यह आदमी पागल नहीं तो और क्या है? पागल ही है।
पूरा नाम ओम प्रकाश मिश्रा है। रतलाम का ही रहनेवाला है। हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्रिंसिपल पद से रिटायर हुआ है। कस्बे की दो पीढ़ियों को पढ़ाया है इसने। रतलाम की शायद ही कोई गली ऐसी हो जहाँ इसे जाननेवाले, इसे नमस्कार करनेवाले मौजूद न हों। अन्तरंग हलकों में ‘ओपी’ से सम्बोधित किया जाता है तो कहीं ‘मिश्राजी’ और ‘मिश्रा सर’ से पुकारा जाता है। चार बेटियाँ हैं, चारों के हाथ पीले कर दिए हैं। चारों अपनी-अपनी गृहस्थी में रमी हुई हैं। माथे पर कोई जिम्मेदारी नहीं है। तबीयत भी टनटनाट जैसी ही है। चुस्ती-फुर्ती किसी खिलाड़ी जैसी बनी हुई है। महीने की पहली तारीख को अच्छी-भली पेंशन बैंक खाते में जमा हो जाती है। जरूरतें सब पूरी हो रही हैं। सब कुछ भला-चंगा, ठीक-ठाक चल रहा है लेकिन ये आदमी है कि इसे चैन नहीं पड़ती।
यूँ तो याददाश्त बहुत अच्छी है इस आदमी की लेकिन यह याद नहीं कि उम्र के किस मुकाम पर नाटकों से दोस्ती कर ली। सन् 1977 में एक नाट्य संस्था बनाई। नाम रखा युगबोध। कस्बे के नौजवानों को जोड़ा। खूब नाटक किए और करवाए। कस्बे के, आज के कई नामी-गिरामी लोगों के कोटों के बटन होलों में ‘युगबोध’ का गुलाब आज भी टँगा हुआ है। वे आज भी खुद को गर्व से युगबोध का कलाकार कहते फूले नहीं समाते। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, वे सब अपने काम-धन्धों में लग गए। किसी ने पलट कर युगबोध की ओर नहीं देखा। यह आदमी अकेला रह गया।
लेकिन यह आदमी न तो निराश हुआ और न ही थका। उम्मीद तो जरूर की लेकिन अपेक्षा किसी से नहीं की। यह ‘अपेक्षाविहीनता’ ही इस आदमी की ताकत बनी, बनी रही और बनी हुई है। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के ‘एकला चालो रे’ का ध्वजवाहक बना यह आदमी आज अकेला ही युगबोध को जीवित बनाए हुए है।
युगबोध का यह पागल आदमी सन् 2009 से अनवरत ‘बाल नाट्य शिविर’ लगाए जा रहा है। हुआ यह कि मध्य प्रदेश की ‘अलाउद्दीन खाँ नाट्य अकादमी’ ने 2009 में युगबोध को, पाँच से पन्द्रह वर्ष के बच्चों के लिए एक बाल नाट्य शिविर लगाने का प्रस्ताव दिया। प्रस्ताव में आर्थिक सहयोग का भरोसा भी था। लेकिन वह सहयोग लेने के लिए जिन रास्तों से यात्रा करनी होती है, ‘ओपी’ या तो उन रास्तों से अनजान थे या उन रास्तों पर चल नहीं पाए। सो, अकादमी का आर्थिक सहयोग कागजों से बाहर नहीं आ पाया। लेकिन इस पागल आदमी ने शिविर न तो स्थगित किया न ही निरस्त। निराश होने के बजाय अधिक उत्साह से वह शिविर तो पूरा किया ही, उसके बाद से शिविर को नियमित कर दिया। वह दिन और आज का दिन। बाल नाट्य शिविर का यह ग्यारहवाँ बरस है। ‘ओपी’ नाम का यह पागल आदमी हर वर्ष मई महीने में मैदान में उतर आता है और बच्चों में रम जाता है। किसी से मदद माँगता नहीं। कोई मदद कर दे तो धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाता है।
मैं पूछता हूँ - ‘यह क्या खब्त है? किसी डॉक्टर ने कहा है यह सब करने को? क्यों अपना वक्त, अपना रोकड़ा खरचते हैं? क्यों इतनी मेहनत करते हैं?’ सुनकर ओपी बारीक सी हँसी हँस देते हैं। कहते हैं - ‘यार विष्णुजी! इस मिट्टी ने मुझे क्या नहीं दिया? मुझे तो बनाया ही इस मिट्टी ने! मेरी हर चाहत, हर हरसत इसने पूरी की। मेरी भी तो कुछ जिम्मेदारी है! क्या लेता ही लेता रहूँ? देने का मेरा कोई फर्ज नहीं बनता? वही फर्ज निभाने की कोशिश कर रहा हूँ। और वैसे भी, मुझे कोई व्यसन तो है नहीं! मुझे बस, नाटक आता है। यही मेरा व्यसन है। वही कर रहा हूँ।’ मैं कहता हूँ - ‘आप तो गुरु परम्परा वाले शिक्षक हैं। आप बच्चों को निःशुल्क पढ़ा सकते हैं। उन्हें प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार कर सकते हैं। उसमें आपका पैसा भी खर्च नहीं होगा, मेहनत भी कम लगेगी और घर ही घर में रहते हुए वह सब कर लेंगे।’ ओपी के पास सवाल से पहले जवाब तैयार था - ‘आज की शिक्षा वैसी शिक्षा नहीं रही जैसी आप कह रहे हैं। अब तो शिक्षा बच्चों को रुपये कमानेवाली मशीनें बना रही है। अपने आसपास देखिए, नफरत और प्रतियोगिता के नाम पर शत्रुताभरी प्रतिद्वन्द्विता के सिवाय और कुछ नजर आता है आपको? मनुष्यता खतरे में पड़ गई है। ऐसे में कुल जमा तीन चीजें हैं जो हमें बचा सकती हैं - साहित्य, ललित कलाएँ और खेल। ये तीनों ही सारे भेद-विभेद मिटा कर आदमी को आदमी से जोड़ती हैं। प्रेम, भाईचारा और एकता की जड़ें हैं ये तीनों। ये बच्चे तो मिट्टी के लोंदे हैं। इन्हें जैसा बनाओ, बन जाएँगे। इस समय इनमें प्रेम, भाईचारा, मनुष्यता, नैतिकता जैसे भाव-बीज डाल देंगे तो उनकी फसल लहलहा जाएगी। ये बच्चे बड़े पेकेजवाले प्रोफेशनल बनें न बनें, बेहतर इंसान जरूर बनेंगे। आज हमें इंसानों की जरूरत है। मैं उसी इंसानियत की सेवा का अपना फर्ज पूरा करने की कोशिश कर रहा हूँ।’ मैं निरुत्तर हो जाता हूँ।
‘हम अंग्रेजों के जमाने के मास्टर हैं।’ बच्चों को सीखाते समय ‘ओपी’ कभी-कभी छड़ी जरूर उठा लेते हैं लेकिन हवा में ही लहराते रहते हैं।
अब तक के दस बरसों में डेड़ सौ से भी अधिक बच्चों को नाटक से जोड़ चुके ‘ओपी’ इस बरस भी अपनी फर्ज अदायगी कर रहे हैं। अपने उसी चिरपरिचित अन्दाज में। शिविर शुरु होने से पहले एक सामान्य विज्ञप्ति जारी कर देते हैं और भूल जाते हैं। अपने अच्छे-खासे परिचय क्षेत्र में खबर कर देते हैं। पन्द्रह-बीस बच्चे हर बरस जुट जाते हैं। आशीष दशोत्तर नियमित रूप से बच्चों के लिए हर बरस दो नाटक लिखता है। नाटक सामाजिक सन्देश लिए होते हैं। आशीष की कलम को मैं हर बरस सलाम करता हूँ। हर बार लगता है, ये नाटक गए बरस के नाटकों से बेहतर हैं। ओपी इन नाटकों पर खूब मेहनत करते हैं। डाँट-फटकार, पुचकार, सख्ती, नरमी सब साथ-साथ चलते हैं। शिविर का समापन दोनों नाटकों की प्रस्तुतियों से होता है। इन शिविरों की वजह से आशीष की कलम ने बच्चों के लिए अब तक लगभग बीस नाटक तैयार कर दिए हैं - एक से एक उम्दा। आशीष को तो पता ही नहीं होगा कि, बाल साहित्य के अकाल वाले इस समय में उसने कितना बड़ा काम कर दिया है।
आशीष दशोत्तर
अन्तर्मुखी और लक्ष्य केन्द्रित ‘ओपी’ को अपने शिविर से मतलब रहता है। प्रचार-प्रसार की कोई लालसा नहीं। हम दो-चार लोग अखबारवालों से ‘भाई-दादा’ करके, हाथा-जोड़ी करते हैं, शिविर का महत्व बताते हैं तो वे भी उदारतापूर्वक कृपा प्रसाद बरसा देते हैं। स्थानीय टीवी चैनलों की रुचि बिलकुल नहीं होती।
ऐसे उदासीन समय और समाज में ओम प्रकाश मिश्रा नाम का यह आदमी, अकेला ही पठार पर अलाव जलाने की, रेगिस्तान में पौधे रोपने जुगत में लगा हुआ है।
यह आदमी पागल नहीं तो और क्या है? पागल ही है।
लेकिन याद रखें - यह दुनिया पागलों ने ही बदली है।)
लेकिन याद रखें - यह दुनिया पागलों ने ही बदली है।)
-----
ऐसे पागलों की वजह से बहुत कुछ बचा हुआ है। नमन।
ReplyDeleteबहुत खूब आदरनीय | आपके ब्लॉग पर आकर एक विभूति के बारे में जानकर जो आनन्द हुआ उसे शब्दों में नहीं लिख सकती | ओपी सर के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा | ऐसे कला और साहित्य साधकों की वजह से ही कला संस्कृति फल-फूल रही है | आप दोनों को सादर प्रणाम और हार्दिक शुभकामनायें |
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-06-2019) को "पितृत्व की छाँव" (चर्चा अंक- 3369) (चर्चा अंक- 3362) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
पिता दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteकुल जमा तीन चीजें हैं जो हमें बचा सकती हैं - साहित्य, ललित कलाएँ और खेल। ये तीनों ही सारे भेद-विभेद मिटा कर आदमी को आदमी से जोड़ती हैं। प्रेम, भाईचारा और एकता की जड़ें हैं ये तीनों। ये बच्चे तो मिट्टी के लोंदे हैं। इन्हें जैसा बनाओ, बन जाएँगे। इस समय इनमें प्रेम, भाईचारा, मनुष्यता, नैतिकता जैसे भाव-बीज डाल देंगे तो उनकी फसल लहलहा जाएगी।
ReplyDeleteबहुत सही कहा है ओपी सर ने, उन्हें, आशीष जी व आपको बहुत बहुत बधाई, यह सुंदर प्रयास इसी तरह चलता रहे.
Literature, Arts and, Culture
ReplyDeleteIs the Real Soul Of a Good Person .
Motherland is the Real Mother of a Human.
So Do the best for Own Soul
Give the best for Own Motherland.
Help Others and Got from Others.
Musavvir aur butgar dono ke baare mein padh kar achambhit aur stabhdh hoon
ReplyDelete