‘बर्लिन से बब्बू को’ - चौथा पत्र: चौथा हिस्सा
आज दिन में हम लोग खरीददारी के लिये बाजार में गए। खरीददारी क्या करनी थी, एक रस्म अदाई मात्र थी। जो कुछ थोड़े पैसे हमारी जेबों में थे, उनसे क्या लिया जा सकता था? कुछ भी तो नहीं। पर टी. वी. टॉवर के पास बना हुआ बर्लिन का मुख्य बाजार “सेन्ट्रम” अपने आप में एक विशालतम बाजार है। मेरा ऐसा अनुमान है कि इस बाजार में प्रतिदिन नहीं नहीं तो भी एक या डेढ़ करोड़ रुपयों का सौदा बिकता होता। अलग-अलग मंजिलों पर चित्रों द्वारा उन सभी चीजों के संकेत कर दिये गये हैं जो कि आप वहाँ खरीद सकते हैं। काउण्टरों पर सारा काम लड़कियाँ देखती हैं। इस बाजार में एक लड़की के व्यवहार ने हमें निराश किया। जब मैं अपने मित्रों के लिये बाल पेन खरीदने के लिये क्यू में काउण्टर पर पहुँचा तो उस लड़की ने न तो उस क्यू की परवाह की न उस देश की परम्परा की ही। उल्टे, वह लोगों से मुँहजोरी करती रही। हम लोग कुछ नहीं बोले। इस देश में हमारे लिये नया अनुभव था।
रेडियो बर्लिन इन्टरनेशनल ने मुझे कोई चालीस मिनट के लिये रेकार्ड किया। 12 मिनिट कविताएँ और 28 मिनिट भेंटवार्ता। कविताएँ वे लोग 23 सितम्बर को प्रसारित करेंगे। इस सारे रेकार्डिंग का जो भी पैसा मुझे मिलने वाला था, वह मैंने हमारे शिष्ट मण्डल की तरफ से वहाँ के इण्डिया क्लब को विनम्र भेंट के रूप में अर्पित कर दिया है। मुझे नहीं पता कि यह राशि कितनी होगी। पर इण्डिया क्लब के सदस्य इस घोषणा से चकित भी थे और हर्षित भी। कोई चालीस परिवार यहाँ भारत के हैं। वे यहाँ विभिन्न स्तरों पर अपने काम करते हैं। रेडियो बर्लिन इन्टरनेशनल में पटना की कुमारी पुष्पा सिन्हा काम करती हैं। अच्छी गायिका हैं। कहती थी कि उन्होंने मेरे कई गीत यहँं-वहाँ गाये हैं। ये सब लोग यहाँ इण्डिया क्लब के सदस्य हैं और हर महीने नियमित तौर पर मिलते रहते हैं। इण्डिया क्लब के समारोह में मेरी भेंट मेरे मित्र, संसद सदस्य श्री शशिभूषण वाजपेयी के पुत्र प्रशान्त से हुई। प्रशान्त मेरा परिचित है और जी. डी.आर. में फिल्म का कैमरामैन बनने का प्रशिक्षण ले रहा है।
भारतीय फिल्में याने सत्यजित राय
फिल्म की बात चलने पर तुम्हें यह अविश्वसनीय लगेगा कि भारत के श्री सत्यजित राय को छोड़कर इस देश के लोग हमारी किसी भी फिल्मी हस्ती को नहीं पहचानते। हमारी फिल्में वहाँ चलती भी नहीं हैं। इन दिनों हमारे होटल के पास ही यहाँ के प्रसिद्ध निर्देशक श्री इंगमार बर्गमेन की एक फिल्म चल रही है, पर हम लोग उसे नहीं देख पाये। मेरा और दिनेश भाई का बड़ा मन था इस फिल्म को देखने का।
कल सुबह हमें साढ़े ग्यारह बजे यह होटल छोड़ देना होगा। मैं अपनी एक इच्छा यहाँ अपूर्ण ही छोड़कर जा रहा हूँ। मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं जी. डी. आर. की महान कवयत्री श्रीमती अन्ना सेगर से मिलूँ पर मैं नहीं मिल पाया। दूसरी इच्छा हम सबकी थी दक्षिण में लिपजिग जाने की, पर वह भी अपूर्ण ही रह गई। लिपजिग का विशाल मेला अभी समाप्त हुआ है और दक्षिणी प्रान्तों के सारे होटल भरे पड़े हैं। ठहरने का स्थान नहीं है अन्यथा शायद हम लोग उधर ले जाये जाते।
समर्पित समाजवादी वे लोग
मैं बहुत सोच समझकर एक वाक्य लिखना चाहता हूँ। इस वाक्य को तू कम से कम दस बार पढ़। शायद दस बार पढ़ने पर भी यह वाक्य तेरी समझ में नहीं आएगा। क्या तू, मैं या और कोई तेरा-मेरा साथी अपने दिल पर हाथ रखकर ऐसा कह सकता है कि हम सबसे पहले कांग्रेसमेन हैं, बाद में भारतीय? शायद हम नहीं कह सकेंगे। यदि हम ऐसा कहेंगे तो हमें देशद्रोही माना जाएगा। पर यहाँ एक संगोष्ठी में जी. डी. आर. की विदेशी नीति के प्रबल स्तम्भ एक महानुभाव ने जब पहला ही वाक्य यह बोला कि हम सबसे पहले सोशलिस्ट हैं, बाद में जर्मन, तो सारे कमरे में सन्नाटा खिंच गया। वे सज्जन निरन्तर एक घण्टे तक जी. डी. आर. की विदेशी नीति पर धारा प्रवाह अंग्रेजी में बोलते रहे और जब एक घण्टा पूरा हो गया, तो उन्होंने कार्यक्रम के अनुसार हमसे कहा अब आप प्रश्न करने के लिये स्वतन्त्र हैं। इतना सुलझा हुआ वक्तव्य कमरे में तैर चुका था कि केवल हमारे सहयात्री श्री के. एन. सेठ ने मात्र दो प्रश्न किये और कार्यक्रम समाप्त हो गया।
जिस देश के नागरिकों और नीति निर्धारकों का मस्तिष्क इतना साफ, सुथरा, नपा-तुला और सुस्पष्ट हो, उस देश पर प्रश्न बहुत कठिनाई से हो पाते हैं। समाजवाद के प्रति ये लोग कितने समर्पित हैं और अपने लक्ष्य के प्रति कितने स्पष्ट हैं, इस बात का आभास मात्र उसी वाक्य से हो जाता है कि हम सबसे पहले सोशलिस्ट हैं, बाद में जर्मन। मैं नहीं कह सकता हूँ कि भारत में हम लोग इतना स्पष्ट चिन्तन कभी काँग्रेस की राजनीति में ला भी पायेंगे या नहीं।
संगोष्ठियों का चरित्र प्रायः सभी दूर एक सा ही रहता है। पहले परिचय, फिर प्रवक्ता का वक्तव्य और बाद में प्रश्न-उत्तर। दो घण्टे तक चलने वाला यह कार्यक्रम एक घण्टे तक प्रवक्ता के जिम्मे होता था और शेष एक घण्टे में सवाल जवाब होते थे। देखने को यह समय दो घण्टे का दिखाई पड़ता है, पर काम उसमें एक ही घण्टे का होता था। क्योंकि सारा काम दुभाषिये की मदद से होता था, इसलिये हर संगोष्ठी का आधा समय रूपान्तर में बीत जाता था।
दिनचर्या के बारे में मैं तुझे लिख चुका हूँ। पर इस देश में नाश्ता के लिये एक घण्टा, लंच के लिये दो घण्टे, शाम की चाय के लिये फिर एक घण्टा और डिनर के लिये फिर दो घण्टे। इस तरह हमारे छः घन्टे तो खाने-पीने में ही निकल जाते थे। लेकिन बचा हुआ समय जो कि कोई आठ या नौ घण्टे का होता था, इतनी व्यस्तता में बीतता था कि शरीर थककर चूर हो जाता था।
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चौथा पत्र: पाँचवाँ हिस्सा निरन्तर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-07-2018) को "सहमे हुए कपोत" (चर्चा अंक-3032) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'