श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की तैंतीसवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की तैंतीसवीं कविता
नसैनी
बनाया उन्होंने मुझे
अपनी नसैनी
महज एक माध्यम
वही--ऊँचाइयाँ पानेवाली
सीढ़ी,
और तार लीं
अपनी दो-चार पीढ़ी।
अपनी नसैनी
महज एक माध्यम
वही--ऊँचाइयाँ पानेवाली
सीढ़ी,
और तार लीं
अपनी दो-चार पीढ़ी।
सधते ही अपना स्वार्थ
मारकर मुझे लात
गिरा दिया जमीन पर
और मुझसे पाई हुई
ऊँचाइयों पर, ठाट से
अट्टहास करते हुए
चलाने लगे अपना राजपाट।
बोने लगे बबूल
उगाने लगे नागफनियाँ
लेने लगे प्रतिशोध
बना बैठे सन्देहों के संसार में
अपना लाक्षागृह,
अविश्वास और आत्मघात की
ईंटों से भुतहा राजमहल।
पर,
न वहाँ प्राणवायु
न वहाँ कोई बस्ती
न धूल-धरती का कोई स्पर्श
न तीज-त्यौहारों भरा
कोई पर्व-वर्ष
सन्देहों और अविश्वासों के
धधकते अलावों में
न कोई अपना
न कोई शुभ सपना।
समय के थपेड़ों ने
फेंका जब नीचे
तो फिर गिरे मुझपर ही।
लोग हँसे
सयानों ने ताने कसे
‘नसैनी खड़ी थी तो सीढ़ी थी
लात खाकर गिरी तो
आज काम दे रही है अरथी का,
खड़ी हो या पड़ी
काम यही आ रही है।’
और बोलते हुए
“राम-नाम सत्’
उठा लिया कन्धों पर
चल पड़े सीधे श्मशान की ओर।
वे चढ़े तब भी
मुझ पर वजन थे
गिरे, तब भी
मैं ही उन्हें ढो रहा हूँ।
लोग मुझपर हँस रहे हैं
और मैं?
अपनी, माध्यम होने की
मूर्खता पर रो रहा हूँ।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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