यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।
ऐसा मेरा मन कहता है
जागा जागा लगता है अब सोये भारत का इन्सान
ऐसा मेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
कोयलिया के स्वर बदले हैं यौवन बदला आमों का
बदला-बदला लगता है कुछ नक्शा मुझको ग्रामों का
दिल दिमाग को दास बनाने वाला बन्धन बदल गया
झण्डा क्या बदला दिल्ली का एक-एक कण बदल गया
मंजिल बदल गई भारत की बदल गये सारे सोपान
ऐसा मेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
बंजर धरती के गालों को मर्द हलों ने चूमा है
बाँझ निपूती के गालों से ललक लाड़ला झूमा है
नये खाद की ले टोकरियाँ धनिया धूम मचाती है
पुरखाओं का कर्ज चुका कर कल के लिये बचाती है
बाप ब्याज को कहने वाला समझू साहू है हैरान
ऐसा मेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
रूठी मचली नदियों की भी नरम कलाई पकड़ी है
जनम-जनम के साँवरिया से साजनियँं क्यों अकड़ी है
निर्वासित सागर तक उनको रोक लिया है जाने से
समझ गई हैं कई एक तो थोड़ा सा समझाने से
जो नहीं समझी उनके मुँह पर भी है स्वीकृति की मुसकान
ऐसा मेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
पक्की बन गई दो दीवारें हर कच्ची झोंपड़ियों की
कलम पकड़ना सीख गई हैं जर्द ऊँगलियाँ बुढ़िया की
कल के गूँगे आज बोल कर माँग रहे अधिकारों को
श्रम साहस ने चीर दिया है तानाशाह पहाड़ों को
आज स्वर्ग के लिये चुनौती लगते हैं कल के वीरान
ऐसा भेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
नये मदरसे नई पौध को देते हैं सात्विक संस्कार
चौपालों पर लगे रेडियो चरवाहे पढ़ते अखबार
पंचायत की पुष्ट नींव पर महल खड़ा आजादी का
झगड़ा-टण्टा खत्म हा ेरहा वादी और प्रतिवादी का
पंचों में बैठा परमेश्वर जनता से करता पहिचान
ऐसा सेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
ललित कलाओं की कलिकाएँ संस्कृतियों में फूट रहीं
गाँव-माँव में अस्पताल हैं मधुशालाएँ हैं टूट रहीं
ऊँच-नीच के झगड़े-रगड़े, जात-पाँत की दीवारें
धरम-करम के ढोंग-धतूरे, निर्धतता की चीत्कारें
बिदा हो गईं कई डायनें, कुछ दिन, दो दिन की मेहमान
ऐसा मेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
पंचशील की पुरवाई ने जीवन मधु छलकाया है
ऐंठा-ऐंठा ऐटम भी कुछ सहमा है सकुचाया है
नशा नाश का जिन पर था वे बोल रहे निर्माण करो
फौज हटाओ, मौज लुटाओ खुद पर ही एहसान करो
ऐटम से अब अमन जुटेगा विज्ञानी करते ऐलान
ऐसा मेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
जैसे-जैसे मेरे भाई ले अँगड़ाई जाग रहे
बेकारी, भुखमरी, गरीबी नंगे पाँवों भाग रहे
वक्त परीक्षा का है हम फिर भी हँसते हैं मुसकाते हैं
तन से, मन से, कर्म, वचन से, आगे बढ़ते जाते हैं
आनी-मानी, लाल, गुमानी निश्चित मारेंगे मैदान
ऐसा मेरा मन कहता है बदल रहा है हिन्दुस्तान
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963. 2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती।
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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