‘कोई तो समझे’ की पहली कविता
यह कविता संग्रह
(स्व.) श्री संजय गाँधी को
समर्पित किया गया है।
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे
क्या कहा अँधेरा जीत गया?
क्या कहा उजाला हार गया?
क्या कहा किरण के सारे ही
कुनबे को लकवा मार गया?
(स्व.) श्री संजय गाँधी को
समर्पित किया गया है।
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे
क्या कहा अँधेरा जीत गया?
क्या कहा उजाला हार गया?
क्या कहा किरण के सारे ही
कुनबे को लकवा मार गया?
नहीं, यह झूठ बात है,
साजिश है, मक्कारी है
इस पीढ़ी को आवारा कहना
गुस्ताखी है, गद्दारी है।
हाथों में पत्थर, ओठों पे नारे
सड़कों पे आ गये क्यों ललते अंगारे
हाय राम! कोई विचार तो करे
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
नागफणी को कहाँ हक है, नोचे नन्दन को?
नागराज को कहाँ हक है, बेचे चन्दन को?
किसने हक दिया मावस को, पूनम की बदनामी का?
किसने हक दिया पतझर को, कोंपल की नीलामी का?
पतझर की पूजा कोंपल को गाली
बन्ध्या नहीं हैं ये फुलवन्ती डाली
(पर) माली-सा कोई व्यवहार तो करे?
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर.....
बलिदानों का अर्थ पूछते, वे बलिदानी से
इस तरुणाई का पुण्य जिन्होंने, धोया पानी से
किसने छोड़ा इन तीरों को, कुटिल कमानों से?
पूछ रही है घायल पीढ़ी, परम सयानों से
पीठों पे परबत पेटों में जंगल
आँखों में बालू और पाँखों में दलदल
इस जीवट से कोई दुलार तो करे
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे ।
हाथों में पत्थर.....
जब आँगन में अन्यायों का, केवल पोषण हो
और भविष्य के वर्तमान का, केवल शोषण हो
तब फिर कैसा भी अतीत हो, सब बेमानी है
हमसे ज्यादा दारुण किसकी, रामकहानी है?
नारे ही नारे, वे भी कुँवारे
दो-चार सपने, वे भी बिचारे
(इन) सपनों से आँखें कोई चार तो करे
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर.....
क्यों कर है ये घोर निराशा, कोई तो समझे
आशा, भाषा या अभिलाषा, कोई तो समझे
इन लावे की नदियों का कोई, उद्गम तो ढूँढे
(इस) महाध्वंस के मन्द्र षड़ज का पंचम तो ढूँढे
डमरू की डिमडिम ताण्डव के तोड़े
कोई इन जुलूसों के रस्तों को मोड़े
(इन) ज्वारों पे कोई आभार तो करे
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर.....
क्या करते हो रोज समीक्षा, जड़ अनुशासन की
सिंहासन की नहीं यहाँ, पूजा है आसन की
जी, खूब पता है हमको भी, ये देश हमारा है
हाँ-हाँ, यह तुमसे भी ज्यादा, ये हमको प्यारा है
तुमने बनाया और हमने मिटाया
(पर) जिसने हमें ये पलीता थमाया
(कोई) उस पर जरा-सा प्रहार तो करे
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे
हाथों में पत्थर.....
सिवा हमारे, अँधियारे को, कौन जलायेगा?
सिवा हमारे, काम देश का, कौन चलायेगा ?
सिवा हमारे, संघर्षों को, कौन नचायेगा?
सिवा हमारे, इस बगिया को कौन बचायेगा?
(पर) कोई तो समझे रे, कोई तो जाने
क्यों कर खुले हैं ये जलते दहाने
इस ज्वाला का कोई सिंगार तो करे
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर.....
इस लाल किले की दीवारों से, प्रश्न जरा-सा है
इस माँ संसद के गलियारों से, प्रश्न जरा-सा है
क्या यौवन के नव सपनों का, भाष्य नहीं होगा ?
या तो हाँ कह दो या कह दो, कभी नहीं होगा
(तो) आगे की सूझे, कुछ तय करें हम
मरना ही हो तो जी के मरें हम
(और) सामाँ सफर का तैयार तो करें
कोई इन अंगारों से प्यार तो करे।
हाथों में पत्थर.....
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संग्रह के ब्यौरे
कोई तो समझे - कविताएँ
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल
एकमात्र वितरक - साँची प्रकाशन, भोपाल-आगरा
प्रथम संस्करण , नवम्बर 1980
मूल्य - पच्चीस रुपये मात्र
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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