136 रुपये की चाय और एक बैरागी के हस्ताक्षर

बात वर्षों पुरानी है। ठीक-ठीक वर्ष मुझे पूरी तरह से याद नहीं है पर लगता है यह बात सन 1993 से 1995 के समय की होगी।

एक दिन अचानक सुबह दादा (श्रद्धेय बालकविजी बैरागी) का फोन आया - ‘नितिन आज रात लखनऊ जाना है। शाम 6 बजे की ट्रेन से आऊँगा फिर रात 10 बजे अगली ट्रेन से जाऊँगा। हाँ खाना मैं साथ ही लाऊँगा।

दादा शाम 6 बजे आए। मैं और दादा रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में बैठकर बातचीत करते रहे। उस समय दादा उत्तरप्रदेश काँग्रेस के सहप्रभारी थे। श्री जितेन्द्र प्रसाद उत्तरप्रदेश के प्रभारी हुआ करते थे। दादा को कई बार लखनऊ जाना पड़ता था। वैसे भी, दादा की रेल यात्राओं के लिए रतलाम केन्द्रीय स्टेशन होता था। वे जब भी इस तरह रतलाम होकर जाते तो इसी तरह उनसे सत्संग हो जाया करता था। दादा के साथ खूब राजनीतिक चर्चा होती रहती थी। दादा की विचारधारा और मेरी विचारधारा में अन्तर था। किन्तु दादा मुझ पर बहुत विश्वास किया करते थे। उस दिन मैंने दादा से पूछा कि उत्तरप्रदेश के चुनाव में काँग्रेस की 20 सीटें आ जाएँगी? गोल गोल आँखों को मुझे चश्मे में से झाँकते हुए बोले - ‘बुत का मतलब समझते हो नितिन?’ मैंने कहा - ‘हाँ। मूर्ति या स्टेच्यू। दादा बोले - ‘उत्तर प्रदेश में काँग्रेस की 20 सीट आने पर लखनऊ में तुम्हारा बुत लगवाऊँगा।’ दादा और मैं खूब हँसे।

कुछ बातों के बाद दादा ने झोले में से भोजन निकाला। कागज में लपेटी हुई 5 रोटियाँ, एक छोटी डिब्बी में अचार, दो हरी मिर्चियाँ और एक पुड़िया में नमक। दो रोटियाँ दादा  ने अचार, मिर्ची और नमक के साथ खाई और तीन रोटियाँ  मुझे खिलाईं। देश के ख्यातनाम कवि और राजनीतिज्ञ की सरलता अद्भुत ही थी।

ट्रेन आ गयी और दादा लखनऊ के लिये प्रस्थान कर गए।

लगभग 7 या 8 दिन बाद दादा का एक लम्बा पत्र प्राप्त हुआ। वे समय से लखनऊ पहुँच गए थे। किन्तु ट्रेन में से उनका का सारा सामान मतलब एक अटैची और एक झोला रात को चोर चुरा कर ले गए। दादा ने लिखा - ‘मैं रात को अच्छे कपड़े पहना हुआ था। सुबह अच्छे कपड़ों वाला बैरागी हो गया। लखनऊ स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के पास गया, उन्होंने चाय पिलाई। फिर राज भवन (गवर्नर हाउस) का नम्बर लिया। श्री मोतीलाल जी वोरा को फोन लगाया। (वे उस समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे।) वोरा जी और मैं सामान चोरी वाली घटना पर खूब हँसे। मैंने कहा मेरा कुछ इन्तजाम करो। वोराजी ने दो धोतियाँ, दो कुर्ते, दो बण्डियाँ और दो कच्छे मेरे लिए भेजे तथा एक बहुत  बड़ी होटल में मेरे ठहरने की व्यवस्था की। होटल में पहुँचा हूँ। एक चाय मँगवाई और चाय पी ही थी कि वेटर ने 136 रुपये की एक चाय के बिल पर मेरे हस्ताक्षर करवाये।

‘नितिन! सोचता हूँ, कहाँ एक समय का खाना बहुत बड़ी बात थी और कहाँ आज एक चाय के 136 रुपये के बिल पर हस्ताक्षर कर रहा हूँ! यह यह सब हिन्दी के कारण ही हुआ है। शीघ्र ही रतलाम पहुँचूँगा मेरे लिए 1500 पोस्टकार्ड का इन्तजाम करवा के रखना।’

पोस्ट कार्डों का भी एक किस्सा है। वह फिर कभी बाद में लिखूँगा। किन्तु दादा समस्त सुविधाओं को प्राप्त करने के बाद भी कष्टों और अभावों के अपने बीते दिनों को नहीं भूलते थे। शायद उन्हें यह ऊँचाई इसी भाव के कारण प्राप्त हुई हो।

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भारतीय जीवन बीमा निगम में ‘मण्डल प्रबन्धक संवर्ग’ के सदस्य श्री नितिन वैद्य 1990 से 1998 तक रतलाम में विकास अधिकारी के पद पर कार्यरत थे। मुझे ‘एलआईसी एजेण्ट’ उन्हीं ने बनाया। उनके रतलाम आवास-काल में, दादा से उनका सम्पर्क होने के बाद दादा, अपने रतलाम प्रवास की सूचना मेरे बजाय प्रायः नितिन भाई को देते थे। ऐसा कई बार हुआ कि दादा के रतलाम आने की सूचना मुझे नितिन भाई से मिली। उनके पास दादा से जुड़े किस्सों-संस्मरणों का ढेर है। श्री नितिन वैद्य सम्प्रति भारतीय जीवन बीमा निगम की, इन्दौर नगर शाखा क्रमांक-3 में मुख्य प्रबन्धक के पद पर कार्यरत हैं। वे मोबाइल नम्बर 97177 77911 पर उपलब्ध हैं।    


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