के प्रथम काव्य संग्रह ‘दरद दीवानी’ की पचीसवीं कविता
मैंने जग की पीड़ा गाई, पंथ बुहारा प्यार का
मत पूछो क्या पाया मैंने बदला इस उपकार का
हर आँसू को होठ लगा कर, मैंने जीना सिखलाया
हर सिसकी को चूम-चूम कर, गीतांजलि से नहलाया,
पीड़ा के हर पनघट पर मैं, प्यासा बन कर खड़ा रहा
आहों को बाँहों में भर कर, चौराहों पर खड़ा रहा,
मुझसे बड़़ा बता दो दुश्मन, कोई भी पतझार का
मत पूछो क्या पाया मैंने बदला इस उपकार का।
मैंने जग की पीड़ा गाई.....
लाखों अँधियारी रातों में मैंने, पूनम पहुँचाई
लाखों सूखी बगियाओं में, मैंने भेजी पुरवाई,
जब-जब टूटी बिजली, मैंने झेली अपनी झोली में
मैं ही लाया हूँ यौवन को, अर्थी पर से डोली में
मैं अपराजित अपराधी हूँ, मरघट के अंगार का
मत पूछो क्या पाया मैंने बदला इस उपकार का।
मैंने जग की पीड़ा गाई.....
गीत मिलन के गाने में ही, मैंने अपने स्वर खोये
तुम्हें हँसाने के यत्नों में, मेरे अँसुआ तक रोये,
मैं यदि दर्द नहीं पीता तो, मँहगा ही रहता काजल
मैं यदि गीत नहीं गाता तो, गूँगा होता ताजमहल,
मैं खुद ही भूगोल बन गया, पीड़ा के संसार का
मत पूछो क्या पाया मैंने बदला इस उपकार का।
मैंने जग की पीड़ा गाई.....
हर बन्धन को तोड़ा मैंने, मैंने पाटी हर खाई
नहीं अलग रहने दी मैंने तरुणाई से तरुणाई,
अपमानित अधरों का मैंने, बेफिकरी से यश गाया
रखीं दाँव पर सारी साँसें, नहीं फर्ज से कतराया,
मिला दिया माटी में मैंने, राजमहल मझधार का
मत पूछो क्या पाया मैंने बदला इस उपकार का।
मैंने जग की पीड़ा गाई.....
गीतों के दम पर ही मैंने, लोहा लिया जमाने से
बाज नहीं आया मैं अब तक, दर्द तुम्हारा गाने से,
बात-बात में आई मुझसे, दुनिया अपनीवाली पर
क्या-क्या नहीं गुजारी उसने, गीतों के इस माली पर,
डिगा नहीं पाया लालच भी, मुझको लाख प्रकार का
मत पूछो क्या पाया मैंने बदला इस उपकार का।
मैंने जग की पीड़ा गाई.....
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कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - निकुंज निलय, बालाघाट
प्रथम संस्करण - 1100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण पृष्ठ - मोहन झाला, उज्जैन
मुद्रक - लोकमत प्रिंटरी, इन्दौर
प्रकाशन वर्ष - (मार्च/अप्रेल) 1963
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