पत्नी की मृत्यु, मृत्यु नहीं, मृत्यु-महोत्सव


नीमचवाले कमल भाई मित्तल से मेरा सम्पर्क शून्यवत है। उनसे एक बार ही आमना-सामना और मिलना हुआ है। लेकिन कमल भाई और दादा श्री बालकवि बैरागी के ‘घरोपे’ के बारे में अपने मिलनेवालों से खूब सुना है। उन्हीं कमल भाई ने, दादा से जुड़ी अपनी कुछ यादें मुझे लिख भेजी थीं। इन यादों में दादा के ‘लोक-आचरण’ के जाने-अनजाने कुछ पक्ष उजागर होते हैं। कमल भाई की इन्हीं यादों को, अधिकाधिक उन्हीं के ‘कहन’ में रखने की कोशिश की है। यूँ कहिए कि कमल भाई ने कुछ ईंटें भेजीं। मैंने उन ईंटों की दीवार बनाने के लिए रेती-सीमेण्ट से उन्हें जोड़ा। लेकिन दीवाल पर पलस्तर नहीं किया ताकि पढ़ते समय ईंटें ही नजर आएँ, रेती-सीमेण्ट नहीं। ये संस्मरण तीन किश्तों में हैं। यह दूसरी किश्त है। - विष्णु बैरागी।  

 

ताईजी के निधन पर दादा ने हम सबको चौंकाया। हतप्रभ किया। ताईजी के निधन की खबर पाकर हम कुछ लोग (बाबू सलीम, ओम शर्मा, अनिल चौरसिया, माधुरी चौरसिया, मुकेश कालरा, डॉक्टर पृथ्वी सिंह वर्मा, डॉक्टर लाल बहादुर चौधरी, मैं आदि) दादा के निवास पर पहुँचे। 

अपनी जीवन संगिनी का निधन किसी भी आदमी के लिए बहुत बड़ा, असहनीय झटका, गहरा सदमा होता है। हम सब तो यह सोचकर परेशान थे कि दादा तो सारी दुनिया को धीरज बँधाते हैं, ढाढस देते हैं। उन जैसे प्रबुद्ध और अनुभवी-परिपक्व आदमी को हम क्या कहेंगे? कैसे सांत्वना देंगे? हम सब गमगीन थे लेकिन दादा पूरी तरह शान्त, सहज, सामान्य थे। उनके चेहरे पर दुःख का एक छींटा भी नहीं था। हम लोगों की शकलें देखकर दादा ने दृढ़ता से कहा - ‘यह सुशील का मृत्यु-महोत्सव है। कोई रोना-धोना नहीं होगा, कोई शोक नहीं मनाएगा। ऐसा कुछ भी होगा तो सुशील की आत्मा को कष्ट होगा।’ 

मुझे आज भी ताज्जुब होता है कि गम्भीर विपदा के समय भी दादा न केवल खुद को सम्हाले हुए थे बल्कि हम सबको भी सम्हाल रहे थे! 


पत्नी-सेवा, स्वयम्-सेवा

यह तब की बात है जब ताईजी बीमार थीं। (बहुत बाद में मालूम हुआ था कि उन्हें ‘एप्लास्टिक एमीनिया’ नामक गम्भीर रोग था।) ताईजी और दादा सावधान तो बराबर रहते थे लेकिन बीमारी के कारण उन दोनों को कभी असहज और तनावग्रस्त नहीं देखा। ताईजी सदैव मुस्कुराती नजर आती थीं। यह सहजता और मुसकान ताईजी के अन्तिम समय तक उनके चेहरे पर बनी रही। 

एक दिन, ताईजी को उल्टी हुई। दादा ने सहायता के लिए न तो आसपास देखा, न ही किसी को आवाज लगाई। उन्होंने खुद ही, सहज भाव से सफाई कर दी। यह बात जब मुन्ना भैया और गोर्की भैया (दादा के दोनों बेटों) को मालूम हुई तो ऐसी व्यवस्था कर दी कि दादा और ताईजी कभी इस तरह अकेले न रहें। इस घटना के बाद, घर का कोई न कोई सदस्य दादा-ताईजी के पास हमेशा, हरदम बना रहता था। 


अग्रवाल वाटिका में तिरंगा फहराने की परम्परा के जनक

नीमच की अग्रसेन वाटिका में प्रति वर्ष 26 जनवरी और 15 अगस्त को राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ फहराया जाता है। इस परम्परा की शुरुआत दादा ने ही की थी।

यह सन् 2002 की बात है। उस वर्ष मैं अग्रवाल समाज का सचिव था। अग्रवाल वाटिका का शुभारम्भ होना था। ‘समाज’ की इच्छा हुई कि यह शुभारम्भ वैदिकजी (जाने-माने लेखक, चिन्तक, विचारक श्री वेद प्रताप वैदिक) के हाथों हो। बहुत कम लोग जानते होंगे कि वैदिकजी, अग्रवाल समाज से ही हैं। वैदिकजी और दादा के आत्मीय सम्बन्धों की जानकारी सबको है। वैदिकजी को नीमच बुलाने का निवेदन दादा से किया। दादा ने फौरन हीे वैदिकजी को फोन लगाया। इधर दादा का कहना हुआ और उधर वैदिकजी ने तत्काल ही नीमच आने की हाँ इस तरह कर दी मानो उन्हें पहले से ही इस निमन्त्रण की जानकारी और प्रतीक्षा थी।

वैदिकजी के हाथों अग्रवाल वाटिका का शुभारम्भ हुआ। इस प्रसंग पर, ‘गोमाबाई नेत्रालय’ के संस्थापक श्री जी. डी. अग्रवाल साहब का नागरिक अभिनन्दन भी किया गया। अपने सम्बोधन में दादा ने नीमच के अग्रवाल समाज से वचन लिया कि प्रति वर्ष 26 जनवरी और 15 अगस्त को अग्रवाल वाटिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाएगा। तब से नीमच का अग्रवाल समाज यह परम्परा किसी अनुष्ठान की तरह, धूमधाम से बराबर निभा रहा है। 

बाकी सबकी तो मुझे नहीं मालूम लेकिन मेरे लिए तो हर साल ये दोनों प्रसंग राष्ट्रीय पर्व के साथ-साथ दादा को याद करने के प्रसंग भी बन गए हैं। 


आतंकित कर देनेवाली समय की पाबन्दी

दादा समय के बड़े ही पाबन्द थे। इतने पाबन्द कि उनकी इस आदत से अनजान लोग, आतंकित होने की सीमा तक चौंक जाते थे। वे, निमन्त्रण-पत्र में दिए समय पर पहुँच जाया करते थे। हालत यह होती थी कि आयोजन की तैयारियाँ तो छोड़िए, खुद मेजबान ही तैयार नहीं मिलता था। 

अग्रसेन भवन में अग्रवाल समाज के एक कार्यक्रम में दादा, विधायकजी और कलेक्टर श्री एस. एस. बंसल की उपस्थिति में एक सम्मान समारोह आयोजित था। निमन्त्रण-पत्र में छपे समय पर दादा पहुँच गए लेकिन विधायकजी और कलेक्टर साहब के अते-पते नहीं थे। मंच तैयार नहीं था और हॉल लगभग पूरा खाली था। मैं अग्रवाल समाज का सचिव था। मैं समय से पहले ही पहुँच गया था। बड़ी मुश्किल घड़ी थी। दादा लौटने लगे। मैं ही जानता हूँ कि दादा को रोकने के लिए उस दिन दादा से क्या-क्या अनुनय-विनय नहीं करनी पड़ी और क्या-क्या नहीं सुनना पड़ा। भाग-दौड़ करके, जैसे-तैसे पन्द्रह मिनिट में मंच तैयार करवाया, इधर-उधर फोन लगाये फिर भी विधायकजी और कलेक्टर साहब को आने में दस मिनिट लेट हो ही गए। मेरे प्रेम-भाव से दादा मंच पर आये और अपनी बारी आने पर, अपने सम्बोधन में हम आयोजकों की ओर से, खूब परिहास करते हुए, विलम्ब से आने के लिए अतिथियों की ‘क्लास’ ले ली। 

मुझे दादा के साथ एक शादी समारोह में जाने का मौका मिला। अपनी आदत के विपरीत दादा उस दिन लगभग बीस मिनिट देर से पहुँचे तो वहाँ कोई तैयारी नहीं थी। और तो और खुद घर-धणी मौके पर मौजूद नहीं था। पाण्डाल में भोजन की टेबलें लग रही थीं और मंच की सजावट चल रही थी। मेजबान के मित्रों ने जब दादा को सदल-बल देखा तो भागम-भाग मच गई। घर-धणी को खबर की तो बेचारा आधा-अधूरा तैयार हुआ, भागते हुए आया और क्षमा-याचना करते हुए बोला कि ऐसे आयोजन सामान्यतः दिए गए समय से घण्टा-डेड़ घण्टा देर से ही शुरु होते हैं इसलिए यह स्थिति बनी। दादा ने बड़ी सहजता से कहा - ‘कोई बात नहीं। तुम तुम्हारा काम करो। मैं कुछ देर यहीं, मण्डप में, इधर-उधर घूम लेता हूँ।’ 

दादा कहते थे कि हम सबको समय का पाबन्द होना चाहिए। भले ही हम शाम छह-सात बजे के बजाय रात आठ बजे का समय दें लेकिन आठ बजे याने आठ बजे। दादा की ऐसी बातें सुन-सुन कर और उनके साथ लिए अनुभवों के बाद मैंने कार्यक्रमों में ‘टाइम मेनेजमेण्ट’ का सबक लिया। अब मैं आधा-पौन घण्टे का मार्जिन लेकर चलता हूँ और आमन्त्रित अतिथियों से समयबद्धता का आग्रह करता हूँ। फिर भी कहता हूँ कि जब मैं फोन करूँ तभी घर से निकलें।


भीड़ में अकेलेपन का अहसास

हम कुछ लोग, अनिल चौरसिया, डॉक्टर पृथ्वीसिंह वर्मा, ओम शर्मा, मुकेश कालरा, बाबू सलीम और मैं उन लोगों में शरीक थे जो दादा से मिलने नियमित रूप से जाते थे। उम्र में हम सब दादा से छोटे थे। ऐसा कई बार हुआ कि हमसे बातें करते-करते दादा अचानक ही अनमने हो जाते थे। कहते थे - ‘मैं जिसके काँधे पर सिर रखकर अपना दुःख बाँट सकूँ ऐसे, शहर में ऐसे, मेरी उम्र के या मुझसे बड़े गिनती के लोग रह गए हैं।’ हममें से किसी के पास दादा की इस बात का जवाब नहीं होता था। हम चुपचाप सुन लेते थे। अपनी बात के जवाब में हमारे सूने चेहरे देख कर दादा फौरन जोरदार ठहाका लगाकर अपने मूल स्वभाव में आ जाते थे। दादा की यह दशा और व्यवहार हम सबको चकित करता था।

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संस्‍मरणों की पहली किश्‍त यहॉं पढिए

संस्‍मरणों की तीसरी/अन्तिम किश्‍त यहॉं पढिए




नीमच में, दादा के परम्-आत्मीय और पारिवारिक, भरोसेमन्द बने रहे श्री कमल भाई मित्तल (चित्र में दाहिने) अपने छोटे भाई प्रवीण मित्तल (चित्र में बाँये) के साथ ‘मित्तल जनरल स्टोर्स’ के नाम से किराना और जनरल आयटमों का व्यापार करते हैं। नीमच के तिलक मार्ग पर, जाजू भवन के पास, दिगम्बर मांगलिक भवन के ठीक सामने, बालाजी मन्दिर के बाहर इनकी दुकान है। इन्हें नीमच के व्यापारी समुदाय और अग्रवाल समाज में पहली पंक्ति में जगह हासिल है। वे मोबाइल नम्‍बर 94240 36448 तथा 70004 65156 पर उपलब्‍ध हैं।


2 comments:

  1. सुंदर मन को छू लेनी वाली स्मृतियाँ हैं। हार्दिक आभार साझा करने हेतु।

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    1. ब्‍लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी कने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।

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