श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘रेत के रिश्ते’
की सत्रहवीं कविता
‘रेत के रिश्ते’
की सत्रहवीं कविता
यह कविता संग्रह
श्री पं. भवानी प्रसादजी मिश्र को
समर्पित किया गया है।
साधक
पहले उन्होंने साधा उपेक्षा को
ठीक उसी तरह मानो किसी मन्त्र को
साध रहे हों
फिर हो गये वे बहरे
नितान्त बधिर ।
अब वे सिर्फ बोलते हैं,
सुनते कुछ भी नहीं।
तुम लाख करो हल्ला
आकाश भर दो कोलाहल से
वे निश्चिन्त हैं!
उन्हें अपनी साधना पर
विश्वास है।
उनकी अपनी धरती
अपना आकाश है।
वे राजनीतिज्ञ हैं
अज्ञ होकर नीतिविहीन राज बनाए रखना
उनका लक्ष्य है।
आदर्श उनके सामने है ही नहीं!
वे न सुनते हैं न समझते हैं
वे कसम खाते हैं केवल इसलिए कि
उससे उनकी भूख जवान बनी रहती है
वे सिद्ध हैं, बहरे हैं
अपनी भूख मिटाने की खातिर
आजकल राजघाट के आसपास
ठहरे हैं।
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रेत के रिश्ते - कविता संग्रह
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - साँची प्रकाशन, बाल विहार, हमीदिया रोड़, भोपाल
प्रथम संस्करण - नवम्बर 1980
मूल्य - बीस रुपये
मुद्रक - चन्द्रा प्रिण्टर्स, भोपाल
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सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-9-21) को "आसमाँ चूम लेंगे हम"(चर्चा अंक 4201) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
नायाब कविता । आभार सर 🙏
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteगहनतम लेखन।
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteअज्ञ होकर नीतिविहीन राज बनाए रखना
ReplyDeleteउनका लक्ष्य है।
आदर्श उनके सामने है ही नहीं!
वे न सुनते हैं न समझते हैं
बहुत सटीक एकदम खरी खरी....
वाह!!!
वाह!लाज़वाब सृजन।
ReplyDeleteपहले उन्होंने साधा उपेक्षा को
ठीक उसी तरह मानो किसी मन्त्र को
साध रहे हों
फिर हो गये वे बहरे
नितान्त बधिर ।
अब वे सिर्फ बोलते हैं.. वाह!गज़ब।
सादर आभार सर सृजन पढ़वाने हेतु।
सादर प्रणाम
टिप्पणी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा हौसला बढा।
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