वर्ष 1951 में उज्जैन में आयोजित कवि सम्मेलन के पश्चात् लिया गया, मालवी कवियों का दुर्लभ चित्र। कुर्सी पर - हरीश निगम, आनन्दराव दुबे, श्रीनिवासजी, गिरिवरसिंह भँवर। पीछे - वागीश पाण्डे, सुल्तान मामा, बसन्तीलाल बम और शिल्पकार। नीचे बैठे हुए - हजेला और बालकवि बैरागी।
मालवा और मालवी का जब भी प्रसंग आता है, तब कई नाम एकाएक चर्चाओ में उभर आते हैं। स्व. पं. सूर्यनारायणजी व्यास, पं श्री पन्नालालजी ‘नायाब’, स्व. डॉ. चिन्तामणीजी उपाध्याय, स्व. श्री डॉ. श्याम परमार, स्व. डॉ. बसन्तीलालजी बम, स्व. कुँवर श्री गिरिवरसिंह ‘भँवर’, स्व. श्री हरीश निगम, स्व. डॉ. श्री रघुवीरसिंहजी, स्व. श्री आनन्दरावजी दुबे, स्व. श्री हेमेन्द्र त्यागी और दादाभाई स्व. श्री श्रीनिवासजी जोशी। ये ऐसे नाम हैं जिनके उल्लेख के बिना ‘मालवी’ की चर्चा अधूरी मानी जाएगी। और भी कई नाम हैं जिन्हें मैं याद नहीं कर पा रहा हूँ। वे आज हमारे बीच में नहीं हैं पर उनकी तपस्या, उनका अवदान और मालवी भाषा के लिए उनका सृजन-संघर्ष हमारे लिये वन्दनीय और अभिवन्दनीय है।
मेरा सौभाग्य है कि ऊपर लिखे सभी नामवर मनीषियों का मैं स्नेह भाजन बना रहा। आज जो मालवी के परिवेश में कर्मरत जीवित हस्ताक्षर हैं, उनकी नामावली हमें दीपावली की दीपमाला जैसी जगमगाहट दे रही है। अभी-अभी पिछले दिनों पूज्य टीकम बा भावसार हमारे बीच से गये हैं। मालवी को अमूल्य शब्दकोश देकर चिर बिदा लेने वाले श्री प्र. च. जोशी अब हमारे साथ नहीं हैं। देवीलाल बातरे जैसा समर्थ कवि हम खो बैठे। पर मेरा एक वाक्य आपको शायद चौंका दे। मैं कहा करता हूँ कि ‘मालवी की गोद सूनी हो सकती है पर मालवी की कोख कभी सूनी नहीं रहेगी। वह हमेशा सतवन्ती रही है और सतवन्ती ही रहेगी।’
आज हमारे पास गर्व करने के लिए मालवी पढ़ने-लिखेनवालों की लम्बी कतार है। बड़ा परिवार है। हमारा पुण्य है कि हमारे पास आज श्री नरेन्द्रसिंह तोमर, श्री नरहरि पटेल, पं. मदन मोहन व्यास, श्री सुल्तान मामा, श्री मोहन सोनी, डॉ. श्री शिव चौरसिया, डॉ. श्री पूरन सहगल, श्री ओम प्रकाश पण्ड्या, श्री सतीश श्रोत्रीय, श्री जगदीश बैरागी, श्रीमती ललिता रावल, श्री रमेश आँजना, श्री हुकमचन्द मालवीय, श्री शिल्पकार, श्री राधेश्याम परमार ‘बन्धु’, श्रीमती पुखराज पाण्डेय, श्री संजय पटेल, श्री अनन्त श्रोत्रीय, श्री जॉनी बैरागी, श्री सुरेश बैरागी, श्री अकेला, श्री पीरुलाल बादल, श्री धमचक मुलथानी, श्री जगन्नाथ विश्व आदि और इनके आसपास नये आकार लेते, उभरते कई व्यक्तित्व अपनी सम्भावनाओं, पूर्ण आभा सहित उपस्थित हैं। उपलब्ध हैं। मालवी वृन्दा का वृन्दावन हरीतिमा का संघर्ष कर रहा है।
स्व. श्री डॉ. प्रभाकर माचवे ने अपने कार्यकाल एवम् जीवनकाल में इन्दौर से प्रकाशित दैनिक ‘चौथा संसार’ में ‘भाषा भगिनी’ शीर्षक से मालवी को अपना आँगन दिया तथा समानान्तर राजमार्ग पर दैनिक ‘नईदुनिया’ (इन्दौर) ने भी मालवी को अपनी चौपाल पर बराबर ‘थोड़ी-घणी’ बनाये रखा। इसके मालिक, सम्पादक श्री अभय छजलानी का हमने आभार मानना चाहिये। इसके नेपथ्य को सक्रिय रखने में, सजीव रखने में, पं. कृष्णकान्तजी दुबे को जितना धन्यवाद दिया जाय उतना कम है। आकाशवाणी इन्दौर की ‘ग्राम सभा’ में मालवी को मस्ती के साथ महकाने का काम स्व. श्री सीतरामजी वर्मा ‘भेराजी’ और पं. श्री कृष्णकान्त दुबे ‘नन्दाजी’ ने पूरी निष्ठा से किया। मालवा के राजऋषि स्व. पं. काशीनाथजी त्रिवेदी के सुपुत्र भाई श्री अनिल त्रिवेदी और भाई श्री नरहरि पटेल ने गत बारह वर्षों से करीने से ‘मालवी जाजम’ बिछा रखी है। हमने इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिये।
मालवा की कई बहिन रचनाकारों का उच्चतम योगदान भी हम भूल नहीं सकते। सम्पर्क और संवाद शून्यता के कारण मुझ जैसे कई लोग इनके नाम नहीं जानते किन्तु मालवी भाषा को दिये जा रहे उनके अवदान के प्रमाण आज भी अखबारों में दृष्टव्य हैं। मैं आत्सन्तोष में डूबा कलम चला रहा हूँ। अस्तु,
कुंकुंम की यह रेखा मैं इसलिए खींच रहा हूँ कि मेरे पास ‘लाल कालीन’ बिछाने का आसान उपलब्ध साधन केवल कुंकुंम ही है। यह बिछात बिछाकर मैं स्वागत कर रहा हूँ मेरे दादा भाई पं. श्री श्रीनिवासजी जोशी का। हमारे पास यदि कविता और पद्य में ‘आदि हस्ताक्षर’ के रूप में नाम लेने के लिये स्व. पन्नालाल बा ‘नायाब’ का नाम उपलब्ध है तो मालवी कविता के साथ मालवी गद्य में नाम लेने का अवसर आते ही दादाभाई श्रीनिवासजी जोशी का नाम अपने आप सामने आ जाता है। मेरी पीढ़ी की जानकारी में दादाभाई श्रीनिवासजी जोशी की गद्य रचना ‘वा रे पट्ठा भारी करी’ मालवी गद्यकारों की अगवानी का गणेश पूजन है। इस नाम के आसपास अत्यन्त सम्मानजनक कुछ नाम और भी हैं जो किसी भी स्तर पर कमतर नहीं हैं।
‘वा रे पट्ठा भारी करी’ के लेखक श्रीनिवास दादा को, एक ही मंच पर, प्रोत्साहित करने से एक स्तर ऊपर सराहित करनेवालों में मैंने एक साथ, एक स्वर में बोलते, अपनी आँखों से जिन ऋषितुल्य महानुभावों को देखा है, वे हैं - स्व. श्री कुमार गन्धर्व, स्व. श्री राहुल बारपुते, डॉ. श्री शिवमंगलसिंह सुमन, डॉ. श्री श्याम सुन्दर व्यास, डॉ. श्री श्याम सुन्दर निगम और वाचस्पति व्यक्तित्व के धनी स्व. पं. श्री सूर्यनारायणजी व्यास। उज्जैन कार्तिक मेले का क्षिप्रा तटीय मंच और उस पर मालवी कवि सम्मेलन का आयोजन। कुमारजी ने कबीर से इसे शुरु किया था और भाई डॉ. श्री श्याम परमार ने इसका ध्वन्यांकन किया था। स्व. श्री कुँवर गिरिवरसिंह ‘भँवर’ की अगुवाई में हम सभी लोग इस मंच पर काव्य-पाठ हेतु उपस्थित थे। जो नाम ठहाकों के साथ मंच पर छा गया था, वह था इन्दौर के मरहूम शायर श्री ‘जम्बूर’ साहब का। वे मालवी में भी खूब लिखते थे। दादाभाई ने हम सभी कवियों की पीठ ठोकते हुए ‘लिखता रीऽजो, पढ़ता रीऽजो ने मिलता रीऽजो’ का आशीर्वाद दिया था।
दादाभाई को लेकर दो प्रसंग मैं कभी नहीं भूल सकता हूँ। ये दोनों प्रसंग तब के हैं जब मैं मध्य प्रदेश सरकार में, पं. श्री श्यामाचरणजी शुक्ल के मन्त्रिमण्डल में सूचना विभाग का राज्य मन्त्री था। एक प्रसंग था जब मैंने धार जिले के सागोर गाँव में मालवी के आदिकवि श्री पन्नालाल बा ‘नायाब’ का अभिनन्दन समारोह मध्य प्रदेश सरकार की ओर से आयोजित किया था। हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार स्व. श्री श्याम व्यास धार में सूचना अधिकारी थे और सारा समारोह उन्हीं के जिम्मे था। चलते समारोह में अनायास एक हलचल पैदा हो गई मानो कोई विशेष व्यक्ति आ गया हो। एकाएक स्थिति साफ हुई कि इन्दौर से श्री राहुल बारपुते, श्री श्याम परमार, कवि श्री रामविलास शर्मा को साथ लेकर श्रीनिवास दादा श्रोताओं के उस छोर तक आ पहुँचे हैं। डॉ. श्री बसन्तीलाल बम ने उन्हें दूर से पहचान कर मंच को सावचेत किया। सागोर जैसे देहात में यह आवक अनपेक्षित थी। पर हम लोग निहाल हो गये। ‘नायाब’ बा के आत्म-स्वर अनायास मुँह पर आ गये - ‘वा रे पट्ठा भारी करी।’
दूसरा प्रसंग भी मेरे उसी मन्त्रीकाल का है। पं. श्री रामविलासजी शर्मा, श्री श्याम व्यास और भाई श्री गिरिवरसिंह भँवर ने एक संयुक्त अध्यादेश निकाला कि मालवा में कहीं न कहीं ‘मालवी मेला’ होना चाहिये। बात मुझ पर छोड़ दी गई। मैंने मुख्य मन्त्री पं. श्री श्यामाचरण शुक्ल से आदेश, निर्देश लेकर मालवी मेले के लिए रतलाम शहर को उचित समझा और रतलाम में तीन दिन का मालवी मेला सरकार की ओर से आयोजित कर दिया। राष्ट्रकवि श्री रामधारीसिंह ‘दिनकर’ इस मेले के शुभारम्भकर्ता थे। वे एक दिन अधिक ठहरे। पर दूसरे दिन फिर वही सागोर जैसा चमत्कार हुआ। श्रीनिवास दादा, श्री राहुल बारपुते और स्व. पं. रामनारायणजी उपाध्याय अनायास मेले में आकर आशीर्वाददाताओं में शामिल हो गये। राहुलजी ने बताया कि यह सब श्रीनिवास दादा के कारण सम्भव हो सका। दादाभाई मुम्बई (तब की बम्बई) से पहले खण्डवा गये। वहाँ से रामनारायण दादा को लिया। दोनों इन्दौर आये। इन्दौर से राहुलजी ने कार की व्यवस्था की और तीनों देवदूतों की तरह ‘मालवी’ को आशीर्वाद देने के लिये आकर हमारे सामने वट-वृक्षों की तरह छाया करते खड़े हो गये। रामनारायण दादा का आशीर्वाद निमाड़ी में मिला, राहुलजी तो झन्नाट मालवी में बोलते ही थे और ‘वा रे पट्ठा भारी करी’ का सुसंस्कृत व्यक्तित्व मालवी में झराझर बरस गया।
आज मैं यह नहीं कहूँगा कि ‘कहाँ हैं वे लोग? कहाँ है वो बड़प्पन? कहाँ है वो मालवी अनुराग? कहाँ वैसे मनस्वी?’ मैं कहता हूँ कि उनके पालने में पले लोग आज भी हैं। मालवा में हैं। बहुतायत में हैं। प्रसंग जुटे तो सही! मैं पूरी श्रद्धा के साथ कहना चाहता हूँ कि श्रीनिवास दादा को, सागोर-रतलाम प्रसंग की सूचना मात्र थी। उन्होंने निमन्त्रण या मान-मनुहार का कोई अहंकार नहीं पाला। केवल मालवी के मान का आभास पाया और वे दौड़े चले आये।
आज घर-गृहस्थी और दिनचर्या की कसावटों ने अपने बन्धन अधिक कस लिये हैं। मालवी मिठास, मालवी ललक और मालवी मस्ती में आज भी कमी नहीं है। मालवी वाले लोग जब भी आपस में मिलते हैं तो आज भी मौसम बदल जाते हैं।
मकर सक्रान्ति दिवस, 2063 वि. सं.
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द्वितीय संस्करण: फरवरी 2008।
मूल्य 80/- रुपये।
प्रकाशक - श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति,
सर्वाधिकार/सम्पर्क - अमित जोशी, 501 राजयोग अपार्टमेण्ट, प्लॉट नम्बर - 76, सखाराम कीरपंथ, माहीम, मुम्बई-400016, फोन - 24325644, 24325635,
मुद्रक - सर्वोत्तम ऑफसेट, जी-8, स्वदेश भवन, 2, प्रेस कॉम्पलेक्स, ए. बी. रोड़, इन्दौर-452008 (म. प्र.)
आवरण सज्जा: ‘एडराग’, 3/1, ओल्ड पलासिया, नवनीत टॉवर के पीछे,
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