यह ‘बाबू राज’ का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसकी शिकायत भी नहीं की जा सकती क्योंकि सुननेवाला कोई नहीं है।
मामला भारत सरकार के एक उपक्रम के कार्यालय का है। इसके एक आवेदन में, आवेदक को दो पते देने की व्यावहारिक सुविधा उपलब्ध कराई गई है - एक पता पत्राचार का और दूसरा पता स्थायी या आवासीय पता। जाहिर है, आवेदन फार्म का प्ररूप बनाते समय यह व्यावहारिक सुविचार सामने आया होगा कि कोई आदमी रहता कहीं और होगा और काम कहीं और करता होगा। मुझे यह प्रावधान सराहनीय लगा।
सरकार ने डाक विभाग को दयनीय दशा में ला खड़ा कर दिया है। किसी भी शहर में डाकियों के पूरे पदों पर भर्ती नहीं है। मेरे रतलाम में ही कई डाकियों को दो-दो, तीन-तीन बीटों की जिम्मेदारी दी हुई है। ऐसे में वे चाह कर भी अपना रोज का काम रोज पूरा नहीं कर पाते। सब तरह के लोग सब जगह होते हैं। कस्बे के बाहरी इलाके के कुछ डाकिए सप्ताह में एके दिन डाक बाँटते हैं। ऐसे में, उक्त प्रावधान लोगों को अत्यधिक अनुकूल और सुविधाजनक है। कस्बे के बाहरी इलाकों में रहनेवाले लोग अपने काम-काजी स्थल का पता दे कर अपनी चिट्ठियाँ प्राप्त करने की सुनिश्चितता हासिल कर सकते हैं।
लेकिन इस दफ्तर के बाबू ने इस सराहनीय भावना और व्यवस्था की ऐसी-तैसी कर रखी है। उसका कहना है कि आवेदक जो भी पता देना चाहे, खुशी-खुशी दे। लेकिन आवेदक को ऐसे प्रत्येक पते का दस्तावेजी प्रमाण देना पड़ेगा। उदाहरण के लिए मैं यदि अपना पत्राचार का पता बाजार में अपनी बैठकवाले किसी व्यापारिक संस्थान का देना चाहूँ तो मुझे अपने उस पते का दस्तावेजी प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ेगा। ऐसा कर पाना मेरे लिए सम्भव ही नहीं। मेरे आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, ड्रायविंग लायसेंस, पासपोर्ट आदि में मेरा स्थायी आवासीय पता अंकित है। बाजार में स्थित मेरे मित्र के व्यापारिक संस्थान पर तो मेरी बैठक है जहाँ प्रतिदिन डाक वितरित होती ही है। जबकि, मेरे आवासीय इलाके का डाकिया कभी-कभी (दूसरी बीट की डाक निपटाने के कारण) मजबूरी में गैरहाजिर रह जाता है।
भारत सरकार के उपक्रम का यह बाबू इन सारी बातों को व्यक्तिशः तो मानता और कबूल करता है। लेकिन आवेदन को आगे बढ़ाने के मामले में अड़ जाता है। बड़ी ही विनम्रता से कहता है - ‘मैं पता लिखने से मना तो तो नहीं कर रहा ना? लेकिन मैं तो सरक्यूलर से बँधा हुआ हूँ जो कहता है कि मैं वही पता लिखूँ जिसका दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध कराया गया है। आप सरक्यूलर देख लो।’ वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं। उसे समझाने की कोशिश की - ‘भाई मेरे! प्ररूप की भावना को समझने की कोशिश करो। एक आदमी के दो-दो पतों के दस्तावेज कैसे हो सकते हैं? स्थायी पते का दस्तावेजी सबूत दे तो रहे हैं! पत्राचार के पते का दस्तावेजी प्रमाण कैसे जुटाया जा सकता है?’ बड़ी विनम्रमा से बाबू जवाब देता है - ‘देखो सा‘ब! मैं तो सरक्यूलर से बँधा हुआ हूँ। आप सरक्यूलर अमेण्ड करवा दो। आपका काम भी हो जाएगा और मेरा भी।’
ऐसे में, इस दफ्तर के इस आवेदन में लोगों को दोनों ही जगह एक ही पता लिखना पड़ रहा है। सरक्यूलर को अमेण्ड करवाने के मुकाबले यह बहुत-बहुत आसान है। सरकार अव्वल तो लोगों की सुविधा का ध्यान रखती नहीं। गलती से यदि रख भी लिया तो ‘बाबू’ उसकी ऐसी-तैसी कर देता है।
यही ऐसी-तैसी यहाँ हो रही है।
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There is a provision of undertaking of local address in our bank by the customer to deal with this situation.
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 01/02/2019 की बुलेटिन, " देश के आम जनमानस का बजट : ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteदेश तो बाबू ही चला रहे है अधिकारी तो चिड़िया बिठा रहे है।🙏
ReplyDeleteजब कोई व्यक्ति अपनी डाक को अनधिकृत रूप से दूसरी जगह डालने की शिकायत करेगा तो बेचारे इन्हीं बाबू को जेल भेजने का आंदोलन होगा और कोई इनके पक्ष में नहीं आयेगा। वे नियमबद्ध हैं और जिस दायित्व का वेतन ले रहे हैं ठीक वही कर रहे हैं।
ReplyDeleteआपका सुसज्जित ब्लॉग देख कर मन प्रसन्न हो गया
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