एसपी, कलेक्टरों के मिजाज और तेवर बदल दिए ‘गाँव बन्दी’ ने

किसानों को चाहिए कि वे मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान का नागरिक अभिनन्दन करें। ‘गाँव बन्दी’ आन्दोलन को असफल करने की कोशिशें करते-करते शिवराज ने आन्दोलन को सफलता और किसानों की माँगों और  आन्दोलन को जायज और वाजिब होने का प्रमाण-पत्र दे दिया है।

कुशल रणनीतिकार कहते हैं कि किसी को असफल करना हो तो उसकी उपेक्षा कर दो। लेकिन शिवराज ने किसान-आन्दोलन को सर्वोच्च महत्व दे दिया। कुछ इस तरह मानो यह उनके जीवन-मरण का सवाल हो। यही किसानों की सफलता, किसानों की जीत है और इसीलिए उन्होंने शिवराज का नागरिक अभिनन्दन करना चाहिए।

आन्दोलन को असफल करने के लिए शिवराज ने क्या-क्या नहीं किया? समूची सरकारी मशीनरी झोंक दी। रतलाम जिले को आधार बनाऊँ तो मान लीजिए कि लगभग 25 मई से सरकारी दफ्तरों में कोई काम नहीं हो रहा है। दफ्तर चाहे नायब तहसीलदार का हो या एस पी, कलेक्टर का। सब जगह ‘गाँव बन्दी’ आन्दोलन पसरा हुआ है। इसके समानान्तर सच यह है कि जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तब किसानों का ‘गाँव बन्दी’ आन्दोलन लगभग असफल ही हो गया है। इसका असर अब तो कहने को भी नजर नहीं आ रहा।

लेकिन इस आन्दोलन ने सरकारी अमले का मिजाज और तेवर बदल दिए।  जिस एस पी, कलेेक्टर से मिलने के लिए पर्ची भेज कर घण्टों उबाऊ प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, जन सुनवाई में अपना नम्बर लगाने के लिए एडीएम/एसडीएम के दफ्तर के बाहर सुबह आठ बजे से ही लाइन लग जाती थी, वह एस पी, कलेक्टर, वह एडीएम/एसडीएम गाँव-गाँव की धूल छान रहे हैं। किसानों के दरवाजे खटखटा रहे हैं। रास्ते आते-जाते किसान से आगे रहकर राम-राम, नमस्कार कर रहे हैं। थाने का पूरा अमला किसानों से इस तरह पेश आ रहा है मानो लड़कीवाले बारातियों की पूछ-परख कर रहे हों। जेठ महीने की 44/46 डिग्री गर्मी में करनी पड़ रही पदयात्रा के कारण पसीने ने  वर्दी का कलफ गला दिया है। न आवाज कड़क रही न वर्दी। 

शाम होने पर जो अफसर बंगलों का रुख करते थे वे अब सूरज ढलते गाँवों में पहुँच रहे हैं। लोगों को रोक-रोक कर पूछते हैं - ‘कोई तकलीफ तो नहीं? हो तो बेहिचक बताना।’ अमले के कुछ लोग तो साथ हैं ही, कुछ गाँववालों को इकट्ठा करते हैं। दो-दो टीमें बनाते हैं। खेल शुरु हो जाता है। कोई गाँववालों के साथ कबड्डी खेल रहा है तो कोई खो-खो। कोई रस्साकशी में जोर लगा रहा है तो कोई वॉलीबाल में हुनर दिखा रहा है। खेल खतम होने के बाद घर नहीं लौटते। कहीं मैदान में तो कहीं किसी ओटले पर तो कहीं किसी मन्दिर के चबूतरे पर चौपाल जमा लेते हैं। गाँववालों की तारीफ करते न तो रुकते हैं न ही थकते। गाँव में शान्ति बनाए रखने के लिए किसानों को मिठाई खिलाते हैं। लेकिन अपना काम नहीं भूलते। धीरे से कहते हैं - ‘देखना! कोई ऐसा काम मत कर लेना कि बाद में तकलीफ उठानी पड़ जाए।’ सुनकर गाँववालों के चेहरों बदल जाते हैं। अफसरों की आवाज में उन्हें पुलिस के डण्डों और दफ्तरी कर्मचारियों की डाँट-डपट सुनाई देने लगती है। मिठाई में जायफल का स्वाद आने लगता है। समझ जाते हैं - ‘दोस्त-खिलाड़ी के भेस में हुक्मरान आया है।’ वे सहम जाते हैं। जबानें हिलना बन्द कर देती हैं। सिर हिलने लगते हैं। चुप्पी छा जाती है। लोग, अफसरों के जाने की प्रतीक्षा करने लगते हैं। वे चले भी जाते हैं। उन्हें तो किसानों से भी ज्यादा जल्दी है।

लेकिन हुक्मरान यदि लोक-मित्र बन जाएँ तो फिर सरकार का जलवा नहीं रह पाता। इसलिए हुक्मरान अपना मूल चरित्र दिखाने का अवसर मिलते ही लपक लेते हैं। गाँवों के सारे रास्तों पर पुलिस ने नाकाबन्दी कर रखी है। बाहर से आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति का वीडियो लिया जा रहा है। आनेवाला सहम जाता है। अपना काम भूल कर दहशत में आ जाता है। हजारों लोगों से बॉण्ड भरवा लिए गए हैं। बॉण्ड में क्या लिखा है, कोई नहीं जानता। बस, यही जानता है कि पुलिस ने किसी कागज पर उससे दस्तखत कराए हैं। नींद उड़ादेने के लिए इतना ही काफी है। वह आन्दोलन भूल कर अपनी और अपने बाल-बच्चों की सुरक्षा की फिकर करने लगता है।

लेकिन जैसे ही हुक्मरान और उनके नुमाइन्दे पीठ फेरते हैं, किसान खुशियाँ प्रकट करने लगते हैं - “अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे। हमने शहर जाने से इंकार किया तो मालूम पड़ा कि किसान और किसान की ताकत क्या होती है। इनके दरवाजे जाओ तो सीधे मुँह बात नहीं करते। बात करना तो दूर, देखते भी नहीं। अब हमारे घर आकर ‘भैया-भैया’ कर रहे हैं।” केन्द्रीय कृषि मन्त्री कह रहे हैं - ‘करोड़ों किसानों में से दो-तीन हजार किसान आन्दोलन कर रहे हैं।  अखबारों में छपने के लिए ऐसा करना ही पड़ता है।’ लेकिन शिवराज सरकार का पूरा अमला केन्द्रीय कृषि मन्त्री को झूठा कह रहा है। 

6 जून 2017 को मन्दसौर जिले में पुलिस ने 6 किसानों को गोलियों से भून दिया था। उनकी पहली बरसी पर उन्हें श्रद्धांजलि देने के नाम पर काँग्रेस ने, मन्दसौर जिले के पीपल्या मण्डी के पास खोखरा में बड़ी सभा की। राहुल गाँधी उसमें पहुँचे। रतलाम-पीपल्या मण्डी का, 103 किलो मीटर की फोर लेन सड़क पर जाम लग गया। इस सभा को ऐतिहासिक बनाने के लिए काँग्रेसियों अपनी जान झोंक दी। लेकिन शिवराज सरकार उससे अधिक जी-जान से इसे असफल करने में जुटी रही। कोशिश की गई कि लोग इस सभा में न पहुँचे। सूची बना ली गई कि कितनी बसों को विशेष परमिट जारी किए गए हैं। ऐसी सावधानी और कोशिश इस अंचल में इससे पहले किसी भी पार्टी के किसी भी आयोजन में नहीं देखी गई। लगा कि ‘वन-टू-वन’ की तर्ज पर एक-एक आदमी को रोकने की कोशिश की गई। बरखेड़ा पंथ का अभिषेक पाटीदार पुलिस गोलीबारी में मारा गया था। कोई पाँच महीने पहले सरकार ने उसके भाई सन्दीप को भानपुरा में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पद पर नौकरी दी है। भानपुरा तहसील, गरोठ सब डिविजन में आती है। गरोठ के एसडीओ आर पी वर्मा ने सन्दीप को फोन पर कहा कि उसके परिजन राहुल गाँधी की सभा में न जाएँ। वर्ना उसकी नौकरी खतरे में आ जाएगी। आर पी वर्मा का कहना है कि उन्होंने किसी को  सभा में जाने से नहीं रोका। केवल पूछताछ की थी। लेकिन एक बड़ा अखबार कह रहा है कि उसके पास वर्मा की बातचीत की रेकार्डिंग है। एक मृतक के परिजन समाचार चैनल पर कहते नजर आए कि राहुल की सभा में न जाने के लिए एसडीओपी ने उन पर दबाव बनाया।

सरकार की इन कोशिशें और हरकतों ने एक ही बात साबित की - किसानों की माँगें और उनका आन्दोलन सही है। यदि किसान और उनकी बातें गलत होतीं तो शिवराज तथ्यों और आँकड़ों की बाढ़ ला देते। मृतक पूनमचन्द पाटीदार के ताऊ बालाराम पाटीदार ने कहा कि मुख्यमन्त्री मन्दसौर आए तो उन्हें बुलाया तक नहीं और जब वे खुद गए तो मिलने बुलाया नहीं। इन्होंने मिलने की कोशिश की तो धक्के मारकर  बाहर कर दिया। एक मृतक किसान के परिजनों ने कहा - ‘पैसे (एक करोड़ रुपये) तो मिल गए लेकिन न्याय अब तक नहीं मिला।’ शिवराज औढरदानी तो बन गए लेकिन न्यायी शासक नहीं बन पाए। इसीलिए वे और उनकी पूरी सरकार बदहवास है।

अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक स्तर के एक नौजवान अधिकारी ने कहा - ‘बेहतर होता कि हम चुपचाप लोगों को आने-जाने देते। चेकिंग के नाम पर उन्हें रोकने की कोशिशें हमसे करवाई गईं। लेकिन हम एक चींटी को नहीं रोक पाए। बिना सरकारी मदद के इतनी भीड़ मैंने अपने सर्विस पीरीयड में पहली बार देखी।’

नीमच से फोन पर मेरे एक किसान मित्र ने कहा - ‘हर कोई जानता है कि राहुल सत्ता में नहीं है। वे तत्काल कुछ नहीं कर सकते। केवल ढाढस बँधा सकते हैं। यह भी सब जानते हैं कि नेता जितना कहता है, उतना कभी नहीं करता। फिर भी मृतकों के परिजन यदि घण्टों पहले पहुँच कर प्रतीक्षा करते हैं तो इसका एक ही मतलब होता है कि उनकी बात किसी ने सुनी नहीं। वे केवल अपने मन का गुबार निकालना चाहते थे। इसीलिए राहुल जब सामने आए तो उनसे लिपट कर रोने लगे। इन्हें शिवराज का काँधा मिल जाता तो ये राहुल के पास क्यों जाते?’ 
 6 जून 2017 को पुलिस गोली के शिकार घनश्याम धाकड़ के पिता दुर्गालाल के 
सामने राहुल पहुँचे तो वे राहुल के गले लग कर फफक-फफक कर रो पड़े। 
(चित्र - महेश नँदवाना की फेस बुक वाल से साभार।)   

किसान असंगठित होते हैं। उस पर पार्टी लाइन के चलते बड़ी संख्या में किसान इस आन्दोलन से स्वतः दूर हो गए हैं। इसके बावजूद यह आन्दोलन यदि शिवराज सरकार की नींद उड़ाए हुए है और सरकार असहाय, लाचार दशा में है और करने के नाम पर विभाजित किसानों की लकीर को छोटी करने में पसीना बहा रही है तो इसका एक ही मतलब है - यह किसानों की जीत है। 

हमारा लोक मानस ‘उदार हृदय, विशालमना’ है। क्षमा करना उसका संस्कार और भूल जाना उसका स्वभाव है। शिवराज का बैर काँग्रेस से है, किसानों से नहीं। वे काँग्रेस का गुस्सा किसानों पर नहीं निकालें। प्रतिशोधी मुद्रा छोड़ कर ‘लोक मित्र’ बनने पर सोचें। वे घाटे में नहीं रहेंगे। अजातशत्रु हो जाएँगे।   
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दैनिक 'सुबह सवेरे', भोपाल, 07 जून  2018

1 comment:

  1. किसान तो राजनीतिक लोगो के लिए मोहरा भर है । किसान हमेशा से ठगता चला आया है । बीजेपी हो या कांग्रेस सबको बस अपने हित साधने है ।

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