शीला दीक्षित और मुरली मनोहर जोशी को टोकिए











माननीया शीलाजी,
सविनय सादर नमस्कार,
लगातर तीसरी बार, दिल्ली का मुख्यमन्त्री बनने पर आपको हार्दिक बधाइयाँ तथा आत्मीय शुभ-कामनाएँ ।
किन्तु ‘नईदुनिया’ (इन्दौर) के, 18 दिसम्बर 2008 के अंक के मुख पृष्ठ पर आपका चित्र देखकर धक्का लगा । चित्र में एक व्यक्ति आपको ‘मुकुट’ पहना रहा है और आप हँसते हुए, ‘मुकुट’ पहन रही हैं ।
यह आपको तथा काँग्रेस को शोभा नहीं देता । यह स्थिति और मनःस्थिति हमारे लोकतन्त्र के लिए अत्यधिक घातक है ।
आयु में आप मुझसे बड़ी हैं और परिपक्व तथा गहन-अनुभवी हैं । इसलिए मुझसे पहले भली प्रकार जानती हैं कि ‘मुकुट-मानसिकता’ पूरी तरह अलोकतान्त्रिक है । इससे सामन्तवाद और राजतन्त्र की दुर्गन्ध आती है । आप भली प्रकार जानती हैं कि महात्मा गाँधी और कांग्रेस के नेतृत्व में भारत के लोगों ने ‘मुकुट से मुक्ति’ पाने के लिए कितने बलिदान दिए । उन बलिदानों का उल्लेख गर्वपूर्वक आप भी प्रायः ही करती रहती हैं ।
ऐसे में ‘मुकुट-धारण’ करने के लिए आपका सहमत होना और अन्ततः मुकुट धारण कर ही लेना सारी बातों को निरर्थक प्रमाणित करता अनुभव होता है ।
आपके, इस प्रकार मुकुट धारण करने पर मुझे अत्यधिक आपत्ति और क्षोभ है । आप ‘साम्राज्ञी’ नहीं अपितु दिल्ली के ‘लोकसेवकों में प्रथम लोकसेवक’ हैं - यह तथ्य मुझसे पहले आप स्वयम् जानती हैं । सत्ता से लाभ लेने के लिए चापलूस लोग चैबीसों घण्टे आपके और आप जैसे समस्त व्यक्तियों के आसपास मँडराते रहें, यह बहुत ही स्वाभाविक है । किन्तु ऐसे लोगों से आप और आपके साथी अपने आप को बचाए रखें - यह आपके लिए मात्र आवश्‍यक नहीं, अनिवार्य है । लोकसेवक का ईमानदार होना ही पर्याप्त नहीं है, अपने सार्वजनिक आचरण में उसका ईमानदार दिखना भी जरुरी होता है, यह आपसे बेहतर और कौन जानता है जिसने लगातार तीसरी बार दिल्ली के लोगों का खुला समर्थन प्राप्त किया है ।
जो कुछ हो गया है, उसकी मरम्मत करना तो अब किसी के लिए सम्भव नहीं रह गया है । किन्तु भविष्य में ऐसी अलोकतान्त्रिक और सामन्ती हरकतों से तो बचा ही जा सकता है ।
मैं आपसे आशा, अपेक्षा और आग्रह करता हूँ कि कृपया यह सुनिश्चित करें कि लोकतन्त्र की अवमानना करने वाले ऐसे पीड़ादायक और लज्जाजनक प्रसंगों का निमित्त आप भविष्‍‍य में नहीं बनेंगी ।
हार्दिक शुभ-कामनाओं तथा सद्भावनाओं सहित,

यह अविकल प्रतिलिपि है मेरे उस पत्र की जो मैं ने आज, 19 दिसम्बर 2008 को, दिल्ली की मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित को भेजा है ।

मुम्बई पर हुए आतंकी हमलों के बाद सारे देश के लोगों ने अपने नेताओं के प्रति अपनी घृणा का प्रकटीकरण जिस सामूहिकता और तीव्रता से किया था और नेताओं को बोरों में बाँध कर समुद्र में डाल देने की बात कही थी तब मैं, गिनती के उन लोगों में से था जिन्होंने, अपने नेताओं को इस प्रकार अस्वीकार और निरस्त करने का विरोध किया था । तब मैं ने कहा था कि ये नेता हमारे ही बनाए हुए हैं । हम इन्हें बनाते हैं और इनसे अपना स्वार्थ सिध्द करने की नीयत से इन्हें बिगाड़ते हैं और इन्हें इतना छुट्टा छोड़ देते हैं कि वे उच्छृंखल हो जाते हैं । मैं ने कहा था - ‘नेता आसमान से नहीं आते । उन्हें हम ही बनाते हैं और फिर हम उनके लिए बन कर रह जाते हैं । उन्हें नियन्त्रित करना हमारी जिम्मेदारी है और यदि हम अपनी यह जिम्मेदारी नहीं निभाते हैं तो हमे नेताओं को गरियाने, लतियाने का कोई अधिकार नहीं है ।’ मुझे इस बात का सन्तोष रहा कि मेरी इस बात को आशा और अपेक्षा से कहीं अधिक समर्थन, सहमति मिली ।

अपने इन नेताओं नियन्त्रित करने के प्रयास हम किस प्रकार कर सकते हैं, यही बताने के लिए मैं ने श्रीमती शीला दीक्षित को उपरोक्त पत्र लिखा है । चूँकि मेरा नियन्त्रण केवल मुझ तक ही है, इसलिए मैं किसी और से पत्र नहीं लिखवा सकता । हाँ, यह आग्रह अवश्य करता हूँ कि जिस-जिस को मेरी ‘हरकत’ उचित लगे तो कृपया वे भी इस हरकत में सम्मिलित हो जाइएगा । एक पत्र समुचित और अपेक्षित प्रभाव नहीं पैदा कर सकेगा । किन्तु यदि दस-बीस पत्र ऐसे पहुँचेंगे तो बात अनसुनी नहीं रह पाएगी ।

जोशीजी की अलोकतान्त्रिक हरकत

जोशीजी यान भाजपा के पूर्व राष्‍ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व केन्द्रीय मन्त्री डाक्टर मुरली मनोहर जोशी । इसी 12 दिसम्बर को उन्होंने दिल्ली में सम्वाददाता सम्मेलन में ‘राजनीतिक वंशवाद’ की पैरवी की । उन्होंने स्वीकार किया कि भाजपा में भी वंशवाद आ गया है और भाजपा नेताओं के पुत्र-पुत्रियों, भाई-भतीजों को अवसर दिए जाने लगे हैं । लेकिन जोशीजी इसे तनिक भी अनुचित नहीं मानते और पूछते हैं कि इसमें बुराई ही क्या है यदि वे इस क्षेत्र में काम कर रहे हों तो ? ‘भाजपा में आए इस बदलाव को वे गाँधी-नेहरू परिवारवाद से किस प्रकार अलग देखते हैं ?’ जैसे सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि यह परिवारवाद नहीं है ।

जोशीजी का यह वक्तव्य आश्‍‍चर्यजनक नहीं, अनुचित और आपत्तिजनक है । यह इसलिए भी घातक है क्यों कि जोशीजी इसे ‘क्रिया’ अथवा ‘कर्म’ के रूप में नहीं, ‘विचार’ के रूप में स्वीकार और स्थापित कर रहे हैं । कोई ‘घामड़’ नेता/कार्यकर्ता यह बात कहता तो उसकी अनदेखी की जा सकती थी किन्तु जोशीजी तो ‘प्राध्यापक और विचारक’ हैं । यदि उनके विचारों का निष्कर्ष वंशवाद के पक्ष में है तो फिर देश के लोगों को जोशीजी से और भाजपा से भी उतना ही सतर्क और सावधान हो जाना चाहिए जितना सावधान और सतर्क, कांग्रेस तथा सोनिया गाँधी से रहने का आह्वाहन, जोशीजी और उनकी पार्टी देश के लोगों से करती है ।

भाजपा ने कांग्रेस के वंशवाद/परिवारवाद की सदैव ही आलोचना की और इस परम्परा को सिरे ही निरस्त कर इसे ‘लोकतन्त्र की कीमत पर वंशवाद का पोषण’ निरुपित किया । इतना ही नहीं, कांग्रेस के वंशवाद/परिवारवाद का सर्वाधिक खामियाजा भी भाजपा ने ही उठाया है ।

होना तो यह चाहिए था कि अपनी पारी और बारी आने पर भाजपा अपने आचरण से कांग्रेस की इस परम्परा को अनुचित, अनावश्‍‍यक और खुद को कांग्रेस से सर्वथा भिन्न/पृथक प्रमाणित करती । किन्तु यह दुरुह और असम्भव की सीमा तक का कठिन काम है । सत्ता की रपटीली चिकनी सड़कों पर संयमित और सन्तुलित रह पाना भाजपाइयों के लिए असम्भव ही हुआ और वे कांग्रेसियों से बढ़कर कांग्रेसी होने लगे और आज प्रत्येक ‘समर्थ’ भाजपा नेता अपनी अगली पीढ़ी को सत्ता में स्थापित करने में लग गया है । इन्हें ‘कांग्रेस का उत्‍कृष्‍‍ट और विश्‍‍वसनीय विकल्प’ बनना था किन्तु ये बन रहे हैं ‘कांग्रेस का निकृष्‍‍ट और हेय संस्करण ।’

अभी-अभी सम्पन्न हुए विधान सभा चुनावों में मतों का ध्रुवीकरण कांग्रेस और भाजपा के बीच ही हुआ है । तीसरे विकल्प की कामना रखने वाले दलों को नाम मात्र की भी सफलता नहीं मिली है । ऐसे में यदि हमें कांग्रेस के बदले में ‘निकृष्‍‍ट कांग्रेस’ मिलती है तो यह चरम हताशा की दशा होगी ।

लिहाजा, भाजपा के समस्त हितैषी भाजपाइयों का यह न्यूनतम उत्तरदायित्व बनता है कि वे जोशीजी के इस मन्तव्य का कड़ा प्रतिकाकर करें और अपने नेताओं को स्खलित होने से बचाएँ । भाजपाइयों को इसलिए सक्रिय होना पड़ेगा क्यों कि यदि कांग्रेसी और/अथवा अन्य दलों के लोग जोशीजी की बात का प्रतिकार करेंगे तो इसे राजनीतिक वक्तव्य कह तत्क्षण ही निरस्त कर दिया जाएगा । किन्तु भाजपाइयों की बात तो उन्हें सुननी ही पड़ेगी ।

मुझे जोशीजी का पता नहीं मालूम अन्यथा मैं उन्हें भी पत्र लिख चुका होता ।

हम किसी भले आदमी की भलमनसाहत से प्रभावित होकर उसे नेता तो बना देते हैं किन्तु बाद में यह प्रयास कभी नहीं करते कि वह, नेता बनने के बाद भी भला ही बना रहे । हमारी यही प्रवृत्ति हमारे नेताओं को उच्छृंखल बनाती है और आश्‍‍चर्य कि अपनी इस करनी का दोष हम अपने नेताओं को देते हैं ।


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13 comments:

  1. बहुत ही सटीक आलेख है. सचमुच इस जनतंत्र के जन-प्रतिनिधि अपना स्थान भूलकर अपने को शासक और जनता को अपनी प्रजा समझने लगे हैं. जोशी जी जैसे विद्वान् का बयान तो और भी शर्मनाक है. लिखते रहिये, आज के समय में जागरूकता फैलाने की ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा है.

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  2. बैरागी जी,

    वैसे तो मैं राजनीति में नहीं के बराबर ही रुचि रखता हूँ किन्तु आपका लेख मुझे युक्तियुक्त लगा।

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  3. हम भी अवधिया जी का साथ दे रहे हैं, कोई मजबूरी नहीं है!

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  4. "हम किसी भले आदमी की भलमनसाहत से प्रभावित होकर उसे नेता तो बना देते हैं किन्तु बाद में यह प्रयास कभी नहीं करते कि वह, नेता बनने के बाद भी भला ही बना रहे । हमारी यही प्रवृत्ति हमारे नेताओं को उच्छृंखल बनाती है और आश्‍‍चर्य कि अपनी इस करनी का दोष हम अपने नेताओं को देते हैं ।"
    बहूत खूब कहा आपने ध्यानाकर्षण के लिए साधुवाद

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  5. मुरली मनोहर जोशी
    ६,रायसीना रोड ,नई दिल्ली .

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  6. आप ने सही स्थान पर चोट की है। वस्तुतः दोनों ही घटनाएं ऐसी हैं जो सामंती मूल्यों की राजनीति में स्थापना करती है। आजादी के इकसठवें बरस में इन मूल्यों का जीवित रह जाना भारत के लिए शर्म की बात है। कल भी आपने जब घोड़ी पर दूल्हे के तोरण मारने की बात कही थी। वह भी सामंती मूल्यों से सम्बद्ध है।

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  7. अपने को झूठी तसल्ली देने से कुछ होने वाला नहीं है . जो असलियत है वह सामने आरही है तो आने दीजिए .
    यह सलाह तो शीला दीक्षित के कूटनीतिक सलाहकार द्वारा दी जानी चाहिए कि ऐसा न करें नहीं तो जनता को बुरा लग सकता है .

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  8. जन सेवक कब नेता बन जाते है और कब राजा पता नहीं चलता..

    ये शर्म की बात है..

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  9. आपने सटीक बात कही है. शीला जी के इस चित्र ने मुझे भी विचलित किया. प्रजातंत्र में 'मुख्य मंत्री' नहीं, 'मुख्य लोकसेवक' कहा जाना चाहिए.

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  10. सही विचार हैं, और ऊपर दिये पते के मुताबिक जोशी जी को एक पत्र तत्काल प्रेषित कर रहा हूँ, बढ़िया लेख… मैं भी राजनीति में परिवारवाद का विरोधी हूँ और इसीलिये "अविवाहित" नेताओं (वाजपेयी, मोदी आदि) का समर्थक हूँ, वैसे आडवाणी जी भी परिवारवाद से मुक्त हैं…

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  11. खतो - किताब भी कर देखिए । इअतने ही संवेदनशील होते ये सब तो कहना ही क्या था ? मप्र बीजेपी में वंशवाद की फ़सल बढिया लहलहा रही है । आगे इस पर पाला पडेगा ऎसे कोई आसार नज़र नहीं आते । भारतीय मानसिकती का भरपूर दोहन करते हैं राजनीतिक दल ..। ज़रुरत है जनता को सुधारने की ना कि नेताओं को । जनता को जन सेवकों पर लगाम कसना आ गई तो नेता खुदबखुद ’शरणम गच्छामि’ हो जाएंगे ।

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  12. बहुत सही लिखा है आपने ..
    स स्नेह,
    - लावण्या

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  13. श्रीमान जी वंशवाद तो कॉंग्रेस की मजबूरी है गाँधी परिवार के बिना उनका क्या हाल हुआ हम सब जानते है और अब तो ऐसा है की राजस्थान मे मुख्यमंत्री चुनना हो या मध्यप्रदेश मे और चत्तीसगद मे विपक्ष का नेता बिना सोनिया गाँधी के ये लोग इतना भी तय नही कर पाते है इनकी घमासान तो सबने देखी है इनकी अपनी कोई सोच समझ है ही नही हमारे प्रधानमंत्री जी का भी ये ही हाल है और अब आप देखेंगे की सोनिया जी की जगह राहुल ने ले लेनी है

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.