मैं, सन् 1965 में, मनासा में सिविल जज था। बैरागीजी के प्रति मेरे मन में सम्मान तो पहले से ही था किन्तु मनासा में रहते हुए उनसे घनिष्ठता भी हो गई। मेरे बारे में जल्दी ही उन्होंने आकलन कर लिया कि यह प्रतिभावान आदमी है और नौकरी में पिछड़ जाएगा। जब भी उनसे मिलना होता, बात होती, वे मुझे नौकरी छोड़ने के लिए कहते रहते थे। इच्छा तो मेरी भी थी कि नौकरी छोड़ कर, इन्दौर लौट जाऊँ और वकालत करूँ। क्योंकि नौकरी में प्रगति की सीमाएँ होती हैं। लेकिन विचार आता था कि जीवन-यापन के लिए जितनी आय चाहिए, वह कर पाऊँगा या नहीं? घनघोर आर्थिक अनिश्चितता का शिकार होना पड़ सकता था। ऐसी ही बातों के कारण जमी-जमाई नौकरी छोड़ने का साहस नहीं हो पा रहा था। परिवार में भी मेरे त्याग-पत्र देने-न-देने पर विचार चलता रहता था। ऐसे में बैरागीजी की प्रेरणा निर्णायक रही।
यह बहुत ही, ऐसी नितान्त व्यक्तिगत बात है जो आज मैं सार्वजनिक रूप से साझा कर रहा हूँ। बैरागीजी ने कहा - ‘आपकी तनख्वाह 315 रुपये हैं। कट-पिट कर आपको हर महीने 275 रुपये मिलते हैं। आप इन्दौर जा कर वकालत शुरु करो। 275 रुपयों में जितने कम पड़ेंगे, मैं हर महीने उसकी भरपाई की ग्यारण्टी देता हूँ।’ बैरागीजी की इस बात ने मुझे हौसला दिया। इसके बाद तो मानो कोई विकल्प ही नहीं बचा था। मैंने स्तीफा दे दिया और इन्दौर आकर वकालत शुरु कर दी।
16 अक्टूबर 1966 को मेरे इन्दौर कार्यालय का उद्घाटन हुआ। तब से मैं वकालत कर रहा हूँ। तब से अब तक पीछे मुड़कर देखने की जरूरत ही नहीं हुई।
लेकिन बैरागीजी की महानता देखिए कि तीन महीने के बाद मुझे उनका पत्र मिला। उन्होंने लिखा - ‘मुझे बिना किसी संकोच के लिख भेजिए कि मुझे कितने रुपये भेजने हैं। यह मर्द का मर्द से वादा है। पीछे नहीं हटूँगा।’ लेकिन यह ईश्वर ही कृपा ही रही कि ऐसी स्थिति बनी ही नहीं कि बैरागीजी को अपना वादा निभाना पड़ता।
बैरागीजी की यह बात मेरे स्मृति-पटल पर स्थायी रूप से अंकित है। उनके इस प्रेरणादायी प्रोत्साहन के लिए मैं आजीवन उनका ऋणी हूँ। आज, जब 84 वर्ष की अवस्था में मैं वकालत कर रहा हूँ, लगातार सक्रिय बना हुआ हूँ तब सोचता हूँ, बैरागीजी की बात नहीं मानता तो चौबीस बरस पहले रिटायर हो जाता तो पता नहीं, आज जितना सक्रिय रह भी पाता या नहीं।
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पावेचाजी के साथ मैं, उनके दफ्तर में।
वाह! वैरागी जी ने तो कर्मयोगि ही बना दिया।
ReplyDeleteवाह! अत्यंत करुणामयी संस्मरण है. प्रेरक.
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