खरीदी की उम्मीद में मुफ्त बँटी

यह जो कुछ मैं यहाँ लिख रहा हूँ, इसमें मेरा अपना कुछ भी नहीं है। सौ टका ‘पराई पूँजी’ है। हिन्दी व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर, कविताओं के मंच की शोभा, अनेक पुस्तकों के रचयिता, अनेक ख्यातनाम सम्मानों से सम्मानित,
बहुप्रशंसित कवि श्री अशोक चक्रधर की पूँजी है यह। वे हिन्दी अकादमी, दिल्ली तथा केन्द्री हिन्दी संस्थान् के उपाध्यक्ष रहे हैं। अपने दाँतों के इलाज के लिए आज इन्दौर में रमेश भाई चोपड़ा के पास बैठा था। बातों ही बातों में रमेश भाई ने कहा - ‘दादा (श्री बालकवि बैरागी) सच्ची में बैरागी ही थे। उनका बस चलता तो अपने आसपासवालों को भी बैरागी बना देते।’ मैंने कहा - ‘ऐसी कौन सी बात आपके सामने आ गई जो ऐसा कह रहे हैं?’ रमेश भाई बोले - ‘मुझे तो घर बैठे ही मालूम हुई। अशोकजी चक्रधर यहीं, इसी ऑफिस में आकर बता गए।’ चूँकि रमेश भाई साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न व्यक्ति हैं इसलिए मुझे लगा, अशोक भाई से उनका आत्मीय सम्पर्क होगा और इसीलिए अपनी इन्दौर यात्रा में वे रमेश भाई के दफ्तर आए होंगे। मैंने सहज भाव से पूछा - ‘कब आए थे? साथ में और कौन था?’ रमेश भाई हँस पड़े - ‘अरे! सशरीर नहीं आए। इसके जरिए आए।’ कहते हुए अपने ड्राअर से एक पत्रिका निकाली और मुझे थमाते हुए बोले - ‘लीजिए! खुद ही पढ़ लीजिए।’ वह ‘साहित्य अमृत’ के जून 2018 अंक की प्रति थी। अशोक भाई ने दादा से जुड़ी, भावाकुल कर देनेवाली अनेक स्मृतियाँ अपने लेख में उकेरी हैं।  

अशोक भाई से दादा के पारिवारिक रिश्तों की जानकारी तो मुझे थी। लेकिन इस लेख से मालूम हुआ कि मेरी ये जानकारियाँ शून्यवत ही थीं। मेरी जानकारियाँ तो केवल अशोक भाई और दादा को लेकर ही थीं। इस लेख से ही मालूम हुआ कि किसी जमाने में मेरे अत्यन्त प्रिय कवि रहे श्री राधेश्यामजी प्रगल्भ, अशोक भाई के पिताजी थे। मैंने देखा है, दादा इन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और इनके पाँव छूते थे।

अपने इसी लेख में अशोक भाई ने वह संस्मरण उजागर किया जिसके आधार पर रमेश भाई ने ‘सबको बैरागी बना देते।’ वाली टिप्पणी की थी। घटना का सार मेरे लिए न तो नया था न ही चौंकानेवाला। दादा के अन्तरंग क्षेत्र के लोग भी नहीं चौंकेंगे। लेकिन ऐसे, गिनती के लोगों के अलावा तमाम लोग जरूर अविश्वास से इस घटना को पढ़ेंगे और शायद चौकें भी।

दादा के निधन के समाचारों के साथ दादा की प्रकाशित पुस्तकों में ‘दादी का कर्ज’ नामक पुस्तक का नाम न देख अशोक भाई हैरान रह गए। इस पुस्तक की प्रकाशन-प्रक्रिया के हर चरण के, अशोक भाई उसी तरह गवाह थे जिस तरह कोई ‘दाई’ किसी प्रसव की समूची प्रक्रिया की गवाह होती है। 

बात तब की है जब अशोक भाई किशोर से युवा होने की दहलीज पर थे। उनके परिवार ने प्रिण्टिंग प्रेस लगाई। कम पूँजी में बढ़िया काम करने के संकल्प के साथ प्रगल्भजी ने प्रेस का नाम ‘संकल्प प्रेस’ रख दिया था। इस प्रेस से जो पहली पुस्तक प्रकाशित हुई, वह थी दादा की बाल कविता ‘दादी का कर्ज।’ उस पुस्तक की पूरी कम्पोजिंग अशोक भाई ने की थी। उसका, दुरंगा आवरण मथुरा के एक कलाकार ने बनाया था। चित्रों की छपाई के लिए तब ‘ब्लॉक’ बनते थे। दो ब्लॉक बने थे। आवरण पृष्ठ की छपाई, लाल और आसमानी रंग में दो बार हुई थी। उस जमाने में वह मुखपृष्ठ ‘चित्ताकर्षक’ था। 

दादा तब मन्त्री बने ही बने थे। प्रगल्भजी को आशा थी कि यह किताब सरकारी खरीद में आ जाएगी। एक प्रकाशक और सप्लायर के रूप में अशोक भाई, ‘दादी का कर्ज’ लेकर भोपाल पहुँचे। मिलनेवालों की भीड़ छोड़कर दादा, अशोक भाई को अन्दर, अपने अध्ययन कक्ष में ले गए। पुस्तक देखकर बहुत खुश हुए। ‘चचे’ के निवास पर ‘भतीजे’ की भरपूर आवभगत हुई। 

दो दिन भोपाल रुक कर अशोक भाई, शानदार विदाई के साथ मथुरा लौट गए। अशोक भाई लिखते हैं - “कुछ दिन बाद पिताजी के पास बैरागीजी का पत्र आया कि ‘क्योंकि मैं अब मन्त्री हो गया हूँ, इसलिए सरकारी खरीद में अपनी किताब का प्रस्ताव नहीं रख सकता। कोई और रखेगा तो समर्थन नहीं करूँगा। आप मध्य प्रदेश में नहीं, किसी और प्रान्त में प्रयत्न करें।’ पिताजी भी घर-फूँक तमाशा देख संप्रदाय के थे। उन्होंने कहीं और प्रयास किया हो, मुझे याद नहीं पड़ता। वह पुस्तक उदारता से बाँटी गई। दोबारा छपी नहीं। शायद इसीलिए सूची में उस पुस्तक का नाम नहीं आया। बिना अपनी पूरी उम्र पाए काल के चक्र में समा गई।”

आज के जमाने में इस किस्से के दोनों पात्रों, प्रगल्भजी और दादा को लोग मूर्ख ही कहें तो विस्मय नहीं। लेकिन ‘वे’ लोग ऐसे ही थे। बकौल अशोक भाई - ‘घर-फूँक तमाशा देख सम्प्रदाय’ के सदस्य। वे इसी में मगन, पूर्ण सन्तुष्ट और भर-पेट प्रसन्न थे। आत्मा की यह शुद्धता और यह कंचन-नैतिकता उनकी जीवनी शक्ति थी और यही उनके जीवन का पाथेय भी था। उनकी जेबें खाली रहती थीं लेकिन देश के श्री-पुत्र उनकी अगवानी में गुलाब-जल की झारियाँ लिए प्रतीक्षारत रहते थे। वे मस्तमौला थे। कबरीपंथी मस्ती के कुबेर।
-----   

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-08-2018) को "रोटियाँ हैं खाने और खिलाने की नहीं हैं" (चर्चा अंक-3053) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.