(दादा श्री बालकवि बैरागी के आकस्मिक निधन के बाद, फिल्म ‘रेशमा और शेरा’ के उनके गीत ‘तू चन्दा मैं चाँदनी’ की बहुत चर्चा हुई। इस गीत से जुड़ा यह संस्मरण ‘एकोऽहम्’ पर 20 जुलाई 2007 को प्रकाशित हो चुका है। तब ब्लॉग जगत में मेरी उम्र कुल दो माह की थी। तब मैं, लेख में न तो फोटू लगाना जानता था न ही परमा लिंक। मित्रों के आग्रह पर इस लेख को मैं एक बार फिर दे रहा हूँ - तनिक संशोधन, सम्पादन सहित।)
यह तब की बात है जब ‘रेशमा और शेरा’ का अता-पता कल्पना में भी शायद ही रहा होगा।
फिल्मों में गीत लिखने के सिलसिले में दादा साठ के दशक में कुछ अरसा मुम्बई में रह चुके थे। तब उन्होंने श्री मुबारक मर्चेण्ट के यहाँ मुकाम जमाया था। ये मुबारकजी वे ही थे जिन्होंने फिल्म ‘अनारकली’ में अकबर की, फिल्म ‘नागिन’ में वैजयन्तीमाला के पिता की, फिल्म ‘झाँसी की रानी’ में राजा गंगाधर राव भूमिका निभाई थी और जो बाद में स्थापित चरित्र अभिनेता के रूप में पहचाने गए। दुर्गा खोटे की आत्मकथा ‘मी दुर्गा’ में मुबारकजी का सन्दर्भ अत्यन्त भावुकता से आया है। मुबारकजी मूलतः तारापुर के रहने वाले थे। यह तारापुर, महाराष्ट्र वाला नहीं बल्कि मालवा वाला तारापुर है जो इस समय नीमच जिले की जावद तहसील का हिस्सा है। इस तारापुर की रंगाई और इसकी छींटें (प्रिण्ट्स) विश्व प्रसिध्द हैं जिन्हें ‘तारापुर प्रिण्ट्स’ के नाम से जाना जाता है। इन छींटों की रंगाई के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले प्राकृतिक रंग खूब गहरे/गाढ़े होते हैं जो सैंकडों धुलाइयों के बाद भी फीके नहीं पड़ते। तारापुर के रंगरेजों की पीढ़ियाँ बीत गई हैं लेकिन कोई भी यह बताने की स्थिति में नहीं है कि रंगों के कड़ाहों में पहली बार रंग किसने डाला था। इन कड़ाहों को पूरा खाली होते किसी ने नहीं देखा। अपने से पहली वाली पीढी से प्राप्त, इन रंग भरे कड़ाहों को अपने से आगे वाली पीढ़ी को सौंपने का क्रम आज भी बना हुआ है। तारापुर के रंगरेज अपनी इस परम्परा का सगर्व बखान करने का कोई अवसर नहीं चूकते। इन रंगरेजों को ‘छीपा’ जाति के नाम से पहचाना जाता है और इस जाति में दोनों सम्प्रदायों (हिन्दू और मुसलमान) के लोग हैं। सच बात तो यह है कि तारापुर की यह छपाई अपने आप में अध्ययन और लेखन का स्वतन्त्र/वृहद् विषय है।
मुबारकजी
फिल्मी दुनिया में मुबारकजी को किस सम्बोधन से पुकारा जाता था यह मुझे नहीं पता क्यों कि उनके रहते मैं कभी मुम्बई नहीं गया। हम लोगों ने उनका जिक्र सदैव ही दादा से सुना। दादा उन्हें ‘चाचाजी’ कहते थे। सो, वे हम सबके चाचाजी थे। मुम्बई में भी चाचाजी ने तारापुर को अपने मन में बराबर बसाए/बनाए रखा। वे मालवी न केवल फर्राटे से बालते थे बल्कि मालवी बोलने के मौके पैदा करते थे। दादा के आग्रह पर वे एक बार मनासा आए थे और हमारे परिवार के साथ कुछ दिन रहे थे। उन्हें मनासा के डाक बंगले में ठहराया गया था। वे शिकार के शौकीन थे। दादा के कुछ मित्रों ने उनके लिए शिकार खेलने की व्यवस्था की थी। जिज्ञासा भाव से मैं भी उस शिकार में शरीक हुआ था। कंजार्डा पठार के जंगलों में, चाचाजी के साथ, शिकारी जीप में की गई वह यात्रा मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। प्रत्येक क्षण मुझे लगता रहा कि यह जीप या तो कहीं टकरा जाएगी या फिर उलट जाएगी और हम लोगों के शव ही घर पहुँचेंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। काफी भाग दौड़ के बाद उन्होंने अन्ततः बारहसिंघे की प्रजाति के जानवर एक ‘जरख’ को मार गिराया था। लेकिन इससे पहले, जब काफी देर तक कोई शिकार नहीं मिला और एक खरगोश सामने आया तो शिकार आयोजित करने वाले मेजबानों ने चाचाजी को सलाह दी कि वे खरगोश का शिकार कर लें। उन्होंने फौरन ही इंकार कर दिया। मेरे लिए यह ‘विचित्र किन्तु सत्य’ जैसी स्थिति थी। अँधेरे की अभ्यस्त हो चुकी आँखों से मैं ने चाचाजी का चेहरा देखा तो वहाँ शिकारी की क्रूरता और हिंसा कहीं नहीं थी। जीप की हेड लाइट की तेज रोशनी में खरगोश की शरबती आँखें चमक रही थीं और चाचाजी के चेहरे पर मानो मक्खन का हिमालय उग आया था। वे खरगोश को ऐसे देख रहे थे मानो खुदा की सबसे बडी नेमत उनके सामने मौजूद हो। उन्होंने कहा था - ‘कैसी बातें करते हैं आप? इतना खूबसूरत और मुलायम जानवर तो प्यार करने के लिए है, मारने के लिए नहीं।’ उस समय वे ‘सोमदत्त’ के भेस में थे और उनका व्यवहार ‘सिध्दार्थ’ जैसा था। कंजार्डा पठार के घने जंगलों में, उस गहरी, अँधेरी रात में मैं ने एक कलाकार का जो स्वरूप देखा, वह मेरे लिए जीवन निधी से कम नहीं है।
चाचाजी नियमित सुरा-सेवी थे। मनासा तब मुश्किल से नौ-दस हजार की आबादी वाला कस्बा था। आबादी में माहेश्वरियों और श्वेताम्बर/दिगम्बर जैनियों का प्रभुत्व तथा प्रभाव। माहेश्वरियों ने तो उस गाँव को बसाने में भागीदारी की। सो, सकल वातावरण ‘सात्विक’। देसी शराब का ठेका जरूर वहाँ था लेकिन ‘अंग्रेजी शराब’ की तो बस बातें ही होती थीं। ऐसे में एक शाम, जब डाक बंगले मैं अकेला उनके पास था, उन्होंने अचानक ही शराब की फरमाइश की। मैं अचकचा गया। शराब का नाम मैं ने तब तक सुना जरूर था लेकिन शराब देखी नहीं थी। शराब का ठेका भी मैं ने देखा जरूर था लेकिन वह ‘स्थायी वर्जित प्रदेश’ था। मैं घबरा गया। समझ नहीं पाया और तय नहीं कर पा रहा था कि क्या करूँ और चाचाजी को क्या जवाब दूँ। तब तक चाचाजी ने फरमाईश दुहरा दी। शराब ला पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था और डाक बंगले पर रूक पाना उससे भी अधिक कठिन हो गया था। मैं वहाँ से चला तो मेरे कानों में सीटियाँ बज रही थीं और आँखें कुछ भी देख पाने में मदद नहीं कर रही थीं। एक प्रतिष्ठित कवि का छोटा भाई और ‘बैरागी-साधु’ जाति के महन्त का बेटा, छोटी सी बस्ती में, जहाँ सब उसे खूब अच्छी तरह जानते-पहचानते हों, दारू लाने के लिए ठेके पर जा रहा था। मुझे लग रहा था मानों बस्ती के लोग तो लोग, सडक पर विचर रहे ढोर-डंगर भी मुझे कौतूहल से देख रहे हैं और धिक्कार रहे हैं। लेकिन मेरा भाग्य शायद साथ दे रहा था। मैं डाक बंगले से सौ-डेड़ सौ कदम ही चला होऊँगा कि मैं ने देखा कि सामने से मोहम्मद साहब चले आ रहे हैं। मोहम्मद साहब के पिताजी और मेरे पिताजी गहरे मित्र थे और उनसे हमारा पारिवारिक व्यवहार था। मोहम्मद साहब खुद दादा के अच्छे मित्र थे और चाचाजी के शिकार की व्यवस्थाएँ करने में अग्रणी थे। लेकिन उस क्षण की सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि वे आबकारी विभाग में कांस्टेबल के पद पर मनासा में ही पदस्थ थे। मेरी शकल की इबारत उन्होंने मानो पढ़ ली मेरी बात सुन कर वे खूब हँसे और मुझे डाक बंगले वापस भेजा। बाद में, जब वे देसी दारू की बोतल लेकर चाचाजी के पास आए तो मेरी दशा का बखान कर, खूब मजे लिए।
मुबारकजी की एक और मुद्रा
इन्हीं चाचाजी ने मुम्बई में दादा को अपने पास रखा । दादा तब तक हालांकि ‘बालकवि’ के रूप में स्थापित हो चुके थे लेकिन अन्तरंग स्तर पर वे अपने मूल नाम ‘नन्दराम दास’ से ही सम्बोधन पाते थे। चाचाजी दादा को ‘नन्दू’ कह कर पुकारते थे। मुम्बई में दादा के संघर्ष गाथा की जानकारी मुझे बिलकुल ही नहीं रही। लेकिन वे वहाँ इतने समय तक रहे कि पिताजी, दादा की सफलता की प्रतीक्षा नहीं कर सके और एक दिन मुम्बई जाकर, चाचाजी से उनके ‘नन्दू’ और अपने ‘नन्दा’ को मनासा लिवा लाए।
शेष भाग अगली कड़ी में
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मुबारकजी के चित्र मुझे फेस बुक मित्र सर्वश्री प्रवीण माथुुुर, राजेश कर्णधार, खुशदीप सहगल और कुमार मुकेश ने उपलब्ध कराए। मैं इन सबका अत्यधिक आभारी हूं।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, २ महान क्रांतिकारियों की स्मृतियों को समर्पित ११ जून “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteमुबारक जी की आवाज़ बहुत दमदार थी । मैने उनकी कई फिल्म देखी है । मुबारक जी अभी भी मेरी स्मृति में है ।
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