यूँ मत टेर मुझे ओ! ग्वाले

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की बत्तीसवीं कविता


यूँ मत टेर मुझे ओ! ग्वाले, बजा-बजा कर बाँसुरिया

कैसे नाचूँ, तेरा आँगन, बता कहाँ पर समतल है


जादूगर! तेरी तानों पर, मर-मर कर जी जाती हूँ

काल पिया के हर कोड़े पर, हँसती हूँ, मुसकाती हूँ

मर्यादा की साँस साँवरे! जाने क्या-क्या कहती है

लोकलाज की ननद लड़ाकू, बड़-बड़ करती रहती है


वहिवट विधवा जेठानी सी, बाधाएँ देवरानी सी

प्रतिबन्धों के औ’ जंजीरों के, बैठी भर-भर अंचल है

बता कहाँ पर समतल है



इधर भरे आँसू के सागर, परबत उधर निसासों के

गढ़े यहाँ पर सौगन्धों के, वहाँ सरोवर प्यासों के

बेबसियों के बर्बर बीहड़, आँधी, अन्धड़ व्यंग्यों की

अभिशापों के अन्धे पथ पर, कुण्डल लाख भुजंगों के


इधर मरुथल हैं तानों के, सपनों के शमशान उधर

सिर पर आँख गड़ाती बिजली, पाँवों में बस दल-दल है

बता कहाँ पर समतल है


कहीं कलुष के काँटे बिखरे, बिछे घृणा के अंगारे

उधर तोड़ती संयम सारा, तेरी मादक मनुहारें

हाय निराशा सखियों ने भी, पूरा नहीं सिंगार किया

और कदम की झमकारी से, तूने फिर पुचकार लिया


हर धड़कन को हुआ पसीना, गतियाँ सभी अनाथ हुईं

मेरे पग तो उठते हैं पर, नर्तन के पग निश्चल हैं

बता कहाँ पर समतल है

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963













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