उन्होंने मुझे मन भर गुलाब जामुन खिलाए

मेरे ‘खाद्य मन्त्रीजी’ रोते-रोते हॉल में घुसे। उन्हें चलने में तकलीफ होती है। वकील बेटे जीतेन्द्र का सहारा ले, रोते-रोते ही हॉल पार किया और मेरे सामने बैठ गए। मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर, रोते रहे। वे कुछ बोलने की कशिश कर रहे थे लेकिन बोल नहीं पा रहे थे। हिचकियों के बीच, टुकड़ों-टुकड़ों मे बोले - ‘क्या यार! दादा सच्ची में चले गए?’

‘खाद्य मन्त्रीजी’ याने श्रीमाणक मेहता। मैं उन्हें गए पैंसठ बरस से जानता हूँ, जब वे तहसील कार्यालय में बाबू बनकर मनासा में आए थे। 1953 में। वे दादा की मित्र मण्डली में थे। मैं उनके बारे में कुछ नहीं जानता था। बस, यही कि वे दादा के मित्र हैं। मैं उन्हें ‘माणक भई’ कहता था। ‘खाद्य मन्त्रीजी’ तो बरसों बाद कहना शुरु किया। सन् 1980 में। तब मुझे भी रतलाम आए तीन बरस हो चुके थे।

इस मित्र मण्डली में कुल सात सदस्य थे। मालवा अंचल में बारहसिंघा प्रजाति का एक जानवर होता है - जरख। लोक व्यहार में उसे जरखड़ा कहते हैं। इसका अपभ्रंश रुप वरख/वरखड़ा/वरगड़ा है। यह जानवर नुकसान ज्यादा करता है। दादा की मित्र मण्डली को मनासा के लोग परिहासपूर्वक ‘हाता वरगड़’ याने ‘सात जरख’ कहते थे। लेकिन ये कहने भर को ‘हाता वरगड़’ थे। किसी का नुकसान नहीं करते थे। 

तनिक मुश्किल से माणक भाई का रोना थमा। वे अतीत को याद करने लगे। मण्डली के सातों सदस्य अपने काम से काम रखते। ये सात सदस्य थे - माणक मेहता, बालकवि बैरागी, सोहन मास्टर (सोहनलाल नागदा), मदन लाल व्यास, नन्दू व्यास (नन्दकुमार व्यास), बादर (बहादुर हुसैन) और फिद्दी (फिदा हुसैन)। माणक भई तहसील/कचहरी में और मदनलालजी व्यास कोर्ट में बाबू थे। दादा, जमनालालजी जैन वकील साहब के मुंशी थे। सोहन मास्टर, जैसा कि नाम से ही साफ था, मास्टर थे। नन्दकुमारजी व्यास कोर्ट और कचहरी के डाक्यूमेण्ट/पीटिशन रायटर थे। बादर भाई बस कण्डक्टर थे। फिद्दी भैया बस मालिक थे और खुद बस चलाते थे। मनासा में कोर्ट और कचहरी एक ही मैदान में है। सो, माणक भई, मदनजी व्यास और दादा दिन भर एक ही परिसर में रहते थे। सोहन मास्टर सा‘ब अपने स्कूल से निपट कर वहीं पहुँच जाया करते थे। बादर भाई और फिद्दी भैया शाम को फुरसत पाते थे। 

माणक भाई शुरु में दादा को दादा नहीं, ‘बैरागी’ कहते थे। माणक भाई ने कहा - “वो मुझे माणक कहते थे और मैं उन्हें बैरागी कहता था। जब मनासा में था तब दादा राजनीति में लगभग नहीं के बराबर थे। मैं मनासा से निकला उसके बाद दादा की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी। उनकी राजनीतिक पहचान बनती और बढ़ती जा रही थी। साथ ही साथ वे बालकवि के रूप में स्थापित और लोकक्रिय होते जा रहे थे। उनका कद दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। हम जब भी मिलते, दादा तो सामान्य ही रहते लेकिन मुझे संकोच होने लगा - इतने लोगों के बीच उन्हें ‘ऐ बैरागी!’ कैसे कहूँ? इस बीच 1965 में मैं राजस्व विभाग से खाद्य विभाग में आ गया। 1967 में दादा विधायक बन गए और संसदीय सचिव भी। 1969 में वे राज्य मन्त्री बन गए। अब मुझे अधिक संकोच होने लगा। मैं उन्हें केवल ‘बैरागी’ सम्बोधित करूँ तो लोग क्या कहेंगे? उनका मन्त्री होना और मेरा कर्मचारी होना तो कभी आड़े नहीं आया लेकिन मैं खुद ही संकोचवश उन्हें दादा कहने लगा। लेकिन फर्क केवल सम्बोधन में आया। हमारे रिश्ते और व्यवहार में तिल भर भी फर्क नहीं आया। मैं उनका वही ‘माणक’ बना रहा और वे मेरे वही ‘बैरागी’ बने रहे।” 

याद करते-करते माणक भई फिर सिसकने लगे। बोले - “राजनेता और मन्त्री तो वे बहुत बाद में बने। लेकिन उससे पहले, जब-जब मुझे नौकरी में संकट आया, हर बार मेरे संकट मोचक बने। मुझे उनका बड़ा भरोसा था - कुछ भी होगा तो निपट लेंगे। दादा जो हैं!”

1980 में दादा खाद्य राज्य मन्त्री बनाए गए। माणक भई खाद्य निरीक्षक थे। एक दिन अचानक उनसे मुलाकात हो गई। वे बहुत नहीं, बहुत-बहुत-बहुत खुश थे। मैंने पूछा - ‘क्या बात है दादा? प्रमोशन हो गया क्या?’ मानो पूरी दुनिया मुझ पर न्यौछावर कर देंगे, कुछ इस अन्दाज में बोले - ‘अपने तो सारे प्रमोशन हो गए। दादा मन्त्री बन गए। यही अपना प्रमोशन है।’ मैंने कहा - ‘आप तो ऐसे कह रहे हो जैसे आप खुद खाद्य मन्त्री हो गए हो!’ माणक भाई बोले - ‘बिलकुल ठीक। अपन ही फूड मिनिस्टर हैं।’ मैंने टोका - ‘आप तो दादा को जानते हो। वो गैरवाजिब काम करेंगे नहीं और आपको छूट नहीं देंगे कि आप उनके नाम पर अफसरी करो।’ माणक भाई लहलहाते हुए, बेलौस मुद्रा मे बोले - ‘गैरवाजिब! अरे अपन को तो वाजिब काम के लिए भी कहने की जरूरत पहले भी नहीं पड़ी तो अब क्या पड़ेगी! मन्त्री तो दादा आज बने हैं। लेकिन पहले से ही ऐसा होता आ रहा है कि दादा को जैसे ही मालूम होता कि माणक तकलीफ में है, खुद ही दौड़े चले आते। और रही बात उनके नाम पर अफसरी करने की, तो ये तेने सोच भी कैसे लिया? मुझे अपनी नौकरी करनी है। मेरी वजह से दादा पर अंगुली भी उठ गई तो फिर क्या नौकरी की? लेकिन अपन को मन्त्री मानने से कौन रोक सकता है?’ उसी दिन से मैंने माणक भाई को ‘खाद्य मन्त्रीजी’ कहना शुरु कर दिया।

कुछ दिनों बाद माणक भई के घर गया। मुझे आया देख वे फिर भावाकुल हो गए। सामान्य हुए तो बोले - ‘मेरे पास हम सातों दोस्तों का एक फोटू है।’ कह कर उन्होंने तत्काल मुझे फोटू थमा दिया। मैं चौंका। यही फोटू मैंने दादा के एलबम में देखा था। बोले - ‘यह 14 मार्च 1954 का फोटू है।’ मैं पहली ही नजर में सबको पहचान गया। 

कुर्सियों पर बैठे हुए बाँये से - बालकवि बैरागी, मदनलाल व्यास, नन्द कुमार व्यास। 
खड़े हुए बाँये से - सोहनलाल नागदा (सोहन मास्टर), बहादुर हुसैन (बादर भाई), फिदा हुसैन (फिद्दी) और माणक मेहता।

मैंने कुरेदा - ‘दादा को लेकर कोई ऐसी याद, कोई ऐसी बात जो भूल नहीं पाए।’ माणक भाई तपाक से बोले - “हैं तो बहुत सारी लेकिन एक बात ऐसी रही कि उसके बाद मैंने कान पकड़ लिए कि दादा से कभी कोई फरमाइश नहीं करूँगा।

“मैं धोबी गली और गणेशपुरा गली वाले चौराहे पर, बद्री काका की दुकान के सामने झँवर सेठ के मकान में रहता था। कचहरी जाने के लिए गणेशपुरा गली, चौपड़ गट्टा पार कर, चारभुजा मन्दिर गली होते हुए जाता था। गणेशपुरा गली में लच्छा बा’ कँदोई (लक्ष्मीनारायणजी विजयवर्गीय हलवाई) की, मिठाइयों की दुकान थी। लच्छा बा’ घुटनों तक की धोती और लट्ठे की, बिना बाँहों की बनियान पहने बैठे रहते थे। वे खूब मोटे थे। ऐसा लगता था मानो अपनी बनाई मिठाइयाँ चखने के नाम पर पहले खुद पेट भर खाकर बैठे हों। उनके गुलाब जामुन  प्रसिद्ध थे। सुबह कचहरी जाते वक्त गरमा-गरम गुलाब जामुनों से भरी कढ़ाई मेरी नजरें खींच लेती थी। मावे और घी की खुशबू परेशान कर देती थी। लेकिन मँहगाई का जमाना और बाबू की नौकरी! बस! देख कर ही तसल्ली कर लेता था।

“एक दिन मुझसे रहा नहीं गया। मैंने दादा से कहा - ‘क्या यार! अपन भी कभी मन भर के गुलाब जामुन खा सकेंगे?’ दादा यारबाज ही नहीं, मस्तमौला भी थे। मुझे लेकर फौरन लच्छा बा’ की दुकान पर पहुँचे। लच्छा बा’ से बोले - ‘काकाजी! इसे मन भर गुलाब जामुन खिलाओ।’ लच्छा बा’ चौंके और डाँटते हुए बोले - ‘मन भर गुलाब जामुन कभी देखे भी हैं? मन भर देखे तो नहीं और बापड़े (बेचारे) मन भर खाने को चले।’ उस जमाने में तौल की इकाई छटाँक, पाव, सेर, मन होता था। चार छटाँक का एक पाव, चार पाव का एक सेर, चालीस सेर का एक मन। लच्छा बा’ उसी मन की समझे। दादा ने हँस कर कहा - ‘अरे! काकाजी! वो मन नहीं, आदमी का मन। गुलाब जामुन खाते-खाते जब तक माणक का मन नहीं भर जाए, तब तक इसे गुलाब जामुन खिलाओ।’ अब लच्छा बा’ समझे और दो-दो छँटाक गुलाब जामुन हमें थमा दिए। मेरा तो पेट और मन उसी में भर गया। लेकिन दादा ने मेरी नहीं सुनी। लच्छा बा’ ने फिर दो छँटाक गुलाब जामुन दे दिए। मुझसे खाया नहीं जाए। इधर दादा हैं कि ‘इसे और दो! और दो’ कहे जा रहे। मैं गुलाब जामुन मुँह में डालूँ और वह अन्दर जाने के बजाय बाहर आए। लच्छा बा’ को मुझ पर दया आ गई। उन्होंने दादा को डाँटा। तब कहीं मुझे मुक्ति मिली। उस दिन के बाद दादा से कभी कोई फरमाइश की भी तो खूब सोच-समझ कर बोला।”

माणक भाई मीठे-मादक अतीत में गुम थे। मुझे लौटना था। मैंने खँखार कर उनकी तन्द्रा भंग की। कहा - ‘आपके पास तो ढेर सारे किस्से होंगे। लेकिन मुझे जाना है। यह फोटू मुझे दे दीजिए। इसे स्केन करके लौटा दूँगा।’

और मैं लौट आया। मेरे खाद्य मन्त्रीजी, माणक भई को उनकी यादगाह में। मेरे दादा और उनके बैरागी के साथ छोड़कर।
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आभार - मैंने 'सोलह पाव का एक सेर' लिख दिया था। श्रीयुत के. डी. शर्मा ने टोका  - 'एक सेर में सोलह नहीं, चार पाव होते थे।' टोकते ही अपनी चूक अनुभव हुई। तत्‍काल दुरुस्‍ती की। बहुत-बहुत आभार शर्माजी। शर्माजी सहित तमाम कृपालुओं से आग्रह है - मुझ पर नजर बनाए रखिएगा और मुझे दुरुस्‍त करते रहिएगा। 

3 comments:

  1. आपके खाद्यमंत्री ने मनभर गुलाबजामुन खाने के वाकिये से मन भर आंया।ईमानदारी को पूंजी बनाने वाले लोगो का युग मानों बीत चुका है,चाहे घर में फाके मारे या जीभ मिठाई को तरसे मन से भरपूर ऐसे पूंजीपतियों के बारे में अब कल्पना ही की जासकती है। मन से खाद्य मंत्री माणकजी स्वस्थ प्रसन्नचित्त है,यही सेहत की अमूल्य निधि भी।वरना क्ल की खबर है कि दूसरो के अंशात तनाव से मुक्ति दिलाने वाले
    गृहस्थ संत भय्यूमहाराज ने आत्माहत्या कर ली।

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  2. मन भर खाद्य की आपूर्ति करने वाले मंत्री की कहानी, साथी 'खाद्यमंत्री' की ज़ुबानी सुनकर अच्छा लगा। सज्जनों का गमन सदा खलता है।

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  3. यादगार संस्मरण । शानदार चित्र । सबको प्रणाम । गुलाब जामुन खाये बिना ही मुंह मीठा हो गया ।

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