‘बर्लिन से बब्बू को’ - सातवाँ पत्र
बालकवि बैरागी
नई दिल्ली से
23 सितम्बर 76
दिन के 11.00 बजे
प्रिय बब्बू,
प्रसन्न रहो।
और मैं सकुशल दिल्ली उतर गया हूँ। सारा दल उमंग, उल्लास और एक रोमांचकारी, अभिभूत भावना के साथ अपनी मातृभूमि को लौटकर जितना प्रसन्न हो सकता है, उतनी प्रसन्नता, हवाई अड्डे को हवाई जहाज के टायरों ने ज्यों ही स्पर्श किया त्यों ही, क्लिक के साथ व्यक्त कर बैठा। हम सब एक दूसरे का अभिवादन कर रहे थे और हवाई जहाज को सीढ़ियाँ लगे, उसके पहले ही दूर बालकनी में खड़े लोगों को देखने का यत्न कर रहे थे।
एयर इण्डिया : एक शानदार सेवा
विभिन्न हवाई सेवाओं को अपनी सेवा का अवसर देने के बाद मैं कह सकता हूँ कि हमारी एयर इण्डिया की सेवाएँ संसार की किसी भी सेवा से कम या कमजोर नहीं हैं। इससे पहलेवाले पत्र में, मास्को हवाई अड्डे पर जो कुछ हमारे साथ बीती, उसकी कड़ी-लड़ी में एक विचित्र-सी बात और जोड़ लो। जब “इन्टरफ्लूग” का विमान हमें लेकर मास्को हवाई अड्डे पर उतरा तो पूरे 35 मिनिट से भी अधिक समय तक न तो हवाई जहाज को सीढ़ी लग पाई और न यात्रियों के लिये बस ही आ पाई। बन्द हवाई जहाज जमीन पर खड़ा था और यात्री अपनी-अपनी भाषाओं में मास्को हवाई अड्डे की व्यवस्था को बुरी तरह कोस रहे थे। उसके बाद हम लोगों को जो कि “इन्टरफ्लूग” और “एरोफ्लोट” जैसी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई सेवाओं के मुसाफिर थे, तब भी मास्को हवाई अड्डे पर इन दोनों हवाई सेवाओं में से किसी ने भी हमें पूरे साढ़े चार घण्टे तक पानी के लिये भी नहीं पूछा। वे उनका नाम लेते थे और जब हम उनके पास जाते थे तो वे फिर हमें उधर ही ढकेल देते थे। खैर, मेरा अन्दाज है कि एयर इण्डिया ऐसी गैर जिम्मेदारी का कोई उदाहरण शायद ही कभी पेश करता हो। पालम पर हवाई जहाज पर सीढ़ी एक मिनिट में लग गई। बस तैयार थी। हम लोग कस्टम की क्लीयरन्स के लिये अहाते में पहुँचे और जो ऊपर देखा तो पाया कि मूलचन्दजी गुप्ता के परिजन और स्वजन सैकड़ों की तादाद में स्वागत करने के लिए बावले हो रहे हैं। पारदर्शी शीशे में से श्रीमती गुप्ता की आँखों के आँसू देखकर ही पहचान गया कि वे श्रीमती गुप्ता हैं। वे लोग उधर से बोले रहे थे, पर हम लोग सुन नहीं पाये। शीशा जो बीच में था!
कस्टम की क्लीयरन्स में पूरे दो घण्टे लगे। यद्यपि हमारे दल के किसी भी सदस्य के पास किसी तरह का कस्टम जैसा सामान नहीं था, तो भी भाई दिनेश गोस्वामी एक जिम्मेदार संसद सदस्य के नाते एक-एक सदस्य का सामान खुद चेक करवा रहे थे, पर उस समय हम सब लोग हैरान रह गये, जब हमने पाया कि श्री गुप्ता का सूटकेस मास्को से हवाई जहाज में लदा ही नहीं। तुम उस क्षण की कल्पना करो कि शीशे के उस पार एक व्यक्ति को लेने आये हुए सैकड़ों परिजन आतुरता के साथ देख रहे हों और वह व्यक्ति पूरे दो घण्टे तक अपने सूटकेस के लिये इधर उधर मारा-मारा फिर रहा हो और तरह-तरह के फार्म भर रहा हो। मैंने ये दो घण्टे श्री गुप्ता की सहानुभूति में इधर उधर चीखने चिल्लाने में बिताए। उस सूटकेस में गुप्ता का वह सारा सामान था, जो वे अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिए बर्लिन से खरीदकर लाये थे। मैं उस क्षण की कल्पना में मरा जा रहा था, कि जब श्री गुप्ता बाहर निकलेंगे और उनके छोटे-छोटे बच्चे “पापा हमारे लिये क्या लाय?” जैसा सवाल चुम्बनों के बीच उनसे पूछेंगे। श्री गुप्ता बिलकुल खाली हाथ मेरे साथ बाहर निकले थे। वे बदहवास भी थे, व्याकुल भी थे, व्यग्र भी थे और एक विवशतापूर्ण प्रसन्नता अपने चेहरे पर जबरदस्ती चिपकाये हुए थे।
मेरी आँखों में आँसू
इस भीड़ में दिल्ली के मेरे सैकड़ों परिचित व्यक्ति थे जो काँग्रेस और कवि सम्मेलनों के कारण मेरे निकट के मित्र हैं। वे हमें फूल मालाओं से लाद रहे थे। जै-जैकार हो रही थी। पर, श्री गुप्ता एक आहत विकलता को छिपा नहीं पा रहे थे। दल के सभी सदस्य बहुत समय पहले ही अपने अपने स्थानों को रवाना हो चुके थे। केवल श्री शर्मा और श्री सेठ, बाहर चिलचिलाती धूप में मेरा तथा गुप्ता का इन्तजार कर रहे थे। तभी भीड़ में मैंने देखा कि मनासा से श्री गुलाम हुसैन भैया, उनका पुत्र पुन्नी, उनके दामाद और धनराज लाला हार लिये हुए मेरी तरफ बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे आश्चर्य हुआ किन्तु मनासा से चाहे वे किसी भी निमित्त दिल्ली पहुँचे हों पर मेरे लिये वे अपनत्व की भावना के साथ पालम तक आये। यही सन्दर्भ मेरी आँखों में आँसू ले आया।
जब हम गये तब पन्द्रह थे, उतरे तो बारह रह गये। हमारी नेता श्रीमती फूल रेणु गुहा, श्री प्रफुल्ल गढ़ई, श्री गोपालप्रसाद ये तीन सदस्य बर्लिन से 20 तारीख को ही मास्को के लिये रवाना हो चुके थे, क्योंकि उन्हें वर्ल्ड-पीस कौंसिल के अधिवेशन में हेलसिंकी जाना था। मास्को में ये लोग हमें मिले नहीं। इनका समाचार भी हमें नहीं मिला। मैंने चाहा था कि रूस में हमारे राजदूत श्री इन्द्रकुमार गुजराल तक, हमारा मास्को हवाई अड्डे पर साढ़े चार घण्टे रुकने का समाचार पहुँच जाए, पर वह नहीं पहुँच पाया। पहुँचा भी हो तो मैं कुछ कह नहीं सकता। दूतावास से हमें मिलने के लिए मास्को में कोई नहीं आया।
सुरेन्द्र से भेंट हो गई। उसने मुझे जो कार्यक्रम दिया है, उसके अनुसार मैं अभी कोई तीन सप्ताह घर नहीं पहुँच पाऊँगा। भारत में विभिन्न स्थानों पर उसने मेरी उपस्थिति के लिए वचन दे दिए हैं और तुम जानते हो कि दिल्ली में सुरेन्द्र मेरी कमजोरी है। उसे न तो मैं टाल सकता हूँ न उसके दिए हुए वचनों को तोड़ ही सकता हूँ। मैं उसके निर्देश पर घूमता फिरता शायद 16 अक्टूबर तक पहुँच पाऊँगा। बहुत अधिक हो गया तो 12 अक्टूबर तक घर आ सकता हूँ, उसके पहले नहीं। पता नहीं घर के और मित्रों के क्या समाचार हैं।
भारत जर्मन मैत्री संघ की अध्यक्षा श्रीमती सुभद्रा जोशी आज दिल्ली में नहीं है। उनसे मिलना बहुत आवश्यक है। पर अब लगता है कि मुझे उनका धन्यवाद अदा करने के लिए नये सिरे से दिल्ली आना पड़ेगा।
मेरे ही गीत से जी.डी.आर. ने मुझे बिदाई दी
शायद तुम्हें मेरी यह बात अटपटी और उलजलूल लगेगी कि जिस समय मैं तुम्हें यह पत्र लिख रहा हूँ, उस समय रेडियो बर्लिन इन्टरनेशनल से जी. डी. आर. में लिखे मेरे ही गीत, मेरी खुद की आवाज में प्रसारित हो रहे हैं। दिन का एक बज रहा है, इस समय वहाँ बर्लिन में सुबह का 8.30 बजा होगा। जो गीत प्रसारित हो रहा है, मैं तुम्हें पहले भेज चुका हूँ। पर मेरी खुद की ये पंक्तियाँ आज मुझे खुद ही विह्वल कर रही हैं। इन पंक्तियों के कई अर्थ नए सिरे से करने का प्रयत्न कर मैं विगलित होता जा रहा हूँ। एक कम्पन, एक फुरहरी, एक रोमाँच और एक टीस मैं दूर कहीं गहरे में महसूस कर रहा हूँ। मैं खुद गा रहा हूँ। मैं खुद सुन रहा हूँ और तुम्हें लिख भी रहा हूँ -
तूने पल भर न समझा पराया मुझे
तूने मितवा से भाई बनाया मुझे
तूने ऐसे गले से लगाया मुझे
कि बिसर गया मुझसे मेरा ही नाम
प्यारे जीडीआर तुझे मेरा सलाम।
एक ऐसी प्रेमल मानसिकता में मैं डूबा हुआ हूँ कि बहुत कुछ लिखने का मन होते हुए भी कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ। कितना प्यार दिया उस देश ने? कितने मित्र दिये उस देश ने? कितनी यादें दी उस देश ने? कितने उपहार दिये उस देश ने? और सबसे ज्यादा, समाजवाद के प्रति कितना स्पष्ट दिशाबोध दिया उस महान देश ने? पता नहीं समाजवादी सिद्धान्तों के लिए मैं एक काँग्रेस कार्यकर्ता के नाते कितना कर पाऊँगा और एक कवि के नाते कितना लिख पाऊँगा? पर मैं सोचता हूँ कि यदि मैं अपने आप में भी उस देश की महान चरित्र गाथा को जी सका तो मेरा बहुत बड़ा वर्तमान कहीं न कहीं सफल माना जाएगा।
मैं समझता हूँ कि कहीं न खत्म होने वाले इस सिलसिले को पूरी भावुकता के साथ मैं यहीं खत्म कर दूँ।
भाई
बालकवि बैरागी
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पुत्र की विदेश यात्रा पर पिता का पत्र - आगे
बहुत-बहुत धन्यवाद। आप मुझ पर इतनी नजर रखते हैं और मेरी बात को प्रसारित करते हैं लेकिन मैं तो आपको समय पर धन्यवाद भी ज्ञापित नहीं कर पाता। मुझे क्षमा कर दीजिएगा और मुझ पर अपनी नजर बनाए रखिएगा। फिर से धन्यवाद।
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