बर्लिन से बब्बू को
तीसरा पत्र - दूसरा हिस्सा
आज हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) है। हमारे दल ने इस दिन को एक देहात में मनाया। ऐसे देहात में जिसकी आबादी कुल चार हजार थी। साफ सुथरा गाँव। हर घर के आसपास हजारी के गेंदा फूलों और गुलाब की वाटिकाएँ। कब्रस्तान तक फूलों से लदालद। खुशहाल और सम्पन्न किसान परिवार। बस रोक कर एक किसान मि. लुत्श के घर में हम दनादन अनायास घुस गये। उसकी पत्नी घर में नहीं थी। उसके पुत्र्ा और पुत्र्ाी का एक वर्षीय बच्चा तथा वह किसान स्वयम् था। 1960 तक यह निजी स्तर पर जमींदार था। आज उसने अपनी सभी जमीन सहकारी, फिर सामूहिक और अब विकसित खेती योजना को दे दी। उसका झोंपड़ा देखकर हम चकरा गये। मन्दसौर जिलेे में इतनी सुविधओं वाला, इतना श्री सम्पन्न और आधुनिक घर शायद ही किसी किसान का हो। वैभव और श्री का फर्क हमारे पाठक खुद कर लेंगे तो कृपा होगी।
सवाल खेती का: उत्तर सहकारिता का
खेती यहाँ चार स्तरों पर होती है - सहकारी खेती, सामूहिक खेती, विकसित खेती और निजी खेती। सरकार के पास पटवारी नाम का प्राणी इस देश में नहीं है। जिला स्तर पर जमीन का रजिस्ट्रार होता है। वही सारी जानकारी रखता है।
आज हमने विकसित खेती के एक संस्थान का निरीक्षण किया। इस संस्थान के पास केवल 9500 हेक्टर जमीन है जिसमें खेती होती है। यहाँ एक हेक्टर ढाई एकड़ का होता है। इस संस्थान का निर्माण आसपास के गाँवों की कई सहकारी समितियों ने मिलकर किया है। एक मैनेजर है और कोई 1200 कामगार। जमीन की मिल्कियत निजी है और मुनाफे का बँटवारा जमीन की पैमाइश और श्रम के आधार पर। समिति में आप सदस्य तो बन सकते हैं पर निकल नहीं सकते। इस संस्थान के पास कोई 37000 पशु हैं। मशीनों और आधुनिक रासायनिक खादों से भरपूर इसके वर्कशाप और गोदाम हैं। मक्का, घास और चारा इस मौसम की मुख्य फसल है। चारा यहाँ साल में 4 बार काटा जाता है। आज हमने 8 भीमकाय मशीनों से चारा काटते हुए देखा। इन मशीनों को महिलाएँ चला रही थीं। एक महिला से मैंने प्रश्न किये। वह इस मशीन की ड्रायव्हर थी। तीन बच्चों की माँ (इस महिला का पति भी दूसरे संस्थान में ट्रेक्टर चलाता है। एक लड़का रोस्तोक विश्व विद्यालय में पढ़ रहा है और दो लड़कियाँ। दोनों कारखानों में काम करती हैं)। इस महिला को भी पुरुषों की तरह नियमित आठ घण्टे काम करना पड़ता है। तनख्वाह मिलती है प्रति माह 750 मार्क याने भारतीय 3000 रुपयों से कुछ ज्यादह। इतनी ही पति को। अपने जीवन और अपने काम दोनों से सुखी।
उधर श्री लुत्श और इधर इस महिला से मैंने सवाल किया - ‘आपकी महत्वाकांक्षा अब क्या है?’ दोनों का एक ही उत्तर था- ‘मेरे बच्चे मुझ से अधिक सुखी रहें। बस।’
इस संस्थान में पशुओं के बीच हमें नहीं लेे जाया गया। कारण बहुत स्पष्ट था। पशुओं में इन दिनों बीमारी फैली हुई है और उनका इलाज चल रहा है। उनके कारण आप किसी स्वास्थ्य संकट में नहीं पड़ जायें। इसलिए।
इस संस्थान के पास अपनी मशीनों के सिवाय अपना बाँध भी है। अनाज और हर जिन्स की कीमत सारे देश के लिए बिलकुल एक सी। सरकार तय करती है। कहीं कम या ज्यादा नहीं। इसलिये शोषण का डर किसी को नहीं है।
सार्थकता से जुड़ा मुद्रा प्रयोग
निजी स्वामित्व पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। आप दस मकान बना सकते हैं। चाहें तो बीस भी। पर उनसे किराया नहीं कमा सकते। आप दस कारें रख सकते हैं पर उनसे टेक्सी का काम लेकर भाड़ा नहीं कमा सकते। आप चाहें जितना बैंक बेलेंस कर सकते हैं पर उससे ब्याज नहीं कमा सकते। ब्याज की बात खूब चली। इस देश में खेती और व्यापार व्यवसाय के लिये कारखानों आदि के लिये बैंक पैसा देता है। खूब देता है। आप अपनी योजना उसके गलेे उतार भर दो। ब्याज कितना लगेगा? अधिकाधिक दो प्रतिशत। जी हाँ, कुल दो प्रतिशत। जीवनस्तर देहातियों का भी उच्च है। सफाई करने वाला भी हाथ में बढ़िया घड़ी और पाँव में अच्छा जूता पहनता है।
कारखानों में कामगार अपनी-अपनी सुविधा से अपना ट्रांजिस्टर बजाते हैं। एक ही बड़े हाल में पचास कामगार काम कर रहे हैं और चालीस रेडियो अलग-अलग बज रहे हैं। पर मजाल है कि एक रेडियो की आवाज दूसरे तक पहुँच जाये। हमारे मनासा की खड़ा श्ोर गली में एक मोची भाई का रेडियो सारी गली को घनघना देता है। और जब दस-पाँच घरों में रेडियो बज उठते हैं तो सारी गली से लेकर बस स्टैण्ड तक कुहराम मच जाता है। पर यहाँ अपनी रुचि का कार्यक्रम अपने-अपने रेडियो पर एक ही हाल में खूब आराम से मजदूर सुनता भी है और काम भी करता है। ये कार्यक्रम उसकी कार्यक्षमता में वृद्धि करते हैं।
क्या देहात और क्या शहर! छोटी-छोटी बातों का भी इस देश में बड़ा ध्यान रखा जाता है। उदाहरण के लिए सड़कों पर छोटे से गड्ढे। जहाँ कहीं तुम्हें सफेद और लाल झण्डियों की झालर लगी दिखाई पड़े, समझ लो कि वहाँ सड़क पर गड्ढा है या काम चल रहा है। यदि आधा फुट का भी लम्बा या चौड़ा गड्ढा है तो भी झालर लगी है। दूर से दिखाई पड़ जाएगा कि रास्ता ठीक नहीं है। बाजारों और गलियों में न कोई पोस्टरबाजी है न दीवालों पर नारेबाजी। व्यवस्थित जगहों पर व्यवस्थित पोस्टर और नारों के होर्डिंग लगे हैं। इस डेढ़ सप्ताह में कम से कम 50 बाथरूम हम लोगों ने देखेे होंगे। किसी बाथरूम या शौचालय की दीवार पर न कोई गन्दी बात लिखी देखी न कोई फूहड़ चित्र। शौचालय, मैंने स्कूल से लेकर काउण्टी कौंसिल तक का देखा है। किसी किस्म की कुण्ठा जो नहीं है जवानों में।
तीसरा पत्र: तीसरा/अन्तिम हिस्सा
‘बर्लिन से बब्बू को’ - तीसरा पत्र: पहला हिस्सा यहाँ पढ़िए
‘बर्लिन से बब्बे को’ - तीसरा पत्र: तीसरा/अन्तिम हिस्सा यहाँ पढ़िए
‘बर्लिन से बब्बे को’ - तीसरा पत्र: तीसरा/अन्तिम हिस्सा यहाँ पढ़िए
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