पावती सहित पंजीकृत डाक से
24 मई 2010, सोमवार
द्वितीय वैशाख शुक्ल एकादशी, 2067
प्रति,
श्रीयुत हरीशजी बी. त्रिपाठी,
उच्च न्यायालय वकील,
63/1 सुमित अपार्टमेण्ट,
स्नेहलतागंत,
इन्दौर
महोदय,
आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा पिता श्रीयुत लक्ष्मीनारायणजी शर्मा निवासी 195, सुखदेव नगर एक्स.-1, एरोड्रम रोड़, इन्दौर के प्रतिबोधन एवम् निर्देशानुसार आपके द्वारा भेजा गया सूचना पत्र दिनांक 17-05-2010 प्राप्त हुआ।
इसके उत्तर में मैं, श्रीमती साधना पति श्रीयुत लक्ष्मीनारायणजी शर्मा, निवासी 8, राजस्व कॉलोनी, रतलाम के प्रतिबोधन एवम् निर्देशानुसार, वकील श्रीयुत जय प्रकाशजी भट्ट, 19 जाटों का वास, रतलाम द्वारा मुझे भेजे गए सूचना पत्र दिनांक 11.5.2010 के उत्तर में, मेरे द्वारा उन्हें भेजे गए मेरे पत्र दिनांक 18.05.2010 की प्रतिलिपि संलग्न कर रहा हूँ।
आपके और श्रीयुत भट्ट के सूचना पत्रों की अधिकांश बातें समान हैं, इसलिए आप श्रीयुत भट्ट को भेजे मेरे संलग्न पत्र को ही, अपने सूचना पत्र का उत्तर मान लें।
उस पत्र में वर्णित बातों के अतिरिक्त मुझे निम्नानुसार कुछ बातें और कहनी हैं -
पहली बात तो यही कि समूचे विवाद का आधारभूत और प्राथमिक कारण, आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा की वह प्रस्तुति है जो दिनांक 03 मई 2010 को नईदुनिया में प्रकाशित हुई है। सुश्री गायत्री शर्मा को लिखा, दिनांक 03 मई 2010 वाला मेरा पत्र इस विवाद का कारण बिलकुल ही नहीं है।
दूसरी बात यह कि मैंने जो कुछ भी किया, वह किसी प्रतिद्वन्द्विता अथवा बैर भाव से नहीं किया क्योंकि मैं तो आपकी पक्षकार से सर्वथा अपरिचित हूँ।
तीसरी बात यह कि (जैसा कि मैंने श्रीयुत जय प्रकाशजी भट्ट को लिखे मेरे, दिनांक 18 मई 2010 वाले पत्र में कहा है) मेरा ‘आशय’ (मंशा) क्षणांश को भी खराब नहीं रहा। इसका प्रमाण यही है कि आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा और उनकी माताजी श्रीमती साधना के कहने/चाहने से पहले ही मैं, अपने ब्लॉग पर इस प्रकरण में अपनी शर्मिन्दगी और आत्म सन्ताप प्रकट कर चुका था जिसे आपके अनुसार देश-विदेश के लाखों, करोड़ों इण्टरनेट उपयोगकर्ता, मेरी बिना शर्त क्षमा याचना से पहले ही पढ़ चुके थे। मुझसे पहले और मुझसे बेहतर आप खुद जानते हैं कि किसी भी मामले में ‘आशय’ (मंशा) ही प्राथमिक, आधारभूत और सर्वोपरि निर्णायक कारक होता है।
निम्नांकित कुछ बातों पर भी मैं आपका ध्यानाकर्षण कर रहा हूँ जो मेरे ‘आशय’ को और अधिक स्पष्ट करती हैं।
किसी व्यक्ति पर किए गए अत्याचार/अनाचार का और उससे उपजी पीड़ा का प्रकटीकरण, सम्बन्धित व्यक्ति स्वयम् कर लेता है। किन्तु राष्ट्रीय अस्मिता और भावनाओं से जुड़े अमूर्त विषयों के साथ हुए अनाचार/अत्याचार का, उससे उपजी पीड़ा का प्रकटीकरण वे विषय खुद नहीं कर सकते क्योंकि वे ‘व्यक्ति’ नहीं, अमूर्त, अशरीरी होते हैं। उस दशा में उन विषयों से जुड़े वे लोग बोलते हैं जो ऐसे अनाचारों/अत्याचारों से भावना के स्तर पर आहत और पीड़ित होते हैं। धार्मिक प्रकरणों से जुड़े ऐसे विषय आए दिनों सामने आते रहते हैं। जिस धर्म के साथ अनाचार/अत्याचार होता है, उस धर्म के अनुयायी, उसमें विश्वास करनेवाले लोग ही बोलते हैं। राष्ट्रीय ध्वज की अवमानना से जुड़े अनेक प्रकरण मिल जाएँगे जिनमें, राष्ट्र ध्वज की अवमानना से भावनाओं के स्तर पर आहत लोगों ने न्यायालयों के दरवाजे खटखटाए।
हिन्दी के साथ किए जानेवाले/ किए जा रहे अत्याचार/अनाचार का मामला बिलकुल ऐसा ही है। ‘हिन्दी’ कोई ‘व्यक्ति’ नहीं जो अपने पर हुए अनाचार/अत्याचार का और उससे उपजी पीड़ा का वर्णन कर सके। वह सब तो हिन्दी प्रेमी ही करेंगे।
‘हिन्दी’ ‘एक भाषा मात्र’ नहीं है। भारतीय सन्दर्भों में वह ‘राष्ट्र भाषा’ है जो सीधे-सीधे ‘राष्ट्रीय अस्मिता’ और ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान’ से जुड़ी हुई है। इसीलिए, राष्ट्र ध्वज में ‘थेगला’ लगाना और हिन्दी में अकारण, बलात् अंग्रेजी शब्दों का घालमेल करना, हिन्दी का अंग्रेजीकरण करना, हिन्दी को हिंग्लिश बनाना, एक समान है। यह राष्ट्रीय दुर्भाग्य ही है कि ‘बोलचाल की हिन्दी’ की कोई सुस्पष्ट (और विशेषतः विधि सम्मत) परिभाषा उपलब्ध नहीं होने की सुविधा का लाभ वे समस्त लोग उठा रहे हैं जो हिन्दी को हिंग्लिश बना रहे हैं और वे समस्त लोग निशाने पर लिए जा रहे हैं जो इस प्रवृत्ति का प्रतिकार करने का ‘मूर्खतापूर्ण दुस्साहस’ कर रहे हैं।
यह एक और ‘राष्ट्रीय दुर्भाग्य’ है कि ‘हिन्दी’ आज तक ‘वोट’ से नहीं जुड़ पाई। यदि ऐसा हो जाता तो हिन्दी के साथ छेड़छाड़ करनेवालों की भी वही दशा होती जो धार्मिक विषयों पर छेड़छाड़ करनेवालों की होती है क्योंकि हमारे देश में धार्मिक मुद्दे ‘वोट’ से जुड़ गए हैं। अन्तर केवल एक ही है कि धार्मिक मुद्दों के साथ छेड़छाड़ होते ही वे तमाम लोग मैदान में उतर आते हैं जिनकी दुकानदारी धर्म से चलती है। इसके विपरीत, हिन्दी के साथ छेड़छाड़ होने पर भी वे तमाम लोग अपने मुँह और आँखें बन्द कर लेते हैं जो हिन्दी से अर्थ-यश-लाभ प्राप्त करते हैं और कर रहे हैं।
यहाँ तमिलनाडु की चर्चा समीचीन होगी। तमिलनाडु में ‘हिन्दी-विरोध’ आज भी ‘वोट’ दिलाता है। इसीलिए वहाँ जैसे ही कोई हिन्दी के पक्ष की बात करता है तो हिन्दी-विरोधी सड़कों पर उतर आते हैं। हिन्दी की अस्मिता-रक्षा का जैसा, जितना आग्रह मैं यहाँ कर रहा हूँ, उसका सहस्त्रांश भी मैं, तमिलाडु में, सार्वजनिक रूप से कर दूँ तो मुझे आकण्ठ विश्वास है कि मैं वहाँ से जीवित नहीं लौट पाऊँ। हिन्दी थोपे जाने के विचार मात्र से तमिलनाडु में जान पर बन आती है। यह रोचक और त्रासद विडम्बना ही है कि यहाँ, हिन्दी क्षेत्र में, हिन्दी को हिंग्लिश बनाने को गौरवपूर्ण कारनामा माना जाता है और इस प्रवृत्ति का विरोध करनेवाले प्रताड़ित होते हैं और वे तमाम लोग टुकुर-टुकुर देखते रहते हैं जो हिन्दी के कारण ही पहचान, प्रतिष्ठा, आर्थिक सम्पन्नता और विलासिता के स्तर की सुख सुविधाएँ प्राप्त कर रहे हैं।
अपने सूचना पत्र के चरण-7 में आपने समूचे विषय को ‘रूढ़ स्वरूप’ देने की चेष्टा की है। मैं आपकी इन बातों से असहमत हूँ और अस्वीकार करता हूँ।
किसी व्यक्ति द्वारा कही गई बातों को ‘जस का तस’ प्रस्तुत करने के तर्क के सहारे हिन्दी में, बलात् तथा अकारण अंग्रेजी शब्दों के उपयोग का कोई औचित्य नहीं है। वह तब ही सम्भव है जबकि सम्बन्धित व्यक्ति की कही बातों को ‘उत्तम पुरुष, एक वचन’ में (अर्थात् इनवरटेड कॉमा में) प्रस्तुत किया जाए। ऐसा न होने का एक ही अर्थ होता है कि प्रस्तोता ने कहनेवाले की बातों को अपनी भाषा में प्रस्तुत किया है।
आए दिनों ऐसा होता है कि विदेशी (यथा रुसी, जर्मनी, आस्ट्रेलियाई) राष्ट्राध्यक्ष अथवा समान स्तर के अतिथि हमारे देश में आते हैं। पत्रकारों की बातों का उत्तर वे अपनी मातृ भाषा में देते हैं। किन्तु देश के सारे अखबार उन बातों को, अपनी-अपनी भाषा में ही प्रकाशित करते हैं, अतिथि की मातृभाषा में नहीं।
जैसा कि संलग्न पत्र में मैंने विस्तार से कहा है, आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा ने, श्रीयुत हिंगे की बातों को इनवरटेड कॉमा में प्रस्तुत किया होता तो मैं उन्हें (सुश्री गायत्री शर्मा को) ‘वह पत्र’ लिखता ही नहीं।
जैसा कि मैंने अपने संलग्न पत्र में कहा है, सुश्री गायत्री शर्मा की प्रस्तुति ‘मूल क्रिया’ थी और मेरा पत्र ‘प्रतिक्रिया।’ ‘मूल क्रिया’ (अर्थात् हिन्दी के साथ किए गए अनाचार/अत्याचार) से मुझे हुई पीड़ा की ‘समानानुभति’ कराने की मंशा से ‘प्रतिक्रिया’ व्यक्त की गई, किसी दुराशय अथवा दुर्भावना से बिलकुल ही नहीं। यदि ‘मूल क्रिया’ ही नहीं होती तो भला ‘प्रतिक्रिया’ क्योंकर होती?
इन सारी बातों के परिप्रेक्ष्य में, यह जानते हुए कि मैंने दुराशयतापूर्वक कोई अपराध नहीं किया है, अपने पत्र दिनांक 03.05.2010 की भाषा और शब्दावली के लिए मैं एक बार फिर न केवल आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा से अपितु विश्व के समूचे स्त्री समुदाय से, मेरे समस्त परिजनों, परिचितों, मित्रों, हित चिन्तकों, समस्त ब्लॉगर बन्धुओं से, अपने अन्तर्मन से बिना शर्त खेद प्रकट करता हूँ और क्षमा याचना करता हूँ।
किसी को आहत करना मेरा लक्ष्य कभी नहीं रहा है। यदि मैं किसी को दुखी करुँगा तो भला मैं कैसे सुखी रह सकूँगा? मैं जैसा बोऊँगा, वैसा ही काटूँगा। इन समस्त भारतीय अवधारणाओं में मेरा आकण्ठ विश्वास है।
आपके चाहे अनुसार, यह पत्र भी मैं अपने ब्लॉग ‘एकोऽहम्’ पर प्रकाशित कर रहा हूँ। प्रसंगवश सूचित कर रहा हूँ कि, श्रीयुत जय प्रकाशजी भट्ट को प्रेषित, दिनांक 18.05.2010 वाला मेरा संलग्न पत्र, मेरे ब्लॉग पर ‘मैं बिना शर्त क्षमा याचना करता हूँ’ शीर्षक से, दिनांक 20.05.2010 को प्रकाशित किया जा चुका है जिसे http:/akoham.blogspot.com/2010/05/blogpost_20.html लॉग-ऑन कर पढ़ा जा सकता है। यह पत्र आप तक पहुँचेगा तब तक यह पत्र भी वहाँ प्रकाशित हो चुका होगा और जैसा कि आपने लिखा है, देश, विदेश के लाखों, करोड़ों इण्टरनेट उपयोगर्ता इसे पढ़ चुके होंगे।
इसके अतिरिक्त मैं दिनांक 18.05.2010 वाले अपने पत्र में किया गया अपना प्रस्ताव दोहरा रहा हूँ कि आपकी पक्षकार सुश्री गायत्री शर्मा चाहें तो अपना पक्ष मुझे ई-मेल कर दें। मैं उसे अपने ब्लॉग पर, अविकल स्वरूप में प्रकाशित कर दूँगा।
इस पत्र की प्रतिलिपि उन समस्त महानुभावों भी भेज रहा हूँ जिन्हें पूर्व पत्रों की प्रतिलिपियाँ भेजी थीं।
आपके सूचना पत्र के चरण-9 में तथा सूचना पत्र के अन्त में चाहे अनुसार कोई भी रकम देने का न तो कोई कारण बनता है और न ही मेरे लिए वह सम्भव है।
इस प्रकरण को मैं अपनी ओर से समाप्त कर रहा हूँ और आपसे भी ऐसा ही करने का अनुरोध, आग्रह तथा अपेक्षा करता हूँ। इसके बाद भी यदि आप कोई कार्रवाई करना चाहें तो उसके लिए तो आप स्वतन्त्र हैं ही। उस दशा में वह सब, आप अपने उत्तरदायित्व पर ही करेंगे।
एक बार पुनः समस्त सम्बन्धितों से क्षमा याचना सहित।
भवदीय,
(विष्णु बैरागी)
संलग्न-उपरोक्तानुसार।
प्रतिलिपि -
- श्रीयुत डॉक्टर जयकुमारजी जलज, 30 इन्दिरा नगर, रतलाम-457001 को व्यक्तिगत सन्देशवाहक द्वारा,
- श्रीयुत प्राफेसर सरोजकुमार, ‘मनोरम्’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर,
- श्रीयुत जयदीप कर्णिक, द्वारा-नईदुनिया, 60/61, बाबू लाभचन्द छजलानी मार्ग, इन्दौर-452009
को, डाक प्रमाणीकरण द्वारा प्रेषित।
मेरे दिनांक 18.05.2010 वाले पत्र की प्रतिलिपि मैं आप सबको पहले ही भेज चुका हूँ, इसलिए वह प्रतिलिपि संलग्न नहीं कर रहा हूँ।
(विष्णु बैरागी)
किसी को आहत करना मेरा लक्ष्य कभी नहीं रहा है। यदि मैं किसी को दुखी करुँगा तो भला मैं कैसे सुखी रह सकूँगा? मैं जैसा बोऊँगा, वैसा ही काटूँगा। इन समस्त भारतीय अवधारणाओं में मेरा आकण्ठ विश्वास है।
ReplyDeleteमुझ जैसे दूर बैठे लोग जिन्होंने कभी आपको आमने-सामने देखा भी नहीं है आपकी सदाशयता के बारे में अच्छी तरह जानते हैं और आशा करते हैं कि इस सन्दर्भ में प्रकाशित आपकी पिछली पोस्ट के साथ ही यह बात ख़त्म हो जानी चाहिए थी.
मुझे नहीं लगता कि इस की आवश्यकता थी।
ReplyDeleteयह बिल्कुल ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने अवैध पार्किंग करने या लाल बत्ती का नियम तोड़ कर साफ़ बच जाने के लिए गाड़ी पर 'प्रेस' लिखवा लिया हो. कही ऐसा तो नहीं ये नोटीस भेजने वाले कम समय मे ज्यादा पैसा कमाने के लालच मे है? प्रथम वर्ष विधि के छात्र को भी मालूम है की कानूनन खाना पूर्ति तो आपके पहले सार्वजनिक क्षमा पत्र से ही हो गई है. इस तरह की सदाशयता बनाये रखियेगा, कम ही सही लेकिन कुछ गिनती के लोग तो संतुलन के लिए ज़रूरी है.
ReplyDelete- जनता.
आशा थी कि इस प्रकरण का अंत हो गया होगा, आपके इस पत्र के बाद तो अवश्य ही होना चाहिये।
ReplyDeleteशुभकामनायें।
Kya aap muJhe vo takneek bata skte hai jisse kruti me likha hua hindi me hee post ho ske
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