तू क्या जाने रे परदेसी


श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की ग्यारहवीं कविता



रस पीकर बन गया विदेसी और नहीं अब सुधि लेता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।


नग्न नीम की, नव फुनगी पर, कोयलिया आहें भरती

रात-रात भर बेबस चकवी, सदा अपूरण चाहें करती,

सरवर तीरे स्वर उठते हैं, ग्वाले की मृदु बाँसुरिया के

इन सबमें स्वर खो जाते हैं, तेरी बिरहन बावरिया के,


तभी पवन का मादक झोंका, न जाने क्या-क्या कहता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


ये पलाश के फूल, फूँक कर रख देते हैं जियरा

ताने दे-दे पूछ रहे हैं, कहाँ है तेरा पियरा,

ये अफीम, ये सरसों फूली, धरा आज बन गई सुहागन

और सुहागन तेरी बैठी, मझ फागुन में बनी अभागन


क्या बतलाऊँ इन नैनों में, बेमौसम सावन रहता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


ये गुलाल से लाल गगन और ये रंग रस की बौछारें

भीगी-भीगी राधाओं से, मन-मोहन की मनुहारें,

अमराई में डफ की थापें, ये घुँघरु की रणकारें,

यौवन पर यौवन के डेरे, ललनाओं की किलकारें,


फिर भी मेरे मन मधुवन पर, पतझर ही पतझर रहता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


दूध नहाई चाँदनिया में, चटखी-चटखी चम्पा कलियाँ

सोनजुही, रजनीगन्धा की, अलियों द्वारा लुटती गलियाँ,

मधु सरिता की लहर-लहर को, आलिंगन में कसे कन्हैया

मुझे छोड़कर हर यौवन को, एक नहीं सौ-सौ निरखैया


चेचक वाला चाँद कलमुँहा, देख मुझे ताने देता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


तुझको भी कुछ कहती होगी, ये मादक, मीठी पुरवाई

तू भी लेता होगा मेरे जैसी ही, विधवा अंगड़ाई,

क्या जाने तेरे अन्तर में, मेरी याद रही भी होगी

क्या जाने इस पुरवाई ने मेरी बात कही भी होगी,


सुनती हूँ इन दिनों कन्हैया, राधा के चुम्बन लेता है

तू क्या जाने रे! परदेसी, सावन कितना दुःख देता है।

रस पी कर.....


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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963












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