रातें, औरतेंं, कारें, मशीनें और कविता



बर्लिन से बब्‍बू को
दूसरा पत्र - पाँचवाँ/अन्तिम हिस्सा


इतने बड़े व्यस्त देश में आखिर निमाण कार्य कब होते हैं? क्या ये रात-दिन होते हैं? नहीं। सड़कें और भवन निर्माण तथा शहर, सड़कों, गलियों और चौराहों की सफाई के सारे काम रात में होते हैं। दिन में कोई खट-खट नहीं। सड़कों पर दवा का छिड़काव नियमित होता है पर साँझ ढले। रात नौ बजे के बाद किसी को टेलीफोन करना भी बुरा माना जाता है। नाईट क्लब जरूर हैं पर इने-गिने। कोई विशेष नाईट लाईफ नहीं है। सप्ताह में शनिवार, रविवार की छुट्टी  होती है पर महीने में प्रत्येक व्यक्ति को 192 घण्टे काम करना ही होता है। इससे कम की गुंजाइश नहीं है। मजदूर, किसान और हर कामगार के लिये ओव्हर टाईम की व्यवस्था है पर लालच में उसको जान नहीं देने दी जाती है। राजनीतिज्ञ हमारी तरह चौबीसों घण्टे भाइयों! बहनों! नहीं करते फिरते।

सोमवार से शुक्रवार तक सप्ताह के पाँचों दिन यदि सड़कों पर देखो तो कुल दो चीजें दिखाई देंगी। कारें-कारें-कारें और फिर औरतें-औरतें-औरतें। इसका अर्थ यह नहीं है कि और कुछ दिखाई नहीं देता, पर पहिले आपको ये दो चीजें देखनी होंगी। अन्य बाद में।

खेती का सारा आधार या तो सहकारी खेती है या फिर सामूहिक खेती। समूची खेती मशीनों से होती हैं। कहीं कहीं घोड़ों से भी  होती दिखाई पड़ी। खेती की कोई मेड़ नहीं। एक खेत शुरु हुआ तो मीलों तक चला गया। फिर सौ-पचास एकड़ का जंगल आ गया। फिर खेत शुरु हो गया। उत्तरी जर्मनी में कोई पहाड़ है ही नहीं। उधर दक्षिण जी.डी. आर. में पहाड़ है पर उत्तरी जी.डी. आर. मैदानों, खेतों, छोटे टीलों और छोटे जंगलों का इलाका है। जंगल घने हैं पर बीहड़ नहीं। पेड़ों में चीड़, देवदारु मुख्य। सारे देश में लकड़ी का काम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का मिलेगा।

कारखानों में मशीन, मनुष्य की गुलाम है। मनुष्य मशीन का दास नहीं। निजी स्वामित्व समाप्त सा हो गया है। मशीन यहाँ मनुष्य की सहायता करती है। भारत में कितने ही कामों को मैं मशीन से हुआ मानता था पर यहाँ देखा कि यह सब काम मनुष्य हाथों से कर रहा है। यदि मशीनीकरण में मानव श्रम की गुंजाईश नहीं रखी गई तो मशीन मनुष्य को खा जायेगी। मार्क्स और गाँधी शायद इस बिन्दु पर एक हैं।

और उलरिच ने कविता पढ़ी
यहाँ के कवियों-लेखकों-नाटककारों का भी देश व्यापी संघ बना हुआ है और वे भी करीब-करीब ट्रेड यूनियनी तरीकों से काम करते हैं। रोस्तोक के एक 36 वर्षीय युवा कवि श्री उलरिच (Ulrich) से भोजन पर मेरी भेंट करवाई गई। कोई दो घण्टे हमारी कविताबाजी वहीं भोजन के समय चलती रही। मैंने कविता सुनाई, मिट्टी, रक्त, पसीने, श्रम, संघर्ष और भाईचारे की। जब उससे कहा गया तो उसने कविता पढ़ी। विचित्र लगी सबको। शीर्षक था ‘गलियारे में।’ अनुवाद मैंने किया। कविता इस तरह बही-

फ्लेट तुम्हारे पास भी है फ्लेट मेरे पास भी
एकान्त तुम्हारे पास भी है, एकान्त मेरे पास भी
पर ओ! मेरी प्रेमिका!
जो रोमाँच
इस गलियारे में लिये गये
आलिंगन, चुम्बन देते हैं
वह कमरों के एकान्त में कहाँ?
कमरों में हमें हाथ धोना पड़ते हैं
गलियारों में नहीं
कमरों के कसाव ढीले पड़ जाते हैं
गलियारे के सुदृढ़।
आओ न गलियारे में
कुछ करें
एक दूसरे की बाहों और आँखों में
डूब मरें।
आओ न गलियारे में
कुछ करें।।
ओ! मेरी प्रेमिका !
आओ गलियारे में।।

जापानी सिरेमिक्स की प्रदर्शनी इस देश की रोस्तोक आर्ट गेलरी में देखने के बाद ऊपर वाली कविता एक समाजवादी साम्यवादी- प्रगतिशील से सुनकर मुझे बिलकुल अनपेक्षित नहीं लगा। हाँ, दूसरे श्रोताओं को अवश्य आश्चर्य हुआ।

बर्लिन की मेरी 15-9 से 22-9 वाली यात्रा में मैं इस देश की महान् कवयत्री श्रीमती अन्ना सेगर से मिलने की जिद किये हुए हूँ। कोई 80 वर्षीया इस वन्दनीया नारी को मैं प्रणाम करना चाहता हूंँ। मुझे विश्वास है कि मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हो जाएगा।

बड़ा मन है हम सबका इस शेष यात्रा में दक्षिण का प्रसिद्ध शहर लिपजिग देखने का। लिपजिग का विश्व मेला अभी-अभी समाप्त होने को है। हमारे कार्यक्रम में दक्षिण का कोई भाग सम्मिलित है। हम लोग अपने-अपने स्तर पर प्रयत्नशील हैं पर समस्या वही है- होटलों की। कोई बिस्तर वहाँ खाली नहीं मिल रहा है हमारे मेजबानों को।

आठ दिनों के बाद आज ज्ञात हो पाया है कि हम शाकाहारियों को नियमित तौर पर मशरूम भी खिलाया जाता रहा है। क्या होता है यह मशरूम? जब पल्ले पड़ा तो माथा ठोक लिया मैंने। रोज जो सब्जी हम यहाँ मशरूम की खा रहे हैं वह होता है कुकुरमुत्ता”- हमारे यहाँ ‘कुत्ते की छतरी।’ प्याज का दर्शन इस देश में अभी तक नहीं हो पाया। कहते हैं कि इसी साल इस देश ने भारत से कोई दो लाख रुपयों का प्याज लिया था। भगवान जाने उसे कौन खा गया?
भाई 

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