‘छड़ी उठने का मतलब है, यात्रा का शुभारम्भ। कनेर की एक बड़ी, छड़ी जैसी डाली काट ली जाती है। उसके ऊपरी छोर पर एक झण्डी बाँधकर, जो भी अगुआ होता है, उसकी कमर पर दुपट्टे से वह छड़ी बाँध दी जाती है। उस छड़ी की विधिवत आरती उतारकर पूजा की जाती है और ‘हिंगलाज माता की जय’ के नारों और अन्य धार्मिक नारों के साथ अगुआ, अखाड़े के महन्त से आज्ञा लेकर यात्रा शुरु कर देता है। यात्री उसके पीछे-पीछे चलते हैं। जब तक छड़ी नहीं उठती है तब तक सभी यात्री और अखाड़े के साधु-संन्यासी अखाड़े में अखण्ड भजन-पाठ करते हैं। इकतारों और तम्बूरों पर झूम-झूमकर गाते हुए ये यात्री, अपनी-अपनी टोलियों के साथ निरन्तर साधना करते रहते हैं। भजनों का क्रम कभी नहीं टूटता था। चाहे रात हो या दिन, कोई न कोई बराबर गाता ही रहता था। मैं अपने गाँव से ही इन गीतों का अच्छा गायक रहा हूँ और तम्बूरे पर आज भी वे गीत उसी तन्मयता के साथ गा लेता हूँ। मातृभाषा मेरी मराठी है, पर आज भी अपने परिवार में बराबर मराठी बोल नहीं पाता हूँ। धाराप्रवाह मालवी बोलना मेरा भाषा-गुण हो गया है। मेरे परिवार के शेष सभी सदस्य जब ठेठ मराठी में बात करते हैं तो कई शब्द मेरे पल्ले नहीं पड़ते हैं। मुझे इसका कोई दुःख नहीं है, और न मेरे बच्चों में ही यह कॉम्पलेक्स मिलेगा। मैं तो अपनी मातृभाषा भी मालवी ही मानता हूँ और रामदेवजी के गीत आज भी मुझे उतनी ही शक्ति से आकर्षित करते हैं जितने से कि वे बचपन में किया करते थे।
‘कराँची से हिंगलाज माता तक जाते समय 18 पड़ाव थे और आते समय 18 पड़ाव। छड़ी की कुल 24 पूजाएँ होती थीं। ये पूजाएँ विभिन्न पड़ावों पर अलग-अलग समय पर होती थीं। इन पूजाओं को अगुआ ही सम्पन्न कराता था और यदि एक भी पूजा किसी ने कम कराई तो उसकी यात्रा अधूरी मानी जाती थी। पूजा का खर्च प्रति यात्री कोई 30 या 32 रुपया आता था। कराँची से हिंगलाजा माता जाने के 18 और आने के 16 दिन। इस हिसाब से 34 दिनों का उस समय का ऊँट-किराया प्रति व्यक्ति सवा रुपया देना होता था। मैं जिस जत्थे में था उसमें कुल 35 व्यक्ति थे और उसका अगुआ बालभारती नामक गुसाई था। बालभारती, रामगिरि स्वामी का पटु शिष्य और हिंगलाज-माता-यात्रा का प्रवीण अगुआ माना जाता था। उस अखाड़े की वह शान था। यात्रा तो सभी यात्री पैदल ही करते थे पर उनका सामान और खाने का राशन वगैरह ऊँटों पर चलता था। एक या सवा माह का राशन लेकर एक-एक जत्था चलता था।
‘कराची से हिंगलाज माता तक जाते समय के जो 18 पड़ाव थे उनके बीच का फासला औसतन 16 से 20 मील प्रति पड़ाव बैठता है। केवल दो पड़ाव ऐसे हैं जिनका फासला चार-चार मील का है, सो आते समय ये दो पड़ाव तोड़ दिये जाते हैं। यही कारण है कि आते समय की यात्रा 16 दिन में पूरी हो जाती है।
‘कराची से हिगलाज माता का मार्ग अरब सागर के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर है। समन्दर का खारा पानी और बालू-रेत का सम्मिश्रण! सँभल-सँभलकर चलना होता है। पाँव फिसलने का पूरा खतरा और गिरने का डर। सर्दियाँ वापस शुरु हो गयी थीं और 18 दिन की यह यात्रा रोमांचक तो थी ही, दिलचस्प भी कम नहीं थी। मैं तो अपनी मंजिल के मोह से 18 दिनों को भी एक छलांग में लाँघ जाना चाहता था पर राह अजानी थी और पूजाओं के बिना यात्रा अधूरी मानी जाती थी। पूजा केवल अगुआ की करवा सकता था। साधनों का सवाल भी मेरे सामने प्रचण्ड था।
मुझे याद नहीं पड़ता कि छड़ी किस दिन उठी थी। पर अपराह्न में हमारा जत्था पहली जय बोला था। यह वह समय था जबकि मैंने अपनी आँखें पोंछ कर अपने अन्धे साथी को कराँची के अखाड़े में ही मुरझाए मन से छोड़ा था। इस समय मुझे बड़ी देर तक माँगीलाल भी याद आया। मैंने मन ही मन उस पर दया प्रदर्शित की। उसकी बदकिस्मती को कोसा और अपनी यात्रा के लिए चल पड़ा।’
दादा के सभी श्रोता यह जानने को उतावले थे कि वे अठारह पड़ाव कौन-कौन से थे। दादा ने हम सब के मन की थाह ली और हँसते हुए कहा-
‘सबके नाम तो मुझे याद नहीं रहे पर पहला पड़ाव बाटिया भेरू का था। यह एक भैरव का स्थान था और हमको भैरव-पूजा करनी पड़ी थी। दूसरा पड़ाव लोटन नन्दी नाम का था। यहाँ यात्रियों को परलोक सुधारने के लिए लोटकर परिक्रमा करनी पड़ती थी। जिस प्रकार राख में गधा लोटन लगाता है उसी प्रकार यहाँ यात्रीगण लोटन लगाते थे। हर क्रिया पहले अगुआ करके बताता था। उसका अनुसरण सभी यात्री करते थे। इन दो पड़ावों के बाद जो पड़ाव मुझे याद आता हैं, वह चन्द्रकोप स्वामी का पड़ाव है। हर पड़ाव पर पूजा और दर्शन करना जरूरी होता था। चन्द्रकोप स्वामी का पड़ाव रम्य और मनोहारी पड़ाव था। ऐसा लगता था मानो एक बड़ी झब्बी उल्टी रख दी गई हो। सही माने में यह एक बुझा हुआ ज्वालामुखी पहाड़ है। जब हम लोग इस पड़ाव पर थे तब भी इसमें यदा-कदा मिट्टी के गरम लोंदे निकल जाते थे। चूँकि यह एक उल्टी रखी हुई चिलम की शक्ल का पहाड़ी पड़ाव है, सो यहाँ पूजा में चिलम चढ़ानी पड़ती थी। पूजा का सारा सामान अगुआ के पास रहता था और वह सब ऊँटों पर लदकर चलता था। पूजा की जो चिलम यहाँ चढ़ाई जाती थी वह गाँजे की चिलम होती थी। गाँजा भरकर ‘अलख’ की आवाजों के साथ गाँजे का दम अगुआ लगाता था। पूजा स्वीकार मान ली जाती थी।
जो भी यात्री जथे में होते हैं उनसे यहाँ चार प्रकार के पाप स्वीकार कराए जाते हैं। यदि किसी यात्री ने कभी नर-हत्या की हो, गौ-हत्या की हो, चोरी की हो या परस्त्रीगमन किया हो, उसको अपने ये या जो भी किया हो वह पाप स्वीकार कर अपनी चिलम उस झब्बी जैसे मुँह में फेंकनी होती थी। यदि चिलम उस मुँह में गिर जाती तो पूजा स्वीकार मानी जाती थी और उसके पाप चन्द्रकोप स्वामी ने क्षमा कर दिए हैं, यह माना जाता था और यदि वह चिलम बाहर गिर जाती थी तो फि उसको पापी मानकर सोनम्यानी नामक अगले पड़ाव पर छोड़ दिया जाता था। यदि किसी की चिलम वैसे भी झब्बी में नहीं पड़े तो यह समझा जाता है उसने अपने पाप छिपाये हैं और उसको सोनम्यानी पर रुकना होता। मेरे जत्थे में सबकी चिलम मन्जूर हो गई थी।
चन्द्रकोप स्वामी के पड़ाव पर रात को सवा मन आटे का भोग लगाया जाता था। आस-पास के स्थानों से ऊँटों की मेंगनी बीन-बीन कर हर यात्री को ईधन जुटाना होता था और आठ बाई आठ का एक बड़ा गड्ढा रेत में तैयार करके उसमें वे मेंगनी बिछा कर आग का जगरा लगाया जाता है। उस पर यात्री अपना-अपना आटा हिस्सेवार लेकर रोटियाँ बनाते थे। जब भोजन बनता तो उसका भोग चन्द्रकोप स्वामी को लगाकर उसका बँटवारा होता था। प्रति व्यक्ति एक-एक रोटी तो वहाँ के कुएवाले को दी जाती थी। यह कुएवाला वहीं रहता था और यात्रियों को पानी पिलाया करता था। उसके बाद प्रति व्यक्ति एक-एक रोटी अगुआ को दी जाती थी। उसी प्रकार एक-एक रोटी ऊँटवाले के काम आती थी। प्रति व्यक्ति आधी रोटी निसपुरी की निकाली जाती थी। निसपुरी का मतलब है धर्मादे का खानेवाला। मैं इस जत्थे का निसपुरी था। निसपुरी की नियुक्ति अखाड़े का महन्त ही करता है। और यह सब स्वामी रामगिरि की कृपा का ही परिणाम था कि मैं निसपुरी बना दिया गया था। निसपुरी की इस प्रकार यह सारी यात्रा बिना पाई-पैसे के हो जाती है। मुझे यह फायदा मिला। यदि मैंने अन्धे की वह सेवा नहीं की होती तो शायद यह अवसर और पद मुझे नहीं मिलता। मेरा मन आज भी इस संयोग को उस अन्धे की आशीष का ही सुफल मानता है। एक बात मैं यह कह दूँ कि यदि कोई यात्री कुएवाले को उसकी रोटी नहीं देता तो कुएवाला उस यात्री को पानी नहीं पिलाता था। रोटियों के बँटवारे की इस व्यवस्था का सख्ती से पालन होता था। कुुएवाले के लिए उस बियाबान में ये रोटियाँ ही अवलम्ब थीं। यात्रियों के दल किसी निश्चित समय तो आते नहीं थे! जब तक दूसरा दल नहीं आए, उसे पहले दल द्वारा दिये गए राशन से ही अपना काम चलाना होता था।
किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी
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