दादा से मैंने घर छोड़ने का कारण पूछा। वे जरा से मद्धे पड़ गये। उन्होंने बताया - ‘मेरे पिता तब के पटवारी थे और मुझसे बड़े तीनों भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन आदि की व्यवस्था शहरी व्यवस्था थी। मुझे चौथी सन्तान के तौर पर नयागाँव में अपनी माँ के साथ रहना पड़ता था और मेरा मुख्य काम था अपने परिवार के ढोर चराना तथा पटवारी पिता की खेती-बाड़ी देखना। खेती में मेरा मन लगता नहीं था और खेती सारी पड़त होती जा रही थी। पिता जब नयागाँव में पटवारी थे तब किसानों पर उन्होंने जो-जो जुल्म और ज्यादतियाँ की थीं उनका बैर गाँववाले मुझसे और मेरे द्वारा रक्षित खेती का नुकसान करके निकालते थे। परिणाम यह होता था कि मैं न तो पढ़ पाता था और न बराबर खेती ही कर पाता था। उम्र भी तब मेरी क्या थी? खेती के लिए भी एक विशेष उम्र चाहिए। वह उम्र मैं कहाँ से लाता? पटवारी का बेटा था सो मेरा अहम् मुझे गाँववालों से अलग रखता ही था और पढ़ाई-लिखाई में उपेक्षित रहा सो अपने भाई-बहनों से मैं बराबर ईर्ष्या करता था। इस वातावरण ने मुझे बुरी तरह कुण्ठित कर दिया और मैं गाँव मैं ‘शिकायतों का सूरमा’ बन गया। आज इसको पीटा तो कल उससे पिटा। बाहर रहता तो गाँव के लोग पीटते और घर में जाता तो माँ रणचण्डी बनकर मारने दौड़ती। मेरी शिकायतें उज्जैन जातीं और वहाँ से बड़े भाई या पिता जब भी आते तो शिकायतों का अम्बार उनके सामने लगा दिया जाता था। नतीजा यह हुआ कि पिट-पिटकर मैं बागी हो गया। मैंने तय कर लिया था कि मैं घर छोड़ जाऊँ। पर जाऊँ कैसे? ऐसे अँधेरे में एक किरन ने मुझमें उजाला भर दिया। नयागाँव में रामदेवजी का एक चबूतरा है। रामदेवजी देहातों में रामा पीर के नाम से पूजे जाते हैं और राजस्थान का यह महापुरुष पिछड़ों का व्यापक उपास्य है। राजस्थान के रूनीजा नामक स्थान पर रामदेवजी का मूल तीर्थ है और रूनीजा की ओर जनेवाले और वहाँ से आनेवाले यात्रीगण एकाध रात नयागाँव में हमारे रामदेवजी के चबूतरे पर जरूर गुजारते थे। यह चबूतरा और वहाँ आनेवाली भजन मण्डलियाँ मेरे लिये परिवार बन गई थीं। मेरा अधिकांश समय इनमें गुजरा करता था। यहाँ तक कि मैं पटवारी का बेटा होने के बावजूद इन टोलियों के लिए अपने ही गाँव में से घर-घर से रोटियाँ माँगकर लाता था और वहाँ पड़े रहने वाले कोढ़ी-कंगलों और यात्रियों को ये रोटियाँ बाँटा करता था। इसकीे भीे भरपूर सजा मुझे माँ की ओर से मिलती थी। माँ मुझे ‘मँगता-मँगता’ कहकर खूब मारती थी। माँ के सामने उसकी कुल-मर्यादा और मेरे पिता कीे पद-गरिमा का प्रश्न था और मेरे सामने रामदेवजी की, गीत गाती श्रद्धालु टोलियाँ और चबूतरे पर पड़े कोढ़ी-कंगले थे। रामदेवजीे के गीतों में जगह-जगह हिंगलाज माता का वर्णन आता था और यात्रीगण भी वहाँ की यात्रा के लिए प्रेरक बातें किया करते थे। मैंने मन ही मन यह संकल्प किया कि चाहे जो भी हो, मैं भी हिंगलाज माता के दर्शन करूँगा। इधर तो यह संकल्प और उधर माँ की मारपीट, पिता की प्रताड़ना, भाई का भयानक व्यवहार! मेरा मानस सब तरह से बागी हो चला था। इस संकल्प ने मुझे एक सात्विक प्रेरणा दी और मैंने हिंगलाज माता का नाम लेकर नयागाँव छोड़ने का निर्णय ले लिया। यह निर्णय लेते समय मैं केवल दूसरी कक्षा तक पढ़ा-लिखा था। यह परीक्षा भी मैं सन् 1922 तक दे चुका था और बाद का सारा समय खेती तथा मजदूरी में ही बीत रहा था। मैंने जैसा आपको बताया यह फैसला करते समय मेरी उम्र बहुत कच्ची थी और सन् 1930 की ही पूर्णिमा का दिन था।’
मैंने सवाल किया--‘दादा, आप अकेले चले या आपके साथ और भी कोई था? कृपया यह भी बताइयेगा कि यह हिंगलाज माता कहाँ है?’
‘हिंगलाज माता नाथ पंथियों और गुसाइयों का महत्वपूर्ण धार्मिक और अध्यात्मिक तीर्थ है। राजस्थानी, मालवी और गुजराती गीतों में इस स्थान का वर्णन जगह-जगह आता है। इकतारों और तम्बूरों पर जब ये गीत समवेत स्वरों में गाये जाते हैं तो मैं आज भी बौरा जाता हूँ। बलूचिस्तान और ईरान की सीमा पर हिंगलाज माता का पवित्र मन्दिर आज भी बना हुआ है और यह तीर्थ आज पाकस्तिान में है। हिंगलाज माता की यात्रा रामदेव के अनुयायियों के लिए नितान्त रूप से अनिवार्य मानी जाती है। पता नहीं, आजकल नागपंथी और गुसाई लोग इस तीर्थ की यात्रा कैसे करते हैं और पाकिस्तान स्थित उस मन्दिर की हालत कैसी है। पर मैं जब यह लौ अपने मन में लगाए हुए था तब हिंगलाज माता लाख-लाख लोगों की इष्ट देवी मानी जाती थी और यात्री रास्ते भर गीत गाते-गाते अपनी टोलियाँ लिए हुए इस महातीर्थ की यात्रा पर निकलते थे।
‘घर छोड़ने और हिंगलाजा माता की यात्रा के सपने को साकार करने को में मेरा एक साथी और मुझे मिल गया। मेरे ही गाँव का माँगीलाल खटीक नामक साथी मेरे साथ घर से हवा हो गया। माँगीलाल खटीक जाति का हरिजन है मेरी ही तरह उस समय अपढ़ था। इस समय मैं आपके सामने बी. ए. सी. टी. पास बैठा हूँ। आठ सदस्यों का मेरा परिवार है। सभी लड़के-बच्चे और पुत्र-पुत्रियाँ-बहुएँ आदि सुसंस्कृत और पढ़े-लिखे हैं। कुछ तो नौकरियों में भी लग गए हैं पर माँगीलाल तब भी अपढ़ था और आज भी अपढ़ है। यात्रा में इसने जो कुछ किया, भुगता, वह तो बाद में बताऊँगा इतना अभी ही सुन लो कि वह कुछ दिनों पूर्व पुलिस में सिपाही था और अब नौकरी छोड़ कर बकरियाँ चराता है और मन्दसौर में ही रहता है। यदा-कदा मिल भी जाता है और चूँकि मेरा परिवार अब स्थायी रूप से मन्दसौर में ही रहता है तो आज भी हम मिलते हैं और उसी संगाती-भाव से मिलते हैं और मन-ही-मन सब समझ जाते हैं।
‘घर से भागती बेला रात के साढ़े ग्यारह या बारह बजा होगा। हल्की-हल्की सर्दियाँ थीं और हमारे गाँव के पास के खेतों में ऊँची-ऊँची जुवारें खड़ी थीं। पूनम का चाँद पूरी जवानी पर था और कच्ची उम्र के हम दोनों भगोड़े कच्ची जुवार के खेतों में छिपते-छिपाते पक्का संकल्प लेकर पास के तीन-चार फर्लांग दूर स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे। रास्ता हमने घर से ही छोड़ दिया था। माँगीलाल मुझसे उम्र में साल-दो साल बड़ा था और वही मेरा नेता था। यह यात्रा उसके संरक्षण में मुझे करनी थी। पैसे के नाम पर मेरी जेब में एक पाई भी नहीं थी। कुल चार-छः पैसे पास थे वे भी मैं घर हो छोड़ आया था। कपड़े कहने भर को थे। बदन पर एक बण्डी थी और टाँगों में लँगोटीनुमा एक अँगोछा फँसा हुआ था। रात के सन्नाटे में हमने महसूस किया कि मेरे भाई ने मेरी खोजबीन शुरु कर दी है और गाँव के लोग आवाजें देते हुए स्टेशन की ओर बढ़ रहे हैं। हमने प्लेटफार्म को चोरी से पार किया और पटरी के उस पार, तैयार खड़ी गाड़ी में हम दोनों धड़कता दिल और डरावना वातावरण लेकर बैठ गए। गाड़ी रतलाम की तरफ चल पड़ी। मैंने चाँदनी में देखा कि हमको ढूँढने वाले निराश वापस लौट गए। मैंने केसरपुरा स्टेशन छोड़ा उस समय न तो आँख में आँसू आए, न मुझे घर का कोई मोह लगा। एक मुक्ति की साँस ली और मैंने यात्रा शुरु कर दी। हम दोनों ही बिना टिकट थे। माँगीलाल मुझे शुरु से ही विचलित लगा और कभी-कभार यह विचार मन में आता कि यह भला आदमी कहीं मुसीबत नहीं बन जाये।
किताब के ब्यौरे -
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी
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