सरकार ने सौ जूते भी खाए और सौ प्याज भी


अपनी बात कहूँ उससे पहले, ‘बिजनेस स्टैण्डर्ड‘ में, दिनांक 02 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित यह समाचार पढ़िए -

''खादी उत्पादन पर 20 फीसदी वित्तीय सहायता

बीएस संवाददाता: नई दिल्ली अक्टूबर 01, 2010

खादी और पॉलिवस्त्र के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग (एमएसएमई) मंत्रालय ने मार्केट डेवलपमेंट असिस्टेंस (एमडीए) स्कीम 2011-12 तक के लिए प्रारंभ की है। इस स्कीम के तहत खादी और पॉलिवस्त्र के उत्पादन पर 20 फीसदी वित्तीय सहायता दी जाएगी।

केंद्रीय एमएसएमई राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) दिनशा पटेल ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया कि खादी और पॉलिवस्त्र के उत्पादन पर वित्तीय सहायता खादी ग्रामोद्योग आयोग के जरिये दी जाएगी। पटेल ने कहा कि 20 फीसदी वित्तीय सहायता में बुनकरों की 25 फीसदी, उत्पादन करने वालों की 30 फीसदी और बिक्री करने वालों की 45 फीसदी हिस्सेदारी होगी। इस स्कीम के जरिये खादी और पॉलिवस्त्रों की बिक्री में काफी इजाफा होने की उम्मीद है।
शुरुआत में एमडीए स्कीम को पायलट प्रोजेक्ट के रूप में शुरू किया गया था। इस स्कीम में लोगों की रुचि को देखते हुए इसे आगे बढ़ा दिया गया है।''

मेरी कल वाली गाँधी: मेड इन यू. एस. ए.पोस्ट पढ़कर, श्रीयुत रमेश चोपड़ा (बदनावर, जिला धार, मध्य प्रदेश) ने मुझे उपरोक्त समाचार की प्रति मेल की।

कल मेरी पोस्ट में एक बात छूट गई थी। सरकार ने खादी बिक्री पर दी जानेवाली 20 प्रतिशत छूट समाप्त कर, 01 अप्रेल 2010 से, विपणन विकास सहायता देनी शुरु करने का निर्णय लिया था। इसके परिणामस्वरूप खादी ग्राहकों को मिलनेवाली छूट घटकर 4-5 प्रतिशत रह गई थी।

देश की सभी खादी संस्थाओं ने 14 अक्टूबर 2009 को, प्रधानमन्त्री को एक ज्ञापन देकर सरकार की खादी विरोधी नीतियों का विरोध करते हुए सरकार के इस निर्णय को लागू करने में अपनी असमर्थता प्रकट की थी। इनमें से कुछ संस्थाओं ने तो असहयोग आन्दोलन तक की चेतावनी दे दी थी। इस ज्ञापन में चरखे के सौर ऊर्जाकरण का भी विरोध किया गया था।

14 अक्टूबर 2009 को दिए गए ज्ञापन को सरकार ने ठण्डे बस्ते में डाल दिया था। चूँकि बिजनेस स्टैण्डर्ड में यह समाचार 02 अक्टूबर को प्रकाशित हुआ है इसलिए सहज अनुमान लगता है कि सरकार ने यह निर्णय अथवा आदेश 01 अक्टूबर 2010 को प्रसारित किया है। अर्थात् 14 अक्टूबर 2009 वाले ज्ञापन पर सराकर ने कार्रवाई या तो साल भर बाद की या फिर की गई कार्रवाई की जानकारी कोई एक वर्ष बाद दी।

श्री रमेश चोपड़ा को मैंने लिखा -

''नौकरशाहों के भरोसे चलनेवाली सरकारें इसी तरह सौ जूते भी खाती हैं और सौ प्याज भी। समाचार से अनुमान लग रहा है कि सराकर ने यह आदेश एक अक्टूबर को जारी किया है। तब तक सारे अखबारों में सरकार की आलोचना जम कर हो चुकी थी।

''यह हमारे राजनीतिक नेतृत्व की असफलता और नौकरशाही की सफलता है। ''

अपनी इसी बात को आगे बढ़ा रहा हूँ।

हमारी सरकारों (अर्थात् हमारे निर्वाचित, उत्तरदायी जन प्रतिनिधियों) के माध्यम से जन आकांक्षाएँ प्रकट होती हैं जिन्हें साकार करने की जिम्मेदारी प्रशासकीय तन्त्र की होती है।

इस मामले में बिना अतिरिक्त मेहनत किए यह बात साफ नजर आ रही है कि हमारी सरकार ने यह मामला पूरी तरह से नौकरशाहों पर छोड़ दिया था और उनका (जन प्रतिनिधियों का) ध्यान इस ओर, तभी गया जब गाँधी जयन्ती सामने आ गई। तब, ताबड़तोड़ यह आदेश जारी किया लगता है। याने, हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को अब जनाकांक्षाओं की चिन्ता करने का अवकाश और आवश्यकता अनुभव नहीं होती।

खादी बिक्री पर मिलनेवाली छूट वापसी के इस निर्णय की खूब आलोचना हुई थी। देश के लगभग प्रत्येक प्रमुख अखबार ने इस समाचार को प्रमुखता से छापा था और सरकार की भरपूर छिछालेदारी हुई थी। किन्तु तब किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया। अब, गया भी तो एकदम अन्तिम क्षणों में। इसीलिए मैंने कहा कि इस मामले में सरकार ने सौ जूते भी खाए और सौ प्याज भी।

भारतीय जीवन बीमा निगम में हुए ‘मूँदड़ा घोटाला काण्ड’ के बाद तत्कालीन प्रधान मन्त्री नेहरु ने ब्रिटेन के एक नौकरशाह मिस्टर पर्किन्सन्स को इस घपले के सन्दर्भ में शासन-प्रशासन के अन्तर्सम्बन्धों और भारतीय प्रशासकीय तन्त्र पर विस्तृत रिपोर्ट देने के लिए तैनात किया था।

मिस्टर पर्किन्सन्स ने जो निष्कर्ष दिए थे उनमें दो प्रमुख निष्कर्ष निम्नानुसार थे -
पहला - भारतीय मन्त्री बिन्दु-रेखाओं पर हस्ताक्षर करते हैं। (इण्डियन मिनिस्टर्स पुट देयर सिगनेचर्स आन डाॅटेड लाइन्स।) तथा
दूसरा - भारतीय प्रशासकीय तन्त्र खुद को (अपने अस्तित्व को) बनाए रखने के लिए सतत् चेष्टारत ही नहीं रहता, वह खुद के आकार में बढ़ोतरी भी करता रहता है।

बाद में लोहिया ने इसी बात को राजनीतिक स्वरूप और सन्दर्भ देते हुए कहा था कि भारत सरकार के मन्त्री ‘नौकरों के नौकर’ होते हैं। अर्थात् वे जनाकांक्षाएँ भूलकर, भारत सरकार के नौकर अफसरों के कहे अनुसार चलते हैं।

खादी बिक्री की छूट निरस्त करने और बाद में, अन्तिम क्षणों में उसे निरन्तर किए जाने के आदेश जारी करने की यह घटना उपरोक्त सारी बातें प्रमाणित करती हैं।

यह भारतीय लोकतन्त्र का दुभाग्य ही है कि जिन लोगों को अपने मतदाताओं के हितों के लिए अपना दिन का चैन और रातों की नींद त्याग कर काम करना चाहिए उनके लिए, वही मतदाता उनकी चिन्ता सूची मे से नदारद हो गया है। ये उस अंगे्रजी कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं जिसमे कहा गया है कि नेता अपने समर्थकों के कन्धों पर चढ़कर कुर्सी पर बैठता है और वहाँ बैठकर अपने विरोधियों से मिल कर राज करता है।

व्यक्तिगत स्तर पर मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कि खादी बिक्री को मिलने वाली छूट के निरन्तर होने पर खुश होऊँ या हमारे राजनीतिक नेतृत्व की अकर्मण्यता का स्यापा करूँ?

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7 comments:

  1. आपकी मेहनत को सलाम !

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  2. चिन्तनीय है यह छूट-नृत्य।

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  3. विचारणीय पोस्ट। जानकारी से भरपूर भी। धन्यवाद।

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  4. बहुत अच्छी जानकारी जी धन्यवाद

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  5. ‘जन प्रतिनिधियों को अब जनाकांक्षाओं की चिन्ता करने का अवकाश और आवश्यकता अनुभव नहीं होती।’

    काहे होगी? उन्हें तो अपने वेतन बढा लेने की चिंता है जी :)

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  6. यह भारतीय लोकतन्त्र का दुभाग्य ही है कि जिन लोगों को अपने मतदाताओं के हितों के लिए अपना दिन का चैन और रातों की नींद त्याग कर काम करना चाहिए उनके लिए, वही मतदाता उनकी चिन्ता सूची मे से नदारद हो गया है।
    ऐसे अक्षम नेताओं के लिये लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होना चाहिये - आप जगाते रहिये, हम एक न एक दिन जागेंगे ज़रूर!

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  7. *खादी के बारे में आपकी टिप्पणी देखी -आज से करीब ५४-५५ वर्ष पूर्व में ऐसे जगह रहता था जहाँ खादी आश्रम की दूकान थी और मैनेजर मुझसे स्नेह रखते थे - में गाँधीवादी विचारधारा से प्रभावितथा पर जब खादी आश्रम में सितम्बर में ही पूरे के पूरे उपलब्ध वस्त्रों पर मूल्य पर्ची बदल कर अधिक लिखा जा रहा था तो मुझे उत्कंठाहुई और मैनेजर ने ज्ञान बढाया कि २ अक्टूबर से छूट आने वाली है उसमे बिक्री ज्यादा होगी तो लाभ भी तो ज्यादा होना चाहिए इससे मेरा गाँधी आश्रम के वस्त्रों से मोह भंग हो गया और लगा कि गाँधी के विचारों से जब व्यापार ही नहीं चलता तो सरकार केसे चलेगी भावना के फलवती होने के लिए ह्रदय से स्वीक्रति जरूरी है ये है छूट का भ्रम न कि - खादी पर छूट
    ऐसे देखिये इतने साल बीत जाने पर हमारे भ्रष्ट आचरण में कुछ बढ़ोतरी ही हुए होगी कमी तो नहीं

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