यह तीस मई की दोपहर है। प्रदेश सरकार के आँख-कान मन्दसौर पर टिके हुए हैं। मन्दसौर, नीमच और रतलाम जिले के सारे गाँवों-कस्बों के रास्ते मन्दसौर जा रहे हैं। आज मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह वहाँ पहुँच रहे हैं। वे उड़न खटोले से पहुँचेंगे। वहाँ वे कुछ योजनाओं के उद्घाटन करेंगे। कॉलेज मैदान में उनकी आम सभा होगी। अनुमान है कि किसानों के लिए कुछ महत्वपूर्ण आकर्षक घोषणाएँ करेंगे। आम सभा में एक लाख लोगों की उपस्थिति का लक्ष्य है। लेकिन तम्बू ठेकेदार को 25 हजार की क्षमता का तम्बू लगाने का पैसा दिया गया है। भीड़ लाने के लिए एक हजार यात्री बसों की व्यवस्था की गई है। मन्दसौर जिले की 500 में से 462 बसें अधिगृहित कर ली गई हैं। राजस्थान से 150 बसें मँगवाई गई हैं।
यह सब इसलिए कि देश के सौ से अधिक किसान संगठनों ने एक जून से दस जून तक ‘गाँव की उपज गाँव में रहे’ का आह्वान किया है। लेकिन यही एक मात्र कारण नहीं है। एक कारण और है जो पहले कारण से ज्यादा महत्वपूर्ण है। गए बरस, 6 जून 2017 को मन्दसौर जिले में प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पुलिस गोलीबारी से 6 किसानों की मृत्यु हो गई थी। इस घटना की पहली बरसी पर काँग्रेस श्रद्धांजलि सभा आयोजित कर रही है। गाँव खोखरा में यह आम सभा होगी। इस आम सभा को असफल और बौनी साबित करने में तीनों जिले का भाजपा संगठन और प्रशासकीय अमला जी-जान से जुटा हुआ है। मन्दसौर, नीमच और रतलाम जिले के तमाम अफसर और प्रशासकीय अमला कोई एक पखवाड़े से चौबीसों घण्टे मुस्तैद बना हुआ है। किसानों को ‘भाजपाई किसान’ और ‘गैर भाजपाई किसान’ में बाँट दिया गया है। कलेक्टर और एसपी, गाँव-गाँव जाकर दिन-रात लोगों से मिल रहे हैं। किसानों से चर्चा कर रहे हैं। कह रहे हैं कि दूध, सब्जी, फल जैसी अपनी उपज बेचने के लिए बेहिचक शहरों कस्बों में लाएँ। तीनों जिलों में अतिरिक्त पुलिस बल बुला लिया गया है। पुलिस जवानों के लिए हजारों नए लट्ठ खरीद लिए गए हैं। जगह-जगह केमरे लगा दिए गए हैं। तीनों जिलों के हजारों किसानों को पुलिस द्वारा नोटिस जारी कर बॉण्ड भरवाए जा रहे हैं। ऐसे लोगों में कुछ मृतक और अस्सी साल के बीमा बूढ़े भी शरीक हैं। लगता है, अंगरेजी राज लौट आया है। पूरे अंचल में तनाव व्याप्त है - कस्बों-शहरों में भी और गाँवों में भी। यह देखकर ताज्जुब हो रहा है कि सरकार ने किसानों को निशाने पर ले लिया है। बेहतर होता वह अपनी गरेबान झाँकती। एक बरस पहले किए गए मुख्यमन्त्री के वादे अब तक पूरे नहीं हुए हैं। जिन मृतक किसानों के परिजनों को नौकरियाँ दी गई हैं उन्हें चार-चार महीनों से वेतन नहीं मिला है। भारी-भरकम लाव-लश्कर जुटाने में सरकार जो मेहनत कर रही है, जो खर्चा कर रही है उसका दसवाँ हिस्सा भी अपने वादे पूरे करने में लगाया होता तो आज यूँ बदहवास, हाँफती नजर नहीं आती।
मैं किसानों के साथ हूँ। उनके मूल विचार ‘गाँव की उपज गाँव में रहे’ के समर्थन में। बचपन से इस क्षण तक मेरी सुनिश्चित धारणा बनी हुई है कि किसानों के साथ न्याय नहीं हुआ। आजादी के बाद के शुरुआती बरसों में जरूर हमारी नीतियों का केन्द्र किसान रहा किन्तु धीरे-धीरे उसे हाशिये पर धकेल दिया गया। आज उसके साथ हम आवंछितों, अस्पृश्यों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। जो देश कृषि प्रधान रहा हो, जिस देश की अस्सी प्रतिशत से अधिक आबादी खेती-किसानी पर आधारित रही, जो कभी ‘उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान’ के लिए पहचाना जाता रहा हो वही देश आज किसानों की आत्म हत्याओं के लिए पहचाना जाने लगा है।
भारत का किसान अपनी उपज की कीमत खुद तय नहीं कर सकता। उसे व्यापारियों, बिचौलियों की दया पर जीना पड़ता है। हम अन्न से पेट भरते हैं लेकिन अन्न खरीदने के लिए कभी किसान के पास नहीं जाते। किसान अपनी उपज लेकर हमारे दरवाजे पर आता है। प्रकृति ने व्यवस्था की कि प्यासा कुए के पास जाता है। किसानों के सन्दर्भ में हमने प्रकृति को झुठला दिया - कुआ प्यासे के पास आ रहा है।
किसानों के साथ शहरी बर्ताव पर सोचने की हमें न तो जरूरत अनुभव होती है न ही फुरसत मिलती है। पहले उसे गुण्डा, दंगाई, असामाजिक तत्व, उपद्रवी कहा गया। अब चोर कहा जा रहा है। किसान शहर में मण्डी के बन्द दरवाजे के बाहर मीलों लम्बी लाइन लगाकर प्रतीक्षा करता है। अपनी उपज की नीलामी के लिए उसे चार-चार दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उसे ट्राली पर ही रातें बीतानी पड़ती हैं। अधिकांश किसान किराए की ट्रालियों में उपज लाते हैं। उन्हें तीन दिनों का ट्राली किराया अतिरिक्त भुगतना पड़ता है। मण्डियों में हम्माल, तुलावटी, व्यापारी, अधिकारी सब उससे चूहे-बिल्ली का खेल खेलते नजर आते हैं। वह मोल में भी मारा जाता है और तौल में भी। मेरे जिलेे का आधिकारिक रेकार्ड है कि तौल में पाँच किलो से लेकर पचीस किलो तक की बेईमानी किसान के साथ हुई।
मण्डियों में किसान के लिए व्यवस्था के नाम पर केवल खानापूर्ति है। उपज के लिए पर्याप्त सुरक्षित जगह नहीं। किसानों के माल के प्लेटफार्मों पर व्यापारियों का माल रखा मिलता है। किसान को उपज खुले में, धरती पर रखनी पड़ती है। बरसात हो गई तो नुकसान किसान का। सरकार या मण्डी प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं। मण्डी कमेटी का दफ्तर चकाचक मिलेगा। वहाँ पंखे, कूलर (मुमकिन है, ए सी भी) मिलेंगे। लेकिन किसानों के लिए यह सब आपवादिक रूप से भी शायद ही मिले। मण्डी अध्यक्ष और सचिव की टेबल पर नाश्ता, स्टील की साफ चमकीली प्लेटों में आएगा लेकिन किसान केण्टीन में पुराने अखबार की रद्दी में नाश्ता मिलेगा। मण्डी पदाधिकारियों, कर्मचारियों के शौचालय चकाचक मिलेंगे जबकि किसानों के शौचालयों में झाँकना भी दुरुह होता है। शहर में आए किसान की दशा चाकुओं के बीच खरबूजे जैसी होती है। वह शहर में आकर अपना माल कौड़ियों के मोल बेचता है और उसी माल को अपने ही गाँव में सोने के भाव खरीदने को अभिशप्त रहता है।
समाचार माध्यमों पर निगमित घरानों और शहरी मध्यमवर्गीयों का कब्जा है। इन्हें चींटी भी काट ले तो आसमान फट जाता है। लेकिन देहातों में किसानों पर आसमान भी फट जाए तो शहरों में पत्ता भी नहीं खड़कता। उसे समाचार बनने के लिए आत्महत्या करनी पड़ती है। पूरे देश के किसानों की कर्ज मुक्ति के लिए केवल तेरह हजार करोड़ रुपये चाहिए थे। वह रकम सरकार के पास नहीं होती। लेकिन गिनती के कार्पोरेट घरानों को लाखों करोड़ रुपयों की कर-माफी दे दी जाती है।
ऐसे में किसान शहर में आने से इंकार क्यों न करे? साठ-सत्तर रुपयों में बिकनेवाला टमाटर का एक क्रेट कल मेरे कस्बे की सब्जी मण्डी में, चार सौ रुपयों में बिका। केवल इसलिए कि किसान ने शहर में लाना बन्द कर दिया। माँग और पूर्ति के नियम का लाभ किसान को तब ही मिल सकता है जब उसकी उपज उसके दरवाजे पर बिके। किसान ऐसा चाह रहा है तो क्या गलत है?
किसान और किसानी से जुड़े लोग आज भी देश की जनसंख्या का सत्तर प्रतिशत हैं। देश की आर्थिक नीतियाँ इन्हें ही केन्द्र में रखकर बनाई जानी चाहिए। जो देश ऐसा नहीं करता वह आँकड़ों में बेशक धनी हो सकता है, जीडीपी और सेंसेक्स के हिमालय खड़े कर सकता है लेकिन वह अन्ततः गरीब जनसंख्यावाला धनी देश ही होगा। वह सुखी देश कभी नहीं होगा।
इसीलिए मैं किसानों के साथ हूँ।
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