‘दरद दीवानी’ की कविताएँ पढ़ने से पहले



दादा श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह अपने ब्लॉग पर देने की शुरुआत कर रहा हूँ। जो संग्रह मुझे मिल गए हैं, उन्हें एक के बाद एक, यहाँ देना जारी रखूँगा। उनके बाद जैसे-जैसे संग्रह मिलते जाएँगे, उनकी कविताएँ देता रहूँगा।

शुरुआत ‘दरद दीवानी’ से कर रहा हूँ।

‘दरद दीवानी’ दादा श्री बालकवि बैरागी का पहला काव्य संग्रह है। इसका प्रकाशन वर्ष किताब में कही नहीं दिया गया है। लेकिन डॉक्टर चिन्तामणिजी उपाध्याय की भूमिका में ‘नव वर्ष 2020’ लिख हुआ है। यह विक्रम संवत की तिथि है। जानकारों, मित्रों से तलाश किया तो इसकी तारीख 26मार्च 1963 निकली। 

यदि मार्च 1963 को ही इसका प्रकाशन वर्ष मान लें तो उस समय दादा की अवस्था 32 वर्ष और डेढ़ महीना थी। जाहिर है कि ये कविताएँ इस उम्र से पहले की लिखी हुई हैं। ये कविताएँ दादा की, आज की छवि से शायद कुछ अलग ही छवि प्रस्तुत करे। इसीलिए मुमकिन है, दादा के अधिसंख्य प्रशंसकों को ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ चौंकाएँ भी और असहज भी करें। लेकिन यदि आज से 58 वर्ष पहले के काल-खण्ड के साहित्यिक वातावरण, सामाजिक परिस्थितियों, दादा की वय और पारिवारिक दशा को ध्यान में रखते हुए इन्हें पढ़ा जाएगा तो इन कविताओं का अधिक आनन्द मिल सकेगा।

महाविद्यालयीन शिक्षा में दादा दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी रहे थे। वे दर्शन शास्त्र के ख्यात प्राध्यापक श्री ग. वा. कविश्वर साहब के प्रिय विद्यार्थी थे। कविश्वर साहब उस समय शासकीय महाविद्यालय मन्दसौर के प्राचार्य थे। दादा पर उनका और दर्शन शास्त्र का पर्याप्त प्रभाव रहा। सम्भवत इसी कारण, इस संग्रह की कुछ कविताएँ, दार्शनिकता से सराबोर हैं।

यह कविता संग्रह दादा ने मेरी भाभीजी श्रीमती सुशील चन्द्रिका बैरागी को अर्पित किया है। किन्तु अर्पण में उनका नामोल्लेख न कर, ‘पिया’ उल्लेखित किया है। दादा, भाभी को आजीवन इसी सम्बोधन से पुकारते रहे। इस सम्बोधन के एक विरोधाभास की ओर शायद कभी, किसी का ध्यान गया हो। व्याकरण के लिहाज से ‘पिया’ पुल्लिंग है। यह तो सम्भव नहीं लगता कि यह बात दादा को मालूम नहीं रही हो। दो-एक बार मैंने यह ‘रहस्य’ जानना चाहा तो दादा ने मुझे ‘ऐसी फालतू बातों’ में न उलझने की सलाह दी।

इस संग्रह में दादा की सैंतीस कविताएँ हैं। सारी कविताएँ गीत-विधा में, गेय हैं जिन्हें संगीतबद्ध किया जा सकता है।

ब्लॉग पर पोस्टों/पन्नों की संख्या बढ़ाने से बचने के लिए मैं, संग्रह से जुड़ी सूचनाएँ, समर्पण, चिन्तामणिजी लिखित भूमिका, दादा का वक्तव्य और कविताओं से पहले दिए गए दो मुक्तक इसी पोस्ट/पन्ने पर दे रहा हूँ। 

कल से अगले सैंतीस दिनों तक, प्रतिदिन एक कविता ब्लॉग पर प्रकाशित होती रहेगी।

- विष्णु बैरागी

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समर्पण

मेरी उस खामोश ‘पिया’ को -

जिसने दर्द पिया उमर भर

              -बालकवि बैरागी

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मुक्तक

आज भले ही पत्थर बनकर तू मुझको ठुकरायेगी

मुझे छोड़ कर किसी और के सपनों में बस जायेगी,

तुझसे जितना हो तू करले, लेकिन ये भी सुन लेना

मैं तो परघट तक ही आया तू मरघट तक आयेगी।

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मेरी विवशता

पैदा तो हो गए अभागे, कब रुकते ये मेरे रोके

दे दूँ इनको देश निकाला, आये ऐसे लाखों मौके

लेकिन तुम ही फिरे घूमते, इनको होठों से लिपटाये

बुरा न मानो, सच कह दूँ, मुझसे ज्यादा तुमने गाये


आज तोड़ दो, अभी तोड़ दो, बेशक इनसे नेह पुराना

लेकिन यूँ तो मत कतराओ, मत सीखो यूँ आँख चुराना

यदि तुम मेरे गीत न गाओ, कोई हर्ज नहीं मत गाना

                                                 -बालकवि बैरागी

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आभार -

केवल चार महानुभावों का जिन्होंने ‘दरद दीवानी’ को यह रूप दिया और मुझे पहली बार प्रकाशन का पनघट दिखलाया।

श्री भानु भाई त्रिवेदी, बालाघाट (म. प्र.) 

श्री शम्भू नेमा, बालाघाट (म. प्र.) 

सुश्री छाया उपाध्याय

और

श्री डॉ. चिन्तामणि उपाध्याय, उज्जैन (म. प्र.)

श्री शम्भू दादा एवं छाया बहिन ने मुझे भानु भाई तक पहुँचाया और भानु भाई ने ‘दरद दीवानी’ के गरीब गीतकार का दर्द समझा तथा ये गीत आप तक पहँचाने के लिये सरस्वती और लक्ष्मी का संयोग जुटाया। दादा श्री चिन्तामणिजी ने इस पुस्तक की भूमिका लिखी। मैं जानता हूँ कि उनके पास समय की कमी है किन्तु दर्द की नहीं।

आपके सिवाय और कोई दिखाई नहीं पड़ता जिसका कि मैं आभार प्रदर्शित करूँ। बस।

                                                                                              - बालकवि बैरागी


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भूमिका -

यह दर्दायन

‘बालकवि बैरागी’ अपनी सहज प्रवृत्ति से ‘‘मालवी’’ के कवि हैं। और मालवी के माध्यम से ही जन-हृदय को स्पर्श कर भूमि की सार-सत्ता को उन्होंने सजीव रूप प्रदान किया है। आंचलिक भाषाओं में अपनी अनुभूतियों को, जन और संस्कृति की समस्त चेतनाओं को, व्यक्त करने में काव्य का क्षेत्र संकुचित हो जाता है, यह हम नहीं मानते। गर्व के साथ यह कहा जा सकता है कि अपनी मातृभाषा से संबंधित एवं संचित चेतना को कवि ने उसी मर्म के साथ राष्ट्रभाषा-हिन्दी में उतारने का प्रयास किया है और वह सफल भी हुआ है। इसके लिए मुझे प्रमाण या प्रशस्ति-पत्र देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। देश के किसी भी कोने में जिस किसी व्यक्ति ने एक बार ही ‘बालकवि’ को सुना है वह बरबस ही उसकी प्रौढ़ काव्य-साधना की ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रह सका होगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।

आजकल साहित्य के क्षेत्र में काव्य सृजन की साधना एवं उसकी प्रेषणीयता का एक ज्वलन्त प्रश्न उपस्थिति होता है। काव्य का केवल प्रकाशन या मुद्रण ही पर्याप्त नहीं होता। कवि के हृदय में उर्मिल भावनाओं ने संवेदन की आंच पर तपकर, निखर कर जो तेजस्वी रूप धारण किया है, उसकी अनुभूति एवं रस की प्रतीति में मुद्रण की अपेक्षा वाणी का माध्यम ही अधिक सशक्त होता है। इस शक्ति परीक्षा में ‘बालकवि बैरागी’ पूर्ण रूप से सौ टंच खरे उतरने के बाद यदि अपनी गेय भावनाओं को लिपिबद्ध कर पुस्तकाकार करने के लिए तत्पर होते हैं तो उनका यह प्रयास रस-पिपासुओं के लिये कवि की कण्ठ-माधुरी से सिक्त वाणी की तरह आनन्द प्रदायक ही होगा।

‘दरद-दीवानी’ कवि की गेय रचनाओं का प्रथम संकलन है जो आपके हाथों में है। वैसे कवि की काव्य-साधना में राष्ट्रीयता का उद्दाम आवेग, पीड़ित मानवता की छटपटाहट, करुणा एवं प्यार और मनुहार की गुदगुदी ये सभी भावनाएँ उर्मिल हुई हैं, किन्तु जहाँ तक जोश की बात है उसमें वह शक्ति नहीं जो करुणा प्लावित हृदय को उस स्थिति तक ले जाय जहां कवि और श्रोता, भक्त और भगवान, प्रेमी और प्रेय एकाकार हो जायें। पीड़ा और दर्द का प्रसंग प्रणय के क्षेत्र में केवल वियोग श्रृंगार की रूढ़ियों को ही यदि छूकर रह जायेगा तो उसका संवेदनशील मार्मिक प्रभाव सर्व व्यापी नहीं बनेगा। और यही कारण है कि आदिकवि की वाणी से लेकर आज तक मानवीय संवेदनाओं को जगाने में जितने भी कवि समर्थ हुए हैं उनकी व्यक्तिगत, लौकिक आधार से प्रेरित भाव-चेतना, समष्टि की अनुभूतियों से घुल मिलने पर ही अपना शाश्वत प्रभाव स्थापित कर सकी हैं। वस्तुतः वही कवि या काव्य-साधक पूजा गया है जो जीवन और जगत की समस्त अनुभूतियों को पीकर, अपनी व्यष्टि सत्ता में उनको समेट कर फिर समाज को उन्मुक्त होकर  दरद-दीवाना बनानने की कला में समर्थ हुआ हो। यह बात दूसरी है कि जहाँ लौकिक भावनाओं का उदात्तीकरण होता है वहाँ काव्य के क्षेत्र की भावभूमि कुछ आध्यात्मिक हो उठती है। लेकिन जिस आध्यात्मिक प्रेम की ओर हमारे मध्ययुगीन संत और कवि उन्मुख हुए उनकी अनुभूति का आधार भी तो लौकिक ही था। प्रेम की मधुर पीर के दीवाने हिन्दी के सूफी कवि, या कृष्ण की प्रेम-दीवानी चिर चिरहिणी राधा की प्रतिमूर्ति मीरा, या परलोेक के प्रियतम के विरह में छटपटाती हुई महादेवी, इन सब में जिस दर्द की, जिस व्यथा की, जिस तड़पन की व्यंजना हुई है, वह चाहे काव्य और भक्ति के क्षेत्र में जो भी स्थान रखे, भौतिक पीड़ा से त्रस्त साधारण मानव को अपनी उदात्त स्थिति में ही आकर्षित कर पाती है। इस पीड़ा को स्वयं में जगाना, और जगी हुई पीड़ा को उभार कर व्यक्त करना काव्य-कला के लिए खिलवाड़ मात्र नहीं है। ‘बालकवि’ दर्द के इस मर्म को समझता है। और इसीलिए:-

..... ‘द्वार द्वार से दर्द मांगकर अपने घर में लाना होगा’....

.....‘पीड़ाओं के सौ-सौ सागर मैंने हँस-हँस पी डाले’ .....

.........‘कहीं किसी का दर्द मिला तो अंजली भर कर पी लेता हूँ’.....

आदि भावना-प्रवण पंक्तियाँ केवल सामान्य उक्तियाँ मात्र ही नहीं हैं, किन्तु उनमें कवि की आत्मा का रस घुलमिल गया है और यही कारण है। कि कवि के गीत दूसरों के हृदय में मानवीयता संवेदनशील तत्व प्रस्थापित करने में पूर्ण समर्थ हैं। 

यह प्रसन्नता की बात है कि कवि आजकल काव्य-क्षेत्र में व्याप्त आडम्बर एवं व्यक्ति-प्रदर्शन की प्रवृत्ति से बच सका है। आज जिस तरह की गद्यात्मक रचनाएँ ‘नई कविता’ के नाम से चर्चा का विषय बनी हुई हैं, तब कवि के इन गीतों को श्रेणी विभाजन की दृष्टि से क्या स्थान मिलेगा यह कहना कठिन है, किन्तु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जिन तथ्यों को लेकर नई कविता का आधार खड़ा होता है वह सब ‘दरद-दीवानी’ के इन गीतों में मिल जायेगा। प्रस्तुत संग्रह के गीतों की जो विशेषता है वह मध्ययुगीन काव्य की तरह साधारणीकरण की क्षमता है। जो प्रायः आज के काव्य में नहीें मिल पाती। कवि और श्रोता की तदात्मक स्थिति कवि की रससिद्धि होती है। बैरागी ने भाव, कला और संगीत से सम्पृक्त इन गीतों में जिस दर्द को जगाया है उसमें लौकिकों को अपने प्रणय के क्षेत्र की अडिग निष्ठा मिलेगी तो दूसरी ओर संत और भक्त प्रवृत्ति के लोगों को कबीर और मीरा के भाव, कला के भी दर्शन होंगे। किन्तु मेरी ऐसी धारणा है कि ‘बालकवि बैरागी’ सचमुच इसी मिट्टी का कवि है और उसमें यत्र तत्र कुछ ‘उस पार’ की, ‘क्षितिज’ की, ‘कफन’ और ‘चदरिया’ की जो बातें आ गई हैं वे किन्हीं विशिष्ट क्षणों की देन ही कही जायेंगी। कुछ गीत अवश्य ऐसे हैं जिनमें बालकवि ‘‘प्रौढ़’’ दिखाई देते हैं। यह प्रौढ़ता बुढ़ापे का लक्षण है। अभी वे साधना के ‘इस पार’ ही रहें। यह तो दर्द जगाने का श्री गणेश है। आशा है दर्द के अलख जगाने में कवि साहित्य को बहुत कुछ दे सकेगा।

                   - ‘कबीरा सोई पीर है जो जाने पर पीर’

                                                                                                                                       -चिन्तामणि उपाध्याय

नव वर्ष 2020

माधव कालेज

उज्जैन (म. प्र.)


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संग्रह से जुड़ी सूचनाएँ -

दरद दीवानी’
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट (म. प्र.)
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिण्टरी, इन्दौर
मूल्य - दो रुपये
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पहली कविता: ‘तन को तो मैं समझा लूँगी’ यहाँ पढ़िए 


‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

मालवी कविता संग्रह  ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।  

‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिल जाऍंगी 





4 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सार्थक ।
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    ऐसे लेखन से क्या लाभ? जिस पर टिप्पणियाँ न आये।
    ब्लॉग लेखन के साथ दूसरे लोंगों के ब्लॉगों पर भी टिप्पणी कीजिए।
    तभी तो आपकी पोस्ट पर भी लोग आयेंगे।

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद।
      फेस बुक ने ब्लॉग को लील लिया है। क्या, कोई ब्लॉग एग्रीगेटर है जहाँ एक साथ ब्लॉग पढ़ने को मिल सकें?

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  2. एक सुंदर संग्रह की उत्तम रचनाएँ पढ़ने को मिलेगी इससे बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है । इन रचनाओं को हम सभी पाठकों तक पहुँचाने के लिए विष्णु जी को हृदय से धन्यवाद ।

    समपर्ण की पंक्तियाँ मन मोह ले गई ....
    मुक्त और भूमिका भी बहुत बढ़िया
    हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें

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    1. बहुत-बहुत धन्यवाद पूर्वा। 'दरद दीवानी' अधिकांश गीत सचमुच में बहुत मीठे हैं।
      और हाँ, मुझे 'विष्णुजी' मत बनाओ। मुझे 'विष्णु काका' या फिर 'विष्णु अंकल' ही बना रहने दो।

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