के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की छठवीं कविता
दो पल से भी अधिक नहीं है उम्र हमारे परिचय की
पल भर में ही तुमने मुझ पर यह कितना उपकार कर दिया!
अनजानी जिज्ञासा तुमने मेरे अन्तर की पहचानी
चिर निन्द्रा से जगा दिया है, तुमने मेरा विज्ञानी,
तुमने मुझे विवश कर डाला, मैं यह बाह्य जगत निरखूँ,
बनूँ प्रयोगी और यहाँ के कण-कण, अणु-अणु को परखूँ
भौतिकता से भाँवर करके, पहले रथ में बैठा लूँ
नौसिखिया मन सारथि मेरा, कितना पटु, हुशियार कर दिया!
यह कितना उपकार कर दिया..
आत्म-मनन, चिन्तन, परिशीलन बिलकुल ही अनिवार्य हो गया
कण्टक पथ का निर्धारण भी मुझसे तो सत्कार्य हो गया,
द्वार-द्वार से दर्द माँग कर अपने घर में लाना होगा
शशि-शेखर बनने से पहले, नीलकण्ठ कहलाना होगा,
भौतिकता में लिप्त प्रयोगी, योगी बन कर विचरेगा
सचमुच में तुमने अधोन्मुखी को अर्चनीय अवतार कर दिया
यह कितना उपकार कर दिया..
बिना छुुए ही तुमने मेरा रोम-रोम झकझोर दिया है
शिव, सुन्दर के साथ सत्य के रस में पूरा बोर दिया है,
तर्कहीन मेरे मानस को, तुमने तर्क प्रदान किया है
जनम-मरण औ’ आदि-अन्त का, तर्कशील नवज्ञान दिया है,
जीवन की ही भाँति मृत्यु के ओठ चूमना सिखलाया
ओ! जीवन के शिल्पी तुमने, निराकार साकार कर दिया!
यह कितना उपकार कर दिया..
प्राण! तुम्हारी दीक्षा को मैं चरणामृत सी पी लूँगा
और आचरण के आँचल से, साँस-साँस को सी लूँगा,
आदर्शों की रोली अपने, अंग-अंग पर मल लूँगा
ज्वालामुखियों पर भी अब तो हँसते-हँसते चल लूँगा,
मुझे परखनेवाले मेरी अर्थी पर पछतायेंगे
यह लो! जग की अमर चुनौती को मैंने स्वीकार कर लिया!
यह कितना उपकार कर दिया..
तत्व-ज्ञान, दर्शन मन-मन्थन, बाह्य जगत का अवलोकन
आत्म-परीक्षण, स्तुत्य-आचरण, शिव-सुन्दर-सत्यान्वेषण
परिचय के इस प्रथम प्रहर में, मैंने जो कुछ पाया है
वह कुबेर ने कोटि जन्म लेकर भी नहीं जुटाया है,
ओ! मेरे अकलंक देवता! ओ! मेरे भोले भण्डारी!
जाने या अनजाने तुमने मेरा तो भण्डार भर दिया!
यह कितना उपकार कर दिया.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
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