गरीब के घर में बच्चा नहीं, हमेशा बूढ़ा ही पैदा होता है।

राकेश पाण्डेय

बैरागीजी के प्रखर व्यक्तित्व के बारे में यूँ तो मैं पहले से ही परिचित था, लेकिन उनकी कविताओं से दूरदर्शन या कवि सम्मेलन के माध्यम से परिचित हुआ। मेरा उनसे निजी सम्पर्क व परिचय सन् 2003 में सातवें विश्व हिन्दी सम्मेलन सूरीनाम के समय हुआ। उस सम्मेलन में बालकवि बैरागीजी की एक सक्रिय भूमिका थी। इसी सम्मेलन में मैंने अपनी पत्रिका ‘प्रवासी संसार’ के परिकल्पन अंक से पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इसका विमोचन डॉ. अशोक चक्रधर के सत्र ‘हिन्दी एवं सूचना प्रौद्योगिकी’ में होना निर्धारित हुआ। इसमें प्रमुख रूप से कमलेश्वरजी को पत्रिका का विमोचन करना था। डॉ. अशोक चक्रधर ने विमोचन के लिए मुझे मंच पर आमंत्रित किया। मंच के निकट प्रथम पंक्ति में नीचे बैरागीजी भी बैठे हुए थे। मैंने मंच पर जाते हुए उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने मुझे कहा, ‘बधाई हो।’ मैं रुका और मैंने आग्रह किया कि आप भी पत्रिका के प्रथम अंक के विमोचन में सहभागी बनें। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और मेरे साथ मंच पर चल दिए। वहीं से सम्बन्धों की शुरुआत हुई। उसके बाद साहित्य और हिन्दी से जुड़े कई कार्यक्रमों में मिलने का क्रम चलता रहा।

एक दिन, दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय के संचालक भाई राजुरकर राज का फोन आया कि पुस्तक मेला देखने के लिए दिल्ली आ रहा हूँ और बैरागीजी के यहाँ ठहरूँगा। वहीं पर मिलना तय हुआ। मैं भी उनके सांसद आवास में गया। उनके आवास पर जाने का मेरा यह पहला मौका था। वहाँ का आडम्बररहित सहज वातावरण देखकर लगा कि यह व्यक्ति यूँ ही व्यक्ति से व्यक्तित्व नहीं बना है, क्योंकि मुझे तमाम सांसदों, मन्त्रियों के यहाँ जाने का अवसर प्राप्त हुआ है। वहाँ पर अवांछनीय आडण्बर का वातावरण व्याप्त रहता है। बातचीत और अनेक प्रसंगों में बैरागीजी के साथ समय का ध्यान ही नहीं रहा और अन्दर रसोई से खाने का फरमान आ गया। जिस अधिकार के साथ बैरागीजी ने खाने के लिए कहा, उसके आगे इंकार करना मुश्किल था। तभी वहीं पर उनका एक पुराना, सरकार द्वारा प्राप्त कर्मचारी मिलने आ गया। उसके साथ भी जिस आत्मीयता से मैंने बैरागीजी को मिलते देखा, मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई। उन्होंने उसे भी खाने की टेबल पर बुला लिया। न कोई अहम, न कोई अहंकार, न कोई बनावट। शायद उनके इन्हीं गुणों के कारण ईश्वर ने उन्हें फकीर से वजीर बनाया है।

भाई राजुरकर की बैरागीजी से वह मुलाकात भी ऐतिहासिक रही, क्योंकि वहीं पर राजुरकरजी के हाथ बैरागीजी की डायरी लग गई, जिसका प्रकाशन बाद में उन्होंने ‘बैरागी की डायरी’ के रूप में किया और संग्रहालय द्वारा आयोजित होनेवाले कार्यक्रमों में ‘बुके नहीं बुक’ की परम्परा का भी आरम्भ किया। इस परम्परा का निर्वाह करते समय वे अधिकतर बैरागीजी की डायरी ही देते हैं। अभी दिसम्बर में उन्होंने ‘नया ज्ञानोदय’, ‘आहा जिन्दगी’ और ‘प्रवासी संसार’ को पुरस्कृत किया तो कार्यक्रम के बाद भाई राजुरकर से मैंने परिहास भी किया कि भाई तुम बुक बदल भी दिया करो, क्योंकि मेरे पास बैरागीजी की डायरी तीसरी बार आ गई है।

बैरागीजी का व्यक्तित्व एवं कृतित्व उनकी डायरी से परिलक्षित होता है कि एक व्यक्ति जीवन के संघर्षों से तपकर ही कंचन हुआ है। उस डायरी में जो बैरागीजी ने अपने बारे में लिखा है, उससे उपयुक्त उनके बारे में लिखा नहीं जा सकता। उसकी कुछ पंक्तियां यूँ हैं -“ईश्वर ने मुझे कलम थमाकर एक सर्वथा भिखमंगे परिवार में जन्म दिया। माँ ने मुझे टूटने से बचाया। आजन्म अपाहिज और लाचार बाप का मैं जेठा बेटा। पूर्णतः माँ का निर्माण। मैं खुद कहता रहा हूँ - ‘गरीब के घर में बच्चा पैदा नहीं होता, हमेशा बूढ़ा ही पैदा होता है।’ ‘साहित्य मेरा धर्म है, राजनीति मेरा कर्म।’ धर्म और कर्म के बीच की क्षीण-सी रेखा को मैंने न लाँघा, न मिटाया। मान-सम्मान, अपमान, पुरुस्कार, तिरस्कार, प्यार, प्रताड़ना, उत्तार, चढ़ाव, सिंहासन-आसन-निरासन, पद-अपद, जो भी मिला, सभी को प्रभु का प्रसाद मानकर ठहाकों के साथ चलता रहा। काँग्रेस की राजनीति में न कभी मचला, न कभी फिसला, न कभी बहका, न कभी बिका। मुझे खरीदने बड़े-बड़े धनी, राजे-महाराजे, रानियाँ-महारानियाँ अपने-अपने समय पर पूरी निर्लज्जता से पधारे। मेरे अभावों, मेरी गरीबी और मेरे संघर्षों के खुले आकाशी तम्बू में मुझे ठहाका लगाते देख, वे सब पानी-पानी होकर लौट गए। आजादी की लड़ाई में मैंने नाखून भी नहीं कटाया, किन्तु श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने मुझे मध्य प्रदेश में दो बार मिनिस्टर बनवाया। एक बार संसदीय सचिव बनवाया। श्री राजीव गाँधी ने मुझे मन्दसौर जैसे विकट क्षेत्र से लोकसभा में चुनवाया और श्रीमती सोनिया गाँधी की अहेतुकी कृपा के कारण इस समय राज्यसभा का एक मुखर कांग्रेसी सदस्य हूँ।”

इसी के साथ एक प्रसंग और जोड़ना आवश्यक समझता हूँ, क्योंकि वर्तमान राजनीति के सन्दर्भों में दलबदल एक आम बात है। सत्तालोलुपता में आज के नेताओं के बारे में यह नहीं पता चलता कि वह सुबह किस दल में हैं और शाम को किस दल में रहेंगे। ऐसे में बैरागीजी ने अपने बारे में रहीम के एक दोहे का सन्दर्भ दिया है -

सर सूखे, पंछी उड़े आरहु सरन समाहिं।
दीन मीन, बिन पंख के, कहु रहीम कहँ जाहिं।।

इसका अर्थ है कि तालाब का पानी सूखने पर उसके किनारे के हरे-भरे वृक्षों पर चहचहाने वाले पक्षी दूसरे तालाबों के किनारे पर चले जाते हैं, लेकिन उस सूखते तालाब की मछलियाँ तड़प-तड़पकर उसी तालाब में जान दे देती हैं और तालाब नहीं छोड़तीं। पंख, मछलियों के पास तैरने के लिए होते हैं और पक्षियों के पास उड़ने के लिए। मेरे और दलबदलुओं के बीच में यही फर्क है। वे हरियाली की तलाश में कहीं भी जा सकते हैं, पर मुझे तो इसी तालाब में जान देनी है।

इस प्रकार बैरागीजी के साथ अनेक प्रसंग जुड़े हुए हैं, लेकिन मैं एक महत्वपूर्ण प्रसंग का उल्लेख करना चाहूँगा। अभी अमेरिका में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की कार्यसमिति में बैरागीजी सदस्य थे और उसकी उपसमिति में मैं भी सदस्य था। मेरे पास विदेश से एक मेल आई, जिसे कि एक ख्‍यात कॉंग्रेसी नेता के चरित्र को कलंकित करने के प्रचार के उद्देश्य से भेजा गया था। उस मेल को फॉरबर्ड करनेवाले मित्र ने यह भी बता दिया कि विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय जो लोग अमेरिका आएँगे, वहाँ पर एक समानान्तर सम्मेलन करने का प्रयास भी किया जा रहा है कि सरकारी खर्च पर गए लोग उस सम्मेलन में भी चले जाएँगे। मैंने इस ई-मेल की सूचना से कार्यसमिति के सदस्यों को अवगत कराना उचित समझा। कार्यसमिति की बैठक के बाद मुझे यह जानकर हर्ष हुआ कि बैठक में सबसे अधिक प्रखर रूप से सभी सदस्यों के बीच बैरागीजी ने इस मुद्दे को उठाया और सर्वसम्मति से यह निर्णय हुआ कि सभी सदस्य 2 जुलाई को ही अमेरिका के लिए रवाना होंगे और संयोग ही था कि आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय प्रकाशित विशेषांक के विमोचन के समय भी बैरागीजी सामने बैठे हुए थे। जब मुझे मंच पर आमन्त्रित किया गया तो इस बार मैंने हाथ पकड़ा और कहा, ‘चाचा चलिए’ और वह मुस्कराकर मेरे साथ चल दिए और आज तक यूँ ही उनका साथ और आशीर्वाद जारी है।

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सम्पादक,
प्रवासी संसार,
5/23, गीता कालोनी,
दिल्ली-110031

अपनी पुस्तक ‘ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित साहित्य में गांधी’, राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद को भेंट करते हुए श्री राकेश पाण्डेय। 
चित्र श्री राकेश पाण्डेय की फेस बुक वाल से।





नंदा बाबा: फकीर से वजीर
ISBN 978.93.80458.14.4
सम्पादक - राजेन्द्र जोशी
प्रकाशक - सामयिक बुक्स,
          3320-21, जटवाड़ा, 
    दरियागंज, एन. एस. मार्ग,
    नई दिल्ली - 110002
मोबाइल - 98689 34715, 98116 07086
प्रथम संस्करण - 2010
मूल्य - 300.00
सर्वाधिकार - सम्पादक
आवरण - निर्दोष त्यागी


यह किताब मेरे पास नहीं थी। भोपाल से मेरे छोटे भतीजे गोर्की और बहू अ. सौ. नीरजा ने उपलब्ध कराई।


4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (20-07-2022) को
    चर्चा मंच      "गरमी ने भी रंग जमाया"  (चर्चा अंक-4496)     पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार करचर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद। बड़ी कृपा आपकी।

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  2. बहुत ही प्रेरक प्रसंग से परिपूर्ण सुंदर आलेख ।

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