सिंडरेला



श्री बालकवि बैरागी द्वारा लिखित
सिंडरेला

समर्पण 
बेबी, गोपी और छोटू के लिए
रानी भाभी को सादर

यह लोक-कथा समूचे विश्व में अत्यधिक लोकप्रिय लोक-कथा है। दुनिया के अनगिनत देशों में इस लोक-कथा को रचनाकारों, नाटककारों ने अपना विषय बनाया। केवल यूरोप में ही इसके 500 से अधिक रूप-स्वरूप पाये जाते हैं। दुनिया का शायद ही कोई देश होगा जहाँ यह कथा अनजानी हो। साहित्य की सभी विधाओं में इसे जगह मिली हुई है।

दादा श्री बालकवि बैरागी ने ‘सिंडरेला’ का यह काव्य-रूप फिल्म ‘रानी और लाल परी’ के लिए लिखा था। 1975 में बनी इस फिल्म के निदेशक श्री रवि नगाइच थे और ‘गुरु एण्टरप्रइजेस मूवीज’ ने इस फिल्म का निर्माण किया था। फिल्म में रानी की भूमिका बेबी रानी ने निभाई थी जबकि इस कविता के फिल्मांकन में नीतू सिंह ने ‘सिंडरेला’ की और रीना राय ने ‘लाल परी’ की भूमिका निभाई थी। आशा भोंसले, दिलराज कौर मन्ना डे ने इसे स्वर दिया था। राजेन्द्र कुमार, आशा पारिख, जीतेन्द्र, फिरोज खान, आदि प्रमुख भूमिकाओं में थे। संगीत वसन्त देसाई का था। फिल्म के सारे गीत दादा ने ही लिखे थे।

समर्पण में उल्लेखित तीनों बच्चे श्री रवि नगाइच के बच्चे हैं और रानी भाभी श्रीमती नगाइच हैं।

कविता के साथ दिए गए सारे रेखा चित्र मूल पुस्तक से लिए गए हैं।

     
सिंडरेला

एक बार एक लड़की थी
नाम था जिसका सिंडरेला।।
परियों जैसी प्यारी-प्यारी
गुड़ियों जैसी राजदुलारी
अम्मी को प्यारी
पप्पा को प्यारी
एक बार एक लड़की थी
नाम था जिसका सिंडरेला।।

छोटी-सी बीमारी में
उसकी मम्मी मर गई
छोड़ अकेली सिंडरेला को
वो ईश्वर के घर गई ।।
इतने बड़े मकान में
इतने बड़े जहान में
 
बचे अकेले केवल दो
सिडरेंला और उसके पापा।।

कई बरस यूँ बीत गये ।।

सिंडरेला के पापा ने तब
अपना दूजा ब्याह रचाया
सिंडरेला के मम्मी लाया।।
सिंडरेला की इस मम्मी को
पहिले ही थीं दो कन्याएँ ।।
कन्याएँ भी बड़ी विकट थीं
बदसूरत थीं भोंडी-भोंडी
नाक-नक्श सब टेढ़े-मेढ़
बातचीत में बड़ी कर्कशा
लोमड़ियों सी गुर्राती थीं।।
उस पर भी तुर्रा था ऐसा
भोली-भाली सरल सलौनी
सिंडरेला से चिढ़ती थीं वो।।
चिढ़ती क्या थीं जलती-भुनती
बिना बात नफरत करती थीं
भिन्नाती रहती थीं दिन-भर।
सो बेचारी गुड़िया रानी

हाँ, हाँ, वो अपनी सिंडरेला
दिन-भर चूल्हा फूँका करती
सारा दिन कपड़े धोती थी
फर्श साफ करती थी दिन-भर
जूतों पर पालिश करती थी।।
और कटखनी दोनों बहिनें
सिडरेला को डाँटा करतीं
बात-बात पर काटा करतीं।।
चिथड़ों में लिपटी सिंडरेला
जुल्मों में दबती जाती थी
पल-भर चैन नहीं पाती थी।।

और उधर बदसूरत बहिनें
दिन-भर सैर-सपाटा करतीं
ऐश उड़ातीं, मौज मारतीं
यहाँ पार्टी, वहाँ पार्टी
हीरे मोती गहने कपड़े
सोना चाँदी जरी किनारी
पैसे का पानी कर-कर के
बिना भाव के घर ले आतीं
सौतेले पापा का पैसा
गुलछर्रों में फूँका करतीं
रंगरेली से बचे वक्त में
सिंडरेला पर भूँका करती।।

इसी तरह सब कुछ चलता था
दिन उगता था फिर ढलता था।।
तभी एक दिन मिला निमन्त्रण
राजमहल में राजकुँवर ने
महानृत्य या महारास या ग्रेण्ड बॉल के लिए
बुलाया हर लड़की को।।

सिंडरेला की सौतेली माँ
और घमण्डी दोनों बहिनें
फूली नहीं समाती थीं
राजकुँवर के इस न््यौते पर
अकड़-अकड़ इतराती थी।।
सारे घर में चहल-पहल थी
हो-हल्ला था।।
बदसूरत दोनों बहिनों ने
नये-नये कपड़े बनवाये
फिर उन पर लोहा करवाया
सन जैसे बालों को सूँता
टेढ़े-मेढ़े भोंडे मुँह पर
तरह-तरह का क्रीम लगाया, पाउडर पोता।।
सपनों में खाया फिर गोता।।
राजकुँवर से शादी का अरमान सजाया।।

तभी कहा उनकी मम्मी ने
‘ऐ सिंडरेला!
राजमहल के महारास में तू न जायेगी
जायेंगी मेरी ये परियाँ
वहाँ गायेंगीं ये किन्नरियाँ।।’
सिंडरेला बेचारी गुमसुस
फिर भी हिम्मत करके बोली
‘इन बहिनों का जूना गाऊन दे दो अम्मी!
राजमहल मैं भी देखूँगी
राजकुँवर से मिल आऊँगी।।’
सुन कर सिडरेला की बातें
मार ठहाका हँस दीं तीनों
हँस-हँस कर देती थीं ताने
‘देखो तो चुहिया की हिम्मत
ये मुँह और मसूर की दाल!
जाओ अपना चूल्हा फूँको
घर का कचरा साफ करो तुम
मत भूलो अपनी औकात।।
घूँघर वाले इन बालों में
चलो लगाओ ये हेयर पिन।।’
बुरी तरह डाँटा-फटकारा
धन्यवाद तक दिया नहीं
फरफराट करती वो चल दीं
बैठ फिटन में।
राजमहल के राजमार्ग पर।।

तब चूल्हे के पास अकेली
रोती थी अपनी सिंडरेला
रोती क्या थी चिल्लाती थी
दीवारों से टकराती थी।।
और तभी हो गया अचानक
सारे घर में अमर उजाला
जैसे सोना बिखर गया हो
क्या आँगन, क्या दीवारों पर
मेहराबों पर, दरवाजों पर
पोत दिया हो पिघला सोना
हर कोना हो गया सुनहरा।।
और सामने सिंडरेला के 
कहीं रुपहरी, कहीं सुनहरी
गोरी गट्ट गजब की सुन्दर
एक सुन्दरी खड़ी हो गई।।
सिंडरेला भौंचक अवाक् थी
कुछ भी समझ नहीं पाती थी
बार-बार आँखें मलती थी
कभी काँपती, कभी हाफती
फटी-फटी आँखों से केवल
घूर रही थी उस रूपम् को।।
हिम्मत करके पूछा आखिर
‘आप कौन हैं?’
तब फिर जैसे घूँघरू बाजे
या मिसरी में शहद घुली हो
रूप सरोवर की वह रानी
मन्द-मन्द मुसका कर बोली
“मैं हूँ तेरी माता बेटी!
हाँ, हाँ, तेरी धरम की माता
परी देश की रहने वाली
मझे ‘परी माँ’ कह सकती हो।
बोलो बेटी क्यों रोती हो?”

        












माँ ! मेरा भी मन करता है 
राजमहल में मैं भी जाऊँ
राजकुँवर को मैं भी देखूँ
 महारास में मैं भी नाचूँ
 माँ....माँ....’

‘बस?
इतनी सी इच्छा के खातिर            
मोती जैसे
इतने आँसू?
ये देखो
जादुई छड़ी ये
हर ख्वाहिश पूरी करत
चल उठ आँसू पो
लेकिन जैसा मैं क
वैसा तुझको करना होगा।।’

सुनते ही सिंडरेला हो गई
बाग-बाग, हाँ गार्डन-गार्डन।।
उछल पड़ी भर कर किलकारी
लगी बजाने खूब तालियाँ
‘अरी परी माँ! आप कहेंगी वैसा
बिलकुल वैसा-हाँ...हाँ...वैसा
बिलकुल-बिलकुल वही करूँगी
आज्ञा दो क्या करना होगा।।’
‘जाओ पहिले पिछवाड़े की बाड़ी में से
एक बड़ा-सा पीला कद्दू
लाकर मेरे आगे रक्खो।।’
पहिला हुक्म परी माँ का था
गई लपक कर झट सिंडरेला
एक बड़ा-सा कद्दू लाकर
चट से रक्खा माँ के आगे
सोच रही थी अब क्या होगा
तभी छड़ी से छुआ परी ने उस कद्दू को
और बात की बात-बात में
कद्दू बदल गया बग्घी में।।
रंग सुनहरा सोने जैसा
लाल मखमली सीटें जिसकी।
हक्की-बक्की थी सिंडरेला।।

और परी माँ फिर से बोली
‘जाओ छः चुहियाओं वाली
ले आओ इक चूहेदानी
मैं उन छः ही चुहियाओं को
शानदार घोड़े कर दूँगी।।’
आनन-फानन सिडरेला ने
लाकर रख दी चूहेदानी।
और फटाफट उसी छड़ी से
छूने भर की देर लगी बस
चूहे-वूहे सब गायब थे
गज-गज लम्बी पूँछों वाले
छः घोड़े हिनहिना रहे थे।।
खुद ही बोली तभी परी माँ
‘जब बग्घी है
जब घोड़े हैं
तब इक कोचवान भी होना।।’

‘क्या मैं चूहों वाला
वह पिजरा भी लाऊँ?
जिसमें बड़े-बड़े चूहे हैं अम्मी!
उससे अच्छा कोचवान
फिर कहाँ मिलेगा?’ 
प्रश्न किया झट सिंडरेला ने

‘बेशक! बेशक! लाओ! लाओ!’
कहा परी ने
‘सबसे मोटा, सबसे ताजा
गोलमटोल बड़ा चूहा ही 
कोचवान का काम करेगा।।’
और परी ने
एक मुटल्ले, ढोल सरीखे
चूहेमल को
अपनी अजब छड़ी से छूकर
कोचवान में बदल दिया चट।।
लम्ब-तड़ंगे चाबुक वाला
गोल-मटोल, अगड़-बम चूहा
अलबेला, मस्ताना, मोटा
कोचवान क्या धम्मक-धूँ था।।

किन्तु परी माँ अभी व्यस्त थीं
बोली
‘जाओ बिटिया ! दूर कुएँ के पास
बड़े से उस पत्थर को परे हटा कर
चार छिपकली जिन्दा लाओ
उन्हें अंग-रक्षक करने का सोच रही हूँ।।
बग्घी है जब
घोड़े हैं जब
कोचवान है
तब फिर चार पहरुए भी तो आवश्यक हैं
बिना पहरुओं के क्या बग्घी?’
अजब छड़ी की एक छुअन ने
आखिर यह भी कर ही डाला।।
लम्बे, गोरे, हट्टे-कट्ठे
जरी और किमखाब पहन कर
चार पहरुए
सिडरेला की कोर्निश में खड़े हुए थे।।

‘बेटी ! अब तेरी तैयारी हो गई पूरी
महारास में शामिल होने
राजमहल में जा सकती है।’
मुसका कर यूँ कहा परी ने

पर,
सिडरेला तब भी उदास थी
सूनी-सूनी उसकी आँखें
लगता था अब बरस पड़ेंगी
‘अरे परी माँ!
इन चिन्दों में, इन चिथड़ों में
कौन महल में घुसने देगा?
दरबानों के धक्के खाकर
किस मुँह से वापस आऊँगी?”
पर बात नहीं हो पाई पूरी
खत्म हो गई हर मजबूरी।।
चिन्दे-चिथड़े बदल गये सब
परियों जैसे परिधानों में।।
रेशम, मलमल, मखमल, मोती,
हीरे, गहने, और दागीने।।
सिंडरेला बस सिंडरेला थी
नजर नहीं थमती थी उस पर।।
लम्बे काले बाल
सेब से लाल गुलाबी गाल
लचकती शाखों जैसे हाथ
मोतियों जैसे उजले दाँत
पँखुरियों जैसे पतले ओंठ
बदन में महक रही थी सौंठ
चले तो कमर झकोले खाय
कहाँ पर इतना रूप समाय?
हाय रे हाय ! हाय रे हाय !!

अब उतावली थी सिंडरेला
राजमहल जाने को व्याकुल
सोच रही थी उड़ जाऊँ मैं।।
तभी परी माँ आगे आई 
बोली
‘ले बेटी! अन्तिम उपहार
अब तुझको बस यही चाहिए।।’
ऐसा कह कर दिया परी ने
सजी-धजी अपनी बिटिया को
 शीशे का इक जूता जोड़ा।।
‘इसको पहिनो
शायद ऐसा जोड़ा तुमने
पहिले नहीं कभी देखा हो
यह शीशा है या कि काँच है
हाँ बिल्लौरी, बिलकुल निर्मल
खालिस शीशा।।’

थिरक-थिरक करती सिंडरेला
चली बैठने जब बग्घी में
तभी परी माँ ने फिर टोका
‘सुनो लाड़ली!
एक शर्त है
बीते ज्यों ही आधी रात
और महल की घड़ी बजाये ज्यों ही बारह
त्यों ही तू बाहर आ जाना
वर्ना फिर तेरी तू जाने।।


शर्तें अगर यह टूट गई तो
बग्घी कद्दू हो जाएगी
चुहियाएँ सब घोड़े होंगे
कोचवान फिर होगा चूहा
और पहरुए सब छिपकलियाँ
उसी तरह फिर बन जायेंगे,
तुझे रात में छोड़ अकेली
अपने देश सभी जायेंगे।।
रेशम, मलमल, मखमल, मोती,
हीरे, गहने, और दागीने
फिर से हो जायेंगे चिथड़े।।
सुनो लाड़ली!
ज्यों ही बीते आधी रात
ओर महल की घड़ी बजाए ज्यों ही बारह
त्यों ही तू बाहर आ जाना।।
वर्ना फिर तेरी तू जाने।।’

’ओफ्! परी माँ!
एक नहीं सौ बार मुझे मंजूर
तुम्हारी सारी शर्तें
वादा करती हूँ मैं तुमसे।’
कह भी नहीं सकी सिंडरेला 
और लगाम खिंची घोड़ों की
कोचवान ने हाँक भरी तो
करने लगे हवा से बातें
बिजली के टुकड़ों से घोड़े।
अबलक घोड़े, ये जा, वो जा
खुशबू के झोंके-सी अपनी सिंडरेला
थी राज महल में।।

पल-भर को थम गया समाँ सब
हर इक आँख थी सिंडरेला पर 
राजकुँवर हो गया बावरा
उतर गई सिंडरेला मन में।।
सिडरेला की बाँहों में थीं
राजकुँवर की दोनों बाँहें
सुध-बुध दोनों भूल गये थे
लिपटे-लिपटे नाच रहे थे।।
नाचे भी तो ऐसे नाचे
ठिठक गये थे सारे जोड़े
पूछ रहे थे सब आपस में
‘कौन सुन्दरी है यह बाला?
टूट पड़ी यह बिजली कैसे?
लगता है इस राजकुँवर से
पहिले ही यह रसी बसी है।।

और उधर वो दोनों बहिनें
अपना रूप बखान रही थीं
समझ न पाई वे पल-भर भी
राजकुवर की बाँहों में जो
रूपछटा-सी थिरक रही है ।
वह सौतेली सिंडरेला है।।

सिडरेला ने सारे जीवन
ऐसी खुशियाँ कब देखी थीं
राजकुँवर की बाँहों में वह
थिरक रही थी झूम रही थी
होश नहीं था उसको कुछ भी
भूल गई थी अपना वादा
वो जो उसने वहाँ दिया था।।

तभी महल की बड़ी घड़ी ने
ढों-ढों करके घण्टा ठोका
और बजाये पौने बारह।।
राजकुँवर की बाँहों से 
चट छिटक पड़ी बेसुध सिंडरेला
बैठ गई फौरन बग्घी में
और फटाफट, यह जा, वह जा।।
घर आने पर वे ही चिथड़े
वही जलालत वे ही बहिनें
वही कर्कशा सौतेली माँ।।
वे भी आईं उसी नाच से
दरवाजे से ही चिल्लाईं
’चलो हमारे हुकुम बजाओ
घड़ी करो सारे कपड़ों की
चूल्हा फूँको, फर्श बुहारो।।’

और दूसरी रात सभी कुछ
फिर वैसा ही ।
वही महल था, वही कुँवर था
वही नाच था।
वे ही डायनें नाच रही थीं
भद्दी, भोंडी, कल जैसी ही।
सिडरेंला भी थिरक रही थी
तितली जैसी सबसे सुन्दर
कल से ज्यादा रूपवान थी
नई शान थी।।
सबने बिलकुल मान लिया था
राजकुँवर इस रमणी से ही
उलझ गया है अमर प्यार में।।

‘मुझे तुम्हारा नाम बताओ।’
राजकुँवर ने आखिर पूछा
‘नाचो और नाचते जाओ’
सिडरेला का यह उत्तर था।।
फिर से सुध-बूध भूल गई वह
भूल गई वह अपना वादा
बिलकुल आधी रात हो गई
आज महल की बड़ी घड़ी ने
बजा दिए थे पूरे बारह।।
पलक झपकने की देरी थी
छटक पड़ी चटपट बाँहों से
और महल से बाहर भागी।।
राजकुँवर भी पीछे लपका
लेकिन हाथ नहीं आया कुछ
उसकी प्रेमा भाग चुकी थी।
लेकिन इस भागा-दौड़ी में
बिल्लौरी शीशे का केवल
एक चमाचम जूता खुलकर 
छूट गया था दरवाजे पर।।

राजकुँवर ने उस जूते को
पहिले चूमा फिर सहलाया
रह-रह उसको गले लगाया।।
फिर उसने की एक प्रतिज्ञा
‘पहरनहारी इस जूते की
मेरे घर की रानी होगी
और नहीं मिल पाई वह तो
उसकी यही निशानी होगी।।’

और दूसरे दिन से सारे राज नगर में
पिटा ढिंढोरा
‘शीशे का यह सुन्दर जूता
बैठेगा जिस पाँव में
वही सुन्दरी राज करेगी
राजकुँवर के गाँव में।।
धूम-धड़क्के से ब्याहेंगे उस गौरी को
राजकुमार
यही हुकुम है महाराजा का
जनता सुन ले बारम्बार।।’
चले सिपाही अब घर-घर को 
शीशे का वह जूता लेकर
हर लड़की को पहिनाते थे
जाँच रहे थे, परख रहे थे
याने कि वे ढूँढ़ रहे थे
उस लड़की को
जिसके पाँवों में वो जूता फिट आ जाये।।

हर लड़की को बड़ी ललक थी
मन ही मन सब सोच रही थी
हाय राम! यह जूता फौरन
फिट आ जाये मेरे पग में
और किसी को फिट नहीं आये।।’
इसमें भी थीं सबसे आगे
वे दोनों बड़बोली बहिनें
कहा एक ने ‘मुझको तो वह
बिलकुल फिट आ ही जायेगा।।’
तभी दूसरी बोली
‘अय! हय! तेरा पाँव बड़ा है मुझसे
तुझसे, मेरा पाँव देख ले
एक एक नम्बर छोटा है।।’
इसीे तरह वे झगड़ रही थीं
तभी सिपाही घर में आये
लेकिन वाह रे भाग्य!
हकीकत सब उल्टी थी
किस्मत ने सब खेल कर दिया था गुड़-गोबर
नहीं एक को भी फिट आया था वह जूता।।
गन्दे-भद्दे पाँव कई नम्बर मोटे थे
सुन्दर शीशे का वह जूता
कैसे उनमें फिट आ जाता ?
तभी दरोगा ने यूँ पूछा
‘क्या है कोई और तीसरी लड़की घर में?
यदि हो तो उसको भी लाओ
उसको भी जूता पहिनाओ
जाओ उसको बाहर लाआ।।’
लेकिन वे बेहूदा बहिनें
एक साथ ही बोल पड़ीं
‘जी! यहाँ तीसरी का क्या काम
सिवा हमारे कोई लड़की यहाँ नहीं है
ओ के! टाटा! नमस्कार।।’

लेकिन चतुर दरोगा सब कुछ भाँप चुका था
उसने गुपचुप देख लिया था
किसी एक लड़की का बाजू 
दूर किवाड़ों के पीछे लहराता लगता।।
‘यह है राजा का आदेश
हर लड़की को पहिनाकर यह जूता जाँचो
चलो कौन-सी लड़की है जो छिपी खड़ी है।।’

तुम खुद ही अन्दाज लगाओ
कहो कौन-सी लड़की थी वह?
वह थी अपनी प्रिय सिंडरेला।।

छिपे-छिपे ही सिंडरेला ने
एक पाँव आगे सरकाया
और सिपाही ने फौरन
जूता पहिनाया
गजब हो गया।।
जूता बिल्कुल फिट आया था।।
सिंडरेला के कोमल पग में
जूता चम-चम चमक रहा था
मानो चमक रहे हों हीरे।।
आर कर्कशा दोनों बहिनें
ज्यों ही कुछ बोलें, मुँह खोलें
त्यों ही अपनी अजब छड़ी ले
सम्मुख आ गई वही परी माँ 
वही धरम की प्यारी माता।।

अजब छड़ी ने गजब किया फिर
सिंडरेला के सारे चिथड़े
बदल गये थे फिर मखमल में
वही जरी, किमखाब, किनारी
वही रूप की लकदक भारी।।
जलकुक्कड़ दोनों बहिनों की
आँखों में नफरत ही नफरत।।
तभी परी माँ बोली हँसकर
‘ऐ सिंडरेला!
जाओ बेटी!
वही तुम्हारी टमटम बग्घी
बाहर खड़ी हुई है रानी!
जाओ अपने राजमहल को
पाओ अपने राजकुँवर को
नाचो-गाओ, मौज-मनाओ
जाओ बेटी! जल्दी जाओ।।’

                              राजमहल में सिंडरेला ने
जीवन का सारा सुख पाया
राजकुँवर ने दूजे ही दिन 
सिंडरेला से ब्याह रचाया
दुख के बादल बिखर गये सब
पता नहीं वे किधर गये सब।।

अरे.....अरे.....हाँ !
वे दोनों मनहूस डायनें?
सोचो उनका हाल क्या हुआ?
होता भी क्या?
वो अपनी सिंडरेला थी ना
बहुत बड़े दिल की मलिका थी।।
उसने उनको माफ कर दिया
हाँ, हाँ, बिलकुल माफ़ कर दिया।।
इतना ही क्या
एक और अहसान कर दिया।
दो सुन्दर लड़के ढुँढवाये
उनसे उनके ब्याह कराये
दिये महल में सुन्दर कमरे
कहा ‘वहीं जीवन-भर ठहरें।’
इससे दोनों भद्दी बहिनें
हुईं शरम से पानी-पानी
इस लज्जा से लगी बरसने
दिन-दिन उन पर नई जवानी
बदशकली सब दूर हो गई
उनसे भी पाई सुन्दरता
नेक काम करने से देखो
तन-मन-जीवन सभी सँवरता।।
अमर हो गये राजा-रानी
सिंडरेला की यही कहानी।।
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सिंडरेला - विदेशी लोक कथा का काव्यान्तर
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 
1/3017, रामनगर, मंडोली रोड़, शाहदरा, दिल्ली - 110032
प्रथम संस्करण - 1981
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - 5.00 रुपये
मुद्रक - शान प्रिण्टर्स, शाहदरा, दिल्ली-32

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