ऐसे ही बदतमीज बने रहिए


चित्र में मैं जिनके साथ बैठा दिखाई दे रहा हूँ वे हैं श्री दिनेश चन्द्रजी जोशी। मेरे दिनेश दादा। रतलाम के चिन्तकों, विचारकों, प्रबुद्धों में अग्रणी। सेवा निवृत्त अध्यापक हैं। कुशल, दीघानुभवी आयुर्वेद चिकित्सा-परामर्शदाता। हिन्दी के ख्यात, अमर कवि प्रदीप के सगे भानजे। उनसे जुड़े किस्सों की खान हैं दिनेश दादा। वैसे, दिनेश दादा से जुड़े अनगिनत रोचक-बौद्धिक किस्से भी रतलाम की गलियों में बिखरे पड़े हैं।

आज अचानक ही दिनेश दादा एलआईसी दफ्तर में नजर आए तो चौंक पड़ा। उनके आने से नहीं, उनके दुबलेपन और बमुश्किल सुनी जा सकनेवाली उनकी अत्यन्त धीमी आवाज से। जिनकी आवाज तीन गलियाँ पार कर लेती थीं उन्हीं की बात सुनने के लिए आज मुझे उनके मुँह से अपने कान लगाने पड़ रहे थे। एलआईसी दफ्तर आने का उनका प्रयोजन पूछा। भोजनावकाश शुरु हो गया था। दिनेश दादा को कम से कम आधा घण्टा प्रतीक्षा करनी ही थी। सो, बातें शुरु हो गईं।

साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न दिनेश दादा रतलाम में पूर्णेश्वर मन्दिर के पास, चक्कीवाली गली में रहते हैं। उनका निवास, कुछ बरसों पहले तक उनकी पसन्द के लोगों का अड्डा बना रहता था। दादा अपनी ओर से किसी न किसी जयन्ती, पुण्य तिथि, साहित्यिक प्रसंग पर लोगों को बुला लिया करते थे। ऐसे प्रत्येक अवसर पर दो-ढाई घण्टे की जोरदार अड्डेबाली हो जाया करती थी। हमस ब शाम को, सुस्त-सुस्त उनके यहाँ पहुँचते और ठहाके लगाते हुए, ताजादम लौटते थे। ऐसा ही एक किस्सा आज उन्हें देखते ही याद आ गया। कुछ और एजेण्ट भी बैठे थे। किस्सा मैंने याद दिलाया। मैंने ही सुनाया भी। दिनेश दादा ने मेरे सुनाए किस्से की पुष्टि की। 
वह किस्सा मैं कभी नहीं भूल सकता। भूलना चाहूँगा भी नहीं। उस शाम दिनेश दादा ने, बीमा एजेण्ट के रूप में मुझे जो प्रमाण-पत्र दिया, उसके सामने बड़ा से बड़ा प्रमाण-पत्र भी टटपूँजिया लगेगा। पूरा किस्सा जान लेंगे तो आप भी मुझसे सहमत हो जाएँगे कि वैसे प्रमाण-पत्र के लिए हर बीमा एजेण्ट तरस जाएगा।

यह कोई  बारह-पन्द्रह बरस पहले की बात होगी। अब याद नहीं कि प्रसंग क्या था। लेकिन था किसी की जयन्ती का ही। हम कोई बीस लोग थे। आयोजन समाप्त हो चुका था। बतरस के साथ अल्पाहार चल रहा था। अचानक ही, बिना किसी सन्दर्भ, प्रसंग के दिनेश दादा ने मुझे सम्बोधित किया - ‘यार बैरागीजी! ये बताओ! आप जैसा बदतमीज आदमी, कामयाब बीमा एजेण्ट कैसे हो गया?’ सवाल उछलते ही गोष्ठी में सनाका और सन्नाटा खिंच गया। कुछ लोग मुझे और कुछ लोग दिनेश दादा को। दो-चार पल बाद वे लोग भी मुझे ही देखने लगे जो दिनेश दादा को देख रहे थे। और मैं? मेरी तो कुछ पूछिए ही मत। ‘अचकचा गया’, ‘सपकपा गया’, ‘सिटपिटा गया’, ‘सम्पट भूल गया’, ‘सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई’ जैसे तमाम पोस्टर मुझ पर चिपक गए थे। सब लोग भी, आशंकित चेहरे लिए हैरत में थे। यह क्या बात हुई? यह क्या हो गया? स्वल्पाहार करते हाथ इस तरह रुक गए जैसे किसी बच्चे ने खेलते हुए सबको ‘स्टेच्यू’ कह दिया हो। सहज होने में मुझे कुछ पल लगे। बात पल्ले पड़ते ही मुझे गुदगुदी होने लगी। खुल कर हँसते हुए मैं अपनी जगह से उठा, दिनेश दादा के पास गया और उनके पाँव छू कर कहा - ‘यह तो आप ही बताओगे कि ऐसा कैसे हो गया लेकिन दादा! आज आपने मुझे निहाल कर दिया। अब मुझे अपने किसी ग्राहक से, किसी संस्था-संगठन से, हमारे मेनेजमेण्ट से, किसी से भी प्रमाण-पत्र की जरूरत नहीं रही।’ 

मेरी बात का पहला असर यह हुआ कि सारे लोग तनावमुक्त हो गए। दूसरा असर दिनेश दादा पर हुआ। वे सस्मित बोले - ‘अरे! कमाल है यार! मैंने आपको बदतमीज कहा और आप मुझे धन्यवाद दे रहे हो! मेरे पाँव छू रहे हो!’ मैंने कहा - ‘हाँ दादा! मैं ऐसा नहीं करता तो जरूर बदतमीज हो जाता।’ अब दिनेश दादा खुल कर हँसे और बोले - ‘याने उतने बेवकूफ भी नहीं हो जितने नजर आते हो। चलो अच्छा हुआ। मेरा सिलेक्शन गलत नहीं है।’

अब सब लोग इतने सहज हो चुके थे कि हँस सकें। सो, वे सब अब हँस रहे थे। स्वल्पाहार का, थमा क्रम फिर शुरु हो गया। मुझे लगा, बात आई-गई हो जाएगी। सो फौरन ही कहा - ‘आपके सवाल का जवाब आपके ही पास है। बता दीजिए कि यह बदतमीज आदमी कामयाब एजेण्ट कैसे बन गया।’ दिनेश दादा ने बिना विचारे (विदाउट थॉट) जवाब दिया - ‘दो कारणों से। पहला - आपकी बोली भले ही कड़वी है, आप भले ही पत्थरमार बोलते हैं लेकिन आपकी नियत खराब नहीं होती। दूसरा - आपकी ग्राहक सेवा, जिसके बारे में मुझे पूरे रतलाम में सुनने को मिलता है। जितनी सराहना आपकी सुनने को मिलती है उतनी और किसी एजेण्ट की नहीं।’

दादा का यह कहना था कि मैं ‘पोमा’ गया। फूल कर कुप्पा हो गया। जिस कुर्सी पर मैं बैठा था, वह छोटी लगने लगी। मेरी यह दशा देख कर दिनेश दादा ने अंगुली से पहले तो मुझे अपने पास आने का इशारा किया और जैसे ही मैं उठा वैसे ही अपनी वह अंगुली अपने पैरों की तरफ कर दी। मैं जमीन में गड़ गया और बाकी सब के ठहाकों से पूरी चक्कीवाली गली गूँज उठी। झेंपते-झेंपते ही मैंने दिनेश दादा के पाँव छुए। दादा ने मेरी पीठ थपथपाई और कहा - ‘पोमाने के अलावा ऐसे ही बदतमीज बने रहिए।’ इस बार फिर जोरदार ठहाका लगा। हाँ, इस बार इन ठहाकों में मेरा ठहाका भी शामिल था।

दफ्तर का भोजनावकाश समाप्त हो रहा था। मैंने साथी एजेण्ट प्रदीप जादोन से हम दोनों का फोटू लेने का आग्रह किया। दादा का काम निपटा कर उन्हें सीढ़ियों तक छोड़ने गया। उन्होंने मुझे असीसा। मुझे लगा, वे कहेंगे - ‘ऐसे ही बदतमीज बने रहिए।’ लेकिन नहीं कहा।

कह देते तो मैं एक बार फिर निहाल हो जाता।
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1 comment:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 10/05/2019 की बुलेटिन, " प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की १६२ वीं वर्षगांठ - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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