प्रकाशजी ने एक बार फिर ‘नईदुनिया’ का काम-काज सम्हाल लिया। इस बार उनकी पदोन्नति भी हुई। पहले वे ‘नईदुनिया’ के, मेरे कस्बे के कार्यालय प्रमुख थे। अब वे पूरे जिले के सलाहकार के रूप में पदस्थ किए गए हैं। उनका पदनाम भले ही ‘सलाहकार’ दिया गया हो किन्तु मैं जानता हूँ कि प्रकाशजी जहाँ भी होते हैं, पत्रकार ही होते हैं और पत्रकार से कम या ज्यादा और कुछ नहीं होते।
किन्तु इस बात से क्या अन्तर पड़ता है कि कौन आदमी किस अखबार में किस पद पर काम करे? सही है। कोई अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु प्रकाशजी की यह पुनर्नियुक्ति सामान्य नहीं है। यह एक विशेष घटना है। ऐसा नहीं होता तो भला मैं यह सब क्यों लिखता?
इस पुनर्नियुक्ति की खास बात यह है कि प्रकाशजी (याने श्री प्रकाश उपाध्याय) ने अपनी आयु के 77वें वर्ष में यह जिम्मेदारी सम्हाली है। कोई सत्रह वर्ष पूर्व, 1993 में, साठ वर्ष की आयु पूरी कर लेने के कारण वे सेवा निवृत्त कर दिए गए थे। आयु के सतहत्तरवें वर्ष में यह पुनर्नियुक्ति? मैं प्रसन्न अवश्य हूँ किन्तु विस्मित भी।
प्रकाशजी केवल मेरे कस्बे के ही नहीं, समूचे मालवांचल के अग्रणी और वरिष्ठ पत्रकार हैं। साक्षात्कार और मैदानी रपट (फील्ड रिपोर्टिंग) के मामले में वे अप्रतिम, अनुपम हैं। पत्रकारिता-कर्म करते हुए वे सामनेवाले के पद, प्रतिष्ठा से कभी भी आतंकित/प्रभावित नहीं होते, इस तथ्य का गवाह मैं पचासों बार रहा हूँ। शालीनता और विनम्रता बरतते हुए पत्रकारिता की दृढ़ता और पत्रकारिता की अस्मिता की रक्षा कैसे की जाती है, यह मैंने उन्हीं से सीखा। वे मेरे आदर्श रहे हैं। सक्रिय पत्रकारिता के अपने समय में मैं ‘प्रकाश उपाध्याय’ बनना चाहता रहा। इस दौरान मैं उनसे ईष्र्या भी करता रहा और प्रतियोगिता भी। एक-दो प्रतियोगिता में मैं उनसे आगे निकला भी तो वह मेरी कुशलता, दक्षता और क्षमता के कारण नहीं, मात्र संयोग और स्थितियों के कारण। प्रकाशजी का ‘जलवा’ ऐसा और इतना हुआ करता था कि अपनी पत्रकार वार्ता शुरु करने के लिए मुख्यमन्त्रियों को प्रकाशजी की प्रतीक्षा करते हुए कम से कम सात बार तो मैंने देखा है। ऐसे प्रकाशजी एक बार फिर अधिक जिम्मेदारी के साथ ‘नईदुनिया’ कार्यालय में नजर आएँगे, यह जानकर मुझे सचमुच में ‘सुखद आश्चर्य’ हुआ।
पत्रकारिता की जिस पीढ़ी और संस्कार परम्परा से प्रकाशजी आते हैं, वह सब आज लगभग खारिज कर दी गई है। पहले पत्रकार अपने मुँह से कुछ नहीं कहता था। उसका काम बोलता था और लोग जानते थे कि फलाँ आदमी फलाँ अखबार का पत्रकार है। आज स्थिति एकदम उलट है। आज तो पत्रकार विभिन्न उपक्रमों और प्रतीकों के जरिए अपने होने को जनवाते हैं। पहले के पत्रकार, कलेक्टर के तीन-चार बार बुलाने पर एक बार कलेक्टर के चेम्बर में जाते थे। आज तो कलेक्टर के चेम्बर के बाहर पंक्तिबद्ध पत्रकार नजर आना सामान्य बात हो गई है। लगता है, सारी परम्पराएँ, सारे मूल्य पूरी तरह से उलट गए हैं। ऐसे में, वह कौन सी बात, वे क्या कारण हो सकते हैं कि प्रकाशजी को वापस बुलाना पड़ा? आज वे 77 वर्ष के हैं, भाग-दौड़ करने की उनकी शारीरिक क्षमता पहले के मुकाबले तो शून्य प्रायः ही होगी। विज्ञापनों के लिए खुशामद करना उनके मिजाज में पहले भी नहीं था। अब तो बिलकुल भी नहीं रहा होगा। आजकी पत्रकारिता की भाषा, शैली, प्रस्तुति सब कुछ बदल गया है। प्रकाशजी के जमाने में सम्पादकीय विभाग को प्रमुखता, प्रधानता, प्राथमिकता और भरपूर सम्मान मिलता था। आज यह सब प्रबन्धन और खास कर विज्ञापन विभाग को मिलने लगा है। पहले, अखबार का प्रबन्ध सम्पादक कोने में खड़ा टुकुर-टुकुर देखता रहता था। आज उसके लिए लाल कालीन बिछा मिलता है। पहले सम्पादक के अड़ जाने के कारण समाचार के लिए विज्ञापन कम कर दिए जाते थे। आज तो विज्ञापन ही अखबार का भगवान बन गया है। ये सारी बातें जब मैं जानता हूँ तो क्या प्रकाशजी नहीं जानते होंगे? उनसे भी पहले, क्या ‘नईदुनिया’ का प्रबन्धन यह सब नहीं जानता होगा? वहाँ तो प्रकाशजी की पीढ़ी का एक भी आदमी नहीं है। सब नई उमर के, इक्कीसवीं सदी के महत्वाकांक्षी, आक्रामक विपणन नीति वाले, ऊर्जस्वी नौजवान आ गए हैं। अखबार और पत्रकारिता को लेकर इस पीढ़ी के मूल्य, मायने एकदम अलग हैं। इतने अलग कि प्रकाशजी और ये लोग या तो मुठभेड़ की स्थिति मे आमने-सामने होंगे या एक दूसरे की ओर पीठ करके बैठे मिलेंगे। फिर भी प्रकाशजी की वापसी हुई? ‘नईदुनिया’ के प्रतियोगी अखबारों में प्रकाशजी के पुत्रों-पौत्रों की उम्र के पत्रकार काम कर रहे होंगे, यह हर कोई जानता है। फिर भी सतहत्तर वर्ष के प्रकाशजी को पूरे जिले की जिम्मेदारी दे दी गई?
मुझे लगता है, यह केवल एक व्यक्ति की वापसी नहीं है। यह कुछ और है। हमारे अखबार और पत्रकारिता आज जिस मुकाम पर आ गए हैं वहाँ प्रसार और पैसा तो मूसलाधार बरस रहा है किन्तु अखबारों और पत्रकारों के प्रति आदरणीयता, सम्मान का भाव तिरोहित होता जा रहा है। पहले ‘पत्रकार’ हुआ करते थे, आज ‘अखबारों के कर्मचारी’ नजर आते हैं। पहले ‘क्या छापा जाए’ इस पर विचार होता था और यही चिन्ता होती थी। आज ‘क्या नहीं छापा जाए’ की दृष्टि से सम्पादन होने लगा है। पत्रकारिता की धार में कमी अनुभव होने लगी है। कुछ कर गुजरने की अदम्य लालसा लिए पत्रकारिता में प्रवेश करने वाले उत्साही और महत्वाकांक्षी नौजवान को सबसे पहली समझाइश यही दी जाने लगी है कि वह पत्रकारिता करने नहीं, नौकरी करने आया है। उसे समाचार तो लाने हैं किन्तु ऐसे कि जिनसे अखबार पर कोई जोखिम नहीं आए। पहले, जनहित के लिए अखबार मानो मुठभेड़ के लिए, व्यवस्था से टकराने के लिए सन्नद्ध रहते थे। आज समन्वय के लिए सन्नद्ध रहते नजर आते हैं। आपातकाल में सबसे पहले गिरतार होकर, जार्ज फर्नाण्डिस के साथ जेल जानेवाले, अखिल भारतीय श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष श्री के। विक्रमराव का सुनिश्चित और जग जाहिर मत है कि ‘पत्रकार सदैव प्रतिपक्ष में रहता है।’ राव साहब का यह मत अब उन्हीं तक सिमट कर गया लगता है। पहले अखबार को जन संघर्ष का धारदार, प्रभावी और परिणामदायी औजार माना जाता था। आज के अखबार ‘उत्पाद’ (प्रॉडक्ट) की तरह नजर आते हैं।
इन्हीं और ऐसी ही बातों के कारण आज अखबारों के प्रति लोगों के मन से आदरभाव तिरोहित होता जा रहा है, अखबारों से अपेक्षा करना लोगों ने कम कर दिया है। अखबारों और पत्रकारों की ‘प्रबुद्ध छवि’ लुप्तप्रायः हो गई है। लोग अखबारों से यदि नाउम्मीद नहीं हुए हैं तो उन्होंने उम्मीद करना भी छोड़ दिया है। अखबारों में आज समाचार कम और शीर्षक अधिक नजर आते हैं। ‘विचार’ तो मानो विस्थापित ही कर दिया गया है। राष्ट्रीय स्तर का एक भी अखबार हमें देखने-पढ़ने को नहीं मिलता। उच्च तकनीक ने सारे अखबारों को स्थानीय बना दिया है। इतना स्थानीय कि अपने कस्बे से पचास किलोमीटर दूरवाले कस्बे के समाचार भी देखने-पढ़ने को नहीं मिलते। अखबार छप रहे हैं, प्रसार संख्या बढ़ गई है, विज्ञापनों की बरसात हो रही है किन्तु ‘मजा’ किसी को नहीं आ रहा है, सन्तोष किसी को नहीं हो रहा है - न तो छापनेवाले को और न ही पढ़नेवाले को।
ऐसे में, प्रकाशजी की वापसी को मैं केवल एक व्यक्ति की वापसी नहीं मानता। मुझे लगता है, यह अखबारों में ‘विचार की वापसी’ की शुरुआत है, अखबारों और पत्रकारों की प्रबुद्ध छवि बनाने की शुरुआत है, समूची पत्रकारिता और अखबार नामकी संस्था के सम्मान और आदरणीयता की पुनस्र्थापना की शुरुआत है।
प्रकाशजी की इस पुनर्नियुक्ति की खबर मिलने के पहले ही क्षण मुझे मालवा की एक लोक कथा याद आ गई और मैं अकेले में ही हँस पड़ा। लोक कथा कुछ इस प्रकार है - एक विवाह सम्बन्ध तय हुआ तो वधू पक्ष ने शर्त रखी कि वर पक्ष बारात में किसी बूढ़े को नहीं लाएगा। वर पक्ष ने बात तो मान ली किन्तु जिज्ञासा बराबर बनी रही। इसी जिज्ञासा के अधीन, एक बूढ़े को, बक्से में बन्द कर बारात के सामान में शामिल कर लिया गया। बारात तोरण पर पहुँची तो बारात में एक भी बूढ़े को न देखकर वधू पक्ष परम प्रसन्न हुआ। किन्तु तोरण मारने के लिए वर ने जैसे ही तलवार उठाई, वधू पक्ष के एक बूढ़े ने कहा - ‘पहले नदी को घी से लबालब भरें, फिर तोरण मारें और वधू को ब्याह ले जाएँ।’ पूरी बारात में सन्नाटा छा गया। यह तो किसी ने सोचा भी नहीं था। कहाँ तो वधू लेकर लौटने की उमंग उछालें मार रही थीं और कहाँ तोरण मारने में ही बाधा आ गई।
वधू पक्ष अड़ गया। किसी को कुछ भी सूझ नहीं पड़ रही थी। तभी एक बाराती को बक्से में बन्द बूढ़ा याद आया। वह भागा-भाग जनवासे गया और बक्सा खोल कर बूढ़े को समस्या बताई। सुनकर बूढ़ा हँसा और बोला - ‘लड़कीवालों से कहो कि वे नदी खुदवा दें ताकि उसे हम घी से लबालब भर सकें।’ बाराती उल्टे पाँवों वधू के दरवाजे पहुँचा और नदी खुदवाने की बात कही। सुनकर, शर्त रखनेवाला वधू पक्ष का बूढ़ा तत्काल बोला - ‘आपने शर्त तोड़ी है। आप बारात में बूढ़ा लेकर आए हैं।’ वर पक्ष ने सहमति में सर हिलाया। वधू पक्ष का बूढ़ा ठठा कर हँसा और बोला - ‘जिन्हें लाए हैं, उन्हें ससम्मान यहाँ लाएँ। वे तो हमारे सिरमौर हैं। वे न होते तो हमारी बेटी आज कुँवारी रह जाती।’
इस लोक कथा के आलोक में प्रकाशजी की वापसी पर सोचें। यहाँ प्रकाशजी तो केवल एक नाम हैं, एक निमित्त हैं। उम्मीद करें कि पत्रकारिता और अखबार-संस्थान् की विश्वसनीयता, बौद्धिकता, आदरणीयता, सम्मान की पुनर्स्थापना की कोशिशों के तहत, ऐसे अनेक प्रकाशजी एक बार फिर हमें अपने आसपास नजर आएँ।
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ऐसे प्रकाश जी ही अब एकमात्र सहारा लगते हैं. बढ़िया लोककथा.
ReplyDeleteप्रकाश जी को बधाई देना तो अहमन्यता कहलाएगी। उन के जैसे लोगों का पत्रकारिता के किसी भी स्तर पर बने रहना हम पाठकों का सौभाग्य ही होगा।
ReplyDeleteपरिचय तो नहीं है प्रकाश जी से लेकिन जिस तरह से आप परिचय करवा रहे हैं तो यही कहूंगा कि प्रकाश जी जैसे लोग हैं तो पत्रकार और पत्रकारिता बची हुई है नही तो मीडियाकर्मी और जर्नलिज्म का ही जोर है।
ReplyDeleteबाकी आपने प्रकाश जी के बहाने "तब" और "अब" का जो फर्क सामने रखा है, बहुत सही है।