श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की चौंतीसवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की चौंतीसवीं कविता
पर जो होता है सिद्ध-संकल्प
आसान नहीं था
किले गढ़ना
किले गढ़ना
तब भी लोगों ने गढ़े।
आसान नहीं था
उनपर चढ़ना
तब भी ललकारकर
लोग उनपर चढ़े।
किले होते ही हैं
फतह के लिए
वैसे ही रात भी
होती ही है सुबह के लिए।
पर सुबह की प्रतीक्षा को ही
बना ले कोई
अपना लक्ष्य
तो उसे निगल जाता है
उसका अपना ही
शयनकक्ष।
वो या तो पड़े-पड़े
करवटें बदलता है
या सवेरे के इन्तजार में
आँखें मसलता है।
पर जो होता है सिद्ध-संकल्प
वो ठानता है
अँधेरे से लड़ाई
कर बैठता है
उसके साम्राज्य पर
चक्रवर्ती चढ़ाई।
जलाता है दीया
सुलगाता है मोमबत्ती
और पाट लेता है
रात और प्रभात के
बीच की अन्धी खाई।
आज जब चप्पे-चप्पे पर
अँधेरे ने अपने
किले गढ़ लिये हैं
तब लाख टके का
एक ही सवाल है कि
हममें कितने सूरमा
ऐसे हैं
जो उनपर चढ़ लिये हैं?
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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