क्या हुआ था, यह तो जानता हूँ लेकिन नहीं जानता कि क्यों हुआ था। 23 जुलाई की रात को यह हुआ था। इतने दिन बीत चुके हैं, अब तक नहीं जानता।
मैं बनवारी लाल सारडा को नहीं जानता। रोमन ने हिन्दी के अनगिनत शब्दों के रूप विकृत कर दिए। रोमन लिपि में लिखे उनके नाम के कारण ही तय नहीं कर पा रहा कि बनवारी सारडा हिन्दी में खुद को क्या लिखते हैं - सारदा? या सारडा? या सारड़ा? वे फेस बुक पर मेरी मित्र सूची में हैं। उनसे मिला नहीं। फेस बुक पर उपलब्ध उनके परिचय के मुताबिक वे रतलाम स्थित इप्का लेबोरेटरीज मेें वितरण विभाग में सहायक महाप्रबन्धक हैं। लेकिन उनसे आमना-सामना अब तक नहीं हुआ। उन्हीं की वजह से यह सब हुआ और यह सब होने के बाद अनुमान लगा पा रहा हूँ कि वे खुद को सारड़ा ही लिखते होंगे।
यह 23 जुलाई की शाम सात-आठ बजे की बात होगी। फेस बुक को उलटते-पलटते अचानक इस चित्र पर नजर पड़ी।
नजर पड़ी तो ठिठकीं और ठहर गईं। है। चित्र शायद घुड़-चढ़ी के मौके का है। एक दम दाहिने कोने पर एक दूल्हा, बीच में सफेद कुर्ते पर कत्थई रंग का नेहरू जेकेट पहने, माथे पर गुलाबी रंग की पगड़ी धारे, चश्मा लगाए प्रसन्न-वदन बुजुर्ग खड़े हैं। इन्हीं ने मेरी नजर पर कब्जा कर लिया - ‘अरे! ये तो भईजी हैं!’ मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। और फिर वही हुआ जो मैं अब तक नहीं समझ पाया हूँ - अपने लेप टॉप के सामने बैठे-बैठे मुझे धार-धार रुलाई आ गई। मैं विगलित भी था और चकित भी - ‘यह क्यों हो रहा है? अभी तो पक्का भी नहीं ये मेरे भईजी ही हैं! मैं क्यों रोए जा रहा हूँ?’ बुध्दि सन्देही कर रही थी और विवेक संयमित होने की सलाह दे रहा था। लेकिन इन दोनों को परे सरका कर मन बेकाबू हुए जा रहा था।
मैंने टिप्पणी कर पूछा -‘इस चित्र में बीच में, पगड़ीवाले क्या स्व. रूपचन्द्रजी सारड़ा हैं?’ जवाब बनवारी सारड़ा की ओर से आना था लेकिन आया बृजमोहन समदानी की ओर से - ‘ बिलकुल सही, रूपचंदजी सरड़ा ही हैं।’ यह पढ़ना था कि मेरी रुलाई और बढ़ गई - न तो लेप टॉप के पर्दे पर अक्षर दीखें, न ही की-बोर्ड पर अंगुलियाँ चलें। सब कुछ गड्डमड्ड होने लगा। कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि मेरी यह दशा क्यों हो रही है।
तनिक संयत होकर मैंने बनवारी सारड़ा से पूछा - ‘रूपचंदजी सारड़ा से आपका क्या सम्बन्ध है? उनका एक बेटा विश्वम्भर मेरा कक्षापाठी था।’ इस बार भी जवाब बृजमोहन समदानी ने ही दिया - ‘जी, बनवारी सारड़ा, रूपचंदजी सारड़ा के पौत्र हैं।’ (याने बनवारी से काका-भतीजे का रिश्ता जोड़ा जा सकता है।) आगे मेरी जिज्ञासा शान्त करते हुए बृजमोहन ने बताया कि बनवारी, विश्वम्भर का नहीं, विश्वम्भर के बड़े भाई, मदन दादा का बेटा है। थोड़ी ही देर बाद बनवारी का सन्देश मिला - ‘पोता हूँ सर! रतलाम में ही हूँ।’ जवाब में मैंने अपना मोबाइल नम्बर दिया और कहा कि मुझे काम कुछ नहीं है लेकिन यदि सम्पर्क करेंगे तो खुशी होगी। दूसरे दिन बनवारी का फोन आया। हम लोगों ने एक-दूसरे के पते जाने। मिलने की कोशिश करने के आग्रह के साथ ही यह सिलसिला एक मुकाम पर पहुँचा।
लेकिन अब तक हैरान हूँ - ‘मैं रोया क्यों?’ मैंने खुद को खूब टटोला। बार-बार टटोला - कोई तो कारण मिले मेरे रोने का। कोशिश करने के बाद भी मैं एक कमजोर सूत्र भी नहीं पा सका जिसने मुझे भईजी से भावुकता के स्तर पर जोड़ा हो। फिर यह रोना क्यों? नितान्त एकान्त में, अपने घर में बैठे-बैठे, ऐसे आदमी की मात्र एक छवि देखकर जिससे मेरा, भावना के स्तर पर जुड़ाव मैंने, अपनी चेतनता में कभी अनुभव ही नहीं किया? यही सब सोचते-सोचते भईजी की कुछ छवियाँ उभरने लगीं।
मालवी में पिता के लिए प्रयुक्त सम्बोधनों में ‘भईजी’ भी एक है। दादा उन्हें ‘भईजी’ ही सम्बोधित करते थे। उन्हीं की देखा-देखी मैं भी उन्हें भईजी ही कहता था। भईजी मनासा के अग्रणी श्रेष्ठि पुरुष थे। उनके अनुभव और उनकी परिपक्वता उन्हें सबसे अलग और महत्वपूर्ण बनाए हुए थी। गम्भीर विषयों पर उनकी राय जानने के लिए उन्हें विशेष रूप से बुलाया जाता था। वे बहुत कम बोलते थे लेकिन जब भी बोलते थे तो बाकी सब लोग चुप हो जाते थे। वे बहुत धीमी, मीठी आवाज में, सधे स्वरों में, सुस्पष्ट रूप से अपनी बात कहते। स्वर तनिक मन्द जरूर होता था लेकिन होता था खनकदार। उनके वक्तव्य की खूबी यह होती थी कि उनकी सलाह भी सामनेवाले के पास निर्देश/आदेश की तरह पहुँचती थी। मनासा के सदर बाजार में उनकी बहुत बड़ी दुकान थी। लेकिन मुझे याद नहीं आता कि मैंने उन्हें कभी दुकान पर बैठे, व्यापार करते देखा हो। मैंने उन्हें सदैव कस्बे में यत्र-तत्र ही देखा। वे जब सड़क पर निकलते तो लोग यन्त्रवत आदर भाव से उन्हें करबद्ध, नतनयन, नतमस्तक हो नमस्कार करते। मैंने उन्हें, बाजार में या सड़क पर कभी भी किनारे चलते हुए नहीं देख। वे सदैव सड़क के बीच ही चलते। यूँ तो वे सीधी नजर ही चलते लेकिन कभी-कभी, दोनों हाथ, पीछे, कमर पर बाँधे, विचारमग्न मुद्रा में चलते नजर आते।
भईजी की एक और विशेषता उन्हें सबसे अलग किए हुए थी। आदमी के दाहिने हाथ का अंगूठा देखकर उसकी प्रकृति समझने की अद्भुत प्रतिभा के धनी थे भईजी। इसीलिए वे ‘सर्वप्रिय’ से कहीं आगे निकलकर ‘सर्वजीत’ की स्थिति में थे। जो एक बार उनसे मिल लिया वह आजीवन उनका कायल को गया। परस्पर बैरी लोग भी भईजी के सम्पर्क क्षेत्र में समानता से मौजूद मिलते थे। उस समय तहसीलदार कस्बे का सबसे बड़ा अघिकारी होता था। भईजी के जीते-जी शायद ही कोई तहसीलदार ऐसा रहा हो जिसने सलाह लेने के लिए भईजी की सेवाएँ न ली हों।
भईजी से व्यक्तिगत रूप से मेरा सम्पर्क बहुत ही कम रहा। उनका बेटा विश्वम्भर मेरा कक्षा पाठी था। हम सबसे तनिक अधिक लम्बा था। वह कबड्डी का बहुत अच्छा खिलाड़ी था। उसकी लम्बाई कबड्डी में उसका हथियार बन जाया करती थी। विश्वम्भर की मौजूदगी टीम की जीत का भरोसा होती थी। शत्रु के पाले से अपने पाले में लौटते-लौटते विश्वम्भर, मध्य रेखा पर पहुँच कर अचानक, अपनी दाहिनी टाँग पर लट्टू की तरह घूम कर अपनी बाँयी टाँग पीछे की ओर फेंकता तो मानो उसकी टाँग की लम्बाई ड्योड़ी हो जाती थी और बेखबर शत्रु के एक-दो खिलाड़ियों के गाल छू लेती थी। खेल प्रतियोगिताओं में तब कबड्डी के नियम बनने शुरु ही हुए थे। शत्रु के पाले में प्रवेश करते समय खिलाड़ी, ‘हुल कबड्डी-कबड्डी’ कहा करते थे। विश्वम्भर ‘हेल कबड्डी-कबड्डी’ कहकर प्रवेश करता था। नियमों के मुताबिक जब ‘हुल/हेल’ कहना फाउल करार दे दिया गया तो अपनी आदत बदलने में विश्वम्भर को महीनों लगे थे। विश्वम्भर का कक्षापाठी होने के बाद भी मुझे विश्वम्भर के घर जाने का काम नहीं पड़ा। लिहाजा, भईजी से मेरी मुलाकातें घर से बाहर ही हुईं। वे जब भी मिलते, कभी मेरे कन्धे पर तो कभी पीठ पर हाथ रखकर अत्यन्त प्रेमल मुद्रा और शहतूती मिठास भरे स्वरों में पूछताछ करते।
बनवारी की वाल पर लगे फोटू में भईजी की मौजूदगी ने मुझे मानो एक पूरा काल खण्ड सौंप दिया। लेकिन तब भी सवाल बना रहा - ’मुझे रोना क्यों आया?’
अब, जबकि भावावेग थमा हुआ है, मन संयमित है, मुझे लग रहा है, मिट्टी इसी तरह, अचानक ही पुकारती होगी। इतनी अचानक कि आदमी बेसुध, चेतनाशून्य हो अपनी मूल प्रकृति में, शिशु दशा में पहुँच जाए। तब शब्द अर्थविहीन हो केवल ध्वनियाँ रह जाते हैं। माँ की छाती से चिपके शिशु तक पहुँचती निःशब्द, नीरव ऊष्मा को व्याख्यायित करना सुरसती के लिए भी असम्भवप्रायः हो जाता है। फुनगियों, फूलों की हरीतिमा बनाए रखने के लिए जड़ों को मिट्टी से पानी की गुहार लगाते किसने सुना?
अब मुझे लग रहा है, भईजी की छवि के जरिए मेरी जड़ों ने अपनी मिट्टी से जो पानी लिया, वही पानी मेरी आँखों तक पहुँचा और बह निकला।
मिट्टी पुकारती है तो आदमी को अपने साथ बहा लेती है।
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भईजी को देखकर मानो आपको टाइम मशीन मिल गई। आप अपने अतीत में चले गये, इसलिये भाव-विह्वल हुए
ReplyDeleteसारडा जी।के ऊपर भाव भरा संस्मरण है
ReplyDeleteबहुत मार्मिक आलेख है
भानु दवे
Bahut achhi Kahani hai.
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