तू चन्दा मैं चाँदनी - 3

(दादा श्री बालकवि बैरागी के आकस्मिक निधन के बाद, फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ के उनके गीत ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ की बहुत चर्चा हुई। इस गीत से जुड़ा यह संस्मरण ‘एकोऽहम्’ पर    20 जुलाई  2007 को प्रकाशित हो चुका है। तब ब्लॉग जगत में मेरी उम्र कुल दो माह की थी। तब मैं, लेख में न तो फोटू लगाना जानता था न ही परमा लिंक। मित्रों के आग्रह पर इस लेख को मैं एक बार फिर दे रहा हूँ - दादा के निधन के बाद बनी स्थितियोंनुसार संशोधन, सम्पादन सहित।)



मनासा लौटने के बाद भी मुम्बई से दादा का सम्पर्क बना रहा। तब तक दादा को कवि सम्मेलनों के न्यौते मिलने लगे थे और वे मंच लूटने के लिए पहचाने जाने लगे थे। उनकी मालवी रचना ‘पनिहारी’ लोगों के दिलों पर तब से ही राज करने लगी थी। उन्हें ‘मालवी का राजकुमार’ कहा जाने लगा था। इसी क्रम में उनका सम्पर्क बालाघाट के अग्रणी खनिज व्यवसायी ‘त्रिवेदी बन्धुओं’, भानु भाई त्रिवेदी और मुकुन्द भाई त्रिवेदी से हुआ। इनकी रुचि फिल्मों में थी ही। नितिन बोस निर्देशित फिल्म ‘नर्तकी’ के निर्माता ये ‘त्रिवेदी बन्धु’ ही थे।

मुकुन्द भाई त्रिवेदी स्वतन्त्र रूप से फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आना चाह रहे थे। सो, फिल्म बनना तय हुआ। मामला बातों से कागजों पर उतरना शुरु हुआ। गीत लिखने का जिम्मा दादा को मिला। ‘इन्द्रधनुष फिल्म्स’ बैनर तले बनी इस फिल्म के निदेशक थे बलवन्त दवे। स्पेशल इफेक्ट्स भी उन्हीं ने दिए थे। यह एक स्टण्ट/हॉरर/थ्रिलर श्याम-श्वेत फिल्म थी। नाम था - ‘गोगोला’। ऐसी फिल्मों की कहानी जैसी होती है, वैसी ही इस फिल्म की भी थी। उन दिनों के स्टण्ट फिल्मों के सुपरिचित नायक आजाद इस फिल्म के नायक और तबस्सुम इसकी नायिका थीं। संगीत का जिम्मा ‘रॉय और फ्रेंक’ को सौंपा गया। इनमें से कोई एक (सम्भवतः फ्रेंक), प्रख्यात संगीतकार रवि के सहायक थे। दादा की यह पहली फिल्म थी जिसके सारे के सारे गीत दादा ने लिखे थे। 

फिल्म बनी, सेंसर हुई और जैसे-तैसे प्रदर्शित भी हुई। उन दिनों रेडियो सीलोन से, सवेरे-सवेरे पन्द्रह मिनिट का कार्यक्रम (सम्भवतः सवेरे सात बजे) ‘एक ही फिल्म के गीत’ आया करता था। जिस दिन इस कार्यक्रम में ‘गोगोला’ के गीत बजे उस पूरे दिन हम सब लोग मानो नशे में रहे। फिल्म में चार गीत थे और यह संयोग ही था कि उस कार्यक्रम में चार गीत ही बजाए जाते थे। याने उस कार्यक्रम में, ‘गोगोला’ के सारे के सारे गीत बजे। इनमें से एक गीत (जो वस्तुतः गजल था) उन दिनों लोकप्रिय गीतों के दायरे में शामिल हुआ था। गीत का मुखड़ा था -

‘जरा कह दो फिजाओं से हमें इतना सताए ना।
तुम्हीं कह दो हवाओं से तुम्हारी याद लाए ना।’

इसे मुबारक बेगम और तलत महमूद ने गाया था। (दादा के आकस्मिक निधन के फौरन बाद, विविध भारती के सुपरिचित, लोकप्रिय उद्घोषक श्री युनूस खान ने दादा को इसी गीत से याद किया।) कुछ ही दिनों बाद ‘गोगोला’ के रेकार्ड दादा के पास आए। हमारे घर में रेकार्ड प्लेयर नहीं था। ऐसे समय में माँगने की आदत खूब काम आई। मैं ने एक रेकार्ड प्लेयर जुगाड़ा और पूरे चौबीस घण्टे वे रेकार्ड बजा-बजा कर सुनता रहा। शुरु-शुरु के कुछ घण्टों तक तो सबने आनन्द लिया लेकिन जल्दी ही वह नौबत आ गई कि मेरी पिटाई हो जाए। मुझे मन मार कर रुकना पड़ा।
गोगोला का पोस्टर 


यह फिल्म इन्दौर के महाराजा सिनेमा में लगी थी। इन्दौर के लोग इस बात की ताईद करेंगे कि इन्दौर के सिनेमाघरों में महाराजा सिनेमा श्रेष्ठता क्रम में अन्तिम स्थान पाता था। इस सिनेमा घर में फिल्म प्रदर्शित होना ही फिल्म के स्तर पर टिप्पणी होता था और यहाँ लगने वाली फिल्मों का दर्शक वर्ग स्थायी और चिर परिचित होता था। इसके बावजूद, फिल्म तो देखनी ही थी। सो दादा और उनके दो मित्र श्री कृष्ण गोपालजी आगार और श्री मदन मोहन किलेवाला, दादा की पहली फिल्म ‘गोगोला’ देखने हेतु इन्दौर के लिए चले। ये दोनों महानुभाव अब इस दुनिया में नहीं हैं। कृष्ण गोपालजी रहते तो मनासा में थे किन्तु व्यापार करते थे नीमच की मण्डी में। उन्हें मनासा का नगर सेठ होने का रुतबा हासिल था। वे प्रतिदिन नीमच आना-जाना करते थे। वे मनासा के एकमात्र ‘कार स्वामी’ हुआ करते थे। किलेवालाजी नीमच निवासी ही थे। वे न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी के विकास अधिकारी थे। वे फर्राटेदार, धमकदार, धमाकेदार अंग्रेजी बोलते थे। रहन-सहन और जीवन शैली बिलकुल अंग्रेज की तरह। उनसे वे लोग भी जलते और चिढ़ते थे जिनका उनसे कभी कोई लेना-देना न तो रहा और न ही रहनेवाला था। नीमच में उनकी अलग ही पहचान थी।दादा, कृष्ण गोपालजी को ‘केजी’ और किलेवालाजी को ‘एमएम’ के सम्बोधनों से पुकारते थे। कभी-कभी वे इन्हें ‘कनु’ और ‘मनु’ भी कहते । लेकिन ‘केजी’ और ‘एमएम’ ही इनकी पहचान बन गये थे। ‘केजी’ बहुत ही कम बोलने वाले, मानो संकोची हों या आत्म केन्द्रित जब कि ‘एमएम’ चुप्पी के बैरी। ये दोनों दादा के अन्तरंग मित्र थे, सुख-दुख के संगाती और अपनी सम्पूर्ण आत्मीयता और ममत्व से दादा की चिन्ता करने वाले लोग थे। इनका विछोह दादा के लिए आज मृत्युपर्यन्त मर्मान्तक बना रहा।

किलेवालाजी के बेटे सुदेश किलेवाला के सौजन्य से प्राप्त इस चित्र में सबसे बाँयेवाले सज्जन को मैं नहीं पहचान पाया। उनके पास, काला चश्मा लगाए किलेवालाजी (याने दादा के 'एमएम' या 'मनु') , फिर दादा, उनके पास बापूलालजी जैन, फिर कृष्णगोपालजी आगार (याने दादा के 'केजी' या 'कनु') और सबसे अन्त में हस्तीमलजी जैन वकील साहब। सबसे बाँयेवाले सज्जन के अतिरिक्त सब अब दिवंगत हैं।


इन्हीं दोनों के साथ दादा इन्दौर रवाना हुए। बल्कि कहा जाना चाहिए कि ये दोनों दादा को, दादा के गीतों वाली फिल्म दिखाने और खुद देखने, दादा को इन्दौर ले गए। कार, ‘केजी’ की ही होनी थी। यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा था कि इन्हें ‘गोगोला’ देखने की खुशी ज्यादा थी या महाराजा सिनेमा में इस फिल्म के रिलीज होने का गम। दादा को ऐसी बातों से सामान्यतः कोई अन्तर नहीं पड़ता था। वे अपने को हर हाल में, हर दशा में बहुत जल्दी समायोजित कर लेते थे। अभावों को कुशलतापूर्वक जीने का अभ्यास उनके बड़े काम आता था। लेकिन ‘केजी’ और ‘एमएम’ के लिए महाराजा सिनेमा में प्रवेश करना इज्जत हतक से कम नहीं था। फिर भी अपने यार की खातिर इन दोनों ने, महाराजा सिनेमा को इज्जत बख्शने का ऐतिहासिक उपकार किया। फिल्म में देखने के नाम पर केवल गीतों का फिल्मांकन देखना था। लेकिन सारे के सारे गीत एक साथ तो आते नहीं। सो दोनों मित्र खुद को सजा देते हुए, कसमसाते हुए बैठे रहे। फिल्म समाप्त हुई। तीनों बाहर आए और मुकाम पर चलने के लिए कार में बैठे। कार सरकी ही थी कि ‘एमएम’ ने कुछ ऐसा कहा - “यार! बैरागी! ‘गोगोला’ देखनी थी सो देख ली  फिल्म में तो कोई दम है नहीं। गीतों की तारीफ क्या करना! लेकिन मजा तो तब आए जब तुम्हारा गीत लता गाए और उस पर वहीदा नाचे।” ‘केजी’ मुस्कुरा दिए। दादा कुछ नहीं बोले। महाराजा सिनेमा के दर्शकों की टिप्पणियाँ उनके कानों में शायद तब भी गूँज रहीं थीं। अपनी बात का ऐसा ‘कोल्ड रिस्पांस’ पा कर ‘एमएम’ को अच्छा तो नहीं लगा लेकिन चुप रहने के सिवाय वे और कर भी क्या सकते थे? सो, ‘एमएम’ की बात आई-गई हो गई। तीनों मित्र लौटे और अपने-अपने काम में लग गए।

लेकिन जब ‘उस सुबह’ दादा को, भोपाल में लताजी का फोन मिला और लताजी से बात कर दादा जैसे ही सामान्य-संयत हुए, वैसे ही उन्हें ‘एमएम’ की बात याद आ गई। वे भावावेग में रोमांचित हो गए। तब तक ‘रेशमा और शेरा’ की कास्टिंग सार्वजनिक हो चुकी थी और सबको पता था कि वहीदाजी इसकी नायिका हैं। ‘एमएम’ ने इच्छा प्रकट की थी या भविष्यवाणी की थी? दादा ने हाथों-हाथ ‘एमएम’ को फोन लगाया। ‘एमएम’ ‘नाइट लाईफ’ जीने वाले, 'आजाद हिन्‍दुस्‍तान में अंग्रेज आदमी' थे और उठने के मामले में ‘सूरजवंशी’। सो, दादा का फोन उन्होंने चिढ़ कर ही उठाया लेकिन जब किस्सा-ए-फोन सुना तो ऐसे चहके मानो सवेरे-सवेरे उनके घर, वंश वृध्दि का मंगल बधावा आ गया हो।

‘रेशमा और शेरा’ तीनों ने जब देखी और ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ पर वहीदाजी की भाव प्रवण भंगिमाएँ देखीं तो उनकी क्या दशा रही होगी, यह कल्पना करने का कठिन काम आप खुद कर लीजिए। वह प्रसंग उनके लिए आजीवन ज्यों का त्यों जीवन्त बना रहा। तीनों के गले रुँधे हुए थे और ‘एमएम’ खुद को, बार-बार चिकोटी काट-काट कर अपने होने को अनुभव कर रहे थे।

बात यहीं समाप्त हो जानी चाहिए। लेकिन एक और बात बताने से मैं अपने आपको को रोक नहीं पा रहा हूँ। सबके लिए यह बात बासी हो सकती है किन्तु यहाँ प्रासंगिक है।

आज की लोकप्रिय और स्थापित गायिका सुनिधि चौहान का रिश्ता भी ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ से है। मुझे यह तो याद नहीं आ रहा कि किस टी वी चैनल ने कौन सी प्रतियोगिता आयोजित की थी। किन्तु उस प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पा कर ही सुनिधि चौहान ने पार्श्व गायन के क्षेत्र में प्रवेश किया था। प्रतियोगी के रूप में सुनिधि ने जो गीत गा कर प्रथम स्थान पाया था वह दादा का यही गीत था - तू चन्दा मैं चाँदनी।
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4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-06-2018) को "कलम बना पतवार" (चर्चा अंक-3000) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, एक भयानक त्रासदी की २१ वीं बरसी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. तू चंदा में चांदनी कालजयी गीत है,हमेशा नया और दिल को सुकून देने वाला । जयदेव जी ने क्या खूब इसकी धुन को रच । लता दी,जयदेव जी,दादा को नमन ।

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  4. वह प्रतियोगिता थी "मेरी आवाज़ सुनो" जो दूरदर्शन पर प्रसारित हुई थी | उसमे सुनिधि का गया हुआ "तू चंदा मैं चांदनी" गीत मुझे हमेशा याद रहा है | इस कालजयी गीत की याद ताज़ा करवाने के लिए अनेकों साधुवाद |

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