सावन के भरे-भरे, अपनी सम्पूर्णता से फट कर धरती को लील जाने को उतावले बादल की तरह वे आए और मानो अपने शरीर और आत्मा की पूरी ताकत लगा कर बोले - ‘मैं अकेला रो नहीं पा रहा हूँ। मुझे अपने पास बैठ कर रो लेने दें।’ और मानो प्रलयकारी उद्वेलन कर रही अथाह जलराशि ने सारे तटबन्ध तोड़ दिए। मैं कुछ कहूँ, कुछ पूछूँ, उससे पहले ही, खड़े-खड़े ही फफक-फफक कर रोने लगे। उन्हें बैठाने के लिए मैं उठा तो, उसी तरह रोते-रोते, मुझे बाहों में भींच लिया। अनिष्ट की आशंका से मेरे होश उड़ गए थे। मेरे दोनों जबड़े भिंच गए। जबान तालू से चिपक गई। मैं बोल नहीं पा रहा था। लगा, मैं मूर्च्छित हो जाऊँगा। खुद को गिरने से बचाने के लिए मैंने उन्हें जकड़ लिया। वे मुझसे सहारा लेने आए थे लेकिन मेरा सहारा बने हुए थे। नहीं बता सकता कि कितनी देर हम इस दशा में खड़े रहे।
वे उद्वेगमुक्त हुए तब तक मैं भी तन्द्रा उबरा। ताँबे की तरह तपते उनके चेहरे पर आँसू ठहर नहीं पा रहे थे। मेरे बनियान का दाहीने कन्धेवाला हिस्सा तर-ब-तर होकर पीठ को भीगो रहा था। उन्होंने मुझे छोड़ा और मैंने उन्हें। मेरी ओर देखे बिना ही वे बोले - ‘घबराने या डरने की कोई बात नहीं है। लेकिन अभी-अभी मेरे साथ जो हुआ, उसने मुझे बिखेर दिया। अकेले रह पाना मुश्किल हो गया। इसलिए, जैसा था, वैसा ही चला आया।’ तब मैंने देखा, वे नंगे पाँव ही आए थे। तब भी मेरे बोल नहीं फूटे। अपने दोनों हाथ मेरे कन्धों पर रख, मुझे लगभग धकेलते हुए बोले - ‘बैठिए।’ मैं मन्त्रबिद्ध दशा में बैठ गया। उन्होंने मुझे मौका ही नहीं दिया। खुद ही पूरी बात बता गए।
उनके पोते के ब्याह के बाद यह पहली नवरात्रि थी। अन्तिम दिन, नवमी को उनकी कुलदेवी की पूजा होती है। पोता और बहू कोई ढाई सौ किलो मीटर दूर नौकरी पर हैं। श्राद्ध पक्ष समाप्त होता उससे पहले ही उन्होंने दोनों से खरी-पक्की कर ली थी। वे तो चाहते थे कि पोता और बहू अष्ठमी को ही उनके पास पहुँच जाते। बहू को तो छुट्टी की कोई समस्या नहीं थी लेकिन पोता नौकरी में तनिक महत्वपूर्ण स्थिति में था। उसे थोड़ी कठिनाई आ रही थी। उसने पूरी कोशिश भी की। लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो पा रहा था। तय हुआ कि दोनों ‘लाड़ा-लाड़ी’ नवमी की सुबह नौ बजे तक आ ही जाएँगे। उनकी खुशी पूरे मुहल्ले में बही जा रही थी। उनकी दशा देख-देख उनकी पत्नी हँसे जा रही थी - ‘बावले हो गए हैं ये तो!’ पोते की पसन्द तो उन्हें खूब मालूम थी, बहू की पसन्द के बारे में पहले पोते से, फिर खुद बहू से और बाद में बहू की माँ से भी पूछताछ कर ली। बस! केवल एक दिन बाद, परसों ही, नई कुल-लक्ष्मी जोड़े से, पहली बार अपने परिवार की कुलदेवी की पूजा करेगी। इस कल्पना ने उन्हें बहू से भी छोटा बना दिया था। तैयारियों के लिए वे किसी मृग छौने की तरह कुलाँचे भर रहे थे। लेकिन उन्हें पता नहीं था कि ऊपरवाले ने कुछ और ही तय कर लिया है।
शाम कहिए या रात, कोई साढ़े सात बजे पोते का फोन आया। उसकी आवाज से साफ लग रहा था, वह झुंझलाया हुआ है - ‘दादाजी! सब गड़बड़ हो गया है। अभी-अभी कम्पनी के हेड ऑफिस से मेल आया है। दीवाली से पहले की सारी छुट्टियाँ केन्सल हो गई हैं। केवल मेरी नहीं। हम सबकी। हम सब गुस्से में हैं और लोकल हेड से झगड़ रहे हैं। लेकिन उसकी हालत तो हमसे भी ज्यादा खराब है। हम तो उससे कह रहे हैं लेकिन वो किससे कहे? उसे तो हमारी और ऊपरवालों की, सबकी सुननी है। इसलिए दादाजी! मैं तो नहीं आ सकूँगा। हाँ! आपकी लाड़ी जरूर आ जाएगी।’ पोते की बात पूरी होते-होते वे मानो निश्चेतन हो गए-किसी सूखे ठूँठ की तरह। इस तरह बोले मानो कोई और उनसे कहलवा रहा हो - ‘ठीक है लाला! मैं तुम्हारी दादी से बात कराता हूँ।’ लेकिन पत्नी से कहने की जरूरत ही नहीं हुई। वे पास ही खड़ी थीं। झुंझलाहट में पोता इतनी जोर से बोल रहा था कि दादी को सब कुछ बिना कोशिश के ही सुनाई दे गया। दादी की दशा तो और ज्यादा खराब थी। मरे हाथों से फोन लिया और मानो सबकी मुश्किल आसान कर रही हों, कुछ इस तरह से बोलीं - ‘ठीक है लाला! प्राइवेट कम्पनियों की नौकरियाँ तो ऐसी ही होती हैं। जब छुट्टी मिले तभी त्यौहार। बहू को मत भेजना। पूजा तो तुम दोनों से जोड़े से ही होनी थी। अकेली आकर क्या करेगी? उसे वहीं रहने देना। अगले बरस देखेंगे। तुम दोनों हिलमिल कर, मजे से दशहरा मनाना। रावण दहन देखने जाना और लौट कर फोन करना।’
उधर दादी ने मोबाइल बन्द किया और इधर दादाजी की छाती मानो अब फटी कि तब फटी। कुछ भी सूझ-समझ नहीं पड़ी और मेरे पास आ गए।
रात के नौ बजने को हैं। गली सुनसान हो गई है। श्रीमतीजी पड़ौस में, देवी-भजन में गई हैं। घर में सन्नाटा है। हम दोनों एक दूसरे की धड़कनें सुन रहे हैं। मैं अब सामान्य हो, उन्हें ढाढस बँधाने की कोशिश कर रहा हूँ - ‘हो जाता है कभी-कभी ऐसा। बच्चों का तो कोई दोष नहीं। वे तो आना चाहते थे। लेकिन मजबूरी है। यही मान लें कि ईश्वर यही चाहता था और ईश्वर बुरा तो कभी नहीं करता! इसमें भी उसने सबका कुछ भला ही सोचा होगा।’ मन के भारीपन ने कमरे पर भी कब्जा कर लिया था। मैंने परिहास किया - ‘वैसे भी उन दोनों के हिसाब से अच्छा ही हुआ। यहाँ आते तो आप दोनों बूढ़ों के बीच फँस जाते। बूढ़ों के साथ दशहरे की रेलमपेल और भीड़-भाड़ का मजा नहीं ले पाते। वहाँ दोनों पंछियों की तरह फुदकते-चहकते हुए मेले का मजा लेंगे।’ सुनकर वे मुस्कुरा दिए। बोले - ‘समझा रहे हैं मुझे? चलिए! मैं समझ गया। आपकी बात मान ली।’ फिर रुक कर, लम्बी साँस लेकर बोले - ‘लेकिन विष्णुजी! हम कहाँ आ गए हैं? अपने बच्चों को ऊँची-ऊँची पढ़ाई करवा कर हमने इनका नुकसान तो नहीं कर दिया? और केवल उनका ही क्यों? हमने अपन सबका नुकसान नहीं कर दिया? ठीक है कि बच्चों की तनख्वाहें अच्छी हैं। अच्छी जिन्दगी जी रहे हैं। लेकिन इसकी कीमत कुछ ज्यादा ही नहीं चुका रहे? अब देखिए! बेटा बेंगलोर में है। आ नहीं सकता। लेकिन लाला? ये तो ढाई सौ किलो मीटर है दूर है! लेकिन ये ढाई सौ किलो मीटर भी बेंगलोर के बराबर हो गए! सोचा था, इस बच्ची को कुलदेवी के बारे में कुछ मालूम पड़ेगा। अपने परिवार की परम्परा के बारे में, अपनी संस्कृति के बारे में कुछ जानेगी। इसके मायके में अष्ठमी पूजन होती है और हमारे यहाँ नवमी। दोनों कुलों के नैवेद्य अलग-अलग हैं। इस अन्तर को जानेगी, समझेगी। शादी के बाद अपनी इस पहली कुलदेवी-पूजा को आजीवन याद रखेगी। लेकिन यह सब हमारे हाथों से छिन गया! अब देखिए ना! त्यौहार है और हम तीन जगह बिखरे हुए हैं। हर पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को परम्पराएँ इसी तरह तो सौंपती हैं! संस्कृतियाँ इसी तरह तो अनवरत, अविरल प्रवाहमान होती हैं! यदि ऐसा ही होता रहा तो हमारी अगली पीढ़ियाँ तो खाली हाथ लिए बैठी रह जाएँगी? ऐसा ही चलता रहा तो कहीं ऊँची तनख्वाहों के पेकेज ही हमारी परम्परा तो नहीं बन जाएँगे? हम अपनी जिस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और गर्वीली परम्पराओं की दुहाई देते हैं वह सब हमारे सामने ही, हमारे हाथों ही तो नष्ट नहीं हो जाएँगी?’
मैं उलझन में था। उनकी बात मानने को जी नहीं कर रहा था लेकिन जो कुछ उनके साथ अभी-अभी घटा था उससे भी तो आँखें नहीं फेरी जा सकती थीं। किन्तु मेरे आशावाद ने मेरा हाथ थामा। मैंने कहा-“संस्कृति और परम्पराएँ तो सदानीरा गुप्त सरस्वती की तरह निरन्तर प्रवाहमान रहती हैं। मेरा मन कहता, इस बरस न आ पाने को वह एक अवसर की तरह लेगी। उसका फोन भाभीजी के पास आता ही होगा। वह सारी जानकारी लेकर अपनी गृहस्थी में, अपनी कुलदेवी का पहला पूजन कर ही लेगी। संस्कृतियाँ और परम्पराएँ तो ‘लोक संजीवनी’ से बनती-चलती हैं।” सुनकर मानो उनमें प्राण संचरित हो गए। उछलकर बोले - ‘ओह! भगवान करे वैसा ही हो जैसा आपने कहा।” और मैं उनकी कुछ मनुहार करूँ, उससे पहले ही, उठते हुए बोले - ‘अरे! मैं किस हालत में चला आया? चलता हूँ। श्रीमतीजी परेशान हो रही होंगी।’ और जैसे अस्तव्यस्त आए थे, वैसे ही अलमस्त लौट गए।
-----
सुन्दर वर्णन,साहित्यिक रस से ओतप्रोत। भावनाओं का सजीव चित्रण। ख़ुद को आपके घर में, उस कमरे में ही मौजूद पाया। दो वृद्ध जनों की मनोदशा ने रोमांचित कर दिया। किसी अनहोनी घटना से आशंकित मन को आप दोनों के सहज वार्तालाप ने शांत कर दिया। आपकी साहित्यिक योग्यता का कायल तो हूँ परंतु इस लेख ने तो मन मोह लिया। ख़ासकर प्रस्तावना के तौर पर लिखी पंक्तियों ने। बधाई आभार।
ReplyDeleteअरे! आपकी यह टिप्पणी मुझे वाट्स एप पर मिली थी तो पढ़कर, खुश होकर रह गया था। लेकिन आज ब्लॉग खोला तो वही टिप्पणी यहाँ देखकर विस्मित रह गया। कृपा है आपकी।
Deleteआपकी टिप्पणी मेरे लिए केवल एक टिप्पणी नहीं होती। मेरी आत्मा को मजबूती देनेवाली खुराक होती है। आभारी हूँ आपका।
आपकी नजर मुझ पर बनी हुई है, यह अहसास मुझे गैरजिम्मेदार नहीं होने देता। अन्तर्मन से धन्यवाद।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (17-10-2018) को "विद्वानों के वाक्य" (चर्चा अंक-3127) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कोटिश्ा: धन्यवाद। विलम्बित उत्तर के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।
Delete