बर्लिन से बब्बू को
तीसरा पत्र - तीसरा/अन्तिम हिस्सा
तीसरा पत्र - तीसरा/अन्तिम हिस्सा
क्या तुम परिवार वाले इस बात पर विश्वास करोगे कि इस साल मेरी सर्दियाँ 6.30 माह की हो गईं? 24 अगस्त को मैं घर से चला था। 26 अगस्त को मारिशस के लिए दिल्ली छूटी और 27 अगस्त को मैं वहाँ पहुँचा। तब से मैं गरम कपड़े, शाल और ओव्हर कोट पहन रहा हूँ। यह क्रम चलेगा मार्च के पहलेे सप्ताह तक। शाल तब छूटेगी। अगस्त अन्तिम सप्ताह से मार्च के प्रथम सप्ताह तक हो गये न 30 सप्ताह पूरे? सर्दी मुझ से सही नहीं जाती है और इस बार उसी से साबका खुलकर पड़ा है। आज यहाँ इन 12 दिनों में सर्वाधिक कम तापमान है। +10 डिग्री तक आ गया। कल इस पखवाड़े का सर्वाधिक तापमान था +23 डिग्री। रोस्तोक से चलेे तो पसीना निकल रहा था। आज यहाँ सर्दी जान लेे रही है। मारे सर्दियों के चमड़ी सबकी सूख गई है और शकलें अधिक भारतीय हो गई हैं। यूसाडेल नामक यह स्थान न्यूब्राण्डेनबर्ग प्रान्त का एक सुन्दर स्थल है। न्यूब्रान्डेनबर्ग शहर की आजादी कुल 60 हजार है पर इसका साँस्कृतिक भवन इतना दर्शनीय है कि सारे म. प्र. में उसके मुकाबले का कोई थियेटर नहीं है। इन्दौर और भोपाल के रवीन्द्र भवन उसके सामने बौने लगते हैं। 14 मंजिला इस इमारत की 10वीं मंजिल पर आज शाम को हमने एक एक प्याला काफी पी। प्रति प्यालेे की कीमत चुकाना पड़ी केवल 15 भारतीय रुपये। शहर से कोई 20 मील दूर बर्लिन की तरफ एक छोटी सी टेकरी पर एक मोटेल (होटल नहीं) मित्रोपा में हम लोग ठहराये गये हैं। रोस्तोक के बारनो होटल से अधिक अच्छा कमरा इस मोटेल में मुझे दिया गया है। किराया यहाँ और वहाँ बराबर है, सिंगल बेड रूम 180 भारतीय रुपये और डबल बेड रूम 360 भारतीय रुपये प्रतिदिन।
आज दोपहर को एक देहाती रेस्तराँ में हमारा भोजन था। वहाँ खाना परोसने वाली एक कन्या ने पहली बार सौन्दर्य के नाम पर हम सबको आकर्षित किया। झूठी प्लेटें उठाते हुए भी उसका सौन्दर्य अपरिमित लग रहा था। इस देश की महिलाएँ दो कारणोंसे आकर्षित नहीं कर पातीं। एक तो उनकी पिण्डलियाँ। बड़ी मोटी और भद्दी होती हैं। दूसरे उनके दाँत। गोरे चिट्टे माखनी रंग-रूप में उनके दाँत शायद शराब, सिगरेट और मांसाहार के कारण न जाने कैसे गन्दे और सँवलाये-सँवलाये से लगते हैं। मुस्कान तक तो अच्छी भली लगती है पर हँसने पर सब गड़बड़ हो जाती है। वही हाल, चाल का है। उठ कर चली कि पिण्डलियाँ बल्लियों की तरह तन जाती हैं। उस पर ऊँची एड़ी की सेण्डिलें! अरे राम राम!
फर्क पूजा और प्यार का
कल विश्व विद्यालय में मेरे एक प्रश्न ने हमारी दुभाषिनी श्रीमती इरीस क्रोबा को मुझसे नाराज कर दिया। मेरा प्रश्न था क्या इस सरस्वती मन्दिर में विद्यार्थियों को शराब सरे आम पीने दी जाती है? और, यहाँ केण्टीन में बिकती है? यह प्रश्न मैंने विश्व विद्यालय के अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क अधिकारी से किया था। श्री क्लोफर दुभाषिये का काम कर रहे थेे। मुझे सपने में भी ख्याल नहीं था कि 23 वर्षीया एक सुन्दर श्रीमती कन्या मुझमें अतिरिक्त दिलचस्पी लेे रही है। दस दिनों से यह पक्ष अँधेरा था। इरीस इस प्रश्न का बहुत-बहुत बुरा मान गई। मुझसे तुनक तक पड़ी। इरीस स्वयं पीने पिलाने में दक्ष लगती है। मैं इस मामलेे में निरा कोरा आदमी। बिलकुल अकेले में लेे जाकर उसने पूरे आहत भाव से मुझे साधिकार बुरा-भला कहा। तब मैंने कुछ पंक्तियाँ उससे कहीं -
उन ओठों और हाथों को
मैं प्यार करता हूँ
जो पीते हैं और पिलाते हैं।
पर इरीस !
ओ मेरी प्रिय इरीस !!
उन ओठों और हाथों को
जो न पीते हैं न पिलाते हैं
मैं पूजता हूँ।
पूजा और प्यार का फर्क समझने के लिये
तुम्हें आना होगा भारत
हाँ! मेरे देश।
याने की पूरब के भी और पूरब में
प्रिय को पूज्य बनाना केवल मेरा पूर्व जानता है।
अपना यह राजस रोष छोड़ो
जीवन की सम्पूर्णता के लिये
मेरे पूरब की ओर मुँह मोड़ो।
पर इरीस ने अपना रोष तब भी नहीं छोड़ा। अनमनी सी वह मुस्काती भी रही और अपना काम भी अंजाम देती रही। पर जब रोस्तोक और यूसाडेल की सफर के दौरान बस में मैं सुशील पिया के, मुन्ना, गोर्की और तेरे-मेरे तथा पिताजी के फोटो सबको दिखा रहा था तब इरीस ने मुझे अपनी शैली में जमकर निपटा दिया। उसने मेरे, मुन्ना के, गोर्की तथा सुशील पिया के एक फोटो को गहरी और घायल नजर से देखा। सुशील की खूबसूरती पर शायद उसे कुछ ईर्ष्या सी हुई, पर अविश्वस्त प्रशंसा करती हुई वह मुन्ना, गोर्की के बारे में प्रश्न करने लगी। पहिले उसने गोर्की के बारे में पूछा। मैंने कहा- मेरा छोटा बेटा है। फिर उसने मुन्ना के बारे में पूछा। मैने कहा- मेरा बड़ा बेटा है। फिर उसने सुशील के बारे में प्रश्न किया। यह इन दोनों की सगी माँ है? सबकी हँसी चल गई। तब उसने सवाल किया- मुन्ना की उम्र क्या है ? मेरा उत्तर था- 22वें साल में चल रहा है। उसने पूरी नाटकीयता के साथ मुझे घूरा। फोटो वापस देते हुए एक लम्बी साँस छोड़ी और कहा। कहा क्या सबको सुनाकर कहा - ‘तब तो आप मेरे पिता की तरह हैं। मैं 23 साल की जो हूँ।’ और खूब खिलखिलाकर हँसती रही।
हमारी नेता श्रीमती फूलरेणु गुहा से लेकर बस के ड्रायव्हर तक के ठहाके लग गये। अपने आप को संसार का तीसमारखां मानने वाले श्री बालकवि बैरागी सिर झुकाये चुपचाप अपनी सीट पर आ बैठे। अब तू ही बता यार! परदेस में मैं एक महिला को क्या उत्तर देता। भारत भी होता तो मैं क्या बोलता? बात सच तो है ही।
बब्बू! मोहे भारत बिसरत नाहिं
दिल्ली से चलते समय एकाएक मुझे खाचरोद वाले श्री रामचन्द्र नवाल दिल्ली में विद्या भैया के यहाँ मिल गये थे। नागदा की कोई एक किलो बढ़िया सेव का पैकेट दिया था उन्होंने मुझे। हम लोगों ने उसे कितनी कंजूसी से खाया है? दाने गिन-गिन कर खाये सचमुच। जब वह पैकेट खत्म हुआ तो श्री मूलचन्द्र गुप्ता के सूटकेस पर छापा मारा। दिल्ली वाले कँवरजी का मशहूर नमकीन (आलू चिप्स) का एक पैकेट निकला। उस चिप्स को गिन-गिन कर खाया। वह भी समाप्त हो गया। इन छापों से पहिले शर्माजी को विदाई में मिला पूरा एक किलो सोहन हलवा हम लोग छीन झपट कर खा चुके हैं। घर की याद इतनी आती है कि कुछ कहा नहीं जाये। जब भी दस बीस मिनिट का समय मिलता है हम लोग भारत की तरफ मुँह करके अपने-अपने परिजनों और प्रियजनों की याद करने लग जाते हैं। अपने देश से अधिक अच्छा कोई देश नहीं होता। अपने घर से अच्छा कोई घर नहीं होता। अपनी बीबी से अच्छी कोई बीबी नहीं होती और अपनी माँ से अच्छी कोई माँ नहीं होती। हालत यह है कि यदि शिष्टमण्डल का कार्यक्रम रद्द हो जाए तो भाई लोग पैदल भाग कर भारत आ जाएँ। एक-एक दिन गिन रहे हैं। केलेण्डर पर गुस्सा आता है।
कल शाम को चार बजे बर्लिन पहुँच जाएँगे हम लोग। कल याने 15 सितम्बर को पूर्वी जर्मनी के उत्तराखण्ड की यात्रा कल समाप्त हो जायेगी। अब वहीं पहुँच कर कुछ लिखने लायक हुआ तो लिखूँगा।
भाई
बालकवि बैरागी
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'रचनाकार' ने भी इस पत्र को प्रकाशित किया है। इसे यहाँ पढ़ा जा सकता है।
'रचनाकार' ने भी इस पत्र को प्रकाशित किया है। इसे यहाँ पढ़ा जा सकता है।
बहुत रोचक
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
ReplyDeleteअनेक रचनाएं पढ़ी...
पर आप की रचना पसंद आयी...
हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
इस लिये आप की रचना...
दिनांक 10/07/2018
को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की गयी है...
इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।
पढ़ने का आनंद सिर्फ महसूस कर मज़ा आ रहा है।
ReplyDelete"फर्क पूजा और प्यार का" तथा "मोहे भारत बिसरत न ही" में हमे हमारी संस्कृति और संस्कारों के दर्शन होते हैं जो हमें हमारी मिट्टी से जोड़कर रखते हैं।आपने इन अनमोल पत्रों से रूबरू होने का अवसर दिया,आपका आभार।
ReplyDeleteआदरणीय सर, मैं आपकी हर पोस्ट पढ़ती हूँ। कमेंट क्या करूँ,बस यही समझ में नहीं आता। इन पत्रों को मैं शुरूआत से पढ़ती आ रही हूँ। साझा करने हेतु सादर आभार।
ReplyDeleteसाहित्य की अनमोल थाती है पत्र लेखन और बहुत ही भावनात्मकता और खूबसूरती से इस पत्र को विस्तार दिया गया है | पारदशी लेखन !!!!!!! सादर
ReplyDeleteकोई टिप्पणी इस पत्र के आसपास नही पहुंच सकती ।
ReplyDeleteअमूल्य अविस्मरणीय!
शब्दों मे आस्था की गहराई पढने वाले को सुकून और नये मूल्य प्रेसित करती
नमन ।