चित्र 10 दिसम्बर 2017 का है। नन्दनी और हमारे छोटे बेटे तथागत के विवाह समारोह का।
आज दादा की तीसरी पुण्य तिथि और दूसरी बरसी है - 13 मई 2018 को उनका देहावसान हुआ था। इस प्रसंग के बहाने उनसे जुड़े दो अनूठे संस्मरण।
काँग्रेस के 16 विधायकों ने, ज्योतिरादित्य सिन्धिया के कहने से दलबदल कर मध्य प्रदेश की, कमलनाथ के नेतृत्ववाली अपनी ही सरकार गिरा दी। सरकार के गिरने-गिराने के इस दौर में दादा का जिक्र कई बार आया। लेकिन सन्दर्भ एक ही था - दादा की दलीय निष्ठा।
श्री द्वारकाप्रसाद मिश्र दादा को संसदीय राजनीति में लाए थे। 1967 के विधान सभा चुनावों में उन्हीं ने दादा को मनासा विधान सभा क्षेत्र से श्री सुन्दरलाल पटवा के मुकाबले उम्मीदवार बनाया था। पटवाजी ‘दिग्गज’ उम्मीदवार थे। मतगणना के दौरान मिश्रजी पल-पल जानकारी ले रहे थे। नतीजा आया। पटवाजी हारे। दादा जीते। मिश्रजी ने दादा को फोन पर बधाई दी- ‘शाबास! तुमने वह कर दिखाया जो मैं चाहता था।’
मिश्रजी ने दादा को सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) का संसदीय सचिव बनाया था। उन दिनों मन्त्रि मण्डल चार स्तरीय होता था - केबिनेट मन्त्री, राज्य मन्त्री, उप मन्त्री तथा संसदीय सचिव। राजनीतिक सम्भावनाओं वालों को उप मन्त्री और संसदीय सचिव बनाया जाता था।
मिश्राजी की सरकार की शुरुआत तो अच्छी हुई थी लेकिन निहित कारणों और मन्तव्यों से श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया ने काँग्रेस के लगभग पैंतीस विधायकों से दलबदल करवाकर वह सरकार गिरवा दी।
काँग्रेसी विधायकों से दलबदल करवाने के लिए श्रीमती सिन्धिया के दूत दिन-रात लगे हुए थे। पहली बार विधायक बनने वाले लोग सबसे आसान ‘शिकार’ माने गए। सो, ऐसे विधायकों को सबसे पहले ‘घेरने’ का अभियान चला। इसी क्रम में दादा से भी सम्पर्क साधा गया। दादा ने पहली ही बार में दो-टूक इंकार कर दिया। दादा कहते थे - ‘वे दिन बड़े तनावभरे थे। अफवाहों ने हवाओं पर कब्जा कर लिया था। शंका और अविश्वास साँसों में घुल गए थे। सबकी निष्ठा दाँव पर लगी हुई थी। अचानक एक नाम हवा में उछलता और कइयों की साँसें अटक जातीं।’
उन दिनों सब कुछ चौड़े-धाले हो रहा था। विधायक अपने-अपने कमरों में ही थे। खरीददार, विधायक विश्राम गृह के गलियारों और मैदानों में सहजता से अपना काम करते नजर आते थे।
दादा का दो-टूक इंकार जब श्रीमती सिन्धिया तक पहुँचा तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। दादा को वे सबसे आसान शिकारों में सबसे पहला माने हुए थीं। दादा का इंकार उनके लिए झटका तो था ही, किसी चुनौती से कम भी नहीं था। दूतों का उनका निर्देश था - ‘कोशिशें जारी रखो। कोई कंजूसी मत करना।’
गहमागहमी और भगदड़वाले उस माहौल की वह एक सामान्य सुबह थी। नित्यकर्मों से निपट कर दादा ने दाढ़ी बनाई। स्नान से पहले नाखून काटने लगे। कटे नाखूनों को कागज में समेट ही रहे थे कि श्रीमती सिन्धिया का दूत आ पहुँचा। बातें होने लगीं। प्रस्ताव ही नहीं दोहराया गया, इंकार भी दोहराया गया। दूत मनाए, दादा न माने। अन्ततः दूत ने अपना, तुरुप का इक्का फेंका - ‘राजमाताजी ने कहा है, हमारे साथ आ जाइए। आप अपना सरनेम बैरागी से बदल कर बिड़ला कर लेंगे।’ दादा को इसका अनुमान था। कटे हुए नाखूनों को दूत के सामने सरकाते हुए, अपने चिरपरिचित परिहास भाव से बोले - ‘मैंने अभी-अभी अपने नाखून काटे हैं। आपके सामने रखे हैं। इन्हें ले जाइए और अपनी राजमाताजी से कहिएगा कि मुझे खरीदने से पहले मेरे ये कटे हुए नाखून खरीद कर दिखा दें। वे नहीं खरीद पाएँगी।’ दादा का यह जवाब सुनकर दूत हक्का-बक्का रह गया था। कलदारों की थैलियों की व्यर्थता के इस भाष्य की उसने तो कल्पना भी नहीं की थी!
दादा को काँग्रेस में ही रहना था। उन्होंने अपनी निष्ठा बदलना तो दूर, रंच मात्र हिलने भी नहीं दी। मिश्राजी की सरकार गिर गई। सरकार गिरने के बाद मिश्राजी को ‘बैरागी-बिड़ला’ वाली बात मालूम हुई तो पहले तो चौंके, फिर बहुत खुश हुए। यह बात उन्होंने एकाधिक बार उल्लेखित की।
लेकिन दलीय निष्ठा की परीक्षा दादा अन्तिम बार नहीं दी थी। अविभाजित मन्दसौर जिले की काँग्रेसी गुटबाजी के चलते एक बार दादा को काँग्रेस से निष्कासित करने का अभियान सा शुरु हो गया। वास्तविकता कोई नहीं जानता था लेकिन हवाओं में निर्णायक सूचना तैर रही थी - ‘काँग्रेस से बैरागी का पत्ता कट्।’ दादा के समर्थक बेचैन। बार-बार दादा को टटोलें। लेकिन दादा इस सबसे बेखबर, बेअसर।
एक दिन वे रोज की तरह अपनी लिखत-पढ़त कर रहे थे कि मन्दसौर से एक दिग्गज काँग्रेसी नेता आए। जिला काँग्रेस कमेटी के दफ्तर में उनकी रोज की उठक-बैठक। उनकी शकल पर चिन्ता ने तम्बू तान रखा था। मौके पर मौजूद लोगों को लगा, ये नेताजी दादा का निष्कासन-पत्र लेकर आए हैं। दोनों के बीच राम-राम, शाम-शाम के बाद बात शुरु हुई तो मालूम हुआ, वे तो खुद अपनी परेशानी से मुक्त होने के लिए आए हैं। बौखलाए स्वरों में उन्होंने पूछा - ‘यार! बैरागी, इन्होंने सच्ची में तुझे काँग्रेस से निकलवा दिया तो?’ सुनकर दादा का ठहाका कमरे की छत फाड़ कर निकल गया। बोले - ‘निकाल दें तो निकाल दें। इसके अलावा ये और कर ही क्या सकते हैं? बन्दे को कई फर्क नहीं पड़ता।’ नेताजी हतप्रभ हो गए। बोले - ‘क्या बात करता है यार? फर्क कैसे नहीं पड़ता?’ अब दादा तसल्ली से बोले - ‘ये मुझे काँग्रेस से निकाल सकते हैं। लेकिन मेरे अन्दर की काँग्रेस को ये कैसे निकालेंगे? मैं तो तब भी गली-गली काँग्रेस का अलख जगाऊँगा, काँग्रेस के गीत गाऊँगा। रोक सकेंगे ये मुझे? रोकेंगे तो किस हैसियत से रोकेंगे?’ फिर बेहद भावुकता और संजीदगी से बोले - ‘इनके लिए काँग्रेस एक पार्टी है। लेकिन मेरे लिए तो माँ है। ये अपनी पार्टी चलाएँ। मैं अपनी माँ की देखभाल करूँगा।’
नेताजी अभी अचकचाए हुए थे। उनकी शकल देख कर दादा ने कहा - ‘आप फिकर छोड़ो। ठहाके लगाओ। कुछ नहीं होगा। कैफ भोपाली का शेर सुनो -
गुल से लिपटी हुई तितली को गिरा कर देखो
आँधियों तुमने दरख्तों को गिराया होगा
...तो भैया! बन्दा तो फूल से लिपटी हुई तितली है। कह देना उनसे।’ नेताजी हौसलाबन्द हो लौट गए। दादा के निष्कासन के अभियान का गर्भपात हो गया।
आज दादा की दूसरी बरसी है। दादा आज होते तो क्या करते? कुछ नहीं! तब दादी को नाखून भिजवाए थे। अब पोते को भिजवा देते और कहते - ‘मुझे नहीं बनना बिड़ला।’
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रोचक संस्मरण
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