बीस जून बुधवार का लगभग पूरा दिन रोते-रोते ही बीता। दशा और मनोदशा कुछ ऐसी हो गई कि ‘सुबह सवेरे’ के लिए अपने स्तम्भ की सामग्री भी नहीं दे पाया। उल्लेखनीय बात यह रही कि रोने की शुरुआत दुःख से हुई और समापन सुख से। इसी कारण यह सब लिखने की स्थिति बनी।
दादा श्री बालकवि बैरागी के निधन पर अपनी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए कृपालु अब भी आ रहे हैं। लेकिन वे प्रायः शाम/रात को आ रहे हैं। लेकिन बुधवार को यह आगमन सुबह से शुरु हो गया। ये सब आत्मीय, अन्तरंग। परिजन समान। दादा को याद करते हुए लगभग सबके सब रोने लगे। मुझे तो उनसे पहले ही रोना आ गया। इनमें से एक बाबू भी रहा। वह अपनी अर्द्धांगिनी सुमिता के साथ आया था। उसकी दशा देख कर रोना कई गुना अधिक हो गया। वह पार्किंसन्स का मरीज हो गया है। वह देख नहीं पाता, स्पष्ट बोल नहीं पाता। अपने सारे कामों के लिए पराश्रित हो गया है। बाबू को मैंने सदैव दबदबे, रौब और एकछत्र शासक, नियन्त्रक की स्थिति, मुद्रा और दशा में देखा है। उसे ऐसी पराधीन दशा में देखना मेरे लिए मर्मान्तक पीड़ादायक होता है। मैं उससे आमने-सामने होने से बचता हूँ। लेकिन यह ऐसा प्रसंग था कि वह मुझ तक आने से खुद को रोक नहीं पाया। वह और सुमिता लगभग आधा घण्टा बैठे। लेकिन उसके जाने के बाद मैं अकेले में देर तक रोता रहा। ईश्वर सब पर कृपा करे।
लेकिन दिन ढलते-ढलते ईश्वर (यह ‘ऊपरवाला’ नहीं, धरती का, रतलाम में रहनेवाला ईश्वर है) आया तो उसकी बातों ने मानो चमत्कारी प्रभाव किया। वातावरण और मन हलका ही नहीं हुआ, विगलित और प्रफुल्लित कर गया। उसके जाने के बाद भी देर तक रोता रहा। लेकिन ‘उस’ रोने में और ‘इस’ रोने में धरती-आकाश का अन्तर रहा।
ईश्वर का उल्लेख मैंने अपने ब्लॉग पर 24 दिसम्बर 2009 को
किया था। वह आलेख, साप्ताहिक उपग्रह के मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में ‘छत्तीसवीं कौम’ शीर्षक से छपा था। ईश्वर ने ‘उपग्रह’ की प्रति अब भी सम्हाल रखी है। दस बरस से अधिक का वक्त हो गया है, बिजली से जुड़े मेरे सारे काम ईश्वर ही कर रहा है।
कोई दो बरस पहले वह आया था तो बातों-बातों में कहा था - ‘बाबूजी! आपके उस लेख ने मेरा बड़ा फायदा किया।’ मैंने ध्यान नहीं दिया था। यही माना था कि उस लेख का हवाला देकर लोगों ने उसकी प्रशंसा की होगी। लेकिन कुछ दिनों पहले उसने जब वही बात दोहराई तो मैंने पूछा - ‘कैसे? क्या फायदा हुआ?’ ईश्वर ने जवाब दिया - ‘बैंकवाले मेरा लोन पास नहीं कर रहे थे। मैंने आपका लेख बताया तो उन्होंने एक झटके में मेरा लोन पास कर दिया।’ मुझे अविश्वास और अचरज हुआ। भला बैंक का कोई अफसर किसी के लिखे के आधार पर लोन देता है? लिखे का ऐसा और इतना असर कैसे होने लगा! मैंने अविश्वास से देखते हुए कहा - ‘ऐसे नहीं। पूरी बात बता।’
ईश्वर ने जो कुछ कहा, वह लगभग इस तरह था -
“मैंने बैंक में लोन की अर्जी लगा रखी थी। बैंकवाले टल्ले दे रहे थे। मैं हर साल तीस-चालीस हजार का इनकम टैक्स भर रहा हूँ। अपने केदार वकील सा’ब (रतलाम के अग्रणी प्रतिष्ठित आय कर सलाहकार श्री केदार अग्रवाल) के पास मेरी फाइल है। मैंने कहा कि मेरे गए पाँच-सात साल के इनकम टेक्स के सर्टिफिकेट देख लो। केदार सा’ब पूछ लो। लेकिन बैंकवाले मानने को तैयार नहीं। कहने लगे कि हम जानते हैं कि ऐसे सर्टिफिकेट कैसे बनते हैं।
“बैंकवाले मेरी कोई बात सुनने को तैयार नहीं। और तो और, मेरी खेती के कागज भी देखने को तैयार नहीं। मैं कुछ भी कहूँ तो एक ही बात कहें - ‘इतनी बड़ी रकम यूँ ही दे दें?’ (ईश्वर ने लोन की रकम बताई तो मेरे भी हाथ-पाँव फूल गए। वह रकम मेरी तो सोच के भी बाहर थी। लोन की रकम और बैंक का नाम यहाँ जाहिर करने की इजाजत मेरा विवेक मुझे नहीं दे रहा।) जब मुझे लगा कि ये मुझे लोन नहीं देंगे और मुझे दूसरा बैंक देखना पड़ेगा तो मैंने कहा - ‘सिटी के बड़े-बड़े लोग मेरी और मेरे काम की बड़ाई करते हैं। मुझ पर लेख छापते हैं। और एक आप हो कि मुझ पर भरोसा ही नहीं करते!’
“मेरी बात बैंकवाले सा’ब को मजाक लगी। बोले - ‘अच्छा! अब तू इतना बड़ा आदमी हो गया कि तेरे पर लेख छपने लगे? जरा हम भी तो देखें कि किसने तेरा अभिनन्दन-पत्र छापा?’ मैंने कहा - ‘मुझे थोड़ा टाइम दो सा’ब! मैं घर से अखबार लाकर दिखाता हूँ।’
“मैं भाग कर घर आया। अखबार मैंने सम्हाल ही रखा था। निकाला और उल्टे पाँव बैंक पहुँचा और उनको अखबार पकड़ा दिया। उन्होंने अखबार देखा। उलटा-पलटा। सात बरस पुरान अखबार था बाबूजी! सा’ब ने आपका लेख पढ़ा। आपने तीन मिस्त्रियों के किस्से छापे थे। मेरा किस्सा सबसे पहला था। सा’ब ने ध्यान से पूरा लेख पढ़ा। फिर मेरी ओर देखा। उनकी तो नजरें ही बदल गई थी बाबूजी! खुश होकर बोले - ‘किसी मेकेनिक पर ऐसा लेख पहली बार देखा। जा! तेरा लोन पास किया।’ और बाबूजी! उन्होंने तो सच्ची में लोन पास कर दिया। एक झटके में। अब बताओ बाबूजी! आपके लेख से मेरा फायदा हुआ कि नहीं?”
ईश्वर जैसे-जैसे किस्सा सुनाता जा रहा था, वैसे-वैसे मेरी देह पर मानो चीटियों के रेंगने की गति बढ़ती जा रही थी। किस्से की वास्तविकता और बैंक अफसर के मन की बात ऊपरवाला ही जाने। मेरे सामने बैैठा धरतीवाला यह ईश्वर मुझे सचमुच में ऊपरवाला ईश्वर ही नजर आ रहा था। वह मेरे सामने, मेरी आँखों में आँखें डाल कर, मुझे ही सारी बात सुना रहा था और मैं बेभान, लगभग संज्ञा-शून्य बैठा था। वह कृतज्ञ और उपकृत भाव से मुझे देख रहा था। लेकिन मैं उसे नहीं देख पा रहा था। उसकी शकल धुँधलाती जा रही थी। मैं बोल नहीं पा रहा था। मुझे लग रहा था, मैं बुक्का फाड़कर रोने लगूँगा। मैं रोना नहीं चाहता था। कम से कम, उसके सामने तो नहीं ही। उसके सामने रोने में मुझे अपनी हेठी लग रही थी।
तनिक मुश्किल से मैंने खुद को संयत किया। याद आया, घर में बूँदी के लड्डू रखे हैं। मैंने डिब्बा उसके सामने बढ़ाया - ‘तेरी बात ने तबीयत खुश कर दी ईश्वर। ले! मुँह मीठा कर।’ उसने आज्ञाकारी भाव से लड्डू उठाया। तनिक संकोच से, लेकिन प्रमेपूर्वक खाया। मैंने उसे बिदा किया - ‘भगवान तुझ पर ऐसी ही कृपा बनाए रखे। लेकिन याद रखना! इसमें मेरा कुछ नहीं। यह तेरी मेहनत, तेरी ईमानदारी और मेरी भलमनसाहत का ही फल है। ऐसा ही बना रहना।’
विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर वह चला गया। मैं अन्दर आया। दरवाजा बन्द करते-करते मेरी रुलाई फूट पड़ी। उसे लगा, वह मेरी वजह से निहाल हो गया। लेकिन सच तो यह है कि वह साक्षात ईश्वर ही था जो मुझे निहाल कर गया।
मैं देर तक रोता रहा। रोना रुका तो विचार आने लगे। लगभग साठ-पैंसठ बरस से, अपने स्कूली दिनों से लिख रहा हूँ। दो-एक छुटपुट ऐसे प्रसंग आए थे जिनमें मेरे लिखने से कथा नायकों को सहायता मिली थी। लेकिन वह लापरवाही की उम्र थी। उन घटनाओं का नोटिस ही नहीं लिया। लेकिन इस घटना ने मुझे झकझोर दिया।
मुझे लग रहा है, ईश्वर को लोन की पात्रता है, यह अनुभव तो बैंक अफसर को, ईश्वर के कागज देख कर, पहली ही नजर में हो गया होगा। लेकिन ईश्वर के रहन-सहन, उसके पास कोई सिफारिश न होना, उसकी अतिशय विनम्रता ने बैंक अफसर को आश्वस्त नहीं किया होगा। वह आँकड़ों से अलग और आगे बढ़कर ईश्वर की (लोन लौटाने की) विश्वसनीयता टटोल रहा होगा। मेरे लेख ने शायद उसे ईश्वर को भरोसेदार आदमी मानने की जमीन दे दी होगी। ईश्वर को लोन तो उसकी पात्रता और अधिकार के आधार पर ही मिला। लेकिन मेरे लिखे ने उसके लोन केस में वह उपलब्ध करा दिया जो कागजों में नहीं आ सकता था।
मैं प्रायः ही, ऐसी ‘छोटी-छोटी’ बातों को उठाता रहता हूँ। इसके पीछे मेरा यह सोच है कि जिसे हम ‘छोटी सी बात’ मान कर उपेक्षित कर देते हैं वह वस्तुतः छोटी नहीं होती।
मुझे यह भी लगता है कि हमारे मन से प्रशंसा भाव तिरोहित होता जा रहा है। किसी की प्रशंसा करने में हमें अपनी हेठी लगती है। लगता है, हम छोटे हो जाएँगे। सम्भवतः इसी के चलते हम बुरी खबरों से घिर गए हैं। लगता है, दुनिया में अच्छाई, भलाई रही ही नहीं। जबकि ऐसा नहीं है।
धरतीवाले इस ईश्वर ने मेरे इसी सोच को ताकत दी। हम किसी के लिए सहायक हो जाएँ, यही बहुत बड़ी बात है। और यदि किसी के लिए उपयोगी हो जाएँ तो क्षणांश को ही सही, जीवन सफल और धन्य लगता है। मैं जीवन की इसी, क्षणांश की सफलता और धन्यता से खुश हूँ।
धरतीवाले इस ईश्वर का काम तो होना ही था। मेरा लिखना तो बहुत ही छोटा निमित्त बना। ऊपरवाले ईश्वर ने मुझे यह निमित्त बना कर मुझ पर केवल कृपा ही नहीं की, सम्भवतः अपनी इच्छा भी जताई - ऐसा ही लिखते रहो।
मुझे यह इच्छा-पालन करना ही है।
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प्रशंसा निर्बल का बल है और बलशाली की कमज़ोरी
ReplyDeleteबाबू भाई साब से 21 को मंदसौर में मेरी भी मुलाकात हुई ।
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