(दादा श्री बालकवि बैरागी के आकस्मिक निधन के बाद, फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ के उनके गीत ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ की बहुत चर्चा हुई। इस गीत से जुड़ा यह संस्मरण ‘एकोऽहम्’ पर 20 जुलाई 2007 को प्रकाशित हो चुका है। तब ब्लॉग जगत में मेरी उम्र कुल दो माह की थी। तब मैं, लेख में न तो फोटू लगाना जानता था न ही परमा लिंक। मित्रों के आग्रह पर इस लेख को मैं एक बार फिर दे रहा हूँ - दादा के निधन के बाद बनी स्थितियोंनुसार संशोधन, सम्पादन सहित।)
ब्लाग की दुनिया में घूमते -घूमते आज श्री सुरेश चिपलूनकर के महाजाल की सैर की तो 2 मई 2007 की पोस्ट पर नजर ठहर गई। ‘बालकवि बैरागी: तू चन्दा मैं चाँदनी’ शीर्षक ने ही जकड़ लिया। सुरेशजी ने गीत पर, गीत के समान ही सुन्दर शास्त्रोक्त सांगोपांग वर्णन किया है। कह सकते हैं कि लताजी, जयदेवजी और दादा बालकविजी की ओर से यदि कोई कसर रह गई होगी तो चिपलूनकरजी ने वह पूरी कर दी।
पोस्ट पढते-पढते, ऊँट के पास बैठे वहीदा रहमान, सुनीलदत्त और इन दोनों सम्पूर्ण कलाकारों को अपने में समेटता हुआ अनन्त रेगिस्तान आँखों पर अपना साम्राज्य कायम करने लगा। गीत कानों में बजने लगा और उसके मादक प्रभाव से आँखें मुँदने लगीं। पूरा गीत मानो कायनात को मालवा के अफीम के खेत में बदल रहा हो जिसमें अफीम के लाल, बैंगनी, सफेद फूलों से लिपटे डोड़े (ओपियम केप्सूल) एक ताल में नाच रहे हों और अफीम की आदिम मादक गन्ध का ऐसा समन्दर बना रहा हो जिससे बाहर आने को जी ही नहीं करे। और जब गीत समाप्त हो रहा होता है तो स्थिति नाड़ी जाग्रत होने वाली या फिर शवासन वाली आ जाती है। ‘रेशमा और शेरा’ से पहले भी रेगिस्तान अनेक फिल्मों में छायांकित किया जाता रहा है लेकिन इस फिल्म का रेगिस्तान ‘निर्जीव’ नहीं था। इसकी बालू का कण-कण स्पन्दित होता लगता था। ‘धर्मयुग’ के फिल्म समीक्षक ने इस रेगिस्तान को ‘रेशमा और शेरा’ का अनूठा जीवन्त पात्र करार दिया था।
रेशमा और शेरा में वहीदा रहमान और सुनील दत्त एक भावपूर्ण मुद्रा में
लेकिन मुझे केवल यही सब याद नहीं आया । कई सारी वे बातें याद आ गईं जिन्हें इस समय उजागर करते हुए रोमांच हो रहा है, फुरहरी छूट रही है। यह 1969-70 की बात है। तब दादा, मध्य प्रदेश के सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री थे। पण्डित श्यामाचरण शुक्ल (जिन्हें दादा ने ‘श्यामा भैया’ का लोक सम्बोधन दिया था) मुख्यमन्त्री थे। दादा का निवास भोपाल में, शाहजहाँनाबाद स्थित पुतलीघर बंगले में था। ‘रेशमा और शेरा’ के गीत लिखवाने के लिए जयदेवजी वहीं आए थे और कच्चा-पक्का एक सप्ताह भोपाल रहे थे। जयदेवजी को तो यही काम था लेकिन दादा के पास तो राज-काज का झंझट भी था। उसी में से समय चुरा कर दादा, जयदेवजी के पास बैठते, उनकी बातें सुनते, सिचुएशन सुनते, अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते। जयदेवजी ने पहली ही बैठक में स्पष्ट कर दिया था कि वे धुन पर गीत नहीं लिखवाएँगे, गीत के अनुसार धुन तैयार करेंगे। किसी भी रचनाकार के लिए यह स्थिति मुँह माँगी मुराद से कम नहीं होती। जयदेवजी का एक ही आग्रह था - मैं गीत लेकर जाऊँगा। यही हुआ भी।
जयदेवजी
जयदेवजी चले गए। फिल्मों में गीत लिखने का दादा का यह कोई पहला मौका नहीं था। फिल्मी दुनिया के तौर तरीके और फिल्म निर्माण की गति से वे भली भाँति वाकिफ थे। सो, जयदेवजी के जाने के बाद उत्कण्ठा तो बराबर बनी रही लेकिन वह बेचैनी में नहीं बदली। राजनीति, दादा को वैसे भी सर उठाने की फुरसत कम ही देती थी। वे भी खुद को साबित करने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करते थे। उन्हें बडी विचित्र स्थितियों का सामना करना पडता था। वे राजनेताओं के बीच कवि होते थे और कवियों के बीच राजनेता। दादा इस स्थिति से तनिक भी नहीं घबराते बल्कि अपने मस्त मौला स्वभाव के अनुसार आसमान फाड़ ठहाके लगा कर इस विसंगति को कुशल नट की भाँति सुन्दरता से निभाते और सबकी मुक्त कण्ठ प्रशंसा पाते राजनीति में अपने आप को साबित करने के लिए दादा जितना परिश्रम करते उससे अधिक परिश्रम वे ‘राजनीति के राज रोग’ से खुद को बचाने के लिए करते। विसंगतियों की इस विकट साधना के बीच समाचार सूत्रों से और फिल्मी अखबारों/पत्र-पत्रिकाओं से ‘रेशमा और शेरा’ की प्रगति सूचनाएँ मिलती रहती थीं।
सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था कि एक सवेरे वह हो गया जिसे दादा न तो कभी भूल पाए और न ही कभी भूलना चाहा। मन्त्री रहते हुए भी दादा ने मन्त्री पद और मन्त्रीपन को खुद पर हावी नहीं होने दिया। वे यथासम्भव सवेरे जल्दी उठ जाते अपने विधान सभा क्षेत्र से आने वाले कार्यकर्ताओं/मतदाताओं की अगवानी करते, उन्हें अतिथिशाला में ठहराते, उनकी चाय-पानी की व्यवस्था करते। मन्त्रियों के टेलीफोन सूरज उगने से पहले ही घनघनाते लगते हैं। ऐसे टेलीफोनों को दादा खुद ही अटेण्ड किया करते थे। सामने वाले की ‘हैलो’ के जवाब में जब दादा कहते - ‘बोलिए! मैं बैरागी बोल रहा हूँ।’ तो सामने वाला विश्वास ही नहीं करता। सब यही मानते कि मन्त्रीजी के कर्मचारी तो अभी आए नहीं होंगे, कोई छोटा-मोटा कर्मचारी बैरागी बन कर बात कर रहा है। ऐसे लोग फौरन डाँटते और कहते - ‘अपनी औकात में रहो और मन्त्रीजी को फोन दो।’ दादा ऐसे क्षणों का भरपूर आनन्द लेते और कहते - ‘भैया! मानो न मानो, मैं बैरागी ही बोल रहा हूँ।’ सुन कर सामने वाले की क्या दशा होती होगी, इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।
ऐसा ही एक फोन ‘उस’ सवेरे आया। दादा ने फोन उठाया। उधर से नारी स्वर आया - ‘हैलो! बैरागीजी के बंगले से बोल रहे हैं?’ दादा उठे-उठे ही थे। लेकिन ऐसा भी नहीं कि नींद के कब्जे में हों। खुमारी थी जरूर लेकिन यह ‘हैलो’ कानो में क्या पड़ी, मानों सम्पूर्ण जगत की चेतना कान के रास्ते शरीर में संचारित हो गई हो - बिलकुल बिजली की तरह। निमिष मात्र में। पता नहीं, दादा ने उत्तर दिया था या वे हल्के से चित्कारे थे - ‘अरे ! दीदी आप!’ उधर से लताजी बोल रही थीं। उस एक क्षण का वर्णन कर पाना मेरे बस में बिलकुल ही नहीं है। दादा होते तो कहता कि आप दादा से ही पूछिएगा और मुमकिन हो तो किसी सार्वजनिक समारोह में पूछिएगा। सब सुनने वालों का भला होगा। ‘कहन’ के मामले में दादा अद्भुत और बेमिसाल थे। जब वे कोई घटना कह रहे होते थे तो सुनने वाले उस घटना के एक-एक ‘डिटेल’ को ‘माइक्रो लेवल’ तक देख रहा होता था।
सो, उस अविस्मरणीय पल को दादा ने जिस तरह जीया वह कुछ इस तरह था - ‘लताजी की आवाज मानो कानों में मंगल प्रभातियाँ गा रही थीं या फिर सूरज की अगवानी में भैरवी गाई जा रही थी। वे बोल रही थीं लेकिन मैं उनके एक एक शब्द को देख पा रहा था, मानो बाल रवि की अगवानी में शहद के फूलों की सुनहरी घण्टियाँ प्रार्थनारत हो गई हैं।’ दादा को वह एक पल एक जीवन जी लेने के बराबर लगा।
अभिवादन के शिष्टाचार के बाद सम्वाद शुरु हुआ तो लताजी ने जो कुछ कहा वह किसी भी रचनाकार की कलम के लिए अलौकिक पुरस्कार से कम नहीं हो सकता। लताजी ने कुछ इस तरह से कहा - ‘कल पापाजी (जयदेवजी को फिल्मोद्योग में इसी सम्बोधन से पुकारा जाता था) ने मुझसे एक गीत रेकार्ड कराया है - रेशमा और शेरा के लिए। गीत तो मैं बहुत सारे गाती हूँ लेकिन मुझे अच्छे लगने वाले गीत बहुत ही कम होते हैं। मुझे वह गीत बहुत अच्छा लगा। इतना अच्छा लगा कि गीतकार को बधाई दिए बिना चौन नहीं मिल रहा था। पापाजी से पूछा तो उन्होंने बताया कि गीत आपका है। उन्हीं से आपका नम्बर लिया। इतना अच्छा गीत लिखने के लिए आपको बधाई। ऐसे ही गीत लिखते रहिएगा।’ यह गीत था - तू चन्दा मैं चाँदनी।
लताजी ने ठीक-ठीक क्या कहा था, यह तो दादा ही बता सकते थे क्यों कि मैंने तो उनसे सुनी-सुनाई लिख दी, वह भी इतने बरसों बाद। सम्भव है, कई पाठकों को यह किस्सा सुनकर रोमांच हो आए। लेकिन यह तो कुछ भी नहीं है। इस रोमांच का वास्तविक आनन्द तो दादा से सुनने पर ही मिल सकता था क्यों कि मालवा में कहावत है कि आम की भूख इमली से नहीं जाती।
सो, फिलहाल आप इस इमली से काम चलाइए। लेकिन इस गीत से जुड़ा यह एक ही संस्मरण नहीं है। एक और किस्सा है।
अगली कड़ी में वही किस्सा।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-06-2018) को "रखना कभी न खोट" (चर्चा अंक-2998) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
तू चंदा मैं चाँदनी ....यह कालजयी गीत है । इसमें लता, जयदेव और दादा तीनों कलाकारों का अद्भुत संगम है ।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ८ जून को मनाया गया समुद्र दिवस “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteआदरणीय, मैं यह पोस्ट देरी से देख पाया, मन हर्षित एवं गर्वित हुआ। चिरंजीवी लेखनी को सादर प्रणाम।
ReplyDeleteमैंने संस्मरण पूरापढा बड़ा बड़ा गर्व हुआ मैं तुम्हारी लेखनी को नमन करता हूं दादा सरस्वती पुत्र कहे जाते थे और थे भी मैं तुम्हें भी सरस्वती के दूसरे पु
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