रघुरामनजी को धन्यवाद दीजिए


मैं न तो कोई भाषाविद् हूँ और न ही हिन्दी भाषा का कोई प्राधिकार। वास्तविकता क्या है, यह तो ईश्वर ही जाने किन्तु मैं स्वयम् को असंख्य हिन्दी प्रेमियों की तरह ही एक सामान्य हिन्दी प्रेमी मानता हूँ। अन्तर इतना है कि मैं तनिक अधिक असहिष्णु, कम सहनशील, जल्दी उग्र हो जानेवाला, इसी कारण आपा खो कर आक्रामक हो जानेवाला हूँ। पता नहीं क्यों, हिन्दी के साथ कोई खिलवाड़ मैं सहन नहीं कर पाता। इसी कारण प्रायः ही अपनी सीमाएँ छोड़कर अशिष्ट और अशालीन भी हो जाता हूँ।

अपने इन्हीं ‘गुणों’ के चलते मैं प्रायः ही लोगों को पत्र लिखता रहता हूँ, उन्हें टोकता रहता हूँ, हिन्दी के साथ खिलवाड़ न करने के लिए यथा सम्भव अनुरोध/आग्रह करता हूँ और इतने पर भी जब मुझे अनसुना कर दिया जाता है तो मैं पहले तो रायचन्दी पर उतर आता हूँ और प्रक्रिया के अन्तिम चरण में अपने और सामनेवाले के कपड़े भी उतार देता हूँ। मुझे इस सबका दुःख तो होता है किन्तु इस सबके लिए लज्जा कभी भी अनुभव नहीं की। अपनी माँ के सम्मान की रक्षा करने के लिए मैं किसी भी हद तक गुजर जाने से परहेज नहीं करता।

अपनी इन्हीं आदतों के चलते मैंने गए दिनों, दैनिक भास्कर में ‘मेनेजमेंट फंडा’ स्तम्भ के लेखक श्रीयुत एन. रघुरामन को एकाधिक बार ई-पत्र लिखे और उन्हें अपने ब्लाॅग पर सार्वजनिक भी किया। इन पत्रों के अतिरिक्त भी मैंने एकाधिक बार रघुरामनजी को ई-पत्र भेजे।

यह कहते हुए मेरी प्रसन्नता को कोई ठिकाना नहीं है कि रघुरामनजी अपने लेखों में, लोक प्रचलित हिन्दी शब्दों के स्थान पर अकारण ही अंगे्रजी शब्दों का उपयोग शून्य प्रायः करने लगे हैं। गए पाँच-सात दिनों से तो उनके लेख पढ़-पढ़कर मैं पुलकित हो रहा हूँ। अपनी यह प्रसन्नता मैंने रघुरामनजी को भी जताई है।

चूँकि मैं रघुरामनजी को टोकता रहा हूँ, उनकी आलोचना करता रहा हूँ और उन्हें, अंगे्रजी शब्दों के हिन्दी पर्याय बता-बता कर उन्हें प्रयुक्त करने का आग्रह भी करता रहा हूँ और अपनी ये सारी ‘हरकतें‘ सार्वजनिक भी करता रहा हूँ इसलिए यह मेरा नैतिक दायित्प बनता है कि जब उन्होंने मेरी शिकायतें दूर कर दी हैं तो मैं उन्हें न केवल धन्यवाद दूँ अपितु उनके लिखे को पढ़ने का आग्रह भी सबसे करूँ।

मुझे नहीं पता कि रघुरामनजी द्वारा अपने लेखों में अंगे्रजी शब्दों का मोह त्यागने का कारण क्या है। किन्तु मुझे यह मानने की छूट दी जाए कि उनके इस कृपापूर्ण परिवर्तन में मेरा भी हिस्सा भी कहीं न कहीं और कुछ न कुछ तो है।

सो, मेरा निवेदन है कि कृपया हिन्दी के प्रति रघुरामनजी के इस परिवर्तित व्यवहार के लिए उनकी प्रशंसा करें और उन्हें साधुवाद दें।

आलोचना करने में हम कोई कसर नहीं छोड़ते। अपनी यह आदत हमने प्रशंसा करने के मामले में भी वापरनी चाहिए। प्रशंसा की खाद किसी भी आदमी के उत्साह की बेल को आसमान तक पहुँचा देती है।

रघुरामनजी! मैं जानता हूँ कि मेरी प्रशंसा से आपको कोई अन्तर नहीं पड़ता और आपके लिखे को पढ़ने के लिए मेरी कोई भी सिफारिश मेरी मूर्खता ही उजागर करेगी। किन्तु अपने उत्तरदायित्व को अनुभव कर मैं आपको कोटिशः धन्यवाद अर्पित करता हूँ। कृपया, हिन्दी की और हिन्दी के सम्मान की चिन्ता नींद में भी करते रहिएगा।

ईश्वर आपको दीर्घायु, यशस्वी बनाए और हिन्दी आपकी तथा आप हिन्दी की पहचान बनें।

-----

आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

4 comments:

  1. विष्णु जी, आपके सतत प्रयासों का परिणाम सामने है। रघुरामन जी को बधाई, यदि सम्भव हो तो घुघूती बासूती का यह लेख ज़रूर पढिये।

    ReplyDelete
  2. आपका यह प्रयास सराहनीय है, आपके सीखकर हम भी अंग्रेजी-शून्य लेख लिखने की प्रक्रिया में हैं।

    ReplyDelete
  3. प्रवीणजी! आपकी टिप्‍पणी पर कुछ भी लिखने से पहले मुझे सौ बार सोचना पड रहा है।

    अंग्रेजी-शून्‍य लेखन तो मुझे असम्‍भव लगता है। अंग्रेजी के असंख्‍य शब्‍द हिन्‍दी के शब्‍द बन गए हैं। इन्‍हें, इनके इसी स्‍वरूप में प्रयुक्‍त करना हिन्‍दी के पक्ष में ही होगा। 'अंग्रेजी शून्‍य लेखन' के नाम पर शाब्दिक अनुवादवाली, क्लिष्‍ट और असहज हिन्‍दी, अन्‍तत: हिन्‍दी का नुकसान ही करेगी, ऐसा मेरा मानना है।

    हम इतना भर कर लें कि हिन्‍दी के लोक प्रचलित शब्‍दों के स्‍थान पर अकारण ही अंग्रेजी शब्‍द प्रयुक्‍त न करें।

    भाषा से तो कोई बैर है ही नहीं और होना भी नहीं चाहिए। भाषा तो ज्ञान की खिडकियॉं खोलती है। आपत्ति और असहमति, अंग्रेजी का उपयोग कर आतंक पैदा करने और स्‍वयम् को श्रेष्‍ठ साबित करने की हीनता बोधवाली मानसिकता से है।

    ReplyDelete
  4. प्रिय श्री बैरागी जी,
    श्री रघुरामन जी के लेख पढ़ने की मेरी आदत हो गई है. हिंदी में मेनेजमेंट फण्डा अंतर्गत उनके उम्दा विचार एवं नई तकनीकों से पाठक न सिर्फ अवगत होते आए है, बल्कि अमल में भी लाए है. हिंदी हमारी मातृ भाषा है और इसके प्रति हमें स्वाभिमानी होना ही चाहिये, कहीं जरा सी चूक होने पर बडे भैया की तरह आपका कान उमेठना अच्छा लगता है. आपने मुझे भी मेरे अवगुणों से अवगत कराया है, जिससे अब मेरी हिंदी लेखन में त्रुटियां कम होगई है.आपके मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद. श्री पण्डया जी की टिप्पणी के प्रत्युत्तर में आपके कथन ने मेरे भी विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की है. पुनः धन्यवाद.

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.