छपे हरफों पर कुदरत की जीत

यह किस्सा रामलीला से जुड़ा हुआ नहीं है। लेकिन यदि
रामलीला  प्रयोजन नहीं होती तो हास-परिहास का यह प्रकरण भी नहीं बनता।

मनासा के पंजाबी समाज द्वारा आयोजित रामलीला का संक्षिप्त ब्यौरा मैं अपनी इस पोस्ट में दे चुका हूँ। हायर सेकेण्डरी पास करने के बाद जब मैंने मनासा छोड़ा, उन अन्तिम वर्षों में एक छोटा सा परिवर्धन रामलीला आयोजन में हुआ था। मनासा के कुछ प्रबुद्ध लोगों के सुझाव पर पंजाबी समाज ने रामलीला अवधि में कोई एक सामाजिक नाटक खेलने की सहमति दे दी थी। ऐसे ही एक नाटक के पूर्वाभ्यास के दौरान हास्य की यह छोटी सी फुलझड़ी छूटी थी।

अब मुझे नाटक का नाम उसकी विषय वस्तु याद नहीं। नाटक के निर्देशक थे श्री रामगोपालजी पांचाल। वे हमारे स्कूल के ग्रन्थपाल (लायब्रेरीयन) थे। वे हम सबके ‘पांचाल सर’ थे। वे सुरुचिसम्पन्न कलाप्रेमी थे। चूँकि ग्रन्थपाल थे तो किताबें तो उनकी अनिवार्य सहचरी थीं ही। यह वह समय था जब विद्यार्थी स्वेच्छा से, उत्साहपूर्वक लायब्रेरी में जाया करते थे। हम बच्चों में किताबें इश्यू कराने की होड़ लगी रहती थीं। मैं और जमनालाल राठौर अपनी कक्षा के ऐसे विद्यार्थियों थे जो अपने पाठ्यक्रम के विषयों से अलग हटकर, साहित्यिक किस्म की किताबें इश्यू कराते थे। इस कारण हम लोगों पर पांचाल सर की नजर बनी रहती थी। लायब्रेरी में मौजूद नाटकों की सारी किताबों की, उनमें संग्रहित नाटकों की और नाटकों की विषय वस्तु की जानकारी उनके जिह्वाग्र पर रहती थी। रामलीला में मेरी भागीदारी की जानकारी उन्हें रहती ही थी। उन्होंने एकाधिक बार मुझे कहा कि मैं पंजाबी समाज के लोगों को सामाजिक नाटक मंचित करने के लिए कहूँ। मैंने हर बार हाँ तो भरी लेकिन पंजाबी समाज के लोगों से कहने की हिम्मत कभी नहीं हुई। मुझसे निराश होकर पांचाल सर ने अपने स्तर पर ही सम्पर्क कर इस दिशा में प्रयास किए और सफलता पाई। पांचाल सर को निर्देशन का ज्ञान तो था ही, वे अच्छे चित्रकार और मेक-अप आर्टिस्ट भी थे। लिहाजा, नाटक चयन, निर्देशन और मेक-अप की जिम्मेदारी उन्हें अपने आप ही मिल गई।

पांचाल सर ने नाटक चुना। उनका चुनाव पहला और अन्तिम था। कलाकार मुख्यतः पंजाबी समाज के लोग ही होने थे। पांचाल सर ने कलाकारों का चुनाव किया। आठ-दस हजार की आबादीवाले कस्बे में नाटक की स्क्रिप्ट टाइप करवाना उन दिनों हिमालय चढ़ाई से कम कठिन नहीं था। सो, तीन-तीन, चार-चार कलाकारों के बीच स्क्रिप्ट की एक-एक प्रति साझा की गई।

कलाकारों में एक कलाकार थे रूपचन्दजी। उनका पूरा नाम तो रूपचन्द ग्रोवर था लेकिन पूरा कस्बा उन्हें रूपचन्दजी पंजाबी ही कहता-पुकारता था। रूपचन्दजी अपने भाई गणेशदासजी के साथ मनिहारी सामान की दुकान चलाते थे। वे परिहास प्रिय, बहुत कम बोलनेवाले आदमी थे। पंजाबी समाज की सीमाएँ लाँघ कर कस्बे की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में खूब सक्रिय थे। रोजमर्रा की छोटी-छोटी, सामान्य बातों में परिहास तलाश लेने की अद्भुत-अनूठी प्रतिभा के धनी थे। उनके पास बैठने का मतलब होता था, हँसते रहना और हँसते-हँसते लौटना। उनकी एक और विशेषता थी - उनके मित्रों में बच्चे से लेकर बूढ़े तक शरीक होते थे। एक ही परिवार की तीन पीढ़ियाँ उनकी समान मित्र होती थीं। उनसे बात करते हुए आयु का अन्तर शून्य हो जाता था। बात करनेवाले को लगता था, वह किसी हम उम्र से ही बात कर रहा है। 

पांचाल सर उत्साह से लबालब थे।  रिहर्सलें शुरु करने से पहले उन्होंने सारे कलाकारों की बैठक ली। अपनी बात, अपनी अपेक्षाएँ, बरती जानेवाली सावधानियाँ, रिहर्सल के दौरान अनुशासन आदि के बारे में  विस्तार से समझाया। 

रिहर्सलें शुरु हुईं। नाटकों के नाम पर मनासा में अब तक स्कूली नाटक ही होते थे। सार्वजनिक स्तर पर बड़े फलकवाला यह पहला नाटक था। शुरुआती, छोटी-छोटी मुश्किलों से उबरते हुए नाटक आकार लेने लगा। लेकिन एक जगह गाड़ी बार-बार अटकने लगी। रूपचन्दजी की पृष्ठभूमि उर्दू की थी और नाटक था शुद्ध हिन्दी का। उर्दू जबान में आधे स, ष (स् , ष्) का उपयोग सामान्यतः नहीं होता। उर्दू भाषी ‘सुस्पष्ट’ को ‘सुसपष्ट’, ‘कृष्ण’ को ‘किशन’ उच्चारते हैं। ऐसे प्रत्येक शब्द पर कठिनाई आने लगी। पांचाल सर ने कुछ शब्द तो बदले लेकिन ‘स्टेशन’ को बदल पाना उनके लिए सम्भव नहीं हुआ। रूपचन्दजी के एक संवाद में ‘स्टेशन’ शब्द आता था। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि उनका संवाद था - ‘तू स्टेशन पहुँच। मैं थोड़ी देर में आता हूँ।’ संवाद तो रूपचन्दजी को याद था लेकिन वे ‘स्टेशन’ नहीं बोल पा रहे थे। हर बार ‘सटेशन’ ही बोल रहे थे।

पांचाल सर ने दो-एक दिन तो ‘रूपचन्दजी! स्टेशन बोलने की प्रेक्टिस करो।’ कहा। लेकिन जैसे-जैसे मंचन का दिन पास आ रहा था, वैसे-वैसे पांचाल सर का ध्यान ‘स्टेशन’ पर ही केन्द्रित होने लगा। एक दिन वे मानो अड़ गए - ‘रूपचन्दजी से स्टेशन बुलवा कर ही मानूँगा।’ अब हालत यह कि रूपचन्दजी ‘सटेशन’ बोलें और पांचाल सर अड़े हुए - ‘स्टेशन बोलो।’ एक बार, दो बार, तीन बार, न जाने कितनी बार यही होता रहा कि रूपचन्दजी ‘सटेशन’ बोलें और पांचाल सर फौरन टोक कर ‘स्टेशन’ बोलने की कहें। रिहर्सल की रेल ‘सटेशन’ और ‘स्टेशन’ के बीच रुक गई। 

बीस-पचीस मिनिट हो गए। कमरे में मौजूद सारे कलाकार, पंजाबी समाज के लोग हैरान-परेशान। सबके चेहरों पर झुंझलाहट, बेचैनी और अधीरता छाई हुई। उधर पांचाल सर और रूपचन्दजी, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के ‘दो बाँके’ बने दम ठोक रहे थे - 

‘बोलो स्टेशन।’ 

‘सटेशन।’ 

‘मैं स्टेशन बुलवा कर रहूँगा।’ 

‘दम हो तो बुलवा कर देख लो।’

‘...................।’

‘...................।’

पांचाल सर झुंझला रहे लेकिन रूपचन्दजी पर कोई असर नहीं। वे शान्त भाव और निर्विकार मुद्रा में ‘सटेशन-सटेशन’ कह रहे। आखिकार पांचाल सर का धीरज छूट गया।  तनिक जोर से बोले - ‘यार रूपचन्दजी! स्टेशन बोलने में क्या तकलीफ है?’   

बच्चों जैसी मासूमियत और मिश्री मिली सौंफ की ठण्डाई जैसी ठण्डी-मीठी आवाज में रूपचन्दजी बोले - ‘देखो पांचाल सा’ब! आपकी बात मैं समझ रहा हूँ लेकिन मेरी बात आप नहीं समझ रहे। आप जैसा सटेशन मुझसे बुलवाना चाह रहे हो वैसा सटेशन मैं बाल नहीं पाऊँगा। जोर लगा कर और ध्यान रखकर यहाँ भले ही मैं वो ही बोल लूँ जो आप कह रहे हो। लेकिन वहाँ, सटेज पर तो मेरे मुँह से सटेशन ही निकलेगा। अब बोलो! क्या करना?’

रूपचन्दजी का यह कहना हुआ कि कमरा ठहाकों से गूँज उठा। पांचाल सर पल भर को तो सकपकाए लेकिन अगले ही वे भी ठहाके लगा रहे थे।

पांचाल सर की उलझन दूर हो चुकी थी। थोड़ी देर में सब सहज हुए तो पांचाल सर बोले - ‘ठीक है रूपचन्दजी! आप जीते, मैं हारा। मैं किताब में छपे हरफों पर जोर दे रहा था और आप कुदरत का कहा मान रहे थे। चलिए! एक रिहर्सल और कर लेते हैं।’

इस बार की रिहर्सल तसल्ली के सटेशन पर पहुँच कर ही थमी।
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रूपचन्दजी के ये फोटू उनके बेटे हरभगवान ने उपलब्ध करवाए। मैं और अच्छा फोटू चाहता था। हरभगवान ने अपने स्तर पर भरसक कोशिशें भी कीं। किन्तु हमें इन्हीं फोटुओं से सन्तोष करना पड़ा। हरभगवान और मैं कक्षापाठी हैं।     

2 comments:

  1. sir gustakhi muaf ho magar station ko urdu me station hi likha jayega. alif aur seen ke zer ke sath likhenge to station hoga satetion nahi.

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    1. बिल्कुल 'स्टेशन' ही लिखा जाएगा। मेरी पोस्ट को एक बार फिर खूब ध्यान से पढ़ें। लिखने की बात कहीं नहीं है।

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