संगी की प्रतीक्षा में बाबू



यह चित्र, मेरे सामने रहने वाले बाबू का है ।


मुझे बिस्तर पर पड़े आज नौंवाँ दिन है । दो-तीन दिनों से 'कामचलाऊ काम-काज' शुरु किया है । मेल बाक्स खोलना, आवश्‍यक सन्देशों के उत्तर देना, जी हो गया तो (ई-मेल से मिले) चिट्ठों पर टिप्पणी कर देना । चिकित्सक कहते हैं - ‘आपको कुछ नहीं हुआ है ।’ उन पर अवि”वास करने का कोई कारण नहीं किन्तु मैं ठीक नहीं हूँ ।

करने के नाम पर इन दिनों दो ही काम किए । अखबार इस तरह पढ़े मानो प्रूफ रीडर का काम कर रहा होऊँ और टेलीविजन इस तरह देखा मानो यह अजूबा पहली ही बार सामने आया हो । (एक विज्ञापन में मुझे अपने काम की बात दिखाई दी । वह मेरी एक पोस्ट का विषय बनेगा ।) लेकिन इन दोनों कामों ने भी खूब थका दिया । लगा कि और कामों की अपेक्षा इन दोनों कामों में, जल्दी और ज्यादा थकान आती है । सो, बीच-बीच में, बिस्तर से उठकर दरवाजे तक चक्कर लगाता रहा, बार-बार ।
इस 'बार-बार' के चक्कर में ही बाबू पर ध्यान गया ।


अभी सवा दो साल का भी नहीं है बाबू । पिता बैंक कर्मचारी हैं और माँ गृहिणी । पिता के बैक जाने के बाद बाबू अधिकांश समय, इसी तरह, बन्द 'गेट'‘ के पीछे खड़ा रहता है - लोगों को आते-जाते देखते हुए । इस अवस्था वाले बच्चे तो बिच्छू की तरह चंचल और सक्रिय रहते हैं । फिर बाबू ऐसे चुपचाप क्यों खड़ा रहता है ? कारण जानने में न तो प्रतीक्षा करनी पड़ी और न ही कोई कठिनाई झेलनी पड़ी ।


मेरी गली में कोई तीस मकान हैं जिनमें किरायेदारों सहित कोई पैंतीस परिवार रहते हैं । लेकिन किसी भी परिवार में ऐसे बच्चे नहीं हैं जिनके साथ बाबू खेल सके । इससे छोटा बच्चा तो खैर कोई है ही नहीं । जो भी हैं, स्कूल जाने वाले - बाबू से भरपूर बड़े । वे जब शाम को खेल रहे होते हैं तो बाबू उन्हें देखता रहता है, उनके साथ खेलने की जिद नहीं करता । शायद इतना सयाना हो गया है कि जानता है कि वे इसे अपने साथ नहीं खेलाएँगे ।


बच्चों को खेलते हुए देखते रहने वाला, इतना छोटा बच्चा इस तरह, बन्द ‘गेट’ के पीछे चुपचाप खड़ा, मुझे अच्छा नहीं लगता । दोपहर में, जब गली सुनसान हो जाती है, तब दो-एक बार मैं ने बाबू के साथ खेलने की कोशिश की तो बाबू ने मुझे हैरत से देखा और भाग कर, माँ के पास चला गया ।

बाबू के माता-पिता, यथेष्‍ठ समृध्द हैं । घर में कोई कमी नहीं है । बाबू के लिए पर्याप्त खिलौने घर में हैं । लेकिन बाबू उनसे नहीं खेलता । माँ, बाबू के सामने खिलौने रखती है तो वह एक बार उनकी तरफ देख कर मुँह फेर लेता है ।


बाबू अकेला है । घर में भी और गली-मोहल्ले में भी । उसे कोई संगी चाहिए । संगी अर्थात् भाई या बहन । मेरी पत्नी से मालूम हुआ कि बाबू के माता-पिता अभी इस बारे में सोच भी नहीं रहे हैं । उनका कहना है कि अभी वे बाबू की पढ़ाई की व्यवस्थाओं को लेकर चिन्तित हैं । इस कस्बे में उन्हें ऐसा कोई स्कूल नजर नहीं आता जो बाबू का ‘कैरीयर’ बनाने में मदद कर सके । सो, वे बड़े शहर में, बाबू के लिए स्कूल तलाश रहे हैं । बड़े शहर के, ‘कैरीयर बनाने वाले, बड़े स्कूल’ का खर्चा कम नहीं होता - यह बाबू के माता-पिता ने तलाश कर लिया है । सो, वे बाबू के किसी भाई-बहन को ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकते । इसीलिए वे इस बारे में नहीं सोच रहे । मैं ने बाबू के पिता से बात की । वे बोले - ‘बस ! बाबू ही बहुत है ।’


सो, बाबू को अब ‘कैरीयर’ की प्रतीक्षा करनी है । वही उसका संगी बनेगा ।

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निर्लज्ज भी, सीनाजोर भी


आज के अखबारों के अनुसार, लालकृष्‍ण आडवाणी ने अपना वक्तव्य दोहराया है कि दिल्ली और राजस्थान में कांग्रेस नहीं जीती अपितु भाजपा हारी है और इस हार का मुख्य कारण रहा - गलत लोगों को उम्मीदवार बनाना । इससे पहले उन्होने कहा था कि राजस्थान में तो भाजपा के ‘खिलाड़ियों’ ने ‘आत्मघाती गोल’ कर पार्टी को मात दिलवा दी जबकि दिल्ली में, टिकिट वितरण में गलतियाँ की ।


किन्तु आडवाणी अकेले नहीं हैं । सोनिया गाँधी भी उनके साथ हैं जिन्होंने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पराजय का कारण बताया कि दोनों राज्यों में ‘एण्टी इंकम्बेन्सी तत्व’ उपस्थित तो था लेकिन उनकी पार्टी उसका फायदा नहीं उठा सकी । लिहाजा, इन दोनों प्रदेशों में भाजपा नहीं जीती अपितु कांग्रेस हारी ।


केवल आडवाणी और सोनिया ही नहीं, यह बानगी है, हमारे तमाम नेताओं की मनःस्थिति और मानसिकता की । ये सब जानते हैं कि वास्तविकता क्या है । ये लोग ‘अनुचित टिकिट वितरण’ की बात तो मानते है किन्तु यह नहीं मानते कि यह सब उनकी ही सहमति से हुआ है और होता रहा है । ये लोग पार्टी में गुटबाजी को पराजय का कारण तो बताते हैं किन्तु मानते नहीं कि गुटबाजी को ये लोग न केवल प्रश्रय देते हैं अपितु गुटबाजी का प्रारम्भ ये ही करते हैं ताकि पार्टी पर इनका एकाधिकार यथावत् बना रहे ।


मुझ भली प्रकार याद आ रहा है कि एक चिट्ठाकार मित्र ने (वे मुझे क्षमा करने की अनुकम्पा करें कि इस समय मैं न तो उनका नाम याद कर पा रहा हूँ और न ही उनके चिट्ठे का, यद्यपि उनकी सम्बन्धित पोस्ट पर मैं ने भी टिप्पणी की थी), राजस्थान के तीन विधान सभा निर्वाचन क्षेत्रों के लिए भाजपा की पराजय की न केवल दो-टूक घोषणा (भवि’यवाणी नहीं, घोषणा) कर दी थी अपितु पराजय के कारण भी गिनवा दिए थे । कहना न होगा कि चिट्ठाकार मित्र की घोषणा भी सच साबित हुई और भाजपा की पराजय के कारण भी वे ही रहे जो उन्होंने, पहले ही गिनवाए थे ।


किनारे पर बैठा हुआ एक सामान्य समझवाला आदमी जो देख पा रहा है, उसे पार्टी के ‘विधाता’, मुख्‍य धारा के बीच खडे रहकर, क्षणांश को भी अनुभव न कर सकें, यह विचार ही अपने आप में मूर्खता होगी ।


मेरे निवासवाले विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशी निर्धारण को लेकर कांग्रेस में ऐसा घमासान कि नाम वापसी के अन्तिम दिन ही उसका प्रत्याशी स्पष्‍ट हो सका । कांग्रेसी प्रत्याशी की दशा किसी घटिया चुटकले जैसी हो गई और वह अपनी जमानत जप्त करा बैठा ।


स्पष्‍ट है कि, प्रत्याशी निर्धारण में जो कुछ भी हुआ वह न केवल इन सबकी जानकारी में हुआ अपितु उनकी इच्छा और सहमति से ही हुआ ।


जानते तो ये सब है कि मतदाताओं ने इनकी इस मानसिकता और मनमानी को अस्वीकार तथा निरस्त किया और केवल इसी कारण इन्हें प्रतिपक्ष की कुर्सियाँ दिखा दीं । किन्तु राजनीति सम्भवतः स्वयम् से असत्य सम्वाद करने और स्वयम् ही उस पर विश्‍वास करने का खेल हो गया है । इसीलिए ये लोग, सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते कि मतदाताओं ने इन्हें निरस्त किया है । अपने निरस्तीकरण का सार्वजनिक स्वीकार कौन करे ?


ये भले ही शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दनें रेत में गड़ा लें, लेकिन ‘नागर-नारायण’ इनके मन की ही नहीं जानता, इनकी रग-रग की प्रत्येक अदृष्‍य गतिविधि को भी अनुभव करता है और अपनी बारी आने पर इन्हें इनकी औकात दिखा देता है ।


काश ! यह ‘नागर-नारायण’ चैबीसों घण्टे सक्रिय, सचेष्‍ट रहे । तब हमें, जन सामान्य की अवमानना करने वाले ऐसे आपराधिक, निर्लज्ज, सीनाजोर वक्तव्य देखने/सुनने/पढ़ने को नहीं मिलेंगे ।


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थकान, बिना काम

'धर्मयुग' में रामरिखजी मनहर का, चुटकुलों का स्तम्भ चला करता था । एक बार उन्होंने चुटकुला लिखा था - ‘कितना अच्छा हो कि करने को कोई काम न हो और थक कर आराम किया जाए ।’
आज मेरी दशा और मनःस्थिति बिलकुल वैसी ही है । अभी सवेरे के साढे आठ बजे हैं । आकाश बादलों से ढंका हुआ है और शरीर का पोर-पोर पीड़ा । ऐसे प्रत्येक अवसर पर स्वर्गीय पिताजी अनायास ही अत्यधिक तीव्रता से स्मरण हो आते हैं । बच्चों की पिटाई करना उनका सबसे प्रिय काम था । वे अपना काम कर गए, हम सब भाई-बहन उनके कामों को याद कर रहे हैं ।
सो, आज कोई पोस्ट नहीं । (वैसे भी नियमितता तो है नहीं ।)
‘काम के बीच आराम’ के लिए मेरे पास संयोगवश दो चित्र उपलब्ध हैं । आप भी उनका आनन्द लीजिए ।





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शीला दीक्षित और मुरली मनोहर जोशी को टोकिए











माननीया शीलाजी,
सविनय सादर नमस्कार,
लगातर तीसरी बार, दिल्ली का मुख्यमन्त्री बनने पर आपको हार्दिक बधाइयाँ तथा आत्मीय शुभ-कामनाएँ ।
किन्तु ‘नईदुनिया’ (इन्दौर) के, 18 दिसम्बर 2008 के अंक के मुख पृष्ठ पर आपका चित्र देखकर धक्का लगा । चित्र में एक व्यक्ति आपको ‘मुकुट’ पहना रहा है और आप हँसते हुए, ‘मुकुट’ पहन रही हैं ।
यह आपको तथा काँग्रेस को शोभा नहीं देता । यह स्थिति और मनःस्थिति हमारे लोकतन्त्र के लिए अत्यधिक घातक है ।
आयु में आप मुझसे बड़ी हैं और परिपक्व तथा गहन-अनुभवी हैं । इसलिए मुझसे पहले भली प्रकार जानती हैं कि ‘मुकुट-मानसिकता’ पूरी तरह अलोकतान्त्रिक है । इससे सामन्तवाद और राजतन्त्र की दुर्गन्ध आती है । आप भली प्रकार जानती हैं कि महात्मा गाँधी और कांग्रेस के नेतृत्व में भारत के लोगों ने ‘मुकुट से मुक्ति’ पाने के लिए कितने बलिदान दिए । उन बलिदानों का उल्लेख गर्वपूर्वक आप भी प्रायः ही करती रहती हैं ।
ऐसे में ‘मुकुट-धारण’ करने के लिए आपका सहमत होना और अन्ततः मुकुट धारण कर ही लेना सारी बातों को निरर्थक प्रमाणित करता अनुभव होता है ।
आपके, इस प्रकार मुकुट धारण करने पर मुझे अत्यधिक आपत्ति और क्षोभ है । आप ‘साम्राज्ञी’ नहीं अपितु दिल्ली के ‘लोकसेवकों में प्रथम लोकसेवक’ हैं - यह तथ्य मुझसे पहले आप स्वयम् जानती हैं । सत्ता से लाभ लेने के लिए चापलूस लोग चैबीसों घण्टे आपके और आप जैसे समस्त व्यक्तियों के आसपास मँडराते रहें, यह बहुत ही स्वाभाविक है । किन्तु ऐसे लोगों से आप और आपके साथी अपने आप को बचाए रखें - यह आपके लिए मात्र आवश्‍यक नहीं, अनिवार्य है । लोकसेवक का ईमानदार होना ही पर्याप्त नहीं है, अपने सार्वजनिक आचरण में उसका ईमानदार दिखना भी जरुरी होता है, यह आपसे बेहतर और कौन जानता है जिसने लगातार तीसरी बार दिल्ली के लोगों का खुला समर्थन प्राप्त किया है ।
जो कुछ हो गया है, उसकी मरम्मत करना तो अब किसी के लिए सम्भव नहीं रह गया है । किन्तु भविष्य में ऐसी अलोकतान्त्रिक और सामन्ती हरकतों से तो बचा ही जा सकता है ।
मैं आपसे आशा, अपेक्षा और आग्रह करता हूँ कि कृपया यह सुनिश्चित करें कि लोकतन्त्र की अवमानना करने वाले ऐसे पीड़ादायक और लज्जाजनक प्रसंगों का निमित्त आप भविष्‍‍य में नहीं बनेंगी ।
हार्दिक शुभ-कामनाओं तथा सद्भावनाओं सहित,

यह अविकल प्रतिलिपि है मेरे उस पत्र की जो मैं ने आज, 19 दिसम्बर 2008 को, दिल्ली की मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित को भेजा है ।

मुम्बई पर हुए आतंकी हमलों के बाद सारे देश के लोगों ने अपने नेताओं के प्रति अपनी घृणा का प्रकटीकरण जिस सामूहिकता और तीव्रता से किया था और नेताओं को बोरों में बाँध कर समुद्र में डाल देने की बात कही थी तब मैं, गिनती के उन लोगों में से था जिन्होंने, अपने नेताओं को इस प्रकार अस्वीकार और निरस्त करने का विरोध किया था । तब मैं ने कहा था कि ये नेता हमारे ही बनाए हुए हैं । हम इन्हें बनाते हैं और इनसे अपना स्वार्थ सिध्द करने की नीयत से इन्हें बिगाड़ते हैं और इन्हें इतना छुट्टा छोड़ देते हैं कि वे उच्छृंखल हो जाते हैं । मैं ने कहा था - ‘नेता आसमान से नहीं आते । उन्हें हम ही बनाते हैं और फिर हम उनके लिए बन कर रह जाते हैं । उन्हें नियन्त्रित करना हमारी जिम्मेदारी है और यदि हम अपनी यह जिम्मेदारी नहीं निभाते हैं तो हमे नेताओं को गरियाने, लतियाने का कोई अधिकार नहीं है ।’ मुझे इस बात का सन्तोष रहा कि मेरी इस बात को आशा और अपेक्षा से कहीं अधिक समर्थन, सहमति मिली ।

अपने इन नेताओं नियन्त्रित करने के प्रयास हम किस प्रकार कर सकते हैं, यही बताने के लिए मैं ने श्रीमती शीला दीक्षित को उपरोक्त पत्र लिखा है । चूँकि मेरा नियन्त्रण केवल मुझ तक ही है, इसलिए मैं किसी और से पत्र नहीं लिखवा सकता । हाँ, यह आग्रह अवश्य करता हूँ कि जिस-जिस को मेरी ‘हरकत’ उचित लगे तो कृपया वे भी इस हरकत में सम्मिलित हो जाइएगा । एक पत्र समुचित और अपेक्षित प्रभाव नहीं पैदा कर सकेगा । किन्तु यदि दस-बीस पत्र ऐसे पहुँचेंगे तो बात अनसुनी नहीं रह पाएगी ।

जोशीजी की अलोकतान्त्रिक हरकत

जोशीजी यान भाजपा के पूर्व राष्‍ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व केन्द्रीय मन्त्री डाक्टर मुरली मनोहर जोशी । इसी 12 दिसम्बर को उन्होंने दिल्ली में सम्वाददाता सम्मेलन में ‘राजनीतिक वंशवाद’ की पैरवी की । उन्होंने स्वीकार किया कि भाजपा में भी वंशवाद आ गया है और भाजपा नेताओं के पुत्र-पुत्रियों, भाई-भतीजों को अवसर दिए जाने लगे हैं । लेकिन जोशीजी इसे तनिक भी अनुचित नहीं मानते और पूछते हैं कि इसमें बुराई ही क्या है यदि वे इस क्षेत्र में काम कर रहे हों तो ? ‘भाजपा में आए इस बदलाव को वे गाँधी-नेहरू परिवारवाद से किस प्रकार अलग देखते हैं ?’ जैसे सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि यह परिवारवाद नहीं है ।

जोशीजी का यह वक्तव्य आश्‍‍चर्यजनक नहीं, अनुचित और आपत्तिजनक है । यह इसलिए भी घातक है क्यों कि जोशीजी इसे ‘क्रिया’ अथवा ‘कर्म’ के रूप में नहीं, ‘विचार’ के रूप में स्वीकार और स्थापित कर रहे हैं । कोई ‘घामड़’ नेता/कार्यकर्ता यह बात कहता तो उसकी अनदेखी की जा सकती थी किन्तु जोशीजी तो ‘प्राध्यापक और विचारक’ हैं । यदि उनके विचारों का निष्कर्ष वंशवाद के पक्ष में है तो फिर देश के लोगों को जोशीजी से और भाजपा से भी उतना ही सतर्क और सावधान हो जाना चाहिए जितना सावधान और सतर्क, कांग्रेस तथा सोनिया गाँधी से रहने का आह्वाहन, जोशीजी और उनकी पार्टी देश के लोगों से करती है ।

भाजपा ने कांग्रेस के वंशवाद/परिवारवाद की सदैव ही आलोचना की और इस परम्परा को सिरे ही निरस्त कर इसे ‘लोकतन्त्र की कीमत पर वंशवाद का पोषण’ निरुपित किया । इतना ही नहीं, कांग्रेस के वंशवाद/परिवारवाद का सर्वाधिक खामियाजा भी भाजपा ने ही उठाया है ।

होना तो यह चाहिए था कि अपनी पारी और बारी आने पर भाजपा अपने आचरण से कांग्रेस की इस परम्परा को अनुचित, अनावश्‍‍यक और खुद को कांग्रेस से सर्वथा भिन्न/पृथक प्रमाणित करती । किन्तु यह दुरुह और असम्भव की सीमा तक का कठिन काम है । सत्ता की रपटीली चिकनी सड़कों पर संयमित और सन्तुलित रह पाना भाजपाइयों के लिए असम्भव ही हुआ और वे कांग्रेसियों से बढ़कर कांग्रेसी होने लगे और आज प्रत्येक ‘समर्थ’ भाजपा नेता अपनी अगली पीढ़ी को सत्ता में स्थापित करने में लग गया है । इन्हें ‘कांग्रेस का उत्‍कृष्‍‍ट और विश्‍‍वसनीय विकल्प’ बनना था किन्तु ये बन रहे हैं ‘कांग्रेस का निकृष्‍‍ट और हेय संस्करण ।’

अभी-अभी सम्पन्न हुए विधान सभा चुनावों में मतों का ध्रुवीकरण कांग्रेस और भाजपा के बीच ही हुआ है । तीसरे विकल्प की कामना रखने वाले दलों को नाम मात्र की भी सफलता नहीं मिली है । ऐसे में यदि हमें कांग्रेस के बदले में ‘निकृष्‍‍ट कांग्रेस’ मिलती है तो यह चरम हताशा की दशा होगी ।

लिहाजा, भाजपा के समस्त हितैषी भाजपाइयों का यह न्यूनतम उत्तरदायित्व बनता है कि वे जोशीजी के इस मन्तव्य का कड़ा प्रतिकाकर करें और अपने नेताओं को स्खलित होने से बचाएँ । भाजपाइयों को इसलिए सक्रिय होना पड़ेगा क्यों कि यदि कांग्रेसी और/अथवा अन्य दलों के लोग जोशीजी की बात का प्रतिकार करेंगे तो इसे राजनीतिक वक्तव्य कह तत्क्षण ही निरस्त कर दिया जाएगा । किन्तु भाजपाइयों की बात तो उन्हें सुननी ही पड़ेगी ।

मुझे जोशीजी का पता नहीं मालूम अन्यथा मैं उन्हें भी पत्र लिख चुका होता ।

हम किसी भले आदमी की भलमनसाहत से प्रभावित होकर उसे नेता तो बना देते हैं किन्तु बाद में यह प्रयास कभी नहीं करते कि वह, नेता बनने के बाद भी भला ही बना रहे । हमारी यही प्रवृत्ति हमारे नेताओं को उच्छृंखल बनाती है और आश्‍‍चर्य कि अपनी इस करनी का दोष हम अपने नेताओं को देते हैं ।


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यह अधर्म कौन रोकेगा ?



पहले, ‘पत्रिका’ (इन्दौर, नगर संस्करण) के दिनांक 17 दिसम्बर 2008 के पृष्‍ठ 15 पर, ‘दलित दूल्हे को नहीं चढ़ने दिया घोड़ी पर’ दो कालम शीर्षक से प्रकाशित यह समाचार -


छतरपुर, पत्रिका ब्यूरो । प्रशासनिक तन्त्र की लाख कोशिशों के बावजूद बुन्देलखण्ड में सामन्तशाही ताकतों पर अंकुश नहीं लग रहा । इसका ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब एक दूल्हे को दबंगों ने सिर्फ इसलिए घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया क्योंकि वह दलित था । हालांकि दूसरे दिन उसकी शादी तो हुई लेकिन पुलिस की संगीनों के साए में ।

बक्स्वाहा थाना क्षेत्र के ग्राम सुनवाहा निवासी नन्नू अहिरवार के पुत्र गणेश (25) का विवाह मंगलवार को उड़ीसा निवासी बालकिन अहिरवार की पुत्री सुषमा के साथ होना तय हुआ था । लड़की पक्ष पुत्री के साथ सुनवाहा आ गया था । बुन्देलखण्ड में विवाह के एक दिन पूर्व दूल्हे को घोड़े पर बैठा कर गाँव में घुमाने की रस्म है, जिसे राच कहा जाता है । सोमवार को दूल्हे को घोड़ी पर बैठाकर गाँव में घुमाया जा रहा था जो गाँव के दबंगों को नागवार गुजरा । दबंग कोमलसिंह लोधी, काशी राम, हरबल लोधी आदि ने दूल्हे परिजनों से उसे घोड़े से उतारने को कहा लेकिन परिजनों के मना करने पर वे भड़क गए । उन्होंने दूल्हे को घोड़े से उतारकर पीटना शुरु कर दिया । कारण पूछने पर आरोपियों ने कहा कि गाँव में दलितों को घोड़े पर घुमाने का रिवाज नहीं है । घटना के बाद भयभीत दलित परिवार पूरे समाज सहित बक्स्वाहा थाने पर पहुँच गया । पुलिस के वरि’ठ अधिकारी बक्स्वाहा पहुँचे और पुलिस के साए में वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न कराने का आ”वासन दिया । मंगलवार को एसडीओपी व थाना प्रभारी के. सी. छाड़ी की मौजूदगी में समस्त वैवाहिक कार्यक्रम हुए ।’

यह कोई अनूठा और असामान्य समाचार नहीं है । ऐसे समाचार, देश में (विशेषकर उत्तर भारत में) कहीं न कहीं, प्रतिदिन बनते/छपते रहते हैं । समाचारों के शीर्षक बनने से अधिक कहीं कुछ होता होगा, ऐसा अब तक अनुभव नहीं हुआ । विवाद का विषय जैसे ही निपटा कि समूचा प्रकरण ठण्डे बस्ते में चला जाता है । न तो पिटने वाले को याद रहता है, न पीटने वाले को । पुलिस भी ऐसे प्रकरणों को ‘रूटीन’ की तरह, उदासीनता और अनमनेपन से निपटाती रहती है (क्योंकि पुलिसकर्मियों में भी अधिसंख्य ‘सवर्ण हिन्दू’ ही होते हैं )। अधिसंख्य मामलों में तो, न्यायालय में साक्षी ही नहीं पहुंचते और अन्ततः प्रकरण येन-केन-प्रकारेण' अपनी ‘गति’ प्राप्त कर लेता है ।


लेकिन कल्पना कीजिए, इस मामले में आरोपी यदि कमरुद्दीन, कमसिनअली और हकीम होते तो ? तो हिन्दू धर्म संकट में आ जाता, दोषियों को जीते जी मार डालने की सीमा तक पीटा जाता, उनके घर, खेत-खलिहान, दुकानें जला दी जातीं, आ”चर्य नहीं कि इसका प्रतिशोध उनके परिवार की स्त्रियों को सार्वजनकि रूप से अपमानित कर, लिया जाता, गाँव में प्रलय आ जाता और ‘कानून-व्यवस्था की स्थिति’ बन जाती ।

लेकिन 'ईश्वर की कृपा' है कि इस मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । याने, 'हिन्दू द्वारा हिन्दू पर किया गया अत्याचार' ईश्‍वर की कृपा' मान लिया जाना चाहिए ? रेखा गणित का सिध्दान्त तो इसी पर मुहर लगाता है ।


इस घटना के आवरण के पीछे से यह पक्ष अचानक ही सामने आ जाता है । हिन्दू समाज इसे ‘जाति व्यवस्था’ या ‘वर्ण व्यवस्था’ या ‘गाँवों की अपनी स्थापित परम्पराएँ’ कह कर मुक्ति पा लेता है । लेकिन इसका कड़वा पक्ष यह है कि हम यह भूल जाना चाहते हैं कि जाति, वर्ण, परम्परा, रूढ़ियाँ जैसे समस्त कारक, ‘धर्म’ की पालकी से ही हमारे आँगन में उतरते हैं ।

कोई अहिन्दू (विशेषकर इतर धर्मानुयायी) किसी हिन्दू पर अत्याचार करे तो वह धर्म पर आक्रमण और यदि कोई हिन्दू किसी हिन्दू पर अत्याचार करे तो वह रीति-रिवाज, परम्परा, वर्ण व्यवस्था का अंग ! यह उचित है ? यदि हाँ तो हम ‘वैदिक हिंसा हिंसा न भवति’ वाली उक्ति को ही चरितार्थ नहीं कर रहे हैं ? क्या अत्याचार का निर्धारण भी धार्मिक आधारों पर होगा ? धर्म के नाम पर उन्माद फैलाने वालों को ऐसे प्रकरण क्यों नहीं आकर्षित करते ? ऐसे प्रकरणों में अपेक्षित, सकारात्मक और प्रभावी हस्तक्षेप करना उनकी क्षमता से बाहर है या निहित स्वार्थों की परिधि से बाहर ?


जिस प्रकार, ‘इस्लामिक आंतकवाद’ और/अथवा ‘मुस्लिम आतंकवादी’ जैसे ठप्पे से मुक्ति पाने के प्रयास, इस्लाम मतावलम्बियों/मुसलमानों का सहज उत्तरदायित्व है उसी प्रकार हिन्दू धर्म के नाम पर किए जा रहे ऐसे अमानुषिक अत्याचारों से मुक्ति पाने का जिम्मा उन लागों/संगठनों का क्यों नहीं है जो हिन्दू धर्म की ठेकेदारी करते हैं ?

मैं जानता हूँ कि इस बात पर मेरी ‘जमकर धुनाई और धुलाई’ होगी किन्तु ऐसे समय यह याद रखा जाना चाहिए कि वर्ण व्यवस्था के नाम पर ऐसे अधार्मिक दुष्कृत्य करने वालों में सभी राजनीतिक दलों के समर्थक होते हैं ।

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‘आस्था’ बिक रही है, तत्काल खरीद लें



‘जीवन - आस्था’



भारतीय जीवन बीमा निगम ने, 8 दिसम्बर को ‘जीवन आस्था’ नामकी नई योजना बाजार में प्रस्तुत की है । फिलहाल यह योजना कुल 45 दिनों के लिए उपलब्ध है - अर्थात् 21 जनवरी 2009 तक ।
मन्दी के दौर में यह आकर्षक योजना है । इसमें बोनस कम होने की कोई आशंका नहीं है और शेयर बाजार की ऊँच-नीच के प्रभाव की आशंका तो सपने में भी नहीं है । इसमें ‘सुनिश्चित लाभ’ (गारण्टीड एडीशन) का प्रावधान किया गया है और यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता भी है और आकर्षण भी ।

यह योजना 13 से 60 वर्ष तक की आयु वर्ग के लिए है और न्यूनतम निवेश, मोटे तौर पर 25 हजार रुपये है । निवेश की रकम, आयु के आधार पर निर्धारित होती है सो कम आयु वालों के लिए यह राशि 25 हजार से कम और अधिक आयु वालों के लिए 25 हजार से तनिक अधिक हो सकती है ।

यह एकल (सिंगल) प्रीमीयम योजना है । अर्थात् निवेशक को एक बार ही भुगतान करना है-प्रति वर्ष नहीं ।

यह योजना दो अवधियों के लिए उपलब्ध है - 5 वर्ष और 10 वर्ष ।

‘सुनिश्चित लाभ’ की दर दोनों अवधियों के लिए अलग-अलग है - 5 वर्ष अवधि के लिए 90 रुपये प्रति हजार प्रति वर्ष तथा 10 वर्ष अवधि के लिए 100 रुपये प्रति हजार प्रति वर्ष ।

इसमें निवेश की गई रकम पर, आयकर अधिनियिम की धारा 80 (सी) के अन्तर्गत छूट मिलेगी जबकि परिवपक्वता राशि, आयकर अधिनियिम की धारा 10 (10)(सी) के अधीन आय कर मुक्त होगी । प्राप्तियों का आयकर मुक्त होना इसका बहुत बड़ा आकर्षण है ।

इसके साथ ही साथ, इसमें जीवन बीमा सुरक्षा भी उपलब्ध है । यह सुरक्षा (रिस्क कवर) प्रथम पालिसी वर्ष में न्यूनतम डेड़ लाख रुपये तथा शेष पालिसी अवधि में न्यूनतम 50 हजार रुपये है । परिपक्वता बीमा धन, न्यूनतम 25 हजार रुपये है । इसके अतिरिक्त, पालिसी की पूर्णता पर 'निष्‍‍ठा आधिक्य' (लायल्टी एडीशन) के भुगतान का भी प्रावधान है ।

इसकी प्राप्तियाँ, बाजार में वर्तमान में उपलब्ध किसी भी योजना से अधिक ही आकर्षक और लाभदायक अनुभव होती हैं । 5 वर्ष अवधि वाली पालिसी की परिपक्वता राशि, निवेशित राशि की ड्ययोड़ी से अधिक तथा 10 वर्ष अवधि वाली पालिसी में दुगुनी से अधिक होगी ।

इन सारी बातों को इन उदाहरणों से आसानी से समझा जा सकता है -


पहला उदाहरण
पालिसीधारक की आयु - 30 वर्ष ।

पालिसी अवधि - 10 वर्ष ।

मूल बीमा धन - रुपये 1,50,000

प्रीमीयम (निवेश की रकम) - रुपये 24,825/-

परिपक्वता राशि -

परिपक्वता बीमा धन - रुपये 25,000/-

सुनिश्चित लाभ - रुपये 25,000/-

लायल्टी एडीशन (सम्भावित) - रुपये 7,500/-

योग - रुपये 57,500/-

लाभांश की दर - 9 प्रतिशत ।

इसमें यदि आय कर की बचत का प्रभाव शामिल कर लें तो लाभांश की दर इस प्रकार होगी -
आयकर छूट 10 प्रतिशत पर - 10 प्रतिशत

आय कर छूट 20 प्रतिशत पर - 11 प्रतिशत

आय कर छूट 30 प्रतिशत पर - 13

दूसरा उदाहरण
पालिसीधारक की आयु - 30 वर्ष ।

पालिसी अवधि - 5 वर्ष ।

मूल बीमा धन - रुपये 1,50,000

प्रीमीयम (निवेश की रकम) - रुपये 26,205/-

परिपक्वता राशि -

परिपक्वता बीमा धन - रुपये 25,000/-

सुनिश्चित लाभ - रुपये 11,250/-

लायल्टी एडीशन (सम्भावित) - रुपये 3,750/-

योग - रुपये 40,000/-

लाभांश की दर - 9 प्रतिशत ।
इसमें यदि आय कर की बचत का प्रभाव शामिल कर लें तो लाभांश की दर इस प्रकार होगी -
आयकर छूट 10 प्रतिशत पर - 11 प्रतिशत

आयकर छूट 30 प्रतिशत पर - 17 प्रतिशत


इसके अतिरिक्त इस योजना में निम्नांकित सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं -
- प्रथम पालिसी वर्ष पूर्ण होने पर सरेण्डर मूल्य प्राप्त किया जा सकता है जो निवेशित राशि का 90 प्रतिशत होगा ।

- प्रथम पालिसी वर्ष पूर्ण होने के पश्‍चात पालिसी पर लोन लिया जा सकता है ।

- पालिसी को तत्काल ही समनुदेशित किया जा सकता है अर्थात् गिरवी रखा जा सकता है ।

भारतीय जीवन बीमा निगम ने एक लम्बे समय से ‘सुनिश्चित लाभ’ (गारण्टीड एडीशन) वाली योजनाएं बन्द कर रखी थीं ।

मन्दी और शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव से उपजे आर्थिक दहशत के इस वातावरण में ‘सुनिश्चित लाभ’ (गारण्टीड एडीशन) वाली यह योजना बाजार में उतार कर भारतीय जीवन बीमा निगम ने अपूर्व साहस का परिचय दिया है ।


मैं निम्नानुसार अनुशंसा करता हूं -
- इसे तत्काल खरीद लिया जाना चाहिए । ‘आय कर नियोजन’ से परे हटकर भी यह, बाजार में उपलब्ध अन्य समान योजनाओं से काफी बेहतर है ।

- सम्भव हो तो अपने परिवार के 13 से 40 वर्ष आयु वर्ग के सदस्यों के लिए खरीदेंगे तो अधिक लाभ होगा ।

- लोग ‘अल्पावधि निवेश’ को प्राथमिकता देते हैं किन्तु मेरी सलाह है कि इसे 10 वर्ष के लिए लें ।

- इसकी अन्तिम दिनांक की प्रतीक्षा न करें । तत्काल ही ले लें ।


मैं केवल परामर्श नहीं दे रहा हूं । मेरे छोटे बेटे तथागत (अवस्था 19 वर्ष) के लिए मैं यह पालिसी ले रहा हूं । अर्थात् आपको उसी खरीदी की सलाह दे रहा हूं जो खरीदी मैं खुद कर रहा हूं ।

(कृपया मेरी इस प्रस्तुति को भारतीय जीवन बीमा निगम की प्रस्‍‍तुति न समझें ।)


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मेरे दा' साहब



ये माणक भाई हैं ।


पूरा नाम माणक लाल अग्रवाल है किन्तु सब इन्हें माणक भाई के नाम से ही जानते, पहचानते और सम्बोधित करते हैं । लेकिन मेरे लिए ये माणक भाई नहीं हैं । ये मेरे ''दा’ साहब'' हैं । मेरे ही नहीं, हमारे समूचे परिवार के दा' साहब । आयु इस समय 90 के आसपास है । भरे-पूरे परिवार के मुखिया हैं, अपनी अगली तीन पीढ़ियों को अपने सामने खेलते-खाते देख रहे हैं । समृध्दि इनकी सहोदर बनी हुई है । ईश्‍वर की कृपा है कि इन्होंने दिया ही दिया है, लिया किसी से नहीं । ‘सुपात्र’ की सहायता के लिए इनके दोनों हाथ खुले रहते हैं और ‘कुपात्र’ के लिए इनकी मुट्ठियाँ तनी रहती हैं ।


मैं इस समय अपनी आयु के 62वें वर्ष में चल रहा हूँ और जब से मैं ने होश सम्हाला है तब से लेकर यह पोस्ट लिखने के इस क्षण तक मेरी नितान्त व्यक्तिगत, अनुभूत, सुनिश्‍िचत धारणा है कि दा' साहब ‘पारस’ हैं । इनका स्पर्श पाकर भी यदि कोई ‘कंचन’ नहीं बनता है तो आँख मूँदकर मान लीजिए कि वह ‘लोहा’ भी नहीं है । हम लोग यदि दा' साहब का स्पर्श नहीं पाते तो आज मैं यह पोस्ट लिखने की स्थिति में नहीं होता ।



दा' साहब स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी रहे हैं और 1957 में, दूसरी लोकसभा के सदस्य भी । इन्दिराजी के प्रधानमन्त्रित्व काल में जब स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को ताम्र-पत्र दिए गए और आजीवन पेंशन उपलब्ध कराई गई तो दा' साहब ने दोनों ही विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिए - यह कहकर कि इस सबके लिए वे अंग्रेजों के विरुध्द मैदान में नहीं उतरे थे । दा' साहब के नाम वाला ताम्र-पत्र इस समय, रामपुरा नगर पालिका के माल गोदाम में कहीं, कोने-कचरे में पड़ा होगा । दा' साहब मूलतः रामपुरा निवासी हैं जो पहले मन्दसौर जिले में था और अब नीमच जिले में आता है ।



अभी-अभी दा' साहब के छोटे पौत्र (दा' साहब के मझले बेटे, डाक्टर सुभाष अग्रवाल के छोटे बेटे) चिरंजीव आदित्य का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ है । मुझ पर मँडरा गई ‘उड़न तश्‍तरी’ शीर्षक वाली मेरी पोस्ट में मैं ने जिस समारोह को ‘भव्य की परिभाषा को अधूरी और अपर्याप्त साबित करनेवाला’ तथा ‘भव्य को परास्त करनेवाला’ बताया है, वह समारोह चिरंजीव उदित के ही विवाह प्रसंगवाला था ।

दा' साहब की 'सादगी-पसन्दगी और ढकोसलों से नापसन्दगी', उनके आसपास के अधिसंख्य लोगों के लिए ‘संकट समान दुखदायी’ बनती रहती है । अकारण और अनावश्‍यक प्रदर्शन को वे सामाजिक विसंगतियों का आधारभूत कारण और मध्यम/निम्न वर्गों के लिए प्राणलेवा संकट मानते हैं । इसीलिए वे, चकाचैंध वाले आयोजनों/समारोहों से परहेज करते हैं । गए कई वर्षों से उन्होंने नितान्त व्यक्तिगत स्तर पर कुछ अघोषित निर्णय ले रखे हैं । शोभा यात्राओं के आगे बजने वाले बैण्ड पर लगे लाउडस्पीकरों और बारातों के आगे, सड़कों पर नाचने का बहिष्‍कार, दा' साहब ने अपनी ओर से कर रखा है । ये दोनों ही बातें जहाँ होती है, दा' साहब वहाँ नहीं होते । इसके ठीक विपरीत, आज की पीढ़ी का काम, इन दोनों के बिना नहीं चलता ।

चिरंजीव आदित्य के विवाह प्रसंग पर यह संकट सामने आया तो दा' साहब ने दो टूक कहा कि यह संकट उनका (दा' साहब का) नहीं है । यह संकट तो उनका है जो इन बातों का समर्थन, आयोजन कर रहे हैं और इनमें भागीदारी कर रहे हैं ।

और मैं ने देखा कि दोनों ही बातें, अपने-अपने स्तर पर हुईं । बारात जब निकली तो बैण्ड पर ‘डीजे’ सहित लाउडस्पीकर लगा हुआ था और नाचने के लिए, आदित्य के मित्र लड़के-लड़कियों, परिवार के पुरुषों-महिलाओं में होड़ लगी हुई थी । ‘चलने’ के नाम बारात सरक भी नहीं रही थी । विवाह का मुहूर्त साधने को व्यग्र, वर के पिता डाक्टर सुभाष अग्रवाल और उनके जैसे दो-चार और परिजन, इस सबसे कभी परेशान तो कभी प्रसन्न होते नजर आते रहे ।

लेकिन दा' साहब इस सबमें कहीं नहीं थे । वे, आदित्य की ‘वर निकासी’ के फौरन बाद, उल्टे पाँवों घर चले गए और तभी लौटे जब बारात वधु के द्वार पर पहुँची । चूँकि नाच-गाना और धूम-धड़ाका तब भी निरन्तर था, सो दा' साहब (बारात की औपचारिक अगवानी से) पहले ही मण्डप में पहुँच गए थे ।
‘सासू आरती’ के बाद जब आदित्य मण्डप के लिए आ रहा था तब रतलाम के प्रख्यात दो ढोल अपने चरम पर बज रहे थे । लेकिन दा' साहब ने उनका बजना भी बन्द करा दिया । दा' साहब के मना करने के बाद किसी की हिम्मत नहीं रही कि ढोल बजाने की कहे ।

इससे एक रात पहले, इसी विवाह प्रसंग पर गीत-संगीत का आयोजन हुआ था । उसके लिए परिवार के बच्चों और बहने-बेटियों-बहुओं ने, महीनों पहले से अच्छी-खासी से तैयारी की थी । ‘मास्टरजी’ से ‘डांस स्टेपिंग’ सीखी थी । व्यावसायिक एंकर इस हेतु बुलाया गया था । अपनी आदत के अनुसार दा' साहब, निमन्त्रण-पत्र में दिए गए समय पर, सबसे पहले आयोजन स्थल पर पहुँच गए थे । उन्होंने तमाम अतिथियों की अगवानी की । लेकिन जैसे ही ‘एंकर‘ ने माइक थामा, वैसे ही दा' साहब चुपचाप उठ कर चले आए । उन्हें उठते देख दो-चार लोग दौड़े, उनमें मैं भी था लेकिन सब उनकी सहायता के लिए दौड़े थे, उनसे रुकने का आग्रह करने के लिए नहीं । यह आत्मघाती मूर्खता न करने का विवेक सबमें समान रुप से प्रकट हुआ ।

विवाह के समस्त कार्यक्रम और आयोजन निर्विघ्न, सानन्द, सोल्लास सम्पन्न हो चुके हैं । सारे मेहमान जा चुके हैं । दा' साहब अपने कमरे में परम् प्रसन्न, मुदित और सन्तुष्‍ट बैठे ईश्‍वर को धन्यवाद ज्ञापित कर रहे हैं ।

उन्हें किसी से कोई शिकायत नहीं है । उनकी मानसिकता और वैचारिकता के विपरीत हंगामा करने वाले अपने बच्चों से भी नहीं और हंगामे में शरीक न होने के लिए अपने आप से भी नहीं ।
कैसे लगे आपको मेरे दा' साहब ?


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मुझ पर मँडरा गई ‘उड़न तश्‍तरी’


यह ‘आसमानी-सुलतानी’ ही थी । इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं ।

यह परसों, 12 दिसम्बर की रात की बात है । एक विवाह भोज में उपस्थित होना था । समूचा आयोजन ‘भव्य’ की परिभाषा को अधूरी और अपर्याप्त साबित कर रहा था । अगहन पूर्णिमा का चन्द्रमा, मध्याकाश की यात्रा पूरी कर रहा था । घड़ी के काँटे नौ-सवा नौ बजने की सूचना दे रहे थे । भोजन तो करना नहीं था किन्तु मेजबान के भय से, चुपचाप खड़े रह पाना भी सम्भव नहीं था । सो, ‘चना-चबैना’ की तरह ‘कुछ-न-कुछ’ खाते दिखते हुए हम कुछ लोग, अभी-अभी ही सम्पन्न हुए विधान सभा चुनाव की बातों के सहारे खड़े, बतिया रहे थे ।

तभी मेरा मोबाइल घनघनाया । व्यस्त दिखने के लिए यह भी बड़ा सहारा था । अविलम्ब ही फोन ‘अटेण्ड’ किया । उधर से बड़े ही औपचारिक अन्दाज में (मानो मशीनी)आवाज आई - ‘विष्‍णु बैरागीजी बोल रहे हैं ?’ आसपास खड़े मित्रों पर, व्यस्त होने का रौब गालिब करने के लिए, तनिक इतराते-इठलाते हुए मैं ने जवाब दिया - 'जी हाँ ! विष्‍णु बैरागी बोल रहा हूँ ।' उधर से इस बार जो आवाज आई उसमें से औपचारिकता मानो अन्तर्ध्‍यान हो गई और उसका स्थान ‘ऊष्‍मापूर्ण आत्मीयता और सहजता’ ने ले लिया । नमस्कार-अभिवादन को परे ठेलते हुए आवाज आई - ‘विष्‍णु भाई ! जबलपुर से समीर बोल रहा हूँ ! समीरलाल ।’

आवाज ने जादुई प्रभाव किया । मित्रों पर रौब गालिब करने के लिए ओढ़ी गई इतराहट-इठलाहट, गर्म तवे पर पड़ी पानी की बूँद की तरह ‘छन्न’ करती हुई अचानक ही गायब हो गई । मेरी मुख-मुद्रा ही नहीं, बोली और बोलने का अन्दाज ऐसे बदल गया मानो मेरा कायाकल्प हो गया । ‘भव्य’ को परास्त कर रहे आयोजन की चकाचौंध मानो कोसों दूर चली गई, शहनाइयाँ बजने लगीं और मेरे आसपास शहद की नदियाँ बहने लगी हों ।


यह मेरे लिए अकल्पनीय था । चिट्ठाकारों के उत्सावर्ध्‍दन का मसीहा, अनुकरणीय आदर्श पुरुष मुझसे बात कर रहा था । पल-दो पल तो मेरे बोल ही नहीं फूटे । आनन्दावेग ने मानो गूँगा कर दिया । लेकिन मेरी चुप्पी मेरे लिए अवर्णनीय क्षतिकारक हो सकती थी । सो, उत्तर तो दिया लेकिन मैं ने तत्क्षण ही अनुभव किया कि उत्तर देते समय मेरे अन्दर बैठा अबोध शि‍शु ऐसे किलकारी मारता उछल कर बाहर आ गया मानो उसे मुँह-माँगा खिलौना मिल गया हो । मैं विश्‍वास ही नहीं कर पा रहा था कि ‘उड़न तश्‍तरी’ मेरे माथे पर मँडरा रही है ।


बात शुरु हुई और समाप्त भी हो गई - मुश्‍िकल से दो-ढार्द मिनिट का सिलसिला रहा । लेकिन मुझे लग रहा था कि मेरे जिह्वाग्र पर जिज्ञासाओं का अनियन्त्रित प्रलय आ गया है जो एक पल में ही मोबाइल पर उतर जाने को मचल रहा है, समीरजी की कोई बात सुनने से पहले, अपनी सब कुछ सुना देना की चाहत में । समीर भाई ने सम्भवतः मेरी दशा का अनुमान पूरी तरह लगा लिया था । उनकी खनकदार, बारीक हँसी बार-बार मेरे कान में गूँज रही थी और मैं बावलों की तरह ‘कुछ तो भी’ बोले जा रहा था ।
उन्होंने मुझसे मेरा मोबाइल नम्बर माँगा था - मेरी किसी पोस्ट को लेकर या उनकी किसी पोस्ट पर की गई मेरी टिप्पणी को लेकर । मैं ने यही ‘मान कर’ अपना मोबाइल नम्बर उन्हें दिया था कि छोटों को प्रोत्साहित करने का, यह भी एक तरीका होता है बड़े लोगों का । धारणा यही बनी हुई थी कि वे भारत आएँगे तो अपने बीसियों काम और असंख्य अपनेवालों से मिलने की पूर्व निर्धारित व्यस्तता लेकर आएँगे । उस सबके बीच, मुझे फोन करने की बात तो दूर रही, मेरा मोबाइल नम्बर भी वे साथ लेकर आएँगे, यह विश्‍वास किंचित मात्र भी नहीं था ।


लेकिन समीर भाई ने मरा ‘मानना’ और मेरी ‘धारणा’ दोनों का ध्वंस कर दिया था । मेरा शरीर अगहन पूर्णिमा की चाँदनी में स्नान कर रहा था तो मन, उपरोक्त ‘ध्वंस’ से उपजी चाँदनी से भीगा हुआ था । कोई ‘ध्वंस’ भी आनन्ददायी हो सकता है, यह मैं ने पहली ही बार जाना ।


चर्चाओं में मैं ने समीर भाई को रतलाम आने का न्यौता दिया । जब मालूम हुआ कि वे फरवरी तक भारत में रहेंगे तभी याद आया कि फरवरी में मुझे भी जबलपुर जाना पड़ सकता है । सोचा, यदि जाना पड़े तो कितना अच्छा हो कि उन्हीं तारीखों में जाना हो जब समीर भाई जबलपुर में ही हों । उन्होंने रतलाम यात्रा की सम्भावनाएँ टटोलने का आश्‍वासन दिया । उन्हीं ने बताया था कि वे अपने जीवन के प्रारम्भिक समय में, रतलाम रह चुके हैं और ‘अपना वतन’ देखने की ललक उनके मन में है ।
मुझे नहीं पता कि हम दोनों आमने-सामने हो पाएँगे अथवा नहीं । यह भी सच है कि इस फोन सम्वाद से हम दोनों के जीवन में कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं आएगा । लेकिन मुझे यह फोन सम्पर्क तनिक महत्वपूर्ण लगता है ।


ब्लाग पर प्रदर्शित उनके चित्रों से अनुमान लगा रहा हूँ कि आयु में वे मुझसे कम ही होंगे । लेकिन उनसे मेरे सम्पर्क का कारण और माध्यम ‘ब्लाग’ है और ‘ब्लाग जगत्’ में मेरी आयु तो अभी दो वर्ष की भी नहीं है । इस लिहाज से, समीर भाई मेरे ‘वरिष्‍ठ’ और ‘अग्रज’ जैसे विशेषणों को ‘योजनों कोस’ पीछे धकेल कर मेरे ‘जीवित पूर्वज’ की श्रेणी में आते हैं ।


कोई ‘कुल पुरखा’ अपने वंशजों की पूछ-परख करे, उनका कुशल क्षेम जाने, उनकी बेहतरी की चिन्ता करे - यही तो है भारतीयता और भारतीय परम्परा ! अपनी मिट्टी का और अपनी परम्‍पराओं का मोल और महत्व, अपनी मिट्टी से दूर रहने पर अधिक सम्‍वेदनशीलता से अनुभव होता है ।
अगहन पूर्णिमा की रात, मोबाइल के जरिए, यही अनुभव मुझ तक पहुँचा है । अनुभव तो समीर भाई का और इससे उपजा आनन्द मेरा रहा ।


अपने से बेहतर कोई आदमी जब आगे रहकर आपसे सम्पर्क करे - इसे ही तो सौभाग्य कहते हैं ! धन्यवाद समीर भाई ! आपने मुझे समृध्द किया । रतलाम में आपकी अगवानी करने के लिए मैं उतवाला बैठा हूँ ।


सूचित कीजिए, कब आ रहे हैं ।

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प्रशंसा को कहीं ठौर नहीं मिलता


कल रात को कोई साढ़े बारह बजे सोया और आज सवा चार बजे ही नींद खुल गई । नींद भी भरपूर आई । कोई कमी अथवा उनींदापन तनिक भी अनुभव नहीं हो रहा । ऐसा चाह कर भी नहीं हो पाता । आज ऐसा क्यों हुआ-सोचना चाहा किन्तु मस्तिष्‍क ने साथ देने से इंकार कर दिया ।

टेबल पर कोई विशेष काम पेण्डिंग नहीं था । क्या किया जाए ? पहले तो श्रीयुत दिनेशजी द्विवेदीजी को ‘धन्यवाद और क्षमा-याचना’ का एक मेल किया । फिर सोचा, टेबल की साफ-सफाई कर ली जाए । यही करते हुए कुछ पुराने नोट्स मिल गए । दो कागज ऐसे मिले जो लिखे गए थे अलग-अलग समय पर किन्तु दोनों की विषय वस्तु संयोग से एक ही है - यश अथवा प्रशंसा ।

कल भर्तहरी नीति पर आधारित, ज्ञानजी की पोस्ट भर्तृहरि का नीति शतक – दो पद पढ़ी थी - चाहे जो कर लें, दम्भी-मूर्ख को प्रसन्न नहीं किया जा सकता । मुझे मिले दोनों कागजों की बात भी कहीं न कहीं उससे जुड़ती है ।

पहले कागज के नोट्स किन्हीं जैन सन्त की बातें सुनते हुए लिए गए है । महाराजजी के अनुसार, संसार तीन ‘एषणाओं’ से लिपटा हुआ है । इनसे मुक्ति पाने का परामर्श दिया गया है ।

पहली है - पुत्रेषणा । प्रत्येक व्यक्ति की लालसा होती है कि उसे कम से कम एक बेटा हो जाए ताकि वह अपनी वंश-बेल बढ़ा कर ‘पितृ-ऋण’ से मुक्त हो जाए । किन्तु ऐसा न होने पर मनुष्‍य येन-केन-प्रकारेण अपने आप को समझा लेता है, पुत्रहीनता को अपना भाग्य मानकर इसे ईश्‍वर पर छोड़ देता है ।

दूसरी है - अर्थेषणा । हर व्यक्ति अकूत धन-सम्पत्ति चाहता है और इस हेतु दिन-रात लगा रहता है । नीति-अनीति को ताक पर रखकर, सम्बन्धों की अनदेखी कर, उचित-अनुचित की चिन्ता किए बिना, जल्दी से जल्दी, ज्यादा से ज्यादा धन कमा लेना चाहता है । इस ‘प्राप्ति’ को लेकर उसे सदैव लगता रहता है कि उसके प्रयत्नों का समुचित प्रतिदेय उसे नहीं मिला है । इस 'कमी' को भी मनुष्‍य अपना प्रारब्ध और ‘ईश्‍वरेच्छा’ मान कर अपने आप को समझाने की चेष्‍टा कर लेता है ।

अन्तिम है - यशेषणा । महाराजजी के अनुसार, इससे कोई नहीं बच पाता । इसके अपवाद भी परापवाद ही होंगे । मनुष्‍यों की बात छोड दीजिए, देवता भी इस यशेषणा से नहीं बच पाते । यह तीसरी एषणा मनुष्‍य को बार-बार, सर्वाधिक स्खलित करती है और प्रायः ही लोक-उपहास का पात्र बनाती रहती है । यश प्राप्ति के चक्कर में कई बार मनुष्‍य अपयश का भागीदार होकर सबकी नजरों में हँसी का पात्र बन जाता है - बिलकुल वैसे ही जैसे कि सड़क पर चलते हुए कोई, केले के छिलके पर पाँव रखने से फिसल कर लोक परिहास का विषय बन जाता है । महाराजजी के अनुसार - यह यशेषणा मनुष्‍य को सदैव ही मूर्खता की ओर धकेलती रहती है । इसलिए, इससे सर्वाधिक सावधान रहना चाहिए और इससे दूरी बनाए रखना चाहिए । जो इस 'असम्भव को सम्भव' कर दिखाए वह ‘नरोत्तम’ बन जाता है ।

महाराजजी की यह व्याख्या निस्सन्देह अनमोल परामर्श है । किन्तु मुझे यह 'अकादमिक' या कि 'शास्त्रोक्त' अधिक लगी । सहज कम । इसकी अपेक्षा, दूसरे कागज की बातें मुझे अधिक सहज लगीं । इस कागज पर, राजस्थान के लोक-सन्त, पीपाजी महाराज का एक दोहा लिखा हुआ है । पीपाजी महाराज के बारे में मेरी जानकारी बिलकुल ही शून्य है । इतना याद आ रहा है कि दर्जी समाज के लोग इन्हें अधिक मानते हैं । वे कबीर की परम्परा के वाहक माने जा सकते हैं क्योंकि पीपाजी भी गृहस्थ थे और कपड़ों की सिलाई के उद्यम से जीविकोपार्जन करते थे ।

यश अथवा प्रशंसा को लेकर इन्हीं पीपाजी महाराज का यह दोहा मुझे किसी अनमोल निधि से कम नहीं लगता । थोड़े में, बिना भाषिक आलंकारिकता या शाब्दिक चमत्कारिकता के, अत्यन्त सरलता से कही बात, सीधे आदमी के मन-मस्तिष्‍क के दरवाजे खोल देती है । पीपीजी महाराज कहते हैं -

परसंसा हतभागीनी, दर-दर भटकन जाय ।

ज्ञानी जन नहीं रोचते, मूरख इस नहीं भाय ।।

अर्थात् - यह प्रशंसा बड़ी ही अभागी है । पहले ही दिन से यह दर-दर भटक रही है किन्तु आज तक इसे कहीं ठौर नहीं मिल पाया है, यह कहीं भी अपना स्थायी निवास नहीं बना पाई है । क्यों कि ज्ञानी-समझदार तो इसे अपने पास फटकने नहीं देते और मूर्खों के पास यह जाती नहीं है ।

दिमाग को दुरुस्त कर देने वाली यह अनमोल बात मैं जान लूँ और इस पर अमल करने का ‘विवेकी साहस’ जुटा सकूँ - शायद यह सन्देश देने के लिए ही ईश्‍वर ने मुझे आज, मुझे इतनी जल्दी नींद से उठा दिया ।

आप सबको ‘गुड मार्निंग’ जब कि मेरी तो ‘मार्निंग गुड’ हो गई है ।


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कोउ नृप होय, हमें हानि होती है


‘अनवरत’ पर श्रीदिनेशरायजी द्विवेदी की पोस्ट--राजस्थान चुनाव के सभी नतीजे, जनता ने सबको उन की औकात बताई, पर आई टिप्पणियों को समेकित कर द्विवेदीजी ने नागनाथ, साँपनाथ या अजगरनाथ : 'कोउ नृप होय हमें का हानि' शीर्षक वाली, विमर्श को प्रेरित/प्रोत्साहित करने वाली सुन्दर विचारोत्तेजक पोस्ट लिखी है । अपनी इस पोस्ट में द्विवेदीजी ने मेरी टिप्पणी सम्मिलित कर मुझे सम्मानित ही किया है । उनके प्रति आभार प्रकट करना खतरनाक होने लगा है - वे बुरा मान जाते हैं ।

इस फालो-अप पोस्ट पर आई चार टिप्पणियों ने मुझे यह पोस्ट लिखने को प्रेरित किया है जिसे ‘फालो-अप पोस्ट की फालो-अप पोस्ट’ कहा जा सकता है ।

लावण्याजी लिखती हैं - ‘डेमोक्रेसी हमें वोट तो डालने का हक देती है पर अच्छे उम्मीदवार हमीं में से आगे आना भी जरूरी है ।’ लावण्याजी ने मूल संकट को रेखांकित किया है । वर्तमान दशा में हमें उन्हीं प्रत्याशियों में से किसी एक को चुनना होता है जिन्हें पार्टियाँ हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं । पार्टियाँ उन्हीं लोगों को प्रत्याशी बनाती हैं जिनमें जीतने की सम्भावना हो । यह पार्टियों की तानाशाही है जिसके चलते हमें ‘बुरों में से कम बुरा’ चुनना पडता है । इस सम्बन्ध में कृपया मेरी पोस्ट अब आप-हम,समस्त प्रत्याशियों को खारिज/अस्वीकार कर सकेंगे देखें । मेरा आप सबसे अनुरोध है कि भारत सरकार को पत्र अथवा ई-मेल भेज कर आग्रह करें कि निर्वाचन आयोग के सुझाव को स्वीकार कर, मत-पत्र/ईवीएम पर ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प मतदाताओं को अविलम्ब उपलब्ध कराए । मतदाताओं को (प्रस्तुत समस्त प्रत्याशियों को अस्वीकार करने का) यह विकल्प मिलने पर, प्रत्याशी चयन में पार्टियों की दादागीरी समाप्त होगी - इसमें (कम से कम मुझे तो) कोई सन्देह नहीं है ।


अगली तीन टिप्पणियां मेरे उसी मन्तव्य की पुष्‍िट करती हैं जिसे द्विवेदीजी ने उद्धृत किया है । विधु की टिप्पणी है - ‘मुझे ऐसा लगता है कि ये तो प्रजातन्त्र की शायद कोई बेसिक कमी है जिसका ईलाज अभी किसी को नहीं दिखाई दे रहा है ।’ यह बिलकुल सही बात है । हमारे लोकतन्त्र (क्षमा कीजिएगा, मैं ‘प्रजातन्त्र’ शब्द प्रयुक्त करने से बचता हूँ क्योंकि मुझे इसमें राजतन्त्र की गन्ध आती है) की मूलभूत कमी है - ‘लोकतन्त्र में लोक की भागीदारी न होना ।’ हमने संसदीय लोकतान्त्रिक शासन पद्धति अपनाई हुई है । लेकिन इसमें ‘लोक’ की उपस्थिति दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती । हमारा ‘लोक’ केवल मतदान तक ही भागीदारी करता है - वह भी सम्पूर्णतः नहीं । ऐसे में ‘तन्त्र’ (प्रशासन) को हावी होने के लिए खुली छूट मिल जाती है । ‘लोकतन्त्र’ में ‘लोक’ की भागीदारी न होने से बड़ी कमी और क्या हो सकती है ? और, इस ‘लोक’ में आप-हम सब बराबरी से शरीक हैं ।

ताऊ ने गुस्सा करते हुए (शायद अनजाने में ही) मेरी इसी बात पुष्‍िट अत्यधिक प्रभावी ढंग से कर दी है । वे लिखते हैं - ‘इन तीनों को ही जनता इतना त्रस्त कर दे कि ये नैतिक मूल्यों को मानने के लिए तैयार हो जाएँ ।’ बात वही है जो मैं बार-बार कह रहा हूँ । हम अपने नेताओं और पार्टियों को जिस दिन अनुशासित और नियन्त्रित करना शुरु कर देंगे, उस दिन इनमें से किसी की हिम्मत नहीं होगी कि वे हम पर अपनी मनमर्जी थोप सकें । लेकिन हम अत्यन्त स्वार्थी समाज हैं । नेता को हम कभी नहीं टोकते - ‘क्या पता इस नेता से हमें कब काम पड़ जाए ?’ जब तक हम इस भावना से मुक्त नहीं होते, हमें पार्टियों की और नेताओं की यह मनमर्जी झेलनी ही पड़ेगी ।

और सबसे अन्त में ज्ञानजी की टिप्पणी । वे (सम्भवतः तनिक व्यथा से) लिखते हैं - ‘सरकार की अहमियत कम से कमतर क्यों नहीं होती जाती ?’ हो सकती है और कमतर ही नहीं, शून्यवत हो सकती है बशर्ते हम अपने आप को सरकार से अलग न मानें । आज तो हम सरकार को लेकर ऐसे बातें करते हैं मानो वह हमें नष्‍ट करने के लिए ही चैबीसों घण्टे लगी हुई है । एक ओर तो हम ‘लोकतन्त्र’ को ‘लोगों द्वारा, लोगों का, लोगों के लिए शासन’ कहते नहीं थकते और इसी के समानान्तर, सरकार से छिटके रहते हैं । हम भूल जाते हैं (नहीं, भूलते नहीं, भूल जाना चाहते हैं और भूल जाने का बहाना करते हैं) कि इस सरकार को हम ही ने बनाया है । लेकिन सरकार को लेकर हमारा व्यवहार ऐसा होता है जैसा कोई अवैध सन्तान के साथ करता हो । ज्ञानजी की टिप्पणी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ज्ञानजी खुद प्रभावी सरकारी अधिकारी हैं और भली प्रकार बता सकते हैं कि यदि लोग अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से पूरी करने लगें तो ‘तन्त्र’ कितनी फुर्सत में हो सकता है ।

हमारा मूल संकट यही है कि लोकतन्त्र और सरकार को लेकर हम ‘वस्तुपरक भाव’ से बात करते हैं - खुद को उससे अलग, उससे असम्पृक्त रखते हुए । हमें अपना यह दृष्‍िटकोण और यह व्यवहार आमूलचूल रूप से बदलना होगा और सम्पूर्ण आत्मपरकता से बात करनी होगी । यदि हम परिवर्तन चाहते हैं तो वह हमे ही लाना होगा - अपने आप नहीं आएगा ।

लोकतन्त्र केवल अधिकर नहीं है । वह जिम्मेदारी है । बल्कि जिम्मेदारी पहले है और अधिकार बाद में । यह जिम्मेदारी निभाने के लिए हमें (हममें से प्रत्येक को), ‘अहर्निश-अनवरत’, सजग, सतर्क, सावधान रहते हुए निरन्तर सक्रिय और प्रयत्नशील बने रहना होगा ।


यह इसलिए जरूरी है क्यों कि कोउ नृप होय, हमें हानि होती है ।


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गुरु की करनी : शागिर्दों की भरनी


साहित्यिक मुहावरों में नहीं, वे सचमुच में भीड़ में अकेले थे । इतने अकेले कि अकेलापन भी घबरा जाए ।

यह एक विवाह समारोह था-मेरे कस्बे से कोई डेड़ सौ किलोमीटर दूर । अगहन मास का शुक्ल पक्ष आधे से अधिक बीत चुका था । ठण्डक यूँ तो कम थी किन्तु ‘मेरेज गार्डन‘ की मखमली दूब के नीचे की नमी ने गरम कपड़ों का औचित्य सिध्द कर रखा था ।


वर-वधु, दोनों पक्षों के मिला कर हम कोई ढाई सौ लोग वहाँ जमा थे । मेजबान चूँकि साहित्यिक अभिरुचि वाले थे सो सूट और टाइयाँ कम थीं, कुर्ते, जेकेट और शालें अधिक थीं । वातावरण अत्यधिक सहज तथा अनौपचारिक था । विद्युत सज्जा भी आतंककारी नहीं थी । धीमी आवाज में बज रही 'टाइम्स म्यूजिक' की ‘हिमालया चेण्टिंग’ सीडी के मन्त्र वातावरण को ‘भारतीय’ से आगे बढ़कर ‘देशी’ बनाए हुए थे । बच्चे बहुत ही कम थे-अपवाद जैसे । सो, वातावरण में तनिक गम्भीरता अनुभव हो रही थी जो बड़ी ही बनावटी और बोझिल हुए जा रही थी जिसे हर कोई उतार फेंकने को आतुर था । पाँच-पाँच, सात-सात के समूहों में लोग लान में फैले हुए थे । यह ऐसा आयोजन था जिसमें प्रति व्यक्ति के मान से जमीन अधिक उपलब्ध थी । सो हम सब बिना एक दूसरे का कन्धा छुए, आसानी से इधर-उधर हो रहे थे । ऐसे आयोजनों में ऐसे मुक्त विचरण का यह अनूठा अनुभव था ।


ऐसे में उनका अकेले खड़ा रहना तनिक अधिक प्रभाव से अनुभव हो रहा था । एक-दो बार उन्होंने किसी समूह का हिस्सा बनने का प्रयास किया तो लोग जल्दी ही उन्हें छोड़ कर दूर जा खड़े हुए । असहजता, व्यग्रता, उपेक्षा और अवांछित होने के भाव उनके चेहरे पर ऐसे छाए हुए थे कि लग रहा था कि वे किसी भी क्षण रो पड़ेंगे ।


वे मेरे लिए अपरिचित ही थे । उनका परिचय जानने के लिए मेजबान को तलाशा । वह अपने समधी के साथ व्यस्त था । साहस कर, मैं उनके सामने जा खड़ा हुआ । उनका परिचय जानना चाहा तो लगा मानो वे युगों-युगों से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे । वे उत्साहित हुए ही थे कि गला भर्रा गया । उन्होंने जो कुछ बताया उसका सार था कि वे उस कस्बे के महाविद्यालय में प्राध्यापक थे । कोई नौ-दस बरस पहले सेवानिवृत्त हुए हैं । इस समारोह में आए अधिकंश लोग उनके पढ़ाए हुए हैं (जो अब सयाने बच्चों के बाप हो चुके हैं)। आयोजन का मेजबान भी उन्हीं में से एक था । उन्हें शिकायत थी कि उनके पढ़ाए हुए बच्चे उनकी उपेक्षा करते हैं । पूछ-परख नहीं करते । रास्ते में मिल जाते हैं तो नमस्कार करने के बजाय कन्नी काटने की कोशश करते हैं । अपने घर पर होने वाले आयोजनों में निमन्त्रित्रत नहीं करते । इस आयोजन में कैसे बुला लिया - इस पर उन्हें आश्‍चर्य हुआ था और इसका कारण जानना भी उनके आने का एक कारण था । लेकिन यहाँ भी लोग उनकी ओर नहीं देख रहे हैं । उन्हें मेजबान से शिकायत तनिक कम थी क्यों कि वह ‘बेचारा‘ तो व्यस्त था । लेकिन बाकी लोग तो ‘फ्री’ थे । वे भी न तो पास फटकने दे रहे हैं और न ही पास आ रहे हैं ।


सुन कर मुझे आश्‍चर्य भी हुआ और उनकी बातों पर अविश्‍वास भी । पढ़ाए हुए कोई, एक-दो लोग ऐसा करें तो बात समझ में आती है लेकिन सबके सब ऐसा करें तो अचरज तो होगा ही । उनकी व्यग्रता और रुँआसापन मुझसे नहीं देखा गया । मेजबान की बाँह पकड़ कर एक ओर ले गया और ‘माजरा क्या है’ जानना चाहा । मेजबान ने जो बताया वह और अधिक अचरजभरा था ।


मेजबान की बातों का लब-ओ-लुबाब यह था कि ‘प्रोफसरशिप’ के दौरान वे बच्चों को पढ़ाने में बिलकुल ही रुचि नहीं लेते थे । कोशिश करते थे कि बच्चे या तो ‘बंक’ मार दें और यदि कक्षा में आ ही गए हैं तो जैसे-तैसे पीरीयड पूरा कर दिया जाए । प्रायः तो यह होता था कि वे बच्चों को ‘ज्ञान प्राप्ति के लिए’ लायब्रेरी में भेज देत थे । उनके पीरीयड के दौरान यदि कभी, प्राचार्यजी अचानक ही राउण्ड पर आते हुए नजर आते तो जोर-जोर से बोल कर पढ़ाने का अभिनय करने लगते और जैसे ही प्राचार्यजी ‘कानों की ओट’ होते, वे अपने मूल स्वरूप में आ जाते । अन्य प्राध्यापकों को जाहिल-काहिल साबित करते, उनकी खूब निन्दा करते ।


महाविद्यालय से बाहर यदि कोई छात्र वाहन पर मिल जाता तो उसे रोक कर ‘मुझे फलाँ जगह छोड़ दे’ कहते हुए, उसके वाहन पर लद जाते । बेचारा छात्र ! उसकी दशा ‘जाते थे जापान, पहुँच गए चीन’ जैसी हो जाती । वह, अपना गन्तव्य भूल कर, एक सौ अस्सी अंश का घुमाव ले उन्हें छोड़ता । जब वे उसे रोकते तो वह पछताता - ‘कहाँ इस रास्ते आ गया ?’ और जब उन्हें छोड़ता तो यही पछतावा, प्रसन्नता में बदल जाता - ‘चलो ! मुक्ति मिली ।’


कोई छात्र पान की दुकान पर मिल जाता । पूछता - ‘सर ! पान लेंगे ?’ वे कहते - ‘ दो पान बँधवा दो ।’ छात्र की 'मनुहार' मानो 'कर- अदायगी' में बदल जाती । बात-बात में अपने ‘कुलीन ब्राह्मणत्व’ का गर्व-घोष करते और इसके साथ अपने प्राध्यापन को जोड़ कर ‘सोने में सुहागा’ और ‘हम ही इसके (प्राध्यापक होने के) वास्तविक आधिकारिक पात्र हैं’ की निर्णायक दुदुम्भी बजाते ।


मेजबान ने मर्मान्तक पीड़ा से कहा -‘हममें से कुछ इनके मुँह लगे थे । कभी प्रत्यक्षतः तो कभी परोक्षतः समझाने की कोशिश की लेकिन हर बार हमें डाँट कर, नामसमझ, मूर्ख, मन्द-बुद्धि घोषित कर हमें भगा देते, चुप कर देते । तब उन्होंने हमें चुप कराया । अब हम सब लोग चुप रहते हैं । तब वे समझते थे कि हम लोग कुछ नहीं समझते । लेकिन हम न केवल सब समझते थे बल्कि उस समझे को आज तक नहीं भूले हैं । इन्होंने हमारा देय हमें नहीं दिया - यह बात हम चाह कर भी नहीं भूल पाए और आज यह दशा है ।’


यह वर्णन मेरे लिए सर्वथा अप्रत्याशित ही नहीं, कल्पनातीत भी था । मैं ने जानना चाहा कि क्या सब छात्रों ने मिल कर उनकी उपेक्षा का सामूहिक, सर्वानुमत निर्णय लिया ? उत्तर में मेजबान ने कहा - ‘ऐसी फालतू बातों के लिए किसके पास वक्त है ? हम सब कामकाजी, बाल-बच्चेदार लोग हैं । अपने काम और घर के लिए ही वक्त नहीं निकाल पाते तो इनके लिए कहाँ से निकालेंगे ?’ ‘तो फिर सबके सब, एक जैसा व्यवहार क्यों और कैसे कर रहे हैं ?’ मैं ने जानना चाहा ।मेजबान इस बार तनिक अधिक पीड़ा से बोला - ‘यही तो अधिक दुख की बात है । किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा लेकिन सबका निष्‍कर्ष एक ही रहा । सब इनकी उपेक्षा करते हैं, इनसे बचते हैं, अपने यहाँ आयोजनों में नहीं बुलाते । तुम्हारी बात का क्या जवाब दूं ? समझ लो कि ये अपनी करनी के फल भोग रहे हैं । जो बोया था, वही काट रहे हैं । या फिर यूँ कह लो कि हम सबके पास इस व्यवहार के सिवाय दूसरी, और कोई गुरु दक्षिणा नहीं रह गई है ।’


मेजबान की बातें सुनकर मेरी भी हिम्मत जाती रही । मैं भी उनके पास फिर नहीं गया ।

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वधु की प्रतीक्षा










वधु की प्रतीक्षा में बैठा वर ।

कन्या भ्रूण की हत्याओं के कारण चिन्ताजनक रूप से असन्तुलित हो रहे लिंग अनुपात पर ये दोनों चित्र अपने आप में सटीक टिप्पणी से कम नहीं लगते ।


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उजास की काली परछाइयां
































ये चित्र एक बारात की शोभा-यात्रा के हैं । इनमें उजाले की काली परछाइयाँ और सम्पन्नता के भव्‍‍‍य प्रासाद की नींव में दबी विपन्नता अनायास ही दृष्टिगोचर हो जाती है । रोशनी ढो रही सारी बच्चियां 'बाल श्रमिक' की श्रेणी में आती हैं ।

इस बारात में आभिजात्‍‍य वर्ग के प्रभावी लोग तो शरीक थे ही, कलम की कूची से सम्वेदनाओं के चित्र कागज पर उकेरने वाले भावुक ह्रदय लोग और कानूनों का मैदानी अमल कराने वाले प्रशासकीय अधिकारी भी बडी संख्या में शामिल थे ।

बारातियों के नाचने के दौरान आराम कर रहीं बालिकाएं मानो कह रही हों - ईश्‍‍वर बारातियों को देर तक नाचने की सद्बुध्दि दे ।' तो कहीं कहती लग रही हैं - 'माथे का बोझ कमर पर ले लिया । आपने टोका नहीं । शुक्रिया ।' एक बच्ची माथे पर रोशनी लिए मानो कह रही है - 'रोशनी माथे पर ढो रही हूं ताकि उजाला देखने के लिए जीवित रह सकूं ।'

पहले चित्र में, कमर पर बोझा लिए, हंसते हुए आपस में बातें कर रहीं बाल श्रमिकों की हंसी मानो अभावों और विपन्‍नता को अंगूठा दिखा रही हो ।

ये चित्र सिलसिलेवार प्रस्तुत कर, इनके साथ उचित केप्‍‍शन दूं - इस हेतु सवेरे से कोई तीन घण्टों तक प्रयासरत रहा किन्‍तु तकनीकी अज्ञान ने सफल नहीं होने दिया । सो, कृपया इन्‍हें, इस अनगढ स्‍वरूप में देखने का परिश्रम कर लीजिएगा और मुझे क्षमा कर दीजिएगा ।

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तीन सितारा में गणपति के लिए गूंजती 'नौबत'



डिजाइनर कपड़ों और होठ चबा-चबा कर बोली जा रही अंग्रेजी का सहारा लेकर हम चाहे जितने आधुनिक हो जाएँ लेकिन अपनी जड़ों से दूर नहीं हो सकते । इसीलिए, जब पोकरण-1 होता है तो पहले दीप प्रज्ज्वलित किया जाता है, धूप-गुग्गल से वातावरण सुवासित किया जाता है, कुंकुंम-अक्षत से पूजा होती है, और श्रीफल तोड़ा जाता है । हमारी जड़े हमें अपनी मिट्टी से कभी दूर नहीं होने देती ।


मेरे आत्मीय धर्मेन्द्र रावल और सुमित्रा भाभी की इकलौती बिटिया, ‘कलेजे की कोर’, मेरी सिर चढ़ी भतीजी तनु, 29 नवम्बर को ससमारोह, चिरंजीव हर्ष भट्ट का हाथ थाम, डोली में बैठकर ‘अपने घर’ चली गई ।


28 नवम्बर की रात, उसके ब्याह की पूर्व सन्ध्या पर, ‘महिला संगीत’ आयोजित था । तनु के ददीहाल और ननिहाल के ढेरों भाई-बहन जी भर कर नाचे-कूदे । खुद तनु भी नाची । आयोजन में अधिकांश गीत, आज के, तेज गति और ताल वाले, फिल्मी गीत थे ।


लेकिन इस आयोजन की शुरुआत तनिक अनपेक्षित और अनूठी रही ।


सब कुछ तैयार था - मंच, साउण्ड सिस्टम, डीवीडी प्लेयर, सिलसिलेवार जमा कर तैयार रखी डीवीडी । सबको लग रहा था कि किसी भारी भरकम संगीत वाले गीत से कार्यक्रम शुरु होगा । लेकिन कार्यक्रम की एंकरिंग कर रहे, तनु के इकलौते काका, अनिल रावल ने घोषणा की कि कार्यक्रम की शुरुआत मालवा की लोक परम्परा के अनुसार गणपति को निमन्त्रित करने से होगी और यह काम करेंगी, कुटुम्ब की पाँच वरिष्‍ठ महिलाएँ ।


तनु की दादीजी और हम सबकी आदरणीया-प्रिय ‘बई’, श्रीमती पार्वतीदेवी रावल की अगुवाई में पाँच महिलाएँ मंच पर पहुँची, अपना स्थान ग्रहण किया । उनके सामने माइक रखा गया और मालवा-राजस्थान का सर्वाधिक लोकप्रिय, पारम्परिक 'गणपति' गीत शुरु किया -


गोटा री गादी पे, नौबत बाजे


नौबत बाजे, इन्दरगढ़ गाजे


या तो झिणी-झिणी झालर बाजे ओ गजानन


गोटा री गादी पे नौबत बाजे


अर्थात्, गोटा-किनारी लगी सुन्दर गद्दी पर सजी नौबत बज रही है जिससे धरती ही नहीं, इन्द्रपुरी भी गूँज रही है, साथ में धीमी-धीमी आवाज में झालर (थालीनुमा, पीतल का बना एक लोक वाद्य) भी बज रही है । हे ! गणेश, सबसे पहले आप पधारिए और इस मंगल काम को सानन्द पूर्ण कीजिए ।


बिना संगीत-संगत शुरु हुआ गीत, पल भर में ही वितान पर छा गया । शहतूत को मात देने वाली मिठास भरी मालवी का लोक गीत और उससे भी अधिक मीठे, परिपक्व प्रौढ़ स्वरों ने मानो गणपति के आगमन के लिए रास्ता बुहार दिया और पल भर में ही गणपति आ पहुँचे ।


उसके बाद गीत आगे बढ़ा । दो-दो पंक्तियों वाले प्रत्येक अन्तरे में गणपति को उन तमाम उपक्रमों के लिए साथ चलने का आग्रह किया जाने लगा जिनके बिना वैवाहिक मंगल कार्य सम्पादित नहीं हो सकता । जैसे -


चालो हो गजानन, जोशी के चालाँ


आछा-आछा लगन लिखावाँ गजानन


गोटा री गादी पे नौबत बाजे


अर्थात् - अच्छा हुआ गजानन आप पधार गए । चलिए, ब्राह्मण के यहाँ चलें और विवाह के लिए श्रेष्‍ठ लग्न मुहूर्त लिखवा कर ले आएँ ।


यह काम कर लिया तो अब अगला काम -


चालो हो गजानन, माली के चालाँ


आछा-आछा फुलड़ा मोलावाँ गजानन,


गोटा री गादी पे नौबत बाजे


अर्थात् - चलिए श्रीगणेश, माली के यहाँ चल कर, मोल-भाव कर, सुन्दर-सुन्दर फूल ले आएँ ।


इसी तरह मंगल कलश के लिए कुम्हार के यहाँ, सुन्दर आकर्षक गहनों के लिए सुनार के यहाँ, विवाह के लिए नए कपड़े खरीदने के लिए बजाज के यहाँ, उन्हें सिलवाने के लिए दर्जी के यहाँ और ऐसे तमाम कामों के लिए सम्बन्धितों के यहाँ साथ चल कर सारे काम कराने के लिए गणपति से आग्रह किया जाने लगा ।


तीन सितारा व्यवस्था और जगर-मगर कर रही विद्युत सजावट वाले उस मेरेज गार्डन का परिसर, लोक मंगल के देवता की अगवानी को आतुर हो उठा था । ‘बई’ और उनकी संगिनियों के, कोयल को चुनौती देते व्याकुल कण्ठ स्वर, गणपति के लिए रास्ता बुहार रहे थे । वहाँ न तो गोटा-किनारी वाली गद्दी थी और न ही नौबत-झालर किन्तु पूरा वातावरण, इन लोक वाद्यों से गुंजायमान था ।


ऐसे में भला गणपति कैसे न आते । वे आए और उन्होंने सारा काम निर्विघ्न, सानन्द, सोल्लास निपटाया ।


‘गणपति’ समाप्त कर ‘बई’ और उनकी संगिनियाँ मंच से उतर आईं और फिर शुरु हुई बच्चों की उमंग । बच्चों ने अद्भुत तैयारी की थी इस प्रसंग के लिए । सारी प्रस्तुतियाँ ‘रेकार्ड एक्‍शन’ थीं । केवल ‘गणपति’ ही जीवन्त प्रस्तुति थी ।


गणपति ही तो जीवन हैं !


(प्रस्तुत चित्र में, सबसे आगे, सफेद साड़ी में हैं हम सबकी ‘बई’ - श्रीमती पार्वतीदेवी रावल)


(बाद में, धर्मेन्द्र ने बताया कि कार्यक्रम की शुरुआत ‘गणपति’ से करने का सुझाव, वाणिज्यिक कर विभाग के उपायुक्त श्री एस. बी. सिंह ने दिया था ।)


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अब आप-हम, समस्त प्रत्याशियों को खारिज/अस्वीकार कर सकेंगे


पूरे देश के लिए यह अच्छी खबर है और मुझे इस यह आत्म सन्तोष है कि इस खबर के पीछे मैं भी कहीं न कहीं हूँ ।


कुछ चुनाव सुधारों की माँग करते हुए हम कुछ लोग कोई तीन-साढ़े तीन वर्षों से एक ‘मूक अभियान’ चलाए हुए हैं । इस अभियान की शर्त है कि हम इसकी माँगों को सार्वजनिक नहीं करेंगे (विशेषतः समाचार पत्रों में नहीं देंगे) और जिस बात को हम ठीक समझ रहे हैं, उसके लिए निरन्तर प्रयास करते रहेंगे ।


मतदान की उपेक्षा करने वालों में शिक्षितों की संख्या भरपूर है । ऐसे समस्त लोग, उनके समक्ष प्रस्तुत प्रत्याशियों को ‘चुने जाने योग्य’ नहीं मानते और मानते हैं कि उन्हें ‘निकृष्‍टों में से कम निकृष्‍ट प्रत्याशी’ को चुनने के लिए विवश किया जाता है । यह शिकायत केवल उन्हीं लोगों की नहीं है जो मतदान की उपेक्षा करते हैं । मतदान करने वालों में भी ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में होते हैं किन्तु वे ‘मतदान को अपना उत्तरदायित्व’ मान कर, प्रायः ही अनिच्छापूर्वक मतदान करते हैं । ऐसे समस्त लोगों की भावना है कि मतदाताओं को, समस्त प्रत्याशियों को निरस्त/अस्वीकार करने का अधिकार मिलना चाहिए ।


हममें से कितने लोग जानते हैं कि हम भारत के लोगों को यह अधिकार, सम्वैधानिक स्तर पर 1961 से ही उपलब्ध कराया हुआ है ? जन सामान्य की बात तो दूर रही, भारतीय प्रशासकीय/पुलिस सेवाओं के सदस्यों (अर्थात् कलेक्टर और एस पी) सहित, निर्वाचन प्रक्रिया सम्पन्न कराने वाले, लगभग शत-प्रतिशत लोग भी नहीं जानते कि, समस्त प्रत्याशियों को अस्वीकार करने का अधिकार मतदाताओं को दिया गया है ।


मताधिकार कानून की धारा 49 (ओ) के अधीन मतदाता, मतदान न करने के अधिकार का उपयोग कर, विकल्पहीनता अंकित करा सकता है । अर्थात् आप मतदान केन्द्र पर जाकर, मत-पत्र प्राप्त कर, उसका उपयोग किए बिना, उसे जस का तस, पीठासीन अधिकारी को सौंप कर कह सकते हैं कि आप, प्रस्तुत प्रत्याशियों में से किसी को भी निर्वाचन योग्य नहीं मानते इसलिए, मतदान हेतु अपनी उपस्थिति अंकित कराने के बाद भी मतदान नहीं करना चाहते । किन्तु अपना यह मन्तव्य प्रकट करने के लिए आपको, पीठासीन अधिकारी से फार्म 17-ए प्राप्त कर, उसे भरकर, पीठासीन अधिकारी को सौंपना पड़ेगा । चुनाव परिणाम घोषित करते समय, ऐसे मतों की संख्या पृथक से सूचित करने का स्पष्‍ट प्रावधान है । किन्तु, जैसा कि ऊपर कहा गया है, इस अधिकार की सार्वजनिक जानकारी शून्य प्रायः ही है । इसलिए इस महत्वपूर्ण अधिकार का उपयोग कोई नहीं कर पाता ।


हमारी सुनिश्‍िचत धारणा है कि उपरोक्त अधिकार का उपयोग करने के लिए प्रक्रिया जान बूझ कर अदृश्‍य जैसी, अवास्तविक, अत्यधिक क्लिष्‍ट और असुविधाजनक है । इतनी असुविधाजनक कि कोई इसके बारे में जानना भी नहीं चाहता - न तो मतदाता और न ही मतदान प्रक्रिया सम्पन्न कराने पाले लोग । ऐसे में यह अधिकार उपलब्ध कराना, औपचारिकता का निर्वाह मात्र है और इसका अनुभूत लक्ष्य है कि भारतीय मतदाता इसका उपयोग न करें ।


इस परिप्रेक्ष्य में हमारी माँग रही है कि मतदाताओं को यह अधिकार प्रत्यक्षतः, स्पष्‍टतः और असंदिग्ध रूप से उपलब्ध कराया जाए । इस हेतु, लोक सभा/विधान सभा चुनावों के मतपत्रों/इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में, प्रत्याशियों के नामों/चुनाव चिह्नों के बाद ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प भी मतदाताओं को उपलब्ध कराया जाए । हमारा तर्क है कि इस सन्दर्भ में मतदाताओं को राजनीतिक दलों की मनमानी (इसे ‘तानाशाही’ कहना अधिक उपयुक्त होगा) झेलनी पड़ रही है । प्रत्याशियों के चयन का प्रमुख आधार ‘जीतने की सम्भावना’ बन गया है । फलस्वरूप भले, ईमानदार, चरित्रवान्, विषय के ज्ञाता, कर्मठ लोग नेपथ्य में धकेले जा रहे हैं और ‘धन-बली’, ‘बाहु-बली’, ‘अपराध-बली’ विधायी सदनों में छा गए हैं । मतदाताओं को, ‘प्रस्तुत प्रत्याशियों में सबसे कम खराब’ को चुनने के लिए विवश कर दिया गया है । सम्भवतः यही कारण है कि असंख्य लोग मतदान नहीं करते ।
हमारी माँग है कि मताधिकार का उपयोग करने वालों में से 50 प्रतिशत अथवा अधिक मतदाता यदि ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प चुनते हैं तो उस दशा में वह निर्वाचन निरस्त कर वहाँ पुनर्निवाचन कराया जाना चाहिए और तब, अस्वीकार किए जा चुके प्रत्याशी इस पुनर्निवाचन में प्रत्याशी नहीं बन सकेंगे ।


हमारे समूह के कुछ मित्रों ने सूचित किया कि, भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त श्री गोपालस्वामी ने गत दिनों पत्रकारों से सामुख्य में सूचित किया कि, ‘आयोग’ ने भारत शासन को जिन चुनाव सुधारों की सूची भेजी है उनमें ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प, मत पत्र पर उपलब्ध कराने का सुझाव भी शामिल है ।


हम लोगों ने परस्पर बधाई दी । लेकिन हम सब भली भाँति जानते हैं कि लक्ष्य प्राप्ति अत्यधिक कठिन है । 'शासन' इस सुझाव को सहजता से स्वीकार नहीं करेगा । इसे विडम्बना कहें, विसंगति कहें, विरोधाभास कहें अथवा विद्रूप, किन्तु सत्य (और सबसे बड़ी बाधा भी) यही है कि इस सुझाव को स्वीकार करने न करने का अधिकार उन्हीं को है जिन्हें निरस्त/अस्वीकार करने का अधिकार माँगा गया है । वे भला इसे कैसे और क्यों स्वीकार करेंगे ?


लेकिन, चूँकि ‘जन्नत की हकीकत’ हम सब जानते हैं इसलिए हम लोग तनिक भी निराश नहीं हैं । इस समाचार ने हमारा उत्साह सहस्रगुना कर दिया है ।
हम सब जानते हैं कि हमारा नियन्त्रण केवल प्रयत्नों पर है, परिणाम पर नहीं । यह दोहा हमारा उत्साहवर्द्धन कर रहा है -


करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान ।

रसरी आवत-जात ते, सिल पर होत निसान ।।


हमें सफलता मिलनी ही है । वह जल्दी मिल जाए, यही हमारा प्रयत्न है ।


मुझे विश्‍वास है कि आपमें से अधिसंख्य लोग भी इस माँग से सहमत होंगे । यदि वास्तव में ऐसा हो तो मेरा आपसे आग्रह है कि आपमें से प्रत्येक, अपनी ओर से, भारत सरकार को लिखे कि भारत निर्वाचन आयोग का यह प्रस्ताव अविलम्ब जस का तस स्वीकार कर, आज के बाद फौरन आने वाले चुनावों में मतदाताओं को यह अधिकार उपलब्ध कराए ।


कृपया याद रखिएगा कि हमारी व्यवस्था कागज से चलती है । इसलिए, केवल कहने से काम नहीं चलेगा, लिख कर ही देना पड़ेगा - जैसे कि हम लोग गए तीन-साढ़े तीन वर्षों से लगातार लिख रहे हैं । आपका एक पत्र, देश के राजनीतिक चित्र और चरित्र को अपेक्षित (और सर्व प्रतीक्षित) स्वरूप प्रदान करने में सहायक होगा ।


(चूँकि हमारी यह माँग, चुनाव आयोग ने चुनाव सुधारों के अपने प्रस्तावों में सम्मिलित कर ली है इसलिए हम लोग इसे सार्वजनिक कर रह हैं ।)


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मुम्बई एपिसोड और हमारा राष्‍ट्र-प्रेम : एक पहलू यह


मेरी कल वाली पोस्ट ‘मैं ही आतंकी, मैं ही नेता,दोष किसे दूँ ?’ http://akoham.blogspot.com/2008/12/blog-post.html पर आई प्रतिक्रियाएँ अपेक्षानुरूप ही रहीं । कुछ ने सहमति जताई तो कुछ ने इसे ‘विलाप’ माना ।


अभी भी मेरी धारणा यही है कि हम केवल ‘आपात स्थितियों’ में ही हमारा राष्‍ट्र-प्रेम उफनता है । वर्ना सामान्य स्थितियों में तो ‘देश’ के बारे में हमारी चिन्ता और चर्चा ‘प्रासंगिक’ ही होती है, ‘प्राथमिकता’ पर नहीं । हम आज भी इस विषय को, चाय-नाश्‍ता के समय अथवा खाली समय व्यतीत करने के लिए ही प्रयुक्त करते हैं । जबकि किसी भी कौम के राष्‍ट्रीय चरित्र की परीक्षा सदैव शान्ति काल में ही होती है । अपना दैनन्दिन काम करते हुए हम सदैव ही ‘अपने लिए’ काम कर रहे होते हैं, ‘देश के लिए’ नहीं । मैं स्थितियों और व्यवहार का साधारणीकरण नहीं कर रहा, वास्तविकता प्रस्तुत कर रहा हूँ । सम्भव है, मेरी यह ‘वास्तविकता’ अन्यों की वास्तविकता से पूरी तरह भिन्न हो और मेरी वाली वास्तविकता क्षणिक साबित हो । ईश्‍वर करे, ऐसा ही हो ।


28 नवम्बर से 30 नवम्बर तक मैं इन्दौर में था - दो विवाह समारोहों में सम्मिलित होने के लिए । एक विवाह 29 की रात को और दूसरा 30 की पूर्वाह्न में । 29 वाले विवाह में एक आयोजन और था - 28 की रात को, ‘महिला संगीत’ का । यह विवाह, इन्दौर के, स्कीम नम्बर 71-सी क्षेत्र स्थित एक ‘मेरेज गार्डन’ में था । इसके आसपास तीन और ‘मेरेज गार्डन’ थे । इन तीनों में भी 28 की रात को ‘महिला संगीत’ और 29 की रात को विवाह समारोह आयोजित थे ।


28 की रात वाले आयोजनों में, चारों ‘गार्डनों’ में, अँधेरे को छुपने की जगह नहीं मिल रही थी । हेलोजनों की चकाचौंध छाई हुई थी । चारों में बिजली और फूलों की सजवाट भरपूर थी । उत्सव का उल्लास पसरा हुआ था । ‘महिला संगीत’ के निमित्त जितने भी रंगारंग कार्यक्रम हो सकते थे, हो रहे थे । डीजे का शोर फलक को छोटा कर रहा था । दो आयोजनों के बीच तो केवल एक ‘वायर फेंसिंग’ ही थी, सो दोनों आयोजनों के गीत-संगीत मानों एक दूसरे से प्रतियोगिता या फिर जुगलबन्दी कर रहे थे ।


भोजन व्यवस्था किसी भी आयोजन में तीन सितारा से कम वाली नहीं थी । अपने आमन्त्रित अतिथियों को सम्पूर्ण आनन्द उपलब्ध कराने की सदाशयता के अधीन, चारों मेजबानों ने अपने-अपने हिसाब से ‘यूनीक डिशेज’ प्रस्तुत की हुई थीं । चारों आयोजनों में यथेष्‍ठ उपस्थिति थी । जिस आयोजन में मैं भागीदार बना हुआ था उसमें कृषि श्रमिक से लेकर आई.ए.एस./आई.पी.एस. स्तर तक के अतिथि, आयोजन की शोभा बढ़ा रहे थे । मँहगी साड़ियों, चुन्नी-सूटों और थ्री पीस सूटों ने वातावरण को आभिजात्य प्रदान कर रखा था ।

इस बीच तारीख याद रखिए - वह 28 नवम्बर की रात थी - ‘मुम्बई एपिसोड’ निरन्तर था । सब लोग रंगारंग कार्यक्रम और व्यंजनों का आनन्द पूरी आत्मपरकता से ले रहे थे । हाथ प्लेटों को थामे हुए थे, आँखें मंच पर नाच-गा रहे बच्चों/परिजनों/कलाकरों की प्रस्तुतियों में उलझी हुई थीं और कान, ‘झंय्यम्-झंय्यम्’ हुए जा रहे थे । मैं सबकी मुख-मुद्राएँ देख रहा था । तनाव या चिन्ता की एक लकीर भी किसी भी चेहरे पर नहीं थी । कान लगाकर लागों की बातें सुनीं । ‘मुम्बई एपिसोड’ या ‘मुल्क पर हमला’ कहीं सुनाई नहीं पड़ा । समारोह में उपस्थित, लगभग प्रत्येक वर्ग के कम से कम दो-दो लोगों से मैं इस विषय पर बात की । अपवादस्वरूप ही किसी ने गम्भीरता या चिन्ता जताई । प्रायः प्रत्येक ने -‘अरे ! हाँ । वो तो गजब ही हुआ ।’ से अधिक कुछ नहीं कहा । हर कोई समारोह और भोजन का आनन्द लेने में मगन था ।


29 की रात को चारों मेरेज गार्डनों में बारातें आईं । चारों ही बारातों के बारातियों ने खूब आतिशबाजी की, सड़कों पर नाचे, नाचनेवालों पर हुई न्यौछावर ने बेण्डवालों की जेबें भर दीं । लड़की वाले के दरवाजे पर पहुँचने का मुहूर्त, चारों बारातें चूकीं । उस रात को भी प्रकाश की और कपड़ों की चकाचैंध छाई हुई थी । फूलों की सजावट मानो एक दूसरे को परास्त कर रही थी । उस रात भी अपनी-अपनी पसन्द और क्षमतानुरूप संगीत व्यवस्था थी । व्यंजनों की संख्या, विविधता और उपस्थित होने वालों की संख्या 28 की रात से कहीं अधिक थी । इसी के समानान्तर, ‘मुम्बई एपिसोड’ भी 28 की रात की तरह ही अनुपस्थित था । चिन्ता तो कोसों दूर की बात थी, चर्चा भी नहीं थी ।


30 वाला विवाह पूर्वाह्न में था-इन्दौर से कुछ किलोमीटर दूर, एक ‘ढाणी’ में । रोशनी और फूलों की सजावट की चकाचौंध को छोड़ बाकी सब वहाँ भी समान रूप से नजर आ रहा था । इस समारोह में प्रबुध्द, शिक्षित, सम्भ्रान्त और अभिरुचि सम्पन्न लोग अपेक्षया अधिक थे । किन्तु ‘मुम्बई एपिसोड’ यहाँ भी लोगों के होठों पर जगह की तलाश में भटक रहा था ।


मैं दोनों आयोजनों में ‘प्रसन्नतापूर्वक’ शरीक हुआ और बना रहा । वहाँ बाकी सब था, नहीं था तो केवल ‘मुम्बई एपिसोड’ और उससे उपजी चिन्ता, अकुलाहट, आक्रोश, क्षोभ, नहीं था । प्रासंगिक विषय के रूप में बात होनी तो दूर रही, छेड़ने पर भी इस विषय पर कोई बात करने को तैयार नहीं था । इसके मुकाबले परोसे गए व्यंजन और व्यवस्था की गुणवत्ता पर हर कोई बात कर रहा था । ऐसा भी नहीं कि मैं ने केवल ‘आब्जर्व’ कर रहा था, मैं ने ‘मुम्बई एपिसोड’ पर सायास, सोद्देश्य बात करनी चाही, तब भी किसी ने मुझे घास नहीं डाली ।


यह सब सुनी-सुनाई नहीं बातें नहीं, भोगा हुआ यथार्थ है । इसका कोई अनर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए । फिर भी इस सबसे कोई सन्देश तो निकलता ही है । वह सन्देश क्या है - यह बताकर मैं अपना अविवेक प्रकट नहीं करना चाहता ।


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मैं ही आतंकी, मैं ही नेता, दोष किसे दूँ ?


फोन पर दूसरे छोर से नीरज ने पूछा कि मुम्बई पर हुए आतंकी आक्रमण पर मैं ने क्यों कुछ नहीं लिखा ? तत्काल उत्तर दिया कि सबने इतना लिख दिया कि मुझे लिखने को कुछ भी तो शेष नहीं रहा ! लेकिन उत्तर पूरा होता उससे पहले ही आत्मा ने झंझोड़ दिया । तत्काल क्षमा याचना की और कहा - लिखना चाहा था, लिखना शुरु भी किया था लेकिन लिख नहीं पाया । नीरज ने ‘पल-पलट’ प्रश्‍न किया - ‘क्यों ?’ असुविधाजनक प्रश्‍न से बचने का श्रेष्‍ठ उपाय है-उत्तर में प्रश्‍न कर लो । सो पूछा - ‘मेरी छोड़ो, तुमने कुछ लिखा ?’ नीरज ने फौरन पकड़ लिया - ‘आपसे उत्तर माँगा है । प्रश्‍न पूछ कर बचिएगा नहीं ।’


नीरज को जो उत्तर दिया, वही सर्वाजनिक कर रहा हूँ ।


एकाधिक बार लिखना शुरु किया और हर बार कुछ पंक्तियाँ लिख कर रहा गया । प्रश्‍नों का सहस्र फणधर, फुफकारें मारता सामने आने लगा - क्या पूछोगे ? किससे पूछोगे ? किस हैसियत में पूछोगे ? एक अंगुली सामने करोगे तो तीन तुम्हारी अपनी तरफ मुड़ेंगी । किसी से एक सवाल पूछने से पहले, किसी पर एक आरोप लगाने से पहले, किसी से एक अपेक्षा करने से पहले अपने आप में झाँको और जो भी पूछना-करना है, उससे तीन गुना अधिक पहले खुद से पूछो-करो ।


और सच मानिए ! मैं किसी से कुछ भी पूछने का, किसी पर कोई भी आरोप लगाने का, किसी से कोई अपेक्षा करने का साहस, पल भर को भी नहीं जुटा पाया । मेरा प्रत्येक प्रयास हर बार मुझ पर ही आकर समाप्त होता रहा ।


मैं किसे अपराधी मानूँ ? नेताओं को ? लेकिन उनका क्या दोष ? वे तो मेरे ही बनाए हुए है ! मैं उनकी प्रत्येक गलती को, प्रत्येक दुराचरण को, प्रत्येक स्खलन को देख कर भी अनदेखा करता रहा हूँ । उनके प्रत्येक अनपेक्षित और अस्वीकार्य आचरण पर मैं मात्र इसलिए चुप रहा कि पता नहीं कब नेताजी से काम पड़ जाए ? उन्हें टोकने पर मुझ क्षति/हानि झेलनी पड़ सकती थी । मैं ने उन्हें एक बार भी नहीं टोका और इसीलिए वे अपनी प्रत्येक करनी को सहज और लोक स्वीकार्य मान कर, मनमानी करते रहे । मैं ने ही तो उन्हें उच्छंृखल बन जाने दिया ! अब आज कैसे उन्हें जिम्मेदार घोषित कर दूँ ?


मेरा स्वार्थ सिध्द करने में सहायक बनते रहे प्रत्येक नेता के प्रत्येक दुराचरण का या तो मैं ने प्रतिकार नहीं किया या फिर दूसरे नेताओं के वैसे ही दुराचरण का हवाला देकर बचाव किया, उनका औचित्य सिध्द किया । मेरा उत्तरदायित्व था कि मैं अपने नेता को सदाचारी बनाए रखने के लिए निरन्तर प्रयत्नरत रहता । लेकिन यह जिम्मेदारी मुझ अकेले की तो नहीं थी ? बाकी लोग यदि चुपचाप देख रहे हैं तो मैं ने भी समझदारी बरतनी चाहिए । मैं ने भी वही किया । अपनी बारी पर मैं ने तो गैरजिम्मेदारी बरती । अब नेता को गैरजिम्मेदार कैसे कहूँ ?


अफसरों को तो सवालों के घेरे में खड़ा कर ही नहीं सकता । वे तो नेताओं के भी नेता हैं । इसीलिए लोहियाजी नेताओं को ‘नौकरों के नौकर’ कहते थे । नेता लोग अफसरों के कहे पर चलते हैं, यह मुझे कभी अच्छा नहीं लगा लेकिन किसी को टोकने की हिम्मत भी नहीं कर सका । फिर, नेता तो ‘टेम्परेरी’ हैं और अफसर ‘परमानेण्ट’ ! जब मैं ‘टेम्परेरी’ को ही रोकता-टोकता नहीं तो ‘परमानेण्ट’ को रोकने-टोकने की तो सोच भी नहीं सकता !


आतंकी मेरे देश में अचानक, चुपचाप, यूँ ही तो नहीं घुस आए ? इन्हें सीमा पार कराने के लिए मैं ने मुँह माँगी कीमत वसूल की । यदि मैं सचमुच में अपने मुल्क की फिक्र कर रहा होता तो इनमें से कोई भी मेरी धरती पर पैर नहीं रख पाता ।


ये और ऐसी ही तमाम बातें मेरे सामने सवाल बन कर खड़ी होने लगीं । पहले तो मुझे घबराहट हुई, फिर खुद पर लज्जा आई, उसके पीछे-पीछे आया पछतावा और फिर ग्लानि ने डेरा डाल दिया । बची-खुची कसर, अपराध-बोध ने पूरी कर दी ।


लेकिन बात अभी भी पूरी नहीं हुई थी ।


देश को बचाने के लिए अपने प्राण होम कर देने वाले सपूत-शहीदों को प्रणाम करने के लिए उठे मेरे दोनों हाथ मानों मन-मन भर के हो गए । इन शहीदों और कार्यरत जवानों की चिन्ता मैं ने कभी नहीं की । उन्हें अपेक्षित सम्मान भी नहीं दिया । इनके परिजनों के प्रति मेरे व्यवहार में कभी भी अपेक्षित सौजन्य और शालीनता नहीं रही । इसके विपरीत, जब-जब भी इनके बारे में बातें हुईं तब-तब मैं ने हर बार अशिष्‍टता और निर्लज्जता से कहा कि इनकी सेवाओं की पूरी-पूरी कीमत मैं चुका रहा हूँ - इन्हें वेतन दे कर । ये लोग खुद अथवा इनके परिजन कभी मेरी दुकान पर सौदा-सुल्फ लेने आए तो मैं ने सदैव ही इन्हें औसत ग्राहक ही माना और बिना कोई रियायत बरते इन्हें ‘तोल-मोल और क्वालिटी’ में बराबरी से ठगा ।


विदेशी आतंकियों के आक्रमण पर मैं कैसे गुस्सा करुँ ? कैसे रोष जताऊँ ? इन सबके लिए अनुकूल स्थितियाँ मैं ने ही तो बनाईं ! इनके लिए लाल कालीन मैं ने ही तो बिछाया ! यदि मेरे मानस में मेरा देश होता तो, इन लोगों का आना तो सपने की बात रही, ये मेरी धरती पर पाँव रखने का विचार भी मन में नहीं ला पाते ।


वस्तुपरक भाव से बात करना और नेताओं, अफसरों, व्यवस्था को दोषी घोषित करना बहुत ही आसान है । लेकिन यदि आत्मपरक भाव से बात की जाए तो मुँह से बोल नहीं फूटेंगे । बोलती बन्द हो जाएगी और बन्द ही रहेगी । मेरी चुप्पी का कारण भी यही आत्मपरकता है । इसीलिए मैं कुछ भी नहीं लिख सका ।


मैं ने बात समाप्त की तो फोन के दूसरे छोर पर सन्नाटा गूँज रहा था । मैं ने जानना चाहा कि नीरज उधर है भी या नहीं ? भीगी-भीगी और भारी-भारी आवाज में उत्तर मिला - ‘‘सर ! आपका नहीं लिखना समझ में आ गया । लेकिन आपके इस ‘मैं’ में आप अकेले नहीं हैं । यह तय करना मुश्‍िकल होगा कि इस ‘मैं’ में कौन शरीक नहीं हैं ।’’


और नीरज ने फोन बन्द कर दिया, बहुत ही धीरे से । इतना धीरे से कि ‘खट्’ की आवाज भी न हो ।


(प्रसवंगवश उल्लेख है कि नीरज शुक्ला खुद एक चिट्ठाकार हैं । उनका चिट्ठा ‘‘नीरुबाबा’’ http://neerubaba.blogspot.com पर उपलब्ध है और वे मेरे शहर से प्रकाशित हो रहे, दैनिक भास्कर के वरिष्‍ठ सम्वाददाता हैं ।)

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साहस-किरण


इन्दौर से प्रकाशित हो रहे, सान्ध्य दैनिक ‘प्रभातकिरण’ ने साहसभरा वह प्रेरक और अनुकरणीय काम किया है जिसकी दुहाई तो हम सब देते हैं किन्तु समय आने पर हम खुद ही उससे कन्नी काट लेते हैं ।


इस सान्ध्य दैनिक का ‘आईने में आईना’ शीर्षक स्तम्भ अत्यन्त लोकप्रिय है । इस स्तम्भ में, इन्दौर से प्रकाशित हो रहे कुछ प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों की लघु समीक्षा (रविवार को छोड़कर) प्रतिदिन प्रकाशित होती है ।


25 नवम्बर को तीन विवाह समारोहों मे उपस्थिति अंकित कराने की व्यस्तता के कारण मैं, ‘प्रभातकिरण’ का, 25 नवम्बर का अंक नहीं देख पाया था । कल रात देख पाया ।


विधान सभा चुनाव के प्रत्याशियों का प्रचार अभियान उन दिनों अपने चरम पर था । सो समाचार पत्रों में प्रचार अभियान का छाए रहना बहुत ही स्वाभाविक बात थी । ‘पत्रिका’ में, इन्हीं से सम्बन्धित प्रकाशित समाचारों की समीक्षा करते हुए लिखा है - ‘समझ में नहीं आता कि कौनसा आयटम उम्मीदवार ने पैसे देकर छपवाया है और कौनसा अखबार ने अपनी मर्जी से छापा है ।’ ‘राज एक्सप्रेस’ में प्रकाशित उस दिन के, चुनावी समाचारों की समीक्षा करते हुए लिखा है - ‘यहाँ पर भी खूब सारी चुनावी खबरें हैं और पता नहीं चलता कि किस खबर के मालिक को पैसा मिला है और किस खबर के लिए संवाददाता को । बहरहाल पैसा जरूर मिला है ।’


मेरे कस्बे में कार्यरत कुछ बीमा एजेण्ट ऐसे हैं जो अपने ग्राहकों से प्रीमीयम की रकम लेकर जमा नहीं कराते, हजम कर जाते हैं । ऐसे एजेण्टों के नाम हम सब एजेण्ट भली प्रकार जानते हैं और अवसर प्राप्त होने पर उनके नाम ले-ले कर उन्हें कोसते भी हैं क्यों कि उनके कुकर्मों के कारण हम लोगों को, ‘फील्ड’ में परेशानी होती है, ग्राहकों की व्यंग्योक्तियाँ और आक्रोश झेलना पड़ता है । लेकिन जब भी ‘लिख कर देने की बात’ अथवा आमने-सामने कहने की बात आती है तो हम सब ‘नर-पुंगव’ चुप हो जाते हैं जबकि अपने व्यवसाय के शुद्धिकरण के लिए हमने बोलना चाहिए ।


ऐसे में ‘प्रभातकिरण’ ने वास्तव में साहस दिखाया है । जिन समाचार पत्रों के समाचारों का उल्लेख समीक्षा में किया गया है, वे दोनों ही ‘प्रभातकालीन’ समाचार पत्र हैं । उन दोनों समाचार पत्रों के साथ ‘प्रभातकिरण’ की कोई व्‍यावसायिक प्रतियोगिता कोसों दूर तक नहीं है । किसी भी वर्ग अथवा समुदाय को, अपनी सार्वजनिक छवि को निष्‍कलंक बनाए रखने के लिए, अपने अन्दर ही झाँकना होता है । निस्सन्देह यह ऐसा ही स्तुत्य प्रयास है ।


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