मन की चोरी करने वाले

श्री बालकवि बैरागी
के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की बीसवीं कविता




मन की चोरी करने वाले

चैन चुरा कर क्या पाओगे?


अग-जग के सब शूल बिचारे, करते रह गये रखवाली

तुमने मन की महकी कलियाँ, ना जाने कब चुन डालीं

मधु पी कर यदि मुँह पोंछा तो

मधुकर कैसे कहलाओगे?

मन की चोरी.....


तुम क्या जानो दुनियावाले, मुझको क्या-क्या कहते हैं

फिर भी जोगन के ओठों पर, गीत तुम्हारे रहते हैं

इस गायक को, नायक मेरे

बोलो कब तक अजमाओगे?

मन की चोरी.....


क्या डरते हो इस दुनिया से, जिसका कुछ ईमान नहीं है

जिसके केवल मुँह ही मुँह हैं, आँख नहीं है, कान नहीं है

अन्धे-बहरे जग में मुझसे

मोती कब तक लुटवाओगे?

मन की चोरी.....


जिस घर में चोरी की तुमने, उस घर को यदि बिसराया

(तो) सारे जग के चोर कहेंगे, तुमने उन पर दाग लगाया

मावस भी है, पावस भी है

यह बेला फिर कब पाओगे?

मन की चोरी.....


दो साँसें रखी हैं मैंने, जैसे-तैसे चोरी करके

अब तो आओ, ले भी जाओ, सजनी को बाबुल के घर से

डोली उठने पर आये तो

तोरन से वापस जाओगे

मन की चोरी.....

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दरद दीवानी
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963











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