चाकुओं से घिरा खरबूजा है हमारा किसान

यह तीस मई की दोपहर है। प्रदेश सरकार के आँख-कान मन्दसौर पर टिके हुए हैं। मन्दसौर, नीमच और रतलाम जिले के सारे गाँवों-कस्बों के रास्ते मन्दसौर जा रहे हैं। आज मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह वहाँ पहुँच रहे हैं। वे उड़न खटोले से पहुँचेंगे। वहाँ वे कुछ योजनाओं के उद्घाटन करेंगे। कॉलेज मैदान में उनकी आम सभा होगी। अनुमान है कि किसानों के लिए कुछ महत्वपूर्ण आकर्षक घोषणाएँ करेंगे। आम सभा में एक लाख लोगों की उपस्थिति का लक्ष्य है। लेकिन तम्बू ठेकेदार को 25 हजार की क्षमता का तम्बू लगाने का पैसा दिया गया है। भीड़ लाने के लिए एक हजार यात्री बसों की व्यवस्था की गई है। मन्दसौर जिले की 500 में से 462 बसें अधिगृहित कर ली गई हैं। राजस्थान से 150 बसें मँगवाई गई हैं। 

यह सब इसलिए कि देश के सौ से अधिक किसान संगठनों ने एक जून से दस जून तक ‘गाँव की उपज गाँव में रहे’ का आह्वान किया है। लेकिन यही एक मात्र कारण नहीं है। एक कारण और है जो पहले कारण से ज्यादा महत्वपूर्ण है। गए बरस, 6 जून 2017 को मन्दसौर जिले में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पुलिस गोलीबारी से 6 किसानों की मृत्यु हो गई थी। इस घटना की पहली बरसी पर काँग्रेस श्रद्धांजलि सभा आयोजित कर रही है। गाँव खोखरा में यह आम सभा होगी। इस आम सभा को असफल और बौनी साबित करने में तीनों जिले का भाजपा संगठन और प्रशासकीय अमला जी-जान से जुटा हुआ है। मन्दसौर, नीमच और रतलाम जिले के तमाम अफसर और प्रशासकीय अमला कोई एक पखवाड़े से चौबीसों घण्टे मुस्तैद बना हुआ है। किसानों को ‘भाजपाई किसान’ और ‘गैर भाजपाई किसान’ में बाँट दिया गया है। कलेक्टर और एसपी, गाँव-गाँव जाकर दिन-रात लोगों से मिल रहे हैं। किसानों से चर्चा कर रहे हैं। कह रहे हैं कि दूध, सब्जी, फल जैसी अपनी उपज बेचने के लिए बेहिचक शहरों कस्बों में लाएँ। तीनों जिलों में अतिरिक्त पुलिस बल बुला लिया गया है। पुलिस जवानों के लिए हजारों नए लट्ठ खरीद लिए गए हैं। जगह-जगह केमरे लगा दिए गए हैं। तीनों जिलों के हजारों किसानों को पुलिस द्वारा नोटिस जारी कर बॉण्ड भरवाए जा रहे हैं। ऐसे लोगों में कुछ मृतक और अस्सी साल के बीमा बूढ़े भी शरीक हैं। लगता है, अंगरेजी राज लौट आया है। पूरे अंचल में तनाव व्याप्त है - कस्बों-शहरों में भी और गाँवों में भी। यह देखकर ताज्जुब हो रहा है कि सरकार ने किसानों को निशाने पर ले लिया है। बेहतर होता वह अपनी गरेबान झाँकती। एक बरस पहले किए गए मुख्यमन्त्री के वादे अब तक पूरे नहीं हुए हैं। जिन मृतक किसानों के परिजनों को नौकरियाँ दी गई हैं उन्हें चार-चार महीनों से वेतन नहीं मिला है। भारी-भरकम लाव-लश्कर जुटाने में सरकार जो मेहनत कर रही है, जो खर्चा कर रही है उसका दसवाँ हिस्सा भी अपने वादे पूरे करने में लगाया होता तो आज यूँ बदहवास, हाँफती नजर नहीं आती।

मैं किसानों के साथ हूँ। उनके मूल विचार ‘गाँव की उपज गाँव में रहे’ के समर्थन में। बचपन से इस क्षण तक मेरी सुनिश्चित धारणा बनी हुई है कि किसानों के साथ न्याय नहीं हुआ। आजादी के बाद के शुरुआती बरसों में जरूर हमारी नीतियों का केन्द्र किसान रहा किन्तु धीरे-धीरे उसे हाशिये पर धकेल दिया गया। आज उसके साथ हम आवंछितों, अस्पृश्यों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। जो देश कृषि प्रधान रहा हो, जिस देश की अस्सी प्रतिशत से अधिक आबादी खेती-किसानी पर आधारित रही, जो कभी ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान’ के लिए पहचाना जाता रहा हो वही देश आज किसानों की आत्म हत्याओं के लिए पहचाना जाने लगा है। 

भारत का किसान अपनी उपज की कीमत खुद तय नहीं कर सकता। उसे व्यापारियों, बिचौलियों की दया पर जीना पड़ता है। हम अन्न से पेट भरते हैं लेकिन अन्न खरीदने के लिए कभी किसान के पास नहीं जाते। किसान अपनी उपज लेकर हमारे दरवाजे पर आता है। प्रकृति ने व्यवस्था की कि प्यासा कुए के पास जाता है। किसानों के सन्दर्भ में हमने प्रकृति को झुठला दिया - कुआ प्यासे के पास आ रहा है। 

किसानों के साथ शहरी बर्ताव पर सोचने की हमें न तो जरूरत अनुभव होती है न ही फुरसत मिलती है। पहले उसे गुण्डा, दंगाई, असामाजिक तत्व, उपद्रवी कहा गया। अब चोर कहा जा रहा है। किसान शहर में मण्डी के बन्द दरवाजे के बाहर मीलों लम्बी लाइन लगाकर प्रतीक्षा करता है। अपनी उपज की नीलामी के लिए उसे चार-चार दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उसे ट्राली पर ही रातें बीतानी पड़ती हैं। अधिकांश किसान किराए की ट्रालियों में उपज लाते हैं। उन्हें तीन दिनों का ट्राली किराया अतिरिक्त भुगतना पड़ता है। मण्डियों में हम्माल, तुलावटी, व्यापारी, अधिकारी सब उससे चूहे-बिल्ली का खेल खेलते नजर आते हैं। वह मोल में भी मारा जाता है और तौल में भी। मेरे जिलेे का आधिकारिक रेकार्ड है कि तौल में पाँच किलो से लेकर पचीस किलो तक की बेईमानी किसान के साथ हुई। 

मण्डियों में किसान के लिए व्यवस्था के नाम पर केवल खानापूर्ति है। उपज के लिए पर्याप्त सुरक्षित जगह नहीं। किसानों के माल के प्लेटफार्मों पर व्यापारियों का माल रखा मिलता है। किसान को उपज खुले में, धरती पर रखनी पड़ती है। बरसात हो गई तो नुकसान किसान का। सरकार या मण्डी प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं। मण्डी कमेटी का दफ्तर चकाचक मिलेगा। वहाँ पंखे, कूलर (मुमकिन है, ए सी भी) मिलेंगे। लेकिन किसानों के लिए यह सब आपवादिक रूप से भी शायद ही मिले। मण्डी अध्यक्ष और सचिव की टेबल पर नाश्ता, स्टील की साफ चमकीली प्लेटों में आएगा लेकिन किसान केण्टीन में पुराने अखबार की रद्दी में नाश्ता मिलेगा। मण्डी पदाधिकारियों, कर्मचारियों के शौचालय चकाचक मिलेंगे जबकि किसानों के शौचालयों में झाँकना भी दुरुह होता है। शहर में आए किसान की दशा चाकुओं के बीच खरबूजे जैसी होती है। वह शहर में आकर अपना माल कौड़ियों के मोल बेचता है और उसी माल को अपने ही गाँव में सोने के भाव खरीदने को अभिशप्त रहता है।

समाचार माध्यमों पर निगमित घरानों और शहरी मध्यमवर्गीयों का कब्जा है। इन्हें चींटी भी काट ले तो आसमान फट जाता है। लेकिन देहातों में किसानों पर आसमान भी फट जाए तो शहरों में पत्ता भी नहीं खड़कता। उसे समाचार बनने के लिए आत्महत्या करनी पड़ती है। पूरे देश के किसानों की कर्ज मुक्ति के लिए केवल तेरह हजार करोड़ रुपये चाहिए थे। वह रकम सरकार के पास नहीं होती। लेकिन गिनती के कार्पोरेट घरानों को लाखों करोड़ रुपयों की कर-माफी दे दी जाती है।

ऐसे में किसान शहर में आने से इंकार क्यों न करे? साठ-सत्तर रुपयों में बिकनेवाला टमाटर का एक क्रेट कल मेरे कस्बे की सब्जी मण्डी में, चार सौ रुपयों में बिका। केवल इसलिए कि किसान ने शहर में लाना बन्द कर दिया। माँग और पूर्ति के नियम का लाभ किसान को तब ही मिल सकता है जब उसकी उपज उसके दरवाजे पर बिके। किसान ऐसा चाह रहा है तो क्या गलत है? 

किसान और किसानी से जुड़े लोग आज भी देश की जनसंख्या का सत्तर प्रतिशत हैं। देश की आर्थिक नीतियाँ इन्हें ही केन्द्र में रखकर बनाई जानी चाहिए। जो देश ऐसा नहीं करता वह आँकड़ों में बेशक धनी हो सकता है, जीडीपी और सेंसेक्स के हिमालय खड़े कर सकता है लेकिन वह अन्ततः गरीब जनसंख्यावाला धनी देश ही होगा। वह सुखी देश कभी नहीं होगा।

इसीलिए मैं किसानों के साथ हूँ।
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बड़ेपन का विसर्जन, बड़प्पन का अर्जन

दादा श्री बालकवि बैरागी को लेकर यह सब जो मैं लिख रहा हूँ, है तो व्यक्तिगत किन्तु ऐसा ‘व्यक्तिगत’ है जो व्यापक सार्वजनिकता से जुड़ता है। यह सब कोरा उपदेश नहीं, दादा का, बरसों से आचरण में उतारा हुआ, जीया हुआ, आजमाया हुआ है। इसे ‘स्मृति शेष’ की श्रेणी में भी रखा जा सकता है और ‘वस्तुपरक अध्ययन’ की श्रेणी में भी। ‘सफल कैसे बनें’ या ‘रातों-रात लोकप्रिय बनें’ जैसे प्रेरक व्याख्यानों के व्यवसायियों के लिए ये बातें उपयोगी और सहायक हो सकती हैं। 

बरसों पहले दादा ने ‘व्यवहार का पंचशील’ बनाया था जिस पर वे मृत्युपर्यन्त आचरण करते रहे। इस पंचशील के पहले दो शील तो सर्वज्ञात हैं - किसी पुरुष से उसकी आय और किसी स्त्री से उसकी आयु मत पूछो। तीसरा शील था - किसी परिवार में कोई सयानी बिटिया नजर आए तो उसके विवाह के बारे में कोई पूछताछ मत करो। किसी भी परिवार के लिए यह बहुत ही सम्वेदनशील मामला होता है। चौथा शील - किसी परिवार में कोई सयाना, पढ़ा-लिखा नौजवान नजर आए तो कभी मत पूछो कि वह क्या काम कर रहा है और कितना कमा रहा है। दादा कहते थे - ‘भला कौन नौजवान बेकार रहना चाहता है? उसकी बेकारी, उसकी मजबूरी होती है। किसी की मजबूरी का उपहास नहीं करना चाहिए।’ दादा ने जब यह कहा था तब तो सरकारी नौकरियाँ फिर भी जैसे-तैसे मिल जाती थीं। आज तो प्रायवेट नौकरियाँ भी आसानी से नहीं मिलतीं। उनका पाँचवाँ शील था - कोई स्त्री-पुरुष आपको एक साथ मिलें तो उनका अन्तर्सम्बन्ध जानने की कोशिश कभी मत करो। ये बातें देखने-सुनने में बहुत छोटी, बहुत हलकी लगती हैं लेकिन इन पर चिन्तन-मनन करने पर जब इनकी गहराई और व्यापकता अनुभव होती है तो आदमी अकेले में भी डर जाए। इस पंचशील के निर्वहन से आदमी अतिरिक्त रूप से पहचाना जाने लगता है और अतिरिक्त रूप से लोकप्रिय भी होता है। 

पत्राचार और लोगों से मिलना - ये दो उपक्रम उन्हें जीवनी शक्ति देते थे। पत्राचार तो अकेले में किया जा सकता है लेकिन लोगों से मिलने के लिए तो लोगों का होना अपरिहार्य होता है। दादा खुद को भाग्यशाली मानते थे कि लोग चल कर उनके पास आते थे और उन्हें जीवनी शक्ति दे जाते थे। लोगों से बतियाते हुए वे अत्यन्त सतर्क रहते थे। कोई भी अप्रिय, अवांछित सवाल नहीं पूछते थे। वे लोगों से उनकी समस्याओं के बारे में बात करते थे और ऐसे सवाल करते थे जिनके जवाब में आदमी को अपनी सफलताएँ, अपनी उपलब्धियाँ बताने, गिनाने का मौका मिलता था। जाहिर है, ऐसे आदमी के पास कौन नहीं आना चाहेगा? सम्भवतः इसलिए भी लोग दादा से मिलने के लिए बार-बार आते थे और बिना किसी काम के आते थे।

लेकिन खेत पर निवास कर लेने के कारण लोगों का आना-जाना कम होने लगा था। तब, ‘रास्ते चलते’ आनेवालों का आना बन्द सा हो गया था। भौगोलिक दूरी बढ़ गई थी। तब वे ही लोग पहुँचते थे जिन्हें कोई काम होता या जो दादा से मिले बिना रह नहीं पाते थे। घर में तो गिनती के ही लोग थे - खुद दादा, मुन्ना, बहू सोना, चौबीस घण्टों का परिचारक भूरा। मुन्ना ने कोई तीस किलो मीटर दूर खेती ले रखी है। वह अस्थायी सदस्य की तरह सप्ताह में दो-एक दिन घर में रह पाता है। भरे-पुरे घरों के बूढ़े भी अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं। यहाँ तो वैसे भी गिनती के लोग थे। बूढ़ों के पास बैठने में लोग वैसे भी कतराते हैं। बूढ़े लोग इस तरह पूछताछ करते हैं मानो किसी अपराधी से पुलिसिया पूछताछ हो रही हो। बूढ़ों में एक और प्रवृत्ति सामान्य पाई जाती है। वे खुद को और अपने समय को श्रेष्ठ बताने की कोशिश में बच्चों को अक्षम, असमर्थ, निकम्मा साबित करते रहते हैं। 

दादा ने अपने अकेलेपन से खुद ही मुक्ति तलाशी। उन्होंने सूत्र खोजा - ‘लोग तुम तक नहीं आ पाते तो तुम ही लोगों तक पहुँचो।’ कोई चार महीने पहले उन्होंने गाँव के तमाम लिखने-पढ़नेवालों से कहा कि महीने में एक दिन सब लोग किसी एक जगह इकट्ठे हों और बिना किसी विषय के बात करें। सबको यह बात अच्छी लगी और मासिक समागम जुड़ने लगा। इस समागम के समाचार मुझे फेस बुक से मिलते थे। हर बार नया विषय और नई टिप्पणियाँ। दादा अपनी ओर से कुछ नहीं कहते-पूछते। उनसे जो पूछा जाता उसका जवाब देते। फेस बुकिया मित्रों की मानूँ तो उन्हें दादा से अनूठी जानकारियाँ मिलती थीं और जिन्दगी के अनछुए, अनदेखे पन्ने खुलते थे। दादा ने बताया था कि इन समागमों में, बच्चों का बोला सुनने में उन्हें बहुत मजा आता था। वे कहते थे - ‘हमारे बच्चे अद्भुत, विलक्षण, अनूठे और अत्यधिक प्रतिभाशाली हैं। हम सब इन्हें दुत्कारते, खारिज करते रहते हैं। कोई इनके पास बैठ कर इन्हें सुने, समझे तो सही!’ अपनी भावी पीढ़ियों की पैरवी करते हुए वे बार-बार कहा करते थे - ‘जो वृक्ष अपनी नई कोंपलों का स्वागत नहीं करता, वह ठूँठ बन कर रह जाता है।’ दादा ने बताया था कि उनकी चौथी पीढ़ी तक के बच्चे इस समागम में आते थे। चूँकि दादा ने सवाल पूछना बन्द कर रखा था इसलिए (चौथी पीढ़ी के) ये बच्चे भी उनसे मित्रवत बात-व्यवहार करते थे। बच्चे तो उत्साहित रहते ही थे, दादा भी खुद को अतिरिक्त रूप से ऊर्जावान अनुभव करते थे। 

मेरे छोटे बेटे के विवाह प्रसंग पर वे आए तो लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें अकेले नहीं रहने दिया। विवाह की भागदौड़ के बीच मैंने जब भी उन्हें देखा तो पाया कि वे श्रोता बने हुए हैं। अपनी ओर से किसी से कुछ नहीं पूछ रहे हैं। कोई कुछ पूछ रहा है, सवाल कर रहा है तो जवाब दे रहे हैं। पूछने के नाम पर सामनेवाले के परिवार की कुशल क्षेम और सफलताओं के बारे में पूछताछ कर रहे हैं। उनके आसपास बैठे लोग उनके तो परिचित थे लेकिन वे सब परस्पर परिचित नहीं थे। दादा उन सबका परिचय कराते हुए उनकी सफलताओं, उपलब्धियों, विशेषताओं की विस्तृत जानकारी दे रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो वे सबके प्रशस्ति-पत्र बाँच रहे हों। यह सामान्य मनोविज्ञान है कि हर कोई खुद को प्रमुख या विशेष अनुभव करना चाहता है। मुझे अब लग रहा है कि दादा अपने मिलनेवालों की यह अनकही मनोकामना सहजता से पूरी करते थे और बिना कंजूसी बरते करते थे। 

दादा में बड़ापन तो था ही, बड़प्पन उससे कहीं-कहीं अधिक था। ‘बड़ापन’ तो बैठे-बिठाए मिल जाता है लेकिन ‘बड़प्पन’ तो अर्जित करना पड़ता है। दादा की ये सारी बातें जब एक साथ जुड़कर सामने आती हैं तब अनुभव हो पाता है कि बड़प्पन अर्जित करना जितना दुसाध्य है उतना ही सरल भी। बड़प्पन अर्जित करने के लिए अपने बड़ेपन को विसर्जित करने का साहस करना पड़ता है। हम अपने बड़ेपन के बन्दी होकर खुद को बड़प्पन से वंचित कर लेते हैं। बात ले-दे कर आदमी की मानसिकता पर ही आकर टिकती है। 

हम दो ही भाई थे। वे मेरे इकलौते बड़े भाई और मैं उनका इकलौता छोटा भाई। लेकिन वे मेरे मानस पिता थे। मेरे पिताजी की मृत्यु जरूर 1992 में हुई लेकिन पितृविहीन तो मैं अब हुआ। वे चले गए, परिवार का अपना बड़ापन मुझे दे कर। बड़ापन मैं लेना नहीं चाहता था और बड़प्पन मुझ तक नहीं आ पाया। उनके रहते जो बेफिक्री, जो मदमस्ती बनी रहती थी, वह हवा हो गई है। लेकिन देख रहा हूँ कि अनगिनत लोग दादा के इन जीवन सूत्रों को थाम सफलताएँ, उपलब्धियाँ अर्जित किए जा रहे हैं। 

मैं क्यों घबरा रहा हूँ? मैं तो इन सबसे बहुत अधिक समृद्ध हूँ! 
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उन्हें सवाई-ड्योड़ी मौत मिली

13 मई 2018 रविवार। हर दिन की तरह एक सामान्य दिन। रोज की तरह दादा उठे। नौ बजे तक तैयार हो गए। आज उन्हें एक पेट्रोल पम्प के उद्घाटन में जाना है।

घर में कुल तीन लोग हैं - दादा, बड़ा बेटा मुन्ना और परिचारक भूरा। बहू सोना, राजसमन्द गई है, बेटी (याने दादा की पोती) रौनक के पास। वह वहाँ जिला पंचायत की मुख्य कार्यपालन अधिकारी है। बहू सोना आज आ रही है। वह उदयपुर आ जाएगी। मुन्ना उसे लेने उदयपुर जाएगा। 

दादा सलीम कुरेशी को फोन करते हैं - ‘वक्त पर आ जाना। साढ़े ग्यारह बजे उद्घाटन है। मैं तैयार बैठा हूँ।’ मल्हारगढ़-नीमच फोर लेन पर, ग्राम चंगेरा में एक पेट्रोल पम्प का उद्घाटन है। कार्यक्रम में जाना तो बहुत पहले से तय था लेकिन उन्हें कल ही मालूम हुआ कि उद्घाटन उन्हें ही करना है। वे मना कर ही नहीं सकते थे। पेट्रोल पम्प बाबू सलीम चौपदार का है और बाबू किसी परिजन से कम नहीं। दादा को देर से पहुँचना पसन्द नहीं। कोई आए न आए, कार्यक्रम भले ही देर से शुरु हो, वे समय से पहले ही पहुँचते हैं। आदत है उनकी।

दस बज कर पाँच मिनिट हो गए हैं। दादा अधीर हो गए हैं। अब तक तो उन्हें निकल जाना चाहिए था। लेकिन उन्हें ले जानेवाले  अब तक नहीं आए। वे फोन लगाने की सोचते हैं। लेकिन फोन लगाएँ, उससे पहले ही कार दरवाजे पर आ जाती है।  चन्द्रशेखर पालीवाल, मंगेश संघई, सलीम कुरेशी और ओम रावत उतरते हैं। चन्द्रशेखर मनासा ब्लॉक काँग्रस अध्यक्ष है और मंगेश जिला काँग्रेस उपाध्यक्ष। दादा उठ खड़े होते हैं - ‘चलो भई! चलो। अपन लेट हो गए हैं।’ चारों में से कोई एक कहता है - ‘प्रोग्राम साढ़े ग्यारह बजे है। अपन घण्टे भर में ही पहुँच जाएँगे। लेट नहीं होंगे।’ दादा कुछ नहीं बोलते। वे ड्रायवर के पासवाली सीट पर बैठ चुके हैं। हाथ से इशारा करते हैं - चलो। कार चल पड़ती है।

दादा के जाने के कोई दो घण्टे बाद मुन्ना भी उदयपुर के लिए निकल जाता है। दोनों बाप-बेटे पहले ही तय कर चुके हैं - सम्भव हुआ तो मुन्ना और सोना, दादा की वापसी के समय तक नीमच पहुँच जाएँगे और सब साथ-साथ मनासा आएँगे। 

सवा ग्यारह बजे दादा पेट्रोल पम्प पर पहुँचते हैं। लोग दादा की आदत जानते हैं। सो, काफी लोग पहुँच चुके हैं। बाबू भाई उनकी अगवानी करते हैं। 

साढ़े ग्यारह बजे कार्यक्रम शुरु होता है। दादा से आग्रह किया जाता है - मंच पर आने का। वे मना कर देते हैं। उन्हें मंच पर चढ़ने में तकलीफ होती है। फौरन तय होता है - मंच पर कोई नहीं बैठेगा। सब दादा के साथ, मंच के नीचे ही बैठेंगे। दादा तो मंच पर नहीं गए। मंच ही नीचे आ गया।

तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक दादा से उद्बोधन का अनुरोध होता है। दादा माइक सम्हालते हैं। अपनी चिर-परिचित शैली में, लगभग तीस मिनिट में अपनी बात कहते हैं। बाबू सलीम के परिवार से अपने नाते का विस्तृत ब्यौरा देते हुए उन्हें और उनके परिवार को असीसते हैं। धन्धे में मधुर व्यवहार, नैतिकता, पारदर्शिता, ईमानदारी बरतने की, आैर ग्राहकों को दिए जाने वाले बिलों पर हिन्‍दी में हस्‍ताक्षर करने की आग्रहभरी सलाह देते हैं। यह सब करते हुए मीठी चुटकियाँ लेते हैं। लोगों को गुदगुदी होती है। ठहाके लगते हैं। बार-बार तालियाँ बजती हैं।
पेट्रोल पम्प उद्घाटन समारोह में बोलते हुए दादा (चित्र - बाबू भाई चोपदार की फेस बुक वाल से)

दादा फीता काटते हैं। कार्यक्रम समाप्त होता है। भोजन शुरु हो जाता है। दादा की मनुहार होती है। वे भोजन से इंकार कर देते हैं। एक मनुहार होती है - ‘थोड़े से दाल-चाँवल तो चलेंगे।’ दादा हाँ भर देते हैं। प्लेट आ जाती है। दादा प्रेमपूर्वक भोजन करते हैं।

ढाई बज गए हैं। गर्मी चरम पर है। मुन्ना और सोना अब तक नहीं आए हैं। दादा रवाना हो रहे हैं। लोग उन्हें बिदा करने कार तक आते हैं। दादा, ड्रायवर के पासवाली सीट पर बैठते हैं। नमस्कार करते हुए सबसे कहते हैं - ‘आप लोग भी जल्दी से जल्दी अपने-अपने मुकाम पर पहुँचो और आराम करो। गरमी बहुत तेज है।’ 

लगभग साढ़े तीन बजे दादा अपने निवास पर पहुँचते हैं। चन्द्रशेखर, मंगेश, सलीम और ओम जाने की इजाजत माँगते हैं। दादा उन्हें रोकते हैं - ‘ऐसे कैसे? पानी पीकर जाओ।’ वे भूरा को आवाज लगाते हैं - ‘भूरा! इन्हें दो-दो गिलास पानी पिलाना। इन्होंने आज बहुत श्रीखण्ड खाया है।’ चारों हँसते हैं। पानी पीते हैं। दादा चारों को बिदा करते हैं - ‘अब जाओ। तुम भी आराम करो। मैं भी आराम करूँगा।’

दादा अपने कमरे में आते हैं। कुर्ता बदल कर लेट जाते हैं। साढ़े चार बजे उठते हैं। मुन्ना को फोन लगाते हैं - ‘कहाँ हो तुम लोग?’ मुन्ना बताता है कि वे मंगलवाड़ चौराहा पार कर चुके हैं। दादा कहते हैं - ‘मैं घर आ गया हूँ। आराम कर लिया है। अब चाय पीयूँगा। तुम लोग तसल्ली से आना। जल्दी मत करना।’ फोन बन्द कर वे भूरा से चाय के लिए कहते हैं और दाहिनी हथेली पर सर टिका कर, दाहिनी करवट पर लेट जाते हैं।

दादा ग्रीन टी पीते हैं। बनाने में कोई देर नहीं लगती।
मुश्किल से पाँच मिनिट होते हैं कि भूरा चाय लेकर पहुँचता है। देखता है, दादा सो रहे हैं। वह ‘पापाजी! पापाजी!!’ की आवाज लगाता है। कोई जवाब नहीं मिलता। उसे लगता है, दादा थक गए हैं। गहरी नींद में हैं। वह वापस चला जाता है। कोई दस मिनिट बाद फिर चाय बनाकर लाता है और दादा को आवाज लगाता है-एक बार, दो बार, तीन बार। दादा जवाब नहीं देते हैं। वह उन्हें हिलाता है। दादा फिर भी न तो कुछ बोलते हैं न ही आँखें खोलते हैं। भूरा घबरा जाता है। रोने लगता है। इसी दशा में मुन्ना को फोन कर सब कुछ बताता है। मुन्ना कहता है -‘पापा को हिला।’ भूरा कहता है, वह सब कुछ कर चुका। मुन्ना इस समय निम्बाहेड़ा के आसपास है। वह फौरन डॉक्टर मनोज संघई को फोन लगाता है - ‘जल्दी पापा को देखो। वे बोल नहीं रहे। लगता है, उनकी शुगर कम हो गई है।’ मनोज भाग कर दादा के पास पहुँचता है। दादा को टटोलता है। वह पाता है - अब दादा की केवल देह वहाँ है। दादा नहीं। 

मनोज, मुन्ना को फोन करता है - ‘दादा चले गए मुन्ना भैया। आप जल्दी चले आओ।’ मुन्ना गाड़ी चला रहा है। एक पल उसके हाथ काँपते हैं। लेकिन वह खुद को संयत करने की कोशिश करते हुए, भर्राई आवाज में सोना से कहता है - ‘पापा चले गए सोनू! सबको फोन करो।’ सोना पर मानो पहाड़ टूट पड़ता है। वह रोने लगती है। मुन्ना कहता है - ‘मैं गाड़ी चला रहा हूँ। फोन नहीं कर सकता। तुम फोन करो।’ रोते-रोते ही सोना एक के बाद एक परिजनों को फोन लगाती है और रोते-रोते हम सबको खबर करती है। 

सात-सवा सात बजे मुन्ना घर पहुँचता है। देखता है, अपनी दाहिनी हथेली पर माथ टिकाए दादा, दाहिनी करवट लेटे हुए हैं। रोज की तरह। मानो अभी उठ जाएँगे और कहेंगे - ‘मेरी चाय लाओ।’

दादा ‘अकस्मात मृत्यु’ की बातें किया करते थे। लगता है, उन्होंने कभी एकान्त में ईश्वर से अकस्मात मृत्यु माँगी होगी। ईश्वर ने उनकी कामना सवाई-ड्योड़ी पूरी की। केवल अकस्मात मृत्यु नहीं दी। निःशब्द, एकान्त, अकस्मात मृत्यु दी। अन्तिम समय में वे थे और उनका ईश्वर उनके पास था। उनसे बतिया रहा था।

13 मई 2018, रविवार का दिन अब एक सामान्य दिन नहीं रह गया।
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रे! नागरिक! अपनी औकात समझ

शुक्रवार। 11 मई 2018। सुबह के साढ़े नौ बजे हैं। मैं इन्दौर में हूँ। अपराह्न तीन बजे वाली बस से रतलाम लौटूँगा। बोरिया-बिस्तर बाँधना है। लेकिन उससे पहले यह सब लिखने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ। लिख तो रहा हूँ लेकिन मर्मान्तक पीड़ा से। आँसू बह रहे हैं, अक्षर धुँधला रहे हैं। लिखा नहीं जा रहा। लेकिन लिख रहा हूँ। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा कि कि मुझे क्या लिखना है और यह लिखना कहाँ, कैसे खत्म करूँगा। 

मालवा अंचल के अनगिनत गरीबों का सहारा बना हुआ, सात मंजिला महाराजा यशवन्त अस्पताल अपनी पहचान ‘सर्वाधिक अव्यवस्थित अस्पताल’ के रूप में बना चुका है। मन्त्री, अफसर इन्दौर आते हैं, इस अस्पताल का निरीक्षण करते हैं। हर बार अनगिनत कमियाँ पाते हैं। हर बार डॉक्टरों, कर्मचारियों को डाँटते-फटकारते हैं। चले जाते हैं। अखबारों के पहले पन्नों पर यह सब छपता है। लेकिन शायद ही कभी कुछ होता-जाता हो। 

गए दस-बारह दिनों से यह अस्पताल लगातार अखबारों के नगर पन्नों की पहली खबर बना हुआ है।

इन्दौर से तीस-बत्तीस किलो मीटर दूर के बेटमा का 42 वर्षीय अब्दुल सलाम यहाँ भर्ती है। उसकी, पेट की बड़ी आँत का ऑपरेशन हुआ है। टाँकों पर डेªसिंग के कारण पसीना आने से बहुत तकलीफ होती है। वार्ड वातानुकूलित नहीं है। अब्दुल के परिजन मजबूरी में घर से कूलर लाए। कूलर से अतिरिक्त बिजली खर्च होती है। सो, डॉक्टर ने आसानी से अनुमति नहीं दी। परिजनों को कई बार गुहार लगानी पड़ी। 

अस्पताल की पहली मंजिल पर महिला वार्ड है। बीस बिस्तर हैं। लेकिन पंखे कुल 12 ही लगे हैं। इनमें से भी एक निकल गया है। उसे सुधरवाने के लिए किसी के पास समय नहीं है। समय तो तब हो जब इस ओर किसी का ध्यान जाए और इसे सुधरवाना जरूरी समझा जाए।

रोगियों के परिजन बाहर से न तो भोजन ला सकते हैं न चादर और न ही कोई और सामान। रोगियों के पास बैठनेवालों (अटेण्डरों) के बैठने की व्यवस्था नहीं है। उन्हें या तो मरीज के बिस्तर पर बैठना पड़ता है या धरती पर। अस्पताल की अधिकांश मंजिलों के खाद्य भण्डारों (पेण्ट्रियों) में पानी की व्यवस्था नहीं है। रोगियों के परिजन अस्पताल के आसपास बनी प्याउओं से पानी लाते हैं। रोगी की पहियेदार कुर्सी (व्हील चेयर) रोगी के परिजनों को ही धकेलनी पड़ती है।

अस्पताल के इण्डोस्कोपिक ऑपरेशन थिएटर नम्बर एक में प्रतिदिन दो-तीन ऑपरेशन होते थे। वह बन्द कर दिया गया है। आईसीयू और ऑपरेशन थिएटर में एयर कण्डीशनर अनिवार्य होते हैं क्यों कि ठण्डक में बैक्टिरिया नहीं पनपते। इस ऑपरेशन थिएटर का एयर कण्डीशनर खराब हो गया है। इसलिए इसे बन्द कर देना पड़ा। 

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस अस्पताल में सब कुछ ऐसा ही, इतना ही खराब हो। एक मरीज के लिए इस अस्पताल की पाँचवीं मंजिल पर बने कार्डियक इको चेस्ट सेण्टर को विशेष वार्ड में बदल दिया गया है। मरीज के परिजनों की सुविधा के लिए नर्सों के लिए बने कमरा नम्बर 513 को प्रायवेट रूम में बदल दिया गया है और डायलेसिस इकाई का एयर कण्डीशनर निकाल कर यहाँ लगा दिया गया है। अस्पताल का पूरा स्टॉफ, अस्पताल के तमाम रोगियों को भूलकर इस रोगी की तीमारदारी में और इसके परिजनों की खातिरदारी में लगा अनुभव हो रहा है। 

बात कुछ खास नहीं है। 91 वर्षीया एक वृद्धा को 21 अप्रेल को छाती में दर्द हुआ। मालूम हुआ कि उसे निमोनिया की भी शिकायत है। सर्वोच्च वरीयता देकर उस वृद्धा को तत्काल भर्ती किया गया। यह सब उसी वृद्धा के लिए हो रहा है।  यह  सब उसी वृद्धा के लिए हो रहा है। यह संयोग ही है कि यह वृद्धा, प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव की माँ है। 



इन्दौर अत्यधिक सजग शहरों में गिना जाता है। सामाजिक बदलावों के लिए यह शहर समूचे मालवा अंचल को दिशा देता है। लोक सभा स्पीकर श्रीमती सुमित्रा महाजन यहीं से सांसद हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महामन्त्री और भारी-भरकम राजनेता कैलाश विजयवगीर्य यहीं के बाशिन्दे हैं। यहाँ के पाँचों विधायक भाजपा के हैं और पाँचों ही मन्त्री बनने की पात्रता रखते हैं। मुख्य मन्त्री इन्दौर को अपना दूसरा घर कहते हैं। लेकिन सात मंजिला अस्पताल में हो रही इस असामान्य अनहोनी से किसी का कोई लेना-देना नजर नहीं आ रहा। 

‘लोक कल्याण’ किसी भी राज्य, किसी भी प्रशासन की पहली जिम्मेदारी होती है। लेकिन यहाँ तो राज्य या कि प्रशासन ही ‘लोक’ को दुखी किए हुए है और दुखी किए ही जा रहा है। शासन-प्रशासन की जिम्मेदारी होती है यह देखना कि गरीब को उसका हक मिल रहा है या नहीं, किसी गरीब का हक कोई सरमायेदार तो नहीं छीन रहा। लेकिन यहाँ तो शासन-प्रशासन खुद ही गरीब का हक हड़प रहा है।
अपनी स्कूली किताबों में हम किस्से पढ़ा करते थे कि अपनी प्रजा के हाल जानने के लिए किस तरह राजा भेस बदल कर रात को गलियों, पगडण्डियों के चक्कर लगाते थे। अपने मनसबदारों के आचरण पर वे पैनी नजर रखते थे। लेकिन इन्दौर का यह किस्सा तो एकदम उलटा है! राजा और उसके मनसबदार खुद ही गरीब का हक हड़प रहे हैं, वह भी चौड़े-धाले!

इन्दौर में बारहों महीने किसी न किसी धार्मिक आयोजन का पाण्डाल तना ही रहता है। इस पर मैं कल ही विस्तार से लिख चुका हूँ। मैं अनुमान लगा रहा हूँ कि इन्दौर के धार्मिक आयोजनों के एक वर्ष के खर्च की रकम से इस अस्पताल की सारी तकनीकी और मशीनी जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। पूरे अस्पताल के एयर कण्डीशनर, पंखे, पीने के पानी के कूलर बदले/खरीदे जा सकते हैं। लेकिन ऐसा कोई नहीं करेगा। अस्पताल की इन प्राणलेवा अव्यवस्थाओं की जानकारी नगर के तमाम धर्म-पुरुषों को है। लेकिन इस काम के लिए कोई आगे नहीं आएगा। क्योंकि वे यदि अस्पताल की काया पलट करेंगे तो वह सब सारी दुनिया को नहीं दिखेगा। केवल अस्पताल में ही सिमट कर रह जाएगा। उसकी खबर भी एक दिन ही छप कर रह जाएगी। लेकिन कथाएँ, भण्डारे, चुनरी यात्राएँ बारहों महीने, सातों दिन, चौबीसों घण्टे उन्हें लोगों के बीच सर्वव्यापी बनाए रखते हैं और उनकी राजनीतिक ताकत बढ़ाते हैं। ऐसे आयोजनों में वे भी खुशी-खुशी जाते हैं जिनका हक यहाँ मारा जा रहा है और वे तो सबसे पहली पंक्ति में बैठते ही हैं जो गरीबों का हक मारते हैं। कथावाचक भी पूरी अन्तर्कथा जानता है लेकिन वह चुप रहने की समझदारी बरतता है। वह भली प्रकार जानता है कि यदि वह अंगुली उठा देगा तो कल से उसका पाण्डाल सूना हो जाएगा और उसे ‘एकान्त आराधना’ करनी पड़ जाएगी।

यह सब अनुभव करते हुए, लिखते हुए मुझे मर्मान्तक पीड़ा हो रही है। हम कहाँ आ गए हैं? या कहिए कि कहाँ ले आए गए हैं? सामान्य नागरिक के रूप में हमारी क्या औकात रह गई है? हमें तो मनुष्य भी नहीं माना जा रहा! हम तो केवल वोट बनकर रह गए हैं! वोट भी ऐसा जिसका अपना कोई सोच ही नहीं रह गया है! हमने किन हाथों में खुद को सौंप दिया है? 

मेरी आँखें अभी भी बहे जा रही हैं। अक्षर धुँधला रहे हैं। लेकिन केवल अक्षर ही क्यों? मुझे तो अपना आनेवाला समूचा समय ही धुँधलाता नजर आ रहा है।
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धार्मिक आयोजनों की अपनी-अपनी प्राप्तियाँ

इन्दौर को मध्य प्रदेश की आर्थिक और पत्रकारिता की राजधानी माननेवाले अपनी जानकारी में बढ़ोतरी कर लें। इन्दौर, दो-दो ज्योतिर्लिंगों (महाकालेश्वर और औंकारेश्वर) वाले मध्य प्रदेश की धार्मिक राजधानी की हैसियत भी हासिल कर चुका लगता है। इसके साथ ही साथ, अपने मौलिक मालवी जायकों के लिए विश्वप्रसिद्ध इस शहर ने, धार्मिक मादकता युक्त जायकेदार मिठाई का आविष्कार भी किया है। 

कोई एक पखवाड़े से इन्दौर में हूँ तो ऐसी बातें मालूम हो पाईं। वर्ना, प्रोन्नत तकनीकी विस्फोट के कारण, तमाम ‘अखिल भारतीय’ अखबार ‘स्थानीय’ होकर रह गए हैं। इन्दौर की खबरें रतलाम के अखबारों में नहीं मिलतीं और रतलाम की खबरें इन्दौर के अखबारों में नहीं। रतलाम-इन्दौर तो बहुत दूर की बात हो गई, जिले की खबरें भी पूरे जिले में नहीं पहुँच पाती। इन्दौर में पूरी तरह से फुरसत में हूँ। ‘जो नहीं पढ़ा, वह नया’ की तर्ज पर पुराने अखबार भी नए लग रहे हैं। 

धार्मिक गतिविधियाँ यूँ तो हर कस्बे, गाँव में चलती रहती हैं। लेकिन इन्दौर में कुछ इस तरह चलती हैं मानो ‘बम्बई का बच्चा’ यह शहर इन्हीं गतिविधियों के कारण अपनी साँसें लेता है। पुराने अखबारों की ताजी खबरें यह कि अप्रेल में यहाँ तीन कथाएँ हुईं। एक कथा के निमित्त पाँच किलो मीटर लम्बी कलश यात्रा निकली जिसमें लगभग चालीस हजार महिलाओं ने भाग लिया। हमारे देश में धर्म, महिलाओं के जरिए शक्ति पाता है। इसे अनुभव कर, कथा के यजमान ने घर-घर जाकर महिलाओं को न्यौता। खाली हाथ नहीं, प्रत्येक महिला को एक साड़ी भेंट कर। यजमान को इस बात का कष्ट रहा कि लक्ष्य एक लाख साड़ियों का था लेकिन अस्सी हजार ही पहुँचा पाए।  कथा के लिए एक लाख वर्ग फुट का पाण्डाल बना। तीस हजार वर्ग फुट की भोजनशाला अलग से बनाई गई। महिलाओं को घर जाकर भोजन बनाने की चिन्ता से मुक्त रखने के लिए, कथा के बाद तमाम श्रोताओं के लिए भोजन की व्यवस्था थी। सारे व्यंजन शुद्ध देशी घी से बने जिन्हें बावन काउण्टरों के माध्यम से श्रद्धालुओं तक पहुँचाया गया। अब यह यजमान आभार प्रदर्शन करते हुए सवा लाख घरों में  प्रसाद पहुँचाने घर-घर जा रहा है।  

समाचार ने मुझे चकित किया। एक के बाद एक अखबार पलटे तो मालूम हुआ कि यह कथा का यजमान, 2019 के विधान सभा चुनावों में एक पार्टी की उम्मीदवारी का दावेदार है। यह भी मालूम हुआ कि गए चुनावों में अपनी पार्टी से टिकिट न मिलने से असन्तुष्ट हो, निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़, एक पार्टी का विद्रोही उम्मीदवार खुद हार कर और अपनी पार्टी को हराने के बाद फिर चुनाव लड़ने की मंशा से इस सबमें जुटा हुआ है। इस सूचना ने मुझे जिज्ञासु बना दिया। अनूठी जानकारियाँ मिलने लगीं। हर जानकारी एक नई जिज्ञासा जगाए। मित्रों से पूछा तो सब मेरे अज्ञान पर हँसे। मालूम हुआ कि इन्दौर की राजनीति में तो यह सब ‘बुनियादी अनिवार्यता’ है। इस ‘संस्कार’ के बिना तो कोई राजनीति में प्रवेश कर ही नहीं सकता। 

मित्रों ने बताया कि इन्दौर में पाँच विधायक हैं। इस समय, सारे के सारे भाजपा के हैं। विकास कार्यों के लिए किसकी, कितनी-कैसी पहचान है, इस पर दो राय हो सकती है किन्तु इस बात पर सब एक मत हैं कि कम से कम तीन विधायकों की पहचान, अपनी-अपनी धार्मिक गतिविधियों के कारण बनी हुई है। किसी की पहचान चुनरी यात्रा से है तो किसी की कथा-प्रवचन आयोजन से तो किसी की भोजन-भण्डारे से। एक विधायक लड़कियों के विवाह कराते हैं तो एक विधायक से ‘आप कुछ भी धार्मिक आयोजन करवा लो’ से है। जो दो विधायक धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजनों से दूर रहते आए हैं उनमें से एक अब मजबूर होकर धार्मिक हो चले हैं। लोगों की नजरें अब पाँचवें पर हैं - ‘देखते हैं! कब तक टिके रहते हैं।’ इन्दौर वह शहर है जहाँ किसी न किसी धार्मिक आयोजन का विशाल पाण्डाल बारहों महीने-सातों दिन-चौबीसों घण्टे तना रहता है।

कुछ पुराने पत्रकार मित्रों से बात करता हूँ तो मालूम होता है, कोई भी आयोजन करोड़ों से कम का नहीं होता। हर आयोजन भरपूर समय, भरपूर तैयारियाँ और भरपूर धन बल-जन बल माँगता है। मैं पूछता हूँ - ‘इतना खर्चा ये लोग कहाँ से लाते होंगे और इस सबसे इन्हें क्या मिल जाता है?’ मेरे कन्धे पर धौल टिकाते हुए एक मित्र ने समझाया - ‘यह खर्चा नहीं। इन्वेस्टमेण्ट है। ऐसा इन्वेस्टमेण्ट जो बीसियों गुना होकर लौटता है।’

मित्र के जवाब ने मुझे विचारक बना दिया। ऐसे धार्मिक उपक्रम पूरे देश में बारहों महीने चलते रहते हैं। गए दिनों उज्जैन में चक्रतीर्थ श्मशान घट पर ग्यारह दिवसीय, पाँचवाँ ‘सह सुधार महायज्ञ’ हुआ जिसमें इक्कीस फुट गहरे कुए में, 11 किलो चाँदी के कलश से, सूखे मेवे और  एक घण्टे में 90 किलो, एक दिन में 22 क्विंण्टल के मान से शुद्ध देशी घी की आहुतियाँ दी गईं। अभी-अभी पूरे मालवा में साँई-सप्ताह मनाया गया। सात मई को सब जगह भण्डारे हुए। मेरे कस्बे में कम से कम करोड़ रुपये तो इस पर खर्च हुए ही होंगे। देश भर में खर्च होनेवाले इन अरबों रुपयों से कितने स्कूल, कितने अस्पताल साधन-सम्पन्न बनाए जा सकते थे? कितने कुपोषित बच्चों को आहार उपलब्ध कराया जा सकता था? पाँच वर्ष की उम्र तक पहुँचने से पहले ही काल कवलित हो जानेवाले कितने शिशु बचाए जा सकते थे? प्रसव के दौरान होनेवाली कितनी मौतें रोकी जा सकती थीं? कितने बच्चों को उच्च शिक्षित किया जा सकता था? कितनी बच्चियों को उनका हक दिलाया जा सकता था? कितने लोगों को भिक्षा वृत्ति से मुक्त कराया जा सकता था? ये सब बातें सबके (खर्च करनेवालों के और श्रध्दालुओं के) मन में भी आई ही होंगी! लेकिन ऐसा क्या हुआ कि किसी ने अपने मन की नहीं सुनी? 

इन धार्मिक उपक्रमों का सामाजिक अवदान क्या है?अपराध कम होने का नाम नहीं ले रहे। इसके विपरीत लगता है मानो धर्मिक आयोजनों और अपराधों की गति और संख्या में प्रतियोगिता बनी हुई है। लोगों के बीच झगड़े कम नहीं हो रहे। प्रेम के बजय नफरत फैल रही है। समस्याएँ कम नहीं हो रहीं। भ्रष्टाचार कम नहीं हो रहा। लगता है, हमारे दैनन्दिन जीवन की इन सारी बातों से धर्म का कोई लेना-देना है ही नहीं। इन्दौर में पहली बार कथा बाँचने आई किशोरीजी ने एक अखबार को दिए साक्षात्कार में कहा कि कथा सुननेवालों में से दस प्रतिशत पर ही कथा-प्रवचन का असर होता है। मुझे लगता है, ये दस प्रतिशत लोग भी वे ही होंगे जो पहले से ही धर्म को जी रहे होंगे। याने, पहले से ही धार्मिक व्यक्ति अधिक धार्मिक हो रहा है और बाकी सब वैसे के वैसे बने हुए हैं।

धर्म को मनुष्य की आत्मा की उन्नति का श्रेष्ठ माध्यम कहा गया है। ऐसा होता भी होगा। लेकिन वह व्यक्तिगत स्तर पर ही होता होगा। धर्म जब सामूहिक होता है तो वह अपना मूल स्वरूप और अर्थ खोकर केवल दिखावा बन कर रह जाता है।

आज तो नजर आ रहा है कि राजनीति और धन-बल ने धर्म को बैल की तरह जोत रखा है। श्रद्धालुओं को हलों की मूठें थमा दी है। बैल और हलवाहे अपना काम कर रहे हैं। राजनीति और धन-बली इसकी फसल से अपनी कुर्सियों के पाए मजबूत कर रहे हैं, अपनी तिजोरियाँ भर रहे हैं। हलवाहे और उनके परिजन, चलते बैल का गोबर एकत्र कर, उसके ऊपले थाप कर खुद को धन्य और कृतार्थ कर अनुभव कर रहे हैं।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 10 मई 2018                


पाप मन्त्री का, दण्ड राजा को

मेरे एक व्यंग्यकार मित्र अन्ध-समर्थकों से बहुत चकित होते, चिढ़ते और गुस्सा होते थे। उन्हें चुन-चुन कर विशेषणों और उपमाओं से विभूषित करते थे। फिर भी क्षुब्ध ही बने रहते थे। लम्बे समय बाद उन्हें समझ पड़ी कि गलती तो उन्हीं की थी। वे अन्ध समर्थकों से नाहक ही, विवेकवान व्यक्ति की तरह व्यवहार करने की अपेक्षा किए बैठे थे। अब वे उन पर न तो चिढ़ते हैं न ही गुस्सा होते हैं। चकित तो बिलकुल ही नहीं होते। आनन्द लेते हैं। हाँ, उपमाएँ और विशेषण देना जारी रखे हुए हैं। कुछ दिनों पहले तक वे उन्हें ‘मतवाले’ कहा करते थे। अब कुछ दिनों से ‘मसखरे’ कहते हैं।

मैंने टोका। मेरे तईं, ‘मसखरा’ का पर्याय ‘विदूषक’ और ‘जोकर’ है। मेरी जानकारी के अनुसार, मसखरा या विदूषक होना इतना आसान नहीं है। कोई बुद्धिमान, विवेकवान, प्रतिभावान व्यक्ति ही यह दरजा हासिल कर सकता है। विदूषकों को तो भारतीय राजदरबारों में जगह मिलती रही है। राज-विदूषक के नाम पर सबसे पहले गोपाल भाँड का नाम मन में उभरता है। वे, अठारहवीं शताब्दी में, नादिया नरेश कृष्णचन्द्र (1710-1783) के दरबारी थे। वे किसी की खिल्ली नहीं उड़ाते थे। हास्य और करुणा से सनी अपनी टिप्पणियों से न केवल राजा और दरबार का मनोरंजन करते थे अपितु नागरिकों के प्रति राजा और राज्य के उत्तरदायित्वों, उचित-अनुचित का भान भी कराते रहते थे। उनकी प्रतिभा और अनूठे विचारों के कारण राजा कृष्णचन्द्र ने उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल किया था। गोपाल भाँड से जुड़ी अनगिनत लोक कथाएँ आज भी सुनी जाती हैं।

दूसरा नाम मुझे याद आया गोनू झा का। परिहास का पुट लिए प्रत्युत्पन्नमति या कि हाजिरजवाबी इनकी पहचान है। ये भी किसी की खिल्ली नहीं उड़ाते थे। अपनी और अपने नायक की प्रतिष्ठा, छवि की रक्षा और उसमें बढ़ोतरी इनका लक्ष्य होता था। ये दोनों काम प्रतिभा और कौशल से ही सम्भव होते हैं, अन्ध समर्थन से नहीं। मुझे नहीं पता कि ये राज दरबार में थे या नहीं। लेकिन मैथिली में कही-सुनी जानेवाली इनकी अधिकांश लोक कथाएँ मिथिला के राजा हरिसिंह से जुड़ी हैं। 

इनके बाद मुझे तेनाली राम याद आते हैं। इनका वास्तविक नाम तेनाली रामकृष्ण था। ये विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबारी थे। किन्तु विदूषक या मसखरा नहीं थे। उद्भट विद्वान तेनाली राम को ‘विकटकवि’  कहा जाता था और ये राज दरबार के ‘अष्टदिग्गज’ कवियों में शामिल थे। लेकिन इनकी लोक पहचान ‘परिहास प्रिय संकटमोचक’ की बनी हुई है। राजा के अत्यधिक विश्वस्त और प्रिय पात्र होने के कारण अन्य दरबारी इनसे ईर्ष्या करते थे और इन्हें नीचा दिखाने, इनका रुतबा कम करने के निरन्तर प्रयास करते थे और मुँह की खाते थे। अपने राजा पर आए बौद्धिक, राजनीतिक संकट को दूर करने की जिम्मेदारी तेनालीराम ही उठाते थे। राजा कृष्णदेवराय और तेनाली राम की जोड़ी के किस्से सुनते हुए अकबर-बीरबल के किस्से बरबस ही याद आने लगते हैं।

अन्ध समर्थक और मसखरे या कि विदूषक में कोई साम्य तलाश करना समझदारी नहीं है। ‘मसखरा’ लोक रंजक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाता है। वह किसी की अवमानना नहीं करता। किसी को नीचा नहीं दिखाता, किसी का उपहास नहीं करता। अपने नायक के लिए यह सब करते हुए वह दो बातों का ध्यान रखता है। पहली - उसकी किसी भी बात या हरकत से उसके नायक की छवि, प्रतिष्ठा पर खरोंच न आए, कोई लोकोपवाद न हो। दूसरी - वह सदैव अपने नायक को सर्वोच्च वरीयता दे। ऐसा न हो कि वह खुद को नायक से आगे और नायक से बेहतर साबित करता लगे। अन्ध समर्थकों के लिए ये दोनों बातें अर्थहीन होती हैं। अपने नायक की प्रत्येक बात, प्रत्येक क्रिया का औचित्य साबित करने के लिए बिना सोचे-विचारे प्रतिक्रियाएँ देने लगते हैं। वफादारी जताने की होड़ में अंग्रेजी कहावत ‘मोअर लॉयल टू द किंग देन हिम सेल्फ’ (राजा के प्रति खुद राजा से भी अधिक वफादार) को साकार कर देते हैं। ऐसा करते हुए वे प्रायः ही अपने नायक को हास्यास्पद स्थिति में ला खड़े करते हैं। तब अन्ध समर्थक, अपने नायक के लिए बोझ बन जाते हैं।

बातें चल रही थीं। अचानक ही व्यंग्यकार मित्र ने पूछा - ‘ऐसे अन्ध समर्थक दरबारी बन जाएँं या बना दिए जाएँ तब?’ में अचकचा गया। इस सवाल के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं था। अचानक ही मुझे देवाचार्य स्वामी राजेन्द्रदासजी महाराज याद आ गए। मैं और मेरी अर्द्धांगिनीजी उनके प्रवचन बड़े चाव से सुनते हैं। श्रीमतीजी धार्मिकता के अधीन सुनती हैं। मैं शब्द सम्पदा के लालच में। मुझे वे, एकमात्र ऐसे प्रवचनकार अनुभव हुए हैं जो ‘शब्द’ को महत्व देते हुए उसका वैयाकरणिक विवेचन करते हैं। कथा सन्दर्भों में उनकी विद्वत्ता और अध्ययन अद्भुत है। मानो, सारे ग्रन्थ उनके जिह्वाग्र पर विराजमान हैं। कोई भी सन्दर्भ या उद्धरण देने के लिए उन्हें निमिष भर भी विचार नहीं करना पड़ता। उनके श्रीमुख से सब कुछ सहजता और स्वाभाविकता से आता है।

इन्हीं राजेन्द्रदासजी महाराज की, ग्वालियर की एक रेकार्डिंग प्रसारित हो रही थी। प्रसंग तो याद नहीं आ रहा किन्तु बात ‘पाप-दण्ड’ से जुड़ी थी। स्कन्द पुराण के हवाले से राजेन्द्रदासजी महाराज ने गुरु, पति और राजा को मिलनेवाले पाप दण्डों का उल्लेख किया। शिष्य के पाप का दण्ड गुरु को भुगतना ही पड़ता है कि उसने अपात्र को शिष्य बनाया। पत्नी के पाप का दण्ड पति को भगुतना पड़ता है कि उसने पति (स्वामी) धर्म का निर्वहन नहीं किया और पत्नी को पाप कर्म की ओर प्रवृत्त होने की स्थितियाँ बनने दीं। मन्त्री के पाप का दण्ड राजा को भुगतना ही पड़ता कि उसने अयोग्य को मन्त्री बनाया। व्यंग्यकार मित्र से मैंने कहा - ‘राजेन्द्रदासजी महाराज के जरिए यदि स्कन्द पुराण की मानें तो ऐसे अन्ध समर्थक के दरबारी बन जाने या बना दिए जाने पर दण्ड का भागी खुद राजा ही होगा।’

मित्र को अब या तो आनन्द आने लगा था या वे मेरे मजे लेने के मूड में आ गए थे। पूछा - ‘चलो! ये तो समझ में आ गया। लेकिन यदि राजा, अपने ऐसे दरबारी को, ऐसा पाप कर्म करने के बाद भी दण्डित न करे। न केवल चुप रह कर उसे क्षमा कर दे, उसके पाप कर्म का समर्थन करे उल्टे उसे ऐसे पाप कर्म करने के लिए निरन्तर प्रोत्साहित करे तो?’ 

अब मेरी बोलती बन्द हो गई। यह तो राजा द्वारा खुद ही प्रत्यक्ष पाप कर्म करना हुआ! इस बारे में न तो राजेन्द्रदासजी महाराज ने कुछ कहा था न ही मैंने सोचा था। जवाब देने  की खानापूर्ति करते हुए मैंने कहा - ‘जब अपने मन्त्री के पाप कर्म का दण्ड उसे मिलेगा तो खुद के पाप कर्म का दण्ड तो उससे पहले मिलेगा ही! ’ मित्र ने चुटकी ली - ‘कितना?’ मैं क्या बताता? जवाब दिया - ‘मुझे नहीं मालूम। कभी राजेन्द्रदासजी महाराज के प्रत्यक्ष दर्शन का सौभाग्य मिला तो पूछूँगा।’ मानो मित्र को मुझ पर दया आ गई हो और वे मुझे गिरफ्त से छोड़ रहे हों, इस तरह बोले - ‘जरूर पूछिएगा और मुझे बताइएगा। आप पर मेरा कर्जा रहा।’

मित्र जाने के लिए उठे। मैंने कहा - ‘ईश्वर मुझे आपके कर्ज से मुक्त होने का अवसर दे। लेकिन ध्यान रखिएगा! अन्ध समर्थकों को मसखरा मत कहिएगा। यह मसखरों का अपमान है। कूढ़ मगज, बट्ठर दिमाग लोग मसखरे नहीं हो पाते। उसके लिए आदमी को सभ्य, सुसंस्कृत, शालीन, विवेकवान और विनम्र होना पड़ता है।’

वे मान गए। अन्ध समर्थकों को अब मसखरा नहीं कहेंगे।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 03 मई 2018