सत्ताओं से सवाल पूछना ही सच्ची राजनीति है

अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से सार्वजनिक रूप से सवाल करने और काम का हिसाब-किताब जानने की घटनाएँ बढ़ रही हैं। नेताओं-मन्त्रियों को मंच पर या तो चढ़ने ही नहीं दिया जा रहा या चढ़ गए तो बोलने नहीं दिया जा रहा। वे अपने मन की बात कहें उससे पहले लोग अपनी समस्याओं के समाधान के बारे में जवाब चाहते हैं। नेताओं को उल्टे पाँव लौटना पड़ रहा है। नेपानगर विधायक मंजू दादू, मण्डला के सांसद फग्गनसिंह कुलस्ते, खण्डवा सांसद नन्दकुमार सिंह चौहान, मुरैना सांसद अनूप मिश्रा, प्रदेश के नए-नए राज्य मन्त्री बालकृष्ण पाटीदार, देपालपुर विधायक मनोज पटेल, शहडोल सांसद ज्ञानसिंह, प्रदेश के खाद्य मन्त्री ओमप्रकाश धुर्वे से जुड़े ऐसे समाचार पढ़ने को मिले। 

ऐसे समाचार पढ़ कर अच्छा लगा। खुशी हुई। इसे व्यंग्य या तानाकशी मत समझिएगा। गम्भीरता से कह रहा हूँ, यह सब पढ़कर खुशी हुई। मुमकिन है, सारे मामलों में नेता गलत और लोग सही न हों। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि ये घटनाएँ राजनीतिक कारणों से नहीं हुईं। लोगों ने अपनी समस्याओं के बने रहने और नेता द्वारा चुनाव के बाद पलट कर न देखने पर नाराजी जताई। नेताओं से सवाल, हिसाब पूछनेवालों में नेताओं की पार्टी के ही लोग थे। लगभग प्रत्येक नेता ने इसे अपने विरोधियों की साजिश कह कर खारिज किया। लेकिन वे जानते थे कि सच क्या है।

यही वास्तविक राजनीति है - ‘अपने निर्वाचित प्रतिनिधि से सवाल पूछना, हिसाब माँगना।’ लेकिन दुर्भाग्य यह कि राजनीति के नाम पर इसे छोड़ कर बाकी सब कुछ हो रहा है। इसीलिए हम अपने ही चुने नेताओं से नफरत करते हैं। उन्हें गालियाँ देते हैं और राजनीति को सबसे गन्दी हरकत घोषित किए बैठे हैं। घोषित कर दिया है - राजनीति में भले लोगों के लिए जगह नहीं है। इसका विलोम सत्य है कि यदि कोई भला, सज्जन, ईमानदार आदमी चुनाव लड़ता है तो उसकी जमानत जप्त हो जाती है। मतदाता मुँह पर कहते हैं - ‘आप भले और ईमानदार आदमी हो। लेकिन आपको जीता कर क्या करेंगे सा’ब? आप तो हमारा कोई काम भी नहीं करा सकोगे।’ यह मैंने अपने कानों सुना। सन्देश साफ था - ‘अपनी ईमानदारी अपने पास रखिए। मेरा स्वार्थ सिद्ध कर सको तो वोट की बात करो।’ 

हमने दलगत राजनीति और सत्ता की राजनीति को राजनीति मान लिया है। यह गलत है। राजनीति सदैव ही शुद्ध, सात्विक और लोकहिताकरी होती है। लेकिन दलगत राजनीति सब मटियामेट कर देती है। सत्ता की राजनीति और कुछ नहीं, दलगत राजनीति का ही विस्तार है।

वास्तविक राजनीति, सत्य और नीति/नैतिकता की राजनीति होती है। गाँधी सत्य की राजनीति के पक्षधर थे और अनीति की राजनीति को पाप कहते थे।

निर्वाचित प्रतिनिधि ‘लोकसेवक’ होते हैं। जब तक विधायी सदन के सदस्य होते हैं, वेतन पाते हैं। ये ‘वेतनभोगी’ हैं। हम इन्हें चुनते हैं इसलिए इनके वेतन का भुगतान हम, जन सामान्य करते हैं। वे हमारे ‘वेतनभोगी सेवक’ हैं। उन्हें अपने स्वामियों के प्रति याने हम निर्वाचकों के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत है। चुनाव जीतते ही, हमसे अपना वेतन लेनेवाला हमारा मालिक बन बैठता है। क्यों? क्योंकि हम अपने वोट की कीमत उससे पहले ही वसूल कर चुके हैं। हमारा यह भ्रष्ट आचरण ही राजनीति को गन्दी, घिनौनी बना देता है। 

यह राजनीति नहीं है। राजनीति होती है - ‘अनुचित का विरोध, प्रतिकार।’ लेकिन दलगत राजनीति इस ‘अनुचित’ की परिभाषा बदल देती है। दलगत राजनीति के चलते हमें ‘अपनेवाले का अनुचित’ कभी भी अनुचित नहीं लगता। हम ‘पार्टी लाइन’ के अन्ध समर्थक बन कर सारे भ्रष्टाचार, झूठ, अनैतिक कृत्य न केवल सहन करते हैं बल्कि उनका समर्थन भी करते हैं। जब ‘भ्रष्टाचार’, ‘उसका भ्रष्टाचार’ और ‘अपना भ्रष्टाचार’ की तराजू पर तुलने लगता है तो फिर सच की राजनीति तो कूड़ेदान में जानी ही है। हमने उसे वहीं फेंक दिया है और क्रन्दन कर रहे हैं। हम श्रेष्ठ पाखण्डी, श्रेष्ठ दोगले लोग हैं।

अपराध केवल अपराध होता है। ‘इसका’ या ‘उसका’ नहीं होता। लेकिन जब लालच, स्वार्थ और सुविधा के लिए पैमाने बदल लिए जाते हैं तो मण्डी में गुनाहगारों का ही मोल बढ़ेगा। 

अचानक ही एक आपबीती याद आ गई।

6 जून को राहुल गाँधी मन्दसौर पहुँचे थे। उसी दिन मैंने जो लिखा था वह सात जून को यहीं, ब्‍लॉग पर भी दिया था। मैंने लिखा था - ‘हर कोई जानता है कि राहुल सत्ता में नहीं है। वे तत्काल कुछ नहीं कर सकते। केवल ढाढस बँधा सकते हैं। यह भी सब जानते हैं कि नेता जितना कहता है, उतना कभी नहीं करता। फिर भी मृतकों के परिजन यदि घण्टों पहले पहुँच कर प्रतीक्षा करते हैं तो इसका एक ही मतलब होता है कि उनकी बात किसी ने सुनी नहीं। वे केवल अपने मन का गुबार निकालना चाहते थे। इसीलिए राहुल जब सामने आए तो उनसे लिपट कर रोने लगे। इन्हें शिवराज का काँधा मिल जाता तो ये राहुल के पास क्यों जाते?’ यह लेख मैंने फेस बुक पर भी दिया था। एक टिप्पणी आई - ‘हे राम ......विलाप ठीक है लेकिन कंधा तो ठीक होना चाहिए 70 साल में किसान की लंगोटी पूरी धोती नहीं बनी साहब।’ यह एक राजनीतिक टिप्पणी थी। मैंने जवाब दिया - ‘बहुत सही कहा। यह संयोग ही है कि इन 70 वर्षों में राज्य के मौजूदा शासकों के 15 वर्ष भी मौजूद हैं। हमने सरकार में बदलाव काहे के लिए किया - हालात में बदलाव के लिए या हालात के दोहराव के लिए?’ उधर से प्रतिप्रश्न आया - ‘क्या सत्ताएँ एक सी सूरत की नहीं होतीं? आपका उत्तर हाँ आता है तो अपने लिए आशीर्वाद मानूँगा और ना आता है तो मैं इस बहस से स्वयं को स्वतः अलग कर लूँगा।’ यह एक सशर्त टिप्पणी थी। जब बात अपनी जवाबदेही पर आए तो ‘आपने अपनी पत्नी को पीटना छोड़ा या नहीं?’ जैसे सवाल पूछना शुरु कर दो। जवाबदेही से मुँह चुराने का यही वह बिन्दु है जहाँ से राजनीति गन्दी और घिनौनी हो जाती है। मैंने जवाब दिया - ‘सत्ताएँ स्वयम् नहीं आतीं। हम उन्हें लाते हैं। जैसे हम हैं, वैसी ही सत्ताएँ हैं। यदि हमें सत्ताएँ एक सी लगती हैं तो यह हमारी राजनीतिक चेतना के स्वर्गवास की सूचना है। सत्ता केवल सत्ता होती है। लेकिन जब वह ‘हमारी’ और ‘उनकी’ में बदल जाती है तो निष्पक्ष दृष्टिकोण की अपेक्षा आत्म वंचना होती है। वस्तुपरक भाव से देखना आसान नहीं है। मैं यह कठिन काम करने की भरसक कोशिश कर रहा हूँ। मेरे लिए सत्ता केवल सत्ता है। चूँकि इसे मैं लाया हूँ इसलिए इसकी सेहतमन्दी मेरी जवाबदारी है। वही निभाने की कोशिश है। ‘वहाँ कौन है?’ इससे पहले मेरी चिन्ता है - ‘वहाँ, वह क्या कर रहा है।’ राजनीति, दलगत राजनीति और सत्ता की राजनीति में बड़ा भेद है। मैं राजनीति में विश्वास करता हूँ और सब इसमें विश्वास करें, इसे जरूरी मानता हूँ।’ इसका जवाब आना ही नहीं था। नहीं आया।

हमारी संसदीय लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली का आधार राजनीति है। हम सबको ‘राजनीतिक’ होना ही पड़ेगा। ‘राजनीतिक’ होने का अर्थ ‘राजीतिज्ञ’ होना नहीं हैं। 

राजनीतिक बनना, अपनी आजादी और लोकतन्त्र के प्रति  हमारी जिम्मेदारी है। राजनीति का मतलब है, अपने सेवकों से सवाल पूछना, उनको सौंपे गए काम का हिसाब माँगना और उनकी अनुचित बात/हरकत पर अंगुली उठाना, उन्हें नियन्त्रित करना। वे हमारे वेतनभोगी सेवक हैं। हमारे स्वामी नहीं। 

जिन लोगों ने नेताओं से सवाल पूछ कर अपनी राजनतिक जिम्मेदारी और भूमिका निभाई, उन्हें सलाम। ईश्वर करे, उनका यह आचरण संक्रमण की तरह पूरे देश में फैले।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे, भोपाल, 28 जून 2018

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-06-2018) को "हम लेखनी से अपनी मशहूर हो रहे हैं" (चर्चा अंक-3016) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. कोटिशः धन्यवाद और आभार।

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