भाईचारे का इतिहास - चौथी कड़ी
(डॉक्टर महरउद्दीन खाँ का यह लेख, भोपाल से प्रकाशित ‘मध्यप्रदेश लोक जतन’ के, दिनांक 1 जून 2001 के पृष्ठ 11 पर प्रकाशित हुआ था।)
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शाहजहाँ के बाद गद्दी पर बैठे औरंगजेब और शिवाजी की लड़ाई को भी साम्प्रदायिक ताकतें हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई बना कर पेश करती हैं। यह लड़ाई भी हिन्दू-मुस्लिम की न हो कर एक मराठा सरदार शिवाजी की राजा औरंगजेब से बगावत थी। इस बगावत में कई मुसलमान शिवाजी के साथ, तो कई हिन्दू शिवाजी के खिलाफ लड़े थे।
औरंगजेब ने शिवाजी से लड़ने के लिए राजा जय सिंह को भेजा था। जय सिंह की सेना में दो हजार मराठा घुड़सवार और सात हजार पैदल सिपाही, नेताजी पालकर की कमान में शिवाजी के विरुद्ध लड़ रहे थे। शिवाजी की सेना में दिलेर खाँ ने मुगल सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। शिवाजी की सेना में भी हजारों मुसलमान घुड़सवार और पैदल सैनिक थे। यही नहीं, शिवाजी के मुंशी भी काजी खाँ थे। औरंगजेब और शिवाजी की लड़ाई हिन्दू-मुसलमानों की लड़ाई तो थी ही नहीं। यह मुगलों-मराठों की लड़ाई भी नहीं थी। बहुत से इज्जतदार मराठा सरदार हमेशा मुगलों की सेना में रहे। सिंद खेड़ के जाधव राव के अलावा कान्होजी शिर्के, नागोजी माने, आवाजी ढल, रामचन्द्र और बहीरजी पण्ढेर वगैरह मराठा सरदार, मुगलों के साथ रहे थे।
राजा, राजा होता था, हिन्दू या मुसलमान नहीं। शिवाजी ने जब मुगलों के व्यापार केन्द्र सूरत पर हमला किया तो शिवाजी के सैनिकों ने वहाँ चार दिनों तक हिन्दू व्यापारियों के साथ जमकर लूटपाट की। सूरत के मशहूर व्यापारी वीरजी बोरा थे जिनके अपने जहाज थे। उस समय उनकी सम्पत्ति अस्सी लाख रुपये थी। शिवाजी के सैनिकों ने वीरजी बोरा को भी जमकर लूटा। औरंगजेब ने सूरत की सुरक्षा के लिए सेना भेजी। उसने तीन साल तक व्यापारियों से चुंगी न वसूल करने का हुक्म भी जारी कर दिया।
औरंगजेब ने अनेक ब्राह्मणों व जैनों को जायदाद के लिए स्थायी पट्टे भी जारी किए थे। औरंगजेब के ये फरमान आज भी सुरक्षित हैं। बनारस में गोसाई माधव दास, गोसाई रामजीवन दास और पालीताना में जैन जौहरी सतीदास का भी ऐसे ही फरमान दिए गए थे।
अकबर के जमाने में हिन्दू मनसबदारों की संख्या केवल 32 थी। जहाँगीर के जमाने में यह 56 हो गई। औरंगजेब के जमाने में यह बढ़कर 104 हो गई थी। इससे यह साबित होता है कि औरंगजेब को हिन्दुओं से कोई बैर नहीं था। दरबार में और सेना में हिन्दुओं की भर्ती बिना किसी भेदभाव के की जाती थी।
मुगल शासन का यह समय हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का एक सुनहरा समय था। आज स्वार्थी लोग इस सुनहरे इतिहास पर कालिख पोतना चाहते हैें।
यही वह समय था जब कबीरदास ने पाखण्डों के लिए हिन्दू पण्डितों और मौलवियों, दोनों को लताड़ा था। आज की तरह किसी मौलवी की हिम्मत, कबीरदास के खिलाफ फतवा जारी करने की नहीं हुई, न ही कोई पण्डित, कबीरदास को दण्ड दे सका।
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(चित्र गूगल से साभार)
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-04-2022) को चर्चा मंच "दिनकर उगल रहा है आग" (चर्चा अंक-4415) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत-बहुत धन्यवाद। बडी कृपा है आपकी।
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