ी नदी है । इन नदियों पर बने पुलों के दोनो छोरों पर कड़ी चैकसी की जाती थी - कोई भी आसानी से आ-जा नहीं सकता । इसी कारण नोआखली की घटना की जानकारी दिल्ली में कोई आठ-नौ दिन बाद पहुंची । बापू दिल्ली में ही थे । बोले - मेरा स्थान दिल्ली नहीं, नोआखली है । वे चल दिए किन्तु नोआखली जाने से पहले तयशुदा कार्यक्रमानुसार कलकत्ता रुके ।
तब बंगाल में मुस्लिम लीग का मन्त्रिमण्डल था और सुहरावर्दी मुख्यमन्त्री थे । वे खुद को गर्वपूर्वक ‘गांधी का बेटा’ कहते थे । बापू के कलकत्ता पहुंचने से पहले ही सुहरावर्दी आम सभा में सोलह अगस्त की घटनाओं की जिम्मेदारी ले चुके थे । बापू ने सुहरावर्दी से नोआखली चलने को कहा । वे तो नहीं गए लेकिन अपने संसदीय सचिव तथा कुछ दूसरे लोगों को बापू के साथ भेजा ।नोआखली जाने के लिए चांदपुर में उतरना पड़ता था । बापू जहाज से जैसे ही वहां उतरे तो विभिन्न समुदायों और सम्प्रदायों के लोग, अलग-अलग उनसे मिलने आए । नारायण भाई ने तनिक विराम लिया और गहरी सांस लेकर कहा - तब बापू को नोआखली में वे ही बातें सुनने को मिलीं जो 2002 में गुजरात में सुनने को मिली थीं । सबने कहा कि बंगाल विरोधी लोगों ने बातों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया है और अखबारों ने भी यही किया है । यहां हिंसा हुई ही नहीं और यदि हुई भी है तो नाम मात्र की । बापू ने कहा - यदि तुम्हारी बातें सच हैं तो चांदपुर में 50 हजार शरणार्थियों का शिविर क्यों लगा हुआ है ? किसी के पास कोई उत्तर नहीं था । सबका झूठ बापू ने न केवल पकड़ लिया था बल्कि जग जाहिर भी कर दिया था । झेंपते हुए उन लोगों ने कहा - हम तो उन्हें अपने गांवों में वापस बुलाना चाहते हैं लेकिन उन्हें विश्वास नहीं है सो वे आने को तैयार नहीं हैं । बापू ने कहा - कोई बात नहीं, वे नहीं आते हैं तो मैं आऊंगा और तुम्हारे साथ रहूंगा । उन लोगों ने बापू से आग्रह किया कि सेना की तादाद बढ़ा दी जाए जिसमें उनके सम्प्रदाय के सैनिक ज्यादा हों । बापू ने कहा -यह मांग कर आप अपने मन में छुपी साम्प्रदायिकता ही जाहिर कर रहे हैं ।
हिंसा के पर्व का उत्तरकाण्ड
नारायण भाई ने अत्यन्त मार्मिक प्रसंग से बापू की इस यात्रा का वर्णन प्रारम्भ किया । उन्होंने कहा - और बापू विभिन्न समुदायों के उन लोगों के साथ चल पड़े । उनके साथ-साथ एक कुत्ता भी चलने लगा । वह कभी साथ-साथ चलता, कभी आगे तो कभी पीछे । लोगों ने सोचा कि बापू को इससे असुविधा हो रही होगी सो उन्होंन कुत्ते को हड़काया । लेकिन कुत्ता भागा नहीं, उसी तरह कभी आगे, कभी पीछे, कभी साथ-साथ चलता रहा । लोग जब उसे हड़काने लगे तो बापू ने उन्हें रोका और बोले - यह कुत्ता शायद कुछ कहना चाहता है इसीलिए हमारे साथ-साथ चल रहा है । इसे भगाओ मत । कहकर बापू उस कुत्ते के पीछे-पीछे चलने लगे । बापू को ऐसा करते देख कुत्ता फिर न तो साथ-साथ चला और न ही पीछे, वह आगे ही चलता रहा और एक गांव में जाकर एक स्थान पर अपने पंजों से जमीन खोदने लगा । वहां से नर कंकाल निकले । मालूम हुआ - उस कुत्ते के स्वामी-कुटुम्ब के सारे सदस्यों को मार कर दफना दिया गया था । ये नर कंकाल उसी कुटुम्ब के लोगों के थे । बापू ने कहा - ‘आदमी से ज्यादा, कुत्ता वफादार है ।’ नारायण भाई ने कहा - यह प्रकरण ‘हिंसा के पर्व का उत्तरकाण्ड’ था ।
अभय मन्त्र की अपूर्व व्याख्या
नोआखली में बापू ने दो मन्त्र दिए । पहला - जिन पर जुल्म हुए हैं वे निर्भय होकर निर्भयता से रहें । इसे बापू ने ‘अभय मन्त्र’ कहा । दूसरा - जिन्होंने हमला किया है वे धर्म का सही अर्थ सीखें क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म निर्दोषों को मारना नहीं सिखाता । ‘अभय का अर्थ - जो किसी से नहीं डरे’ वाली व्याख्या को बापू ने आधी व्याख्या बताई और शेष आधी व्याख्या बताई - जिससे कोई डरता न हो ।’ इस प्रकार ‘अभय’ की व्याख्या हुई - जो न तो किसी से डरता हो और जिससे कोई भी नहीं डरता हो । अर्थात् न डरो, न डराओ ।’ अपने साथियों से बापू ने कहा - इन दोनों मन्त्रों का प्रचार करो । पहले तो बापू ने सबको अकेले ही घूमने को कहा लेकिन उनके ‘व्यावहारिक आदर्शवादी’ मन ने भाषा-अवरोध का अनुमान कर दो-दो की टोलियां बना दीं - एक बापू का सिपाही, दूसरा दुभाषिया । बापू की टोली में तीन लोग रहे ।
पहले ही दिन से बापू ने बांग्ला भाषा सीखना प्रारम्भ कर दिया । जिन लोगों की सेवा करनी है उन्हीं की भाषा में बात करने का भाव उनके मन में सदैव बना रहा । यहीं किसी ने उनसे ‘सन्देश’ मांगा था तो बापू ने अपना पहला सन्दश बांग्ला में दिया - ‘आमार जीवन, आमार वाणी ।’
बापू के अनुयायियों ने बापू के दोनों मन्त्रों का प्रचार अपनी-अपनी व्याख्याओं से कैसे किया - इसके कुछ रोचक उदाहरण नारायण भाई ने सविस्तार सुनाए ।
प्यारेलालजी ने कहा - मैं केवल अभय मन्त्र की ही बात करूंगा । वे ऐसे गांव में गए जहां के सारे हिन्दू या तो मारे गए थे या गांव छोड़ कर भाग गए थे । उनके निवास को लोग ‘प्यारेलाल का आश्रम’ कहते थे । उस आश्रम में रहने को 12 साल की एक ऐसी लड़की आई जिसके परिवार के सब लोग मारे जा चुके थे । प्यारेलालजी ने कहा - जो अभय प्रतिज्ञा लेगा, वही यहां रहेगा । लड़की ने हां कर ली । प्यारेलालजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए उसे एक पत्र दिया और पास के एक गांव का नाम बताते हुए कहा कि वहां रह रही उनकी सुशीला बहन को वह पत्र देकर उसका जवाब ले आए । लड़की ने कहा - मैं अकेली कैसे जाऊं ? प्यारेलालजी ने कहा - अभी तो तुमने अभय प्रतिज्ञा ली है । लड़की बोली - ‘अरे ! इसका मतलब यह है ?’ और वह जोर से ‘हरि ओऽम्’ बोलती हुई, जहां सूरज की रोशनी भी न पहुंचे ऐसे घने जंगलों में बनी पगडण्डी पर दौड़ गई । वह जवाब लेकर लौटी तो प्यारेलालजी ने कहा - अब तुम मेरे साथ रह सकती हो ।
गांव छोड़ कर भागे कुछ लोग एक अपराह्न प्यारेलालजी से मिलने आए । वे अपने गांवों में लौटने के लिए सुविधाओं की मांग कर रहे थे । बातें करते-करते रात घिर आई । लौटने के लिए उन्होंने सहयात्री (एस्कार्ट) की मांग की । प्यारेलालजी ने उस 12 साल की लड़की को आगे कर दिया । सब लोग झेंप गए और बिना सहयात्री के लौट गए ।
यह था लोगों को अभय मन्त्र सिखाने का, प्यारेलालजी का तरीका ।
नारायण भाई ने जो अगला प्रसंग सुनाया उसने समस्त श्रोताओं की आंखें पनीलीं कर दीं ।
सुशीला बहन डाक्टर थीं । उन्होंने इसी के माध्यम से गांधी मन्त्रों का प्रचार करने का निश्चय किया । दंगो के कारण नोआखली के सारे डाक्टर प्राण बचाकर भाग गए थे । सुशीला बहन ने अस्पताल शुरु किया । अपने साथ किए दुभाषिए लड़के को प्राथमिक चिकित्सा का प्रशिक्षण दिया । लेकिन लड़का होशियार था । जल्दी ही कम्पाउण्डर का काम करने लगा । डाक्टर भले ही गांव छोड़ गए लेकिन बीमार और बीमारियां तो गांव में थीं । सो, अस्पताल खुलने की खबर सुनकर लोग आने लगे । एक दिन ऐसा व्यक्ति आया जिसके पैर में चोट लगी हुई थी लेकिन ईलाज न मिलने के कारण सड़ने की दशा में आ गया था । वह पीड़ा से चिल्ला रहा था । आते ही उसने ईलाज की मांग की और सारे जमाने को गालियां दे-दे कर भला-बुरा कहने लगा । सुशीला बहन ने उस लड़के से कहा - ‘देखो तो जरा’ । लड़के ने घाव को धायो-पोंछा, सुशीला बहन ने देखा कि स्थिति गम्भीर तो अवश्य थी लेकिन गेंगरिन तक नहीं पहुंची थी । उन्होंने मरहम पट्टी की । यह प्रक्रिया चलते-चलते आदमी को पीड़ा में कमी अनुभव हुई और वह सुशीला बहन और उनके सहायक लड़के को दुआएं, आशीर्वाद देने लगा । सुशीला बहन ने पूछा - ‘जिस लड़के ने आपकी डे्रसिंग की है, उसे पहचानते हो ?’ आदमी ने इंकार करते हुए - ‘वह तो आपका साथी है ।’ सुशीला बहन ने कहा जरा देखो तो सही, शायद पहचान जाओ ।’ आदमी ने ध्यान से लड़के को देखा और कहा - ‘चेहरा देखा हुआ लगता तो है ।’ सुशीला बहन ने कहा - ‘जिस परिवार के सब लोगों की हत्या तुमने की है, यह लड़का उसी परिवार का है । हत्या वाले दिन यह बाहर था इसलिए बच गया ।’
तीसरा प्रकरण नारायण भाई ने बीबी अमतुल सलाम का सुनाया । इस मुसलमान महिला का वजन कभी भी 35 किलोग्राम से अधिक नहीं रहा था । लेकिन काया से जितनी दुबली, आत्मा से उतनी ही मजबूत । उन्होंनें कहा - ‘जिस गांव में शान्ति है वहां नहीं रहूंगी । वहां मेरी क्या जरूरत ?’ सो उन्होंने अशान्त गांव चुना । गांव में एक देवी मन्दिर था । बीबी ने पाया कि दंगों के दौरान उस मन्दिर से देवी के तीन खड़ग चोरी हो गए हैं । निश्चय ही किसी ने दंगों में उनका ‘सदुपयोग’ किया होगा । लेकिन बिना खड़ग के तो देवी की कल्पना ही नहीं की जा सकती । सो, बीबी ने घोषणा कर दी कि जब तक देवी के तीनों खड़ग वापस नहीं लाए जाते तब तक अन्न-जल नहीं लूंगी । बीबी के इस कदम की खबर प्यारेलालजी को भेजी गई । उन्होंने बापू को खबर दी । बापू ने कहा - ‘‘ मैं उपवास का ‘एक्सपर्ट’ हूं इसलिए बीबी को निर्जला उपवास की इजाजत नहीं देता हूं । तीसरे दिन से बीबी ने जल ग्रहण शुरु कर दिया । बीबी के अनशन को 24 दिन हो गए । दो खड़ग तो आ गए, तीसरा नहीं आया । अन्ततः बापू वहां पहुंचे । आसपास के 10 गांवों के लोग जुटे । सबने उन गांवों में अशान्ति न होने देने और शान्ति बनाए रखने की जिम्मेदारी ली और ऐसा ही वचन दिया । बापू ने बीबी को समझाया कि उनके उपवास का लक्ष्य तो पूरा हो गया है सो इसी में समाधान कर उपवास त्याग दो । और बीबी अमतुल सलाम ने बापू के हाथों फल का रस पीकर उपवास समाप्त किया ।
नारायण भाई ने कहा - अपनी तितिक्षा के जरिए शान्ति बनाने का यह प्रयास, गांधी मन्त्रों के प्रचार का, अमतुल सलाम बीबी का अपना तरीका था ।
एक गांव ऐसा था जहां बापू को सुनना तो दूर, मिलने भी कोई नहीं आया । जब कनु भाई गांधी ने बच्चों के साथ गेंद खेलना शुरु किया जिसमें सभी समुदायों के बच्चे आते थे । इन बच्चों का खेल देखने के लिए गांव के लोग भी आने लगे । तब बापू ने कहा खेल में धर्म आड़े नहीं आता तो जीवन में कैसे आड़े आ सकता है ।
शान्ति स्थापना के लिए अपने आसपास, लोक जीवन में बिखरे उपकरणों को उपयोग कैसे किया जा सकता है - यह कनु भाई गांधी ने समझाया ।
शुचिता कृपलानी (इन्हें हम सब सुचेता कृपलानी के नाम से जानते हैं लेकिन नारायण भाई ने ‘शुचिता’ ही उच्चारित किया) बांग्ला भाशी थीं । उन्होंने कहा कि वे गांव-गांव घमू कर, लोगों की भाषा में सम्वाद कर ज्यादा काम कर सकती हैं सो उन्होंने किसी एक गांव में रुकने से इंकार कर दिया ।
इस प्रकार, बापू के शान्ति सैनिकों ने अपनी-अपनी सूझ से बापू के मन्त्रों का प्रचार और शान्ति कायम करने का काम किया ।
नारायण भाई ने कहा - यहीं बापू ने नंगे पैर रहने का संकल्प लिया था । बापू ने कहा - शान्ति स्थापना से कठिन काम मैं ने आज तक नहीं देखा । शान्ति स्थापना की यात्रा तो निरन्तर चलने वाली यात्रा है और यात्रा तो नंगे पांवों की जाती है । सो अबसे मैं नंगे पांवों ही रहूंगा ।
नोआखली में बापू की यात्राओं में बार-बार और निरन्तर व्यवधान किए गए । एक यात्रा में मनु बहन (बापू के चचेरे भतीजे की पुत्री) बापू के आगे-आगे चल रही थी । उन्होंने देखा कि रास्तें में गोबर और मानव-मल पड़ा हुआ है । मनु बहन ने बापू को आगे जाने से सावधान किया । बापू ने सन की सींको की झाड़ू बनाकर सफाई शुरु कर दी । आसपास के खेतों-घरों में खड़े लोगों को पता था कि गन्दगी किसने फैलाई है । बापू को सफाई करते देख वे भी शामिल हो गए । बापू ने लोगों से कहा - जो भी यहां हुआ है वह धर्म के अनुसार नहीं हुआ है । जो हुआ वह अधर्म है । और यात्रा की अनवरतता निरन्तर हो गई ।
बापू को एक पत्र मिला - आप नोआखली में उपवास कीजिए । आपके उपवास का असर होता है, हमारे उपवास का नहीं । बापू मन ही मन हंसे । उपवास करना न करना व्यक्तिगत निर्णय का विषय होता है, परामर्श का नहीं । उन्होंने जवाब भेजा - मैं किसी की सलाह से उपवास नहीं करता । जहां, जैसा जरुरी लगेगा, वैसा करूंगा ।
‘ लेकिन’, नारायण भाई ने कहा -‘बापू तो अपने दैनन्दिन जीवन में उपवास ही कर रहे थे । वे 600 केलोरी प्रतिदिन ग्रहण कर रहे थे और प्रतिदिन 16 घण्टे काम कर रहे थे । सामान्य-स्वस्थ बने रहने के लिए आदमी को 1800 केलोरी चाहिए होती है । जो पहले से ही उपवास पर चल रहा हो उसे उपवास की सलाह देने को क्या कहा जाए !’
नोआखली में बापू को खबर मिली कि बिहार में दंगे हो रहे हैं । ये दंगे नोआखली से अधिक भयानक थे । नोआखली के दो जिलों में दंगे हुए थे और बिहार के 6 जिलों में दंगे हो रहे थे । उन्होंने राजेन्द्र प्रसादजी को पत्र लिखा - ‘अन्न छोड़ रहा हूं । यदि शान्ति नहीं हुई तो अनशन शुरु कर दूंगा ।’ राजेन्द्र प्रसादजी ने इस पत्र की प्रतिलिपियां बड़ी संख्या में, दंगाग्रस्त जिलों में बंटवाईं । जादू जैसा असर हुआ । 24 घण्टों में ही दंगे बन्द हो गए ।
भारत विभाजन और गांधी
(क्या कोई एक घण्टे में डेड़ घण्टे बोल सकता है । नहीं । लेकिन आज नारायण भाई एक घण्टे में डेड़ घण्टा बोले । कथा के इस खण्ड को प्रस्तुत करने में आज नारायण भाई ने मुझे तो मुश्िकल में डाला ही, मुझे जैसे तमाम लोगों को भी मुश्िकल में डाला होगा । इस खण्ड में वे बहुत ही तेजी से बोले । सांस लेने की अनिवार्यता को छोड़ दें तो कह सकता हूं कि वे अविराम बोले । ऐसा लगता रहा मानो वे एक ही क्षण में ‘सब कुछ’ बताने को व्यग्र हैं ।
नारायण भाई ने इस प्रकरण को तारीखवार सिलसिले से प्रस्तुत किया । लेकिन जहां-जहां अन्तर्कथा आई या कोई अन्य सन्दर्भ आया, वहां-वहां उन्होंने वह भी सविस्तार सुनाया । उस अन्तर्कथा के समाप्त होते ही वे वापस मूल बिन्दु पर आ जाते । सभागार में बैठकर सुनने में यह जितना सरल लगता है, उतना ही अधिक कठिन उसे लिखना होता है । सुनने में क्रम भंग अनुभव नहीं होता लेकिन पढ़ने में क्रम भंग (और रस भंग) होता है । यह अपरिहार्य है । मेरे लिए यह सम्भव नहीं है कि मैं मूल मुद्दे को पहले लिखूं और बाद में फुट नोट की तरह उन अन्तर्कथाओं या सन्दर्भ कथाओं को लिखूं । लिहाजा मैं सारी बातों को उसी क्रम में प्रस्तुत करने की कोशश कर रहा हूं जिस क्रम में नारायण भाई ने कहा । मैं अपनी ओर से कोई घालमेल करने से बचूंगा - जैसा कि मैं अपनी एक पोस्ट में कह चुका हूं । एक बात और । नारायण भाई ‘वेदव्यास’ की तरह बोले लेकिन मैं ‘गणेश’ की तरह नहीं लिख पाया । सो, कुछ न कुछ अन्यथा होने की आशंका मुझे बनी हुई है । कुछ तो मैं नोट कर पाया और काफी-कुछ नहीं । लिहाजा, अपने नोट्स और मेरी दिन-प्रति-दिन क्षीण होती जा रही स्मृति के आधार पर ही आगे लिख रहा हूं । यदि कोई अपराध होता नजर आए तो उसे ‘सदाशयता से, अनजाने में हुआ अपराध’ समझ कर मुझे क्षमा किया जाए - यह मेरी करबद्ध याचना है ।)
बापू बिहार में थे । उन्हें वाइस राय लार्ड माउण्टबेटन का सन्देश मिला - दिल्ली आकर मिलिए । बापू दिल्ली पहुंचे । इस बार उन्हें दिल्ली लम्बे अरसे तक रुकना पड़ा । दिल्ली उन दिनों ‘भारत को आजादी कैसे मिले’ इस विषय की चर्चा स्थली बनी हुई थी । माउण्ट बेटन ब्रिटिश राज परिवार के सदस्य थे और ब्रिटिश फौज में ऊंचे ओहदों पर काम कर चुके थे । इसलिए वे, सबसे तनिक हटकर और बेहतर थे । खुद माउण्ट बेटन भी ऐसा न केवल मानते थे बल्कि इस कारण अतिरिक्त सावधान भी रहते थे और यह सब जताते भी रहते थे । भारत आते समय ब्रिटेन की साम्राज्ञी, प्रधान मन्त्री और नेता प्रतिपक्ष ने उन्हें ‘मेण्डेट’ देकर भेजा था कि वे जून 1948 तक भारत से अंगे्रजी राज की वापसी करा ही दें । उन्हें साफ-साफ बता दिया गया था कि इस वापसी के लिए यदि भारत का विभाजन भी करना पड़े तो हिचकें नहीं । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंगे्रज सरकार खोखली हो गई थी साम्राज्य समेटना ही लाभदायक था । माउण्ट बेटन ने इस वास्तविकता को और आगे बढ़कर अनुभव किया कि भारत से अंग्रेजों की वापसी जितनी जल्दी होगी उतना ही अच्छा होगा । सो, वे इस मामले में अधिक आतुर और प्रयत्नशील थे । इसके साथ ही साथ उन्हें यह भी सुनिश्िचत करना था कि भारत, राष्ट्रकुल में बना रहे ताकि भारत की इस उपस्थिति का लाभ ब्रिटेन को निरन्तर मिलता रहे । लेकिन अंग्रेज सरकार की नौकरशाही के कई बड़े अधिकारी इस वापसी के खिलाफ थे ।
माउण्ट बेटन ने जल्दी ही अनुभव कर लिया था कि भारत विभाजन को टाला नहीं जा सकता । एक पक्ष पहले से ही इस विभाजन की मांग कर रहा था, यह उनके लिए तनिक सुविधाजनक था । ऐसे लोग मुट्ठी भर ही थे लेकिन थे तो सही । लेकिन लगभग पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस, विभाजन का विरोध कर रही थी । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और गम्भीर बात यह थी कि गांधी को तो विभाजन सपने में भी मंजूर नहीं था । लेकिन माउण्ट बेटन को इससे अधिक चिन्ता इस बात की थी कि यदि गृह युद्ध छिड़ गया तो उससे निपटने की तैयारी कांग्रेस के पास नहीं थी । विभाजन के बिना भारत की आजादी की सम्भावना जब क्षीणतम रह गई और माउण्ट बेटन को जब यह विश्वास हो गया कि गांधी विभाजन को स्वीकार नहीं ही करेंगे तो (जैसा कि उन्होंने, भारत वापसी के बाद, लन्दन की एक सभा में स्वीकार किया था) उन्होंने दो ‘मेननों’ (कृष्ण मेनन और वी. पी. मेनन) के जरिए, नेहरु और पटेल को विभाजन के लिए समहत करा लिया । चूंकि उन्हें पता था कि वे गांधी को नहीं मना सकेंगे सो, उन्होंने न केवल इस दिशा को ही छोड़ दिया बल्कि चतुराई से यह भी कर लिया कि नेहरु - पटेल को साधने के उपक्रम से गांधी को अनभिज्ञ भी रखा ।
देश को विभाजन से बचाने के लिए गांधी ने जिन्ना को स्वाधीन भारत का प्रधानमन्त्री बनाने का प्रस्ताव भी किया । यह प्रस्ताव देते समय उनके मन में ‘राजा सोलोमन’ वाला वह प्रकरण था जिसमें, एक बच्चे के लिए जब दो महिलाओं ने खुद को वास्तविक मां बताने का दावा किया था तब राजा सोलोमन ने उस बच्चे के दो टुकड़े कर, एक-एक टुकड़ा दोनों को देने का फैसला सुनाया था । इस फैसले पर वास्तविक मां ने कहा था कि बच्चा दूसरी महिला को दे दिया जाए । नारायण भाई ने कहा - अपने देश को बचाने के लिए गांधी ने भी बच्चे की वास्तविक मां जैसा ही व्यवहार किया । इस प्रस्ताव में नौ शर्तें थीं । लेकिन जिन्ना तो धर्म के आधार पर अलग पाकिस्तान लेने पर अड़े हुए थे, सो उन्होंने गांधी के प्रस्ताव को देखना भी ठीक नहीं समझा ।
कांग्रेस द्वारा देश का विभाजन स्वीकार कर लेने की बात गांधी को अखबारों से तब मालूम हुई जब बंटवारे के कागजों पर हस्ताक्षर हो गए । इससे पहले, अंग्रेज सरकार द्वारा भारत-विभाजन के प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए कांग्रेस ने पंजाब और बंगाल के विभाजन की मांग कर ली थी । यह सोचकर कि यह मांग नहीं मानी जाएगी और देश के बटवारे की बात भी स्वतः खारिज हो जाएगी । लेकिन गांधी ने कांग्रेस की इस मांग का विरोध किया क्योंकि यह विभाजन भी धर्म आधारित था । गांधी ने कहा था कि इस प्रस्ताव का मतलब था - धर्म के आधार पर पृथक देश की, जिन्ना की मांग का समर्थन करना ।
भारत विभाजन के कागजों पर हस्ताक्षर होने की खबर अखबारों में पढ़कर गांधी ने उस दिन नौ पत्र लिखे । इनमें से एक-एक पत्र नेहरु और पटेल के नाम था । गांधी ने दोनों को लिखा - ‘मैं ने अखबारों में पढ़ा । मैं समझ नहीं पाया ! क्या आप मुझे समझाएंगे ?’ नेहरु ने तो पत्र का उत्तर ही नहीं दिया । पटेल ने लिखा - जब यह सब हुआ तब आप बहुत दूर थे इसलिए आपसे सम्पर्क नहीं किया जा सका । पर आप विश्वास रखिए कि जो भी हुआ, वह पूर्ण विचार के बाद ही हुआ है । गांधी को अन्देशा हो चुका था कि ऐसा कुछ हो सकता है और उन्हें अलूफ रखा जा सकता है । इसका अनुमान उन्होंने काफी पहले, ‘हरिजन’ में अपने लेख मे उजागर कर दिया था जिसमें उन्होंने लिखा था - ‘मैं कहता हूं लेकिन मेरी सुनता कौन है ?’
लेकिन गांधी ने इस विभाजन को नहीं माना । उन्होंने कहा - ‘जो हुआ सो हुआ । लेकिन मैं इसे नहीं मानता । इसलिए मैं तो अपना कार्यक्रम, एक देश मानकर ही बनाऊंगा ।’ नारायण भाई ने कहा - पाकिस्तान जाने का कार्यक्रम बापू बना चुके थे । इसी सिलसिले में सुशीला बहन, 30 जनवरी 1948 को लाहौर में थीं जहां उन्हें बापू हत्या का समाचार मिला । समाचार सुनते ही वे वायुयान से भारत लौटीं । विमान में मियां इतेखार भी थे । उन्होंने सुशीला बहन से कहा - ‘गांधी को मारने वाला कोई एक अकेला आदमी नहीं है । उनके मारने वालों में हम सब शरीक हैं ।’
जन-स्थानान्तरण (ट्रांसफर आफ पापुलेशन)
बंटवारा तो तय था लेकिन यह तय नहीं था कि बंटवारा शुरु कहां से होगा । इस स्थानान्तरण के लिए भौगोलिक विभाजन रेखा खींची जानी थी । इस काम के लिए ब्रिटिश सांसद रेडक्लिफ को नियुक्त किया गया जो भारत के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे । अपने संसदीय जीवन काल में उन्होंने एक बार भी ‘इण्डिया’ शब्द का उच्चारण नहीं किया था । लेकिन उनके इसी अज्ञान को उनकी नियुक्ति का आधार बनाया गया, यह कह कर कि चूंकि वे कुछ भी जानते इसलिए वे पूर्ण तटस्थ होकर ही वास्तविक निर्णय देंगे ।
बापू ने इस विचार का ही विरोध किया था । इसके गम्भीर परिणामों को वे खूब अच्छी तरह जानते थे । लेकिन उनकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया और इसका भीषण परिणाम सारी दुनिया ने देखा ।
नारायण भाई ने दो प्रसंग प्रस्तुत किए । पहला प्रसंग जिन्ना को लेकर था । जिन्ना, क्वेटा में मृत्यु शैया पर थे । किसी ने उनसे पूछा - ‘कायदे आजम ! आपने ही हमारा मुल्क बनाया । इस सबमें आपने कोई भूल तो नहीं की ?’ जिन्ना बोले - ‘हर शख्स करता है ।’ सवाल आया - ‘सबसे बड़ी भूल कौन सी थी ?’ जिन्ना ने कहा - ‘छोड़ो भी ।’ सवाल दुहराया गया तो जिन्ना कहा - ‘भारत का विभाजन सबसे बड़ी भूल थी ।’
दूसरा प्रसंग माउण्ट बेटन से जुड़ा सुनाया । ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के लेखकद्वय, किताब लिखने के सिलसिले में लार्ड माउण्ट बेटन से मिले । जन-स्थानान्तरण को लेकर माउण्ट बेटन ने कहा -‘ऐसा न करने के लिए एक आदमी (गांधी) ने मुझे बार-बार कहा था । उस आदमी को जनता की नब्ज पता थी । उसने कहा था कि ऐसा करने पर खून की नदियां बहेंगी । लेकिन मेरे तीनों गवर्नरों ने मुझे सही अनुमान नहीं होने दिया और मैं ने गांधी की बात अनसुनी कर दी ।’ यह कह कर माउण्ट बेटन फूट-फूट कर रो दिए ।
नारायण भाई ने कहा - सारे सम्बन्धितों ने गांधी की बात न मानने की स्वीकारोक्तियां कीं लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी ।
बंटवारे से पहले की एक और घटना नारायण भाई ने सुनाई । डाक्टर जाकीर हुसैन, जामिया मीलिया इस्लामिया के प्रमुख थे । वे अमृतसर गए । उन्हें बताना नहीं पड़ता था कि वे मुसलमान हैं । यह उनके पहनावे और दाढ़ी से अपने आप ही जाहिर हो जाता था । अमृतसर स्टेशन पर ही उन पर प्राणलेवा हमला हुआ । वे लौटकर दिल्ली आए तो बापू से मिले । बापू ने पूछा - ‘क्या हुआ ?’ डाक्टर जाकीर हुसैन ने आपबीती के बारे में तो एक शब्द भी नहीं कहा और बोले -‘बापू ! मनुष्यता के धरातल पर हम जितना नीचे गिर सकते थे, गिर चुके हैं । अब यदि कोई उम्मीद बची है तो वह आपसे ही है ।’
विभाजन के बाद
वे गहरे शोक भरे, वेदनामय दिन थे । बापू ने अब अकेले ही चलने का फैसला किया । कहा - ‘अब मुझ अकेले से जो कुछ, जितना कुछ बन पड़ेगा, करुंगा ।’ वे शरणार्थियों की छावनियों में जाते । उनसे बात करते, ढाढस बंधाते । सब उनकी बात सुनते लेकिन कुछ उनका विरोध भी करते । कुछ ने कहा कि वे अपनी सर्व-धर्म प्रार्थना में कुरान की आयतों का पाठ न करें क्यों कि उन आयतों में तो खुदा से कहा गया कि हमें सीधी राह पर चलाए, टेढ़ी-मेड़ी राह पर चलने से बचाए लेकिन मुसलमानों का आचरण तो इसके प्रतिकूल है । बापू ने यह सुझाव मानने से इंकार कर दिया और कहा कि कुरान की आयतों के बिना सर्व-धर्म प्रार्थना करने के बजाय वे सार्वजनिक रुप से प्रार्थना ही नहीं करेंगे ।
नारायण भाई ने कहा कि तीन बार ऐसा हुआ कि बापू का सार्वजनिक प्रार्थना का नियम भंग हुआ और उन्होंने बन्द कमरे में प्रार्थना की । प्रायः रोज ही उनकी सार्वजनिक प्रार्थना में व्यवधान होता था । ईश्वर प्रार्थना का विरोध बापू के लिए असह्य वेदना का विषय था । नारायण भाई के अनुसार इस व्यवधान का खुलासा, नाथूराम गोड़से के, कोर्ट में दिए गए उस बयान से होता है जिसमें उसने स्वीकार किया - ‘गांधी को हम लोगों ने परेशान (डिस्टर्ब) किया ।’
गांधी जब बार-बार ‘देश का विभाजन, मेरा विभाजन है’ कहते थे तो कुछ लोग पूछते थे कि ऐसा है तो गांधी ने आत्महत्या क्यों नहीं की । नारायण भाई ने कहा - ‘नोआखली मे वे जो कर रहे थे वह तिल-तिल कर मरना ही था ।’ इस प्रसंग में नारायण भाई ने, बापू की डायरी के अंश को पढ़ कर सुनाया - ‘भावी पीढ़ियों को जान लेने दो कि उनके बारे में सोचते हुए इस बूढ़े को कितनी पीड़ा हुई है, कितनी यात्राओं से गुजरना पड़ा है । हिन्द के विभाजन के अभिशाप में गांधी का तनिक भी हिस्सा नहीं था - यह भावी पीढ़ियों को जान लेने दो ।’
कुछ लोगों के इस सन्देह भरी जिज्ञासा का कि ’आखिरकार गांधी को क्यों मारा ? उन्होंने कुछ तो गड़बड़ की होगी ?’ नारायण भाई ने कहा - ‘हां, गांधी ने वही गड़बड़ की जो जीसस क्राइस्ट ने की थी - दूसरों के पापों को अपना पाप मानना । इसीलिए दोनों मारे गए ।’
नारायण भाई ने इस जन-भ्रान्ति का खण्डन किया कि 15 अगस्त 1947 को बापू नोआखली में थे । उस दिन उन्हें नोआखली जाते हुए रास्ते में, कलकत्ता रोक लिया गया था । रोके जाने पर बापू ने सुहरावर्दी से शर्त रखी कि कलकत्ता में दोनों एक ही मकान में रहेंगे । हैदरी मेंशन में दोनों का निवास हुआ ।
वे कलकत्ता में ही थे कि दल्ली से बुलावा आया । बापू ने आने से मना कर दिया । बुलावा फिर आया । इस बार सन्देश भी था - ‘आप नहीं आएंगे तो बहुत बुरा हो जाएगा ।’ बापू ने जवाब दिया -‘जो होना है होने दो । मैं नहीं आऊंगा ।’ बापू का जवाब सुनकर दिल्ली से सुधीर घोष को, वायुयान से भेजा गया । वे शाम को कलकत्ता पहुंचे । आते ही उन्होंने कहा - ‘मैं दिल्ली से सन्देश लाया हूं ।’ बापू ने कहा - ‘लम्बी यात्रा से हाए हो । थक गए होगे । पहले भोजन कर लो ।’
बात अगली सुबह हुई । सुधीर घोष ने कहा - ‘आपको आना चाहिए ।’ बापू ने कहा - ‘मेरी इच्छा नहीं होती, आजादी का उत्सव मनाने की ।’ बात करते-करते वे सुधीर घोष को बाहर, हैदरी मेंशन के आंगन में, पेड़ के नीचे ले आए । साफ-सुथरे आंगन में, एक सूखी पत्ती पड़ी थी । उसे दिखाते हुए बापू सुधीर घोष से बोले - ‘मेरी स्थिति इस पत्ती जैसी है ।’ सुनकर सुधीर घोष की आंखों से आंसुओं की धार बह चली । आंसू की एक बूंद, संयोगवश उस पत्ती पर पड़ गई । यह देख बापू बोले -‘मेरी मनोदशा कैसी भी हो, तुम्हारी आंसू की बूंद ने उसे हरा तो कर दिया ।’
सुधीर घोष ने कहा - (मन्त्री पद की) शपथ ग्रहण करने वालों को अपने आशीर्वाद तो दीजिए । बापू ने कहा - ‘नम्र बनो । धैर्य रखो । तुम्हारी असली कर्साटी अब शुरु होती है । सत्ता से सावधान रहो-यह भ्रष्ट करती है । इसके तामझाम से चैंधिया मत जाना । तुम देहातों के गरीब लोगों के प्रतिनिधि बन कर सत्ता ग्रहण कर रहे हो, इस बात को कभी मत भूलना ।’
15 अगस्त को बापू ने कहा था - ‘मुझे (देश में) एकता के दर्शन तो होते हैं लेकिन मुझे यह सतही लगता है । इसके पीछे वैमनस्य न हो ।’
उनकी यह आशंका जल्दी ही सच साबित हुई । सितम्बर में फिर दंगा शुरु हो गया ।
वे हैदरी मेंशन में रह रहे थे । लोगों का एक दल आया । पत्थरों और लाठियों से हमला किया । एक लाठी बापू के बहुत ही पास से गुजर गई । बापू के चेहरे के भाव देख कर सवाल आया - ‘अनशन करने की सोच रहे हैं ?’ बापू ने कहा - ‘हां, मैं वही सोच रहा हूं । अब तो नोआखली जाने की भी जरुरत नहीं रही ।’ और उन्होंने अनशन शुरु कर दिया । लोगों ने कहना शुरु कर दिया - ‘इस आदमी के उपवास से क्या होगा ?’ अमिय बाबू ने कहा - ‘बस, देखते रहो ।’
और बापू का अनशन जन-चर्चा का ही नहीं, जन-चिन्ता का विषय बन गया । आने-जाने वाले अनजान, अपरिचित लोगों से रिक्शावाले, कुली, सड़क पर दुकान लगाने वाले, खोमचे वाले पूछते - ‘गांधी बाबा की तबीयत कैसी है ?’
ऐसे में नारायण भाई ने एक अत्यन्त मार्मिक प्रसंग सुनाया ।
कलकत्ता का एक निम्नवर्गीय परिवार । गृहस्वामिनी का नाम - गिन्नी । गृह स्वामी एक शाम काम से लौटा । गिन्नी ने उसके लिए भोजन लगाया । पति ने गिन्नी से कहा - तुम भी खा लो । गिन्नी ने कहा - तुम खाओ । भोजन करते-करते पति ने पूछा - तुम क्यों नहीं खा रही ? गिन्नी बोली - ‘‘खाने को मन नहीं करता। हम खा रहे हैं और ‘वह’ हमारे लिए उपवास कर रहा है ।’’
गिन्नी की बात ने मानो बन्दूक की गोली सा असर किया । आधा भोजन छोड़ कर पति ने थैली पर टंगे झोले में से हथगोला निकाला (जो उसने ही बनाया था) और ज्यों का त्यों हैदरी मेंशन पहुंचा । बापू को हथगोला दिया और बोला - ‘यह हथगोला मैं ने बनाया था । आप रख लो और खाना खाओ । मेरी गिन्नी खाना नहीं खा रही है ।’ यह अद्भुत और अभूतपूर्व दृष्य था । बापू ने कहा - ‘खमीर ने काम करना शुरु कर दिया है ।’
बापू के उपवास को तीन दिन हो गए थे । कलकत्ता में मानो हा ! हा ! कार मच गया । शान्ति अपील का मसौदा तैयार करने की जिम्मेदारी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को सौंपी गई । उन्होंने इस शर्त पर मसौदा तैयार किया कि वह बापू को दिखाया जाएगा । बापू ने उसे मूलतः स्वीकार किया । उस पर 50 नेताओं के हस्ताक्षर हुए । चौथे दिन बापू ने अनशन तोड़ा ।
अनशन तोड़ते ही बापू ने बंगाल के गवर्नर राज गोपालाचारी को अपने पास बुलाया और कहा - ‘आप तो गवर्नर हैं । मेरे लिए एक काम करें । कल सवेरे की गाड़ी से मैं पंजाब जाना चाहता हूं । कल की रेलगाड़ी में मेरा आरक्षण करा दीजिए ।’ सुनकर सब परेशान हो गए । तीन दिनों का अनशन । उन्हें आराम की जरुरत थी और वे हैं कि लम्बी यात्रा करना चाहते हैं ! वस्तुतः बापू ने वादा किया था कि आजादी मिलते ही वे पंजाब जाएंगे । वे अपना यही वादा पूरा करना चाह रहे थे । सुहरवार्दी अड़ गए । इंकार कर दिया । उनके आग्रह पर बापू दो दिन और कलकत्ता रुक गए । दो दिन बाद, बापू को स्टेशन पर विदा करते हुए सुहरावर्दी फूट-फूट कर रोए, बच्चों की तरह बिल-बिलख कर ।
कलकत्ता से पंजाब जाते समय बापू को दिल्ली में ही रोक लिया गया और यह मुकाम ही अन्तिम प्रयाण में बदल गया ।
पटेल और प्रधान मन्त्री पद
सरदार पटेल के बजाय जवाहरलाल नेहरु का प्रधान मन्त्री बनना, तत्कालीन परिस्थितियों की अनिवार्यता और अपरिहार्यता थी । नेहरु के मुकाबले पटेल न केवल अधिक वृध्द थे वरन् बीमार भी थे । जब भी कभी बापू और पटेल का मुकाम एक स्थान पर होता तो बापू कहते - ‘सरदार को मेरे साथ ही ठहरवाना । वे बीमार हैं ।’ लेकिन इसके समानान्तर बापू यह भी जानते थे कि दोनों (पटेल और नेहरु) का एक साथ बने रहना देश की एकता और स्थिरता के लिए अनिवार्य है । सो, उन्होंने सरदार को बुला कर कहा कि उन्हें (बापू को) देश की एकता की अत्यधिक चिन्ता है । देश की एकता के लिए ‘आप चाहें न चाहें, आपको और जवाहर को साथ-साथ ही रहना पड़ेगा ।’ इसके बाद बापू ने कहा - ‘आपको तो यह मैं ने कह दिया । आज प्रार्थना के बाद जवाहर से भी यही बात कहूंगा ।’ लेकिन बापू वह प्रार्थना कर ही नहीं सके ।
बापू की हत्या
इस मुद्दे पर नारायण भाई ने सर्वथा अनूठी, नई और अविश्वसनीय सूचनाएं दीं और उन सबकी पुष्िट में प्रमाण भी दिए ।
नारायण भाई के अनुसार 30 जनवरी 1948 को की गई गांधी-हत्या अनायास नहीं की गई । इस हत्या के लिए कम से कम 14 वर्ष पहले से सुनियोजित प्रयास किए जा रहे थे । 30 जनवरी को किया गया हत्या का प्रयास छठवां और अन्तिम सफल प्रयास रहा । उससे पहले पांच प्रयास और किए जा चुके थे ।
नारायण भाई ने कुछ प्रसंग सविस्तार सुनाए ।
पचगनी में बापू आराम कर रहे थे । तभी कुछ लोगों की भीड़ चिल्ला-चिल्ला कर ‘मुर्दाबाद’ के नारे लगाने लगी । बापू ने कहा - ’उन लोगों को बुलाओ । मैं उनसे मिलना चाहता हूं ।’ इन लोगों में नाथूराम गोड़से न केवल शरीक था बल्कि उसके पास 6 इंच का छुरा भी था ।
जिन्ना से मिलने के लिए गांधी का जाना तय था । हैदराबाद के खाकसार लोगों ने कहा कि वे गांधी को जिन्ना से मिलने नहीं देंगे, वर्धा से ही नहीं निकलने देंगे । सरकार ने गांधीजी को सतर्क किया कि एक दस्ता उनके (गांधीजी के) लिए निकला है । थोड़ी ही देर बाद सूचना आई कि गांधीजी अब निश्िचन्त रह सकते हैं क्यों कि सरकार ने अपने एक आदमी को उस दल में मिला दिया था जिसकी सूचना के आधार पर दल के लोगों को गिरतार कर लिया गया है । गिरफतार लोगों में से एक के थैले से छुरा बरामद हुआ । इस दल के सदस्यों में एक सदस्य था - नाथूराम गोड़से ।
बापू ने एक बार कहा था कि वे 120 वर्ष जीना चाहते हैं । इस पर ‘अग्रणी’ नामक अखबार ने सम्पादकीय लिखा - ‘लेकिन जीने कौन देगा ?’ यह सम्पादकीय लिखने वाला, इस अखबार का सम्पादक था - नाथूराम गोड़से ।
‘गांधी-हत्या’ को ‘गांधी-वध’ कहने के पैरोकारों ने गांधी की हत्या को मुस्लिम लीग द्वारा 1940 में व्यक्त की गई ‘एक देश में दो देशों की अवधारणा’ की प्रतिक्रिया कहा था । लेकिन बकौल नारायण भाई देसाई, इससे 17 वर्ष पहले ही, 1923 में सावरकर अपनी पुस्तक में ‘एक देश में दो देशों की अवधारणा’ प्रस्तुत कर चुके थे ।
ऐसे उदाहरण देने के बाद नारायण भाई ने कहा - ‘गांधी हत्या के पीछे सुनिश्िचत, योजनाबद्ध रणनीति और एक दर्शन था । यह दर्शन, कुछ न कुछ मात्रा में, हममें भी है ।’ अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए नारायण भाई बोले - ‘हम अज्ञान रहें हों या चुप रहे हों, आज की स्थितियां हम सबकी जिम्मेदारी हैं ।’
गांधी-मृत्यु: इच्छा मृत्यु
जिस दशा और जिस घटनाक्रम में बापू की मृत्यु हुई क्या इस सबका उन्हें पूर्वानुमान हो गया था ? क्या यह सब उन्होंने ही चाहा था ? क्या यह इच्छा मृत्यु थी ? नारायण भाई के अनुसार - लगता तो ऐसा ही है ।
उन्होंने मनु बहन की डायरी का, 30 जनवरी 1947 (मृत्यु से ठीक एक वर्ष पूर्व) के पृष्ठ का उल्लेख किया । मनु बहन ने ऐसा कुछ लिखा - ‘आज बापू ने कुछ अजीब कहा । उन्होंने कहा कि अगर मैं बीमारी से मरूं तो छत पर चढ़कर चिल्ला कर जमाने से कहना कि जिसे तुम महात्मा मानते हो, वह महात्मा नहीं था । लेकिन यदि कोई मुझे सामने से आकर मारे, मरते समय मेरे होठों पर राम का नाम हो और मारने वाले के प्रति मेरे मन में कोई द्वेष न हो तो कहना कि वह महात्मा तो नहीं लेकिन भगवान का एक साधक जरूर था ।’
अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले से बापू बार-बार प्रभु से प्रार्थना करने लगे थे - ‘इस तमस में से मुझे अपने प्रकाश में कब ले जाएगा ?
’नारायण भाई ने कहा कि सुब्बरावजी (डाक्टर एस.एन.सुब्बराव) ने अपनी चर्चाओं में उद्घाटित किया कि बापू ने एक बार लार्ड माउण्ट बेटन से कहा था - ‘मैं तो कभी प्रार्थना में जाऊंगा तब ही कोई मुझे मारेगा ।’
प्रार्थना से पहले हुई मुत्यु को नारायण भाई ने अनूठी व्याख्या दी । उन्होंने कहा - भक्त को यदि भगवान से मिलने की उतावली थी तो भगवान को उससे भी अधिक उतावली थी । इसीलिए तो, बापू को प्रार्थना तक पहुंचने नहीं दिया । उससे पहले ही प्रभु ने अपनी गोद में ले लिया ।
’बापू के अन्तिम शब्दों को भी नारायण भाई ने अद्भुत और आध्यात्मिक स्वरूप दिया । उन्होंने कहा - ‘‘तीन गोलियों का जवाब बापू ने तीन अविनाशी अक्षरों ‘हे ! राम’ से दिया ।’’
नारायण भाई ने आह्वान किया - ‘गांधी की प्रासंगिकता आज की आवश्यकता है । यह शक्य है या नहीं, यह आप-हम पर निर्भर है । यदि इसे शक्य नहीं बनाया जा सका तो गांधी की प्रासंगिकता समझने वाले ही अप्रासंगिक हो जाएंगे ।’
‘अपने हृदय की वेदना से भरा मौन ही गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि है’ नारायण भाई के इस आग्रह के साथ ही सभागार में तीन मिनिट के मौन का साम्राज्य हो गया । जिसे ‘शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः’ उच्चारण के साथ तोड़ कर नारायण भाई ने पांच दिवसीय ‘बापू कथा’ का समापन किया ।
सभागार में उपस्थित कोई साढ़े तीन हजार से अधिक लोग जब विसर्जित हुए तब भी गहरा मौन पसरा हुआ था । कोई किसी से नहीं बोल रहा था । शायद प्रत्येक के मन में एक जैसी ही बात रही होगी जिसे व्यक्त करना प्रत्येक ने अनावश्यक और अविवेक ही माना होगा ।